सामाजिक प्रगति: सहायक दशायें और कसौटियाँ! Read this article in Hindi to learn about the benefits and challenges of social progress.

सामाजिक प्रगति में सहायक दशायें (Benefits of Social Progress):

सामाजिक प्रगति में सहायक दशायें भी सभी देश काल में एक सी नहीं हो सकतीं । इसके अलावा प्रगति के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लिये सहायक दशायें भी भिन्न-भिन्न होंगी । विभिन्न देशों में प्रगति के स्तर के अनुसार उनकी प्रगति में सहायक अवस्थायें भी बदलती रहती हैं ।

उदाहरण के लिये भारतवर्ष में वर्तमान अवस्था में जनता के लिये शिक्षा आजीविका के साधन, खाद्य सामग्री आदि का प्रबन्ध प्रगति में सहायक दशायें है । ये चीजें प्रत्येक समाज के लिये आवश्यक हैं परन्तु जहाँ ये चीजें पहले से उपलब्ध हों वहाँ प्रगति इन क्षेत्रों के अलावा अन्य क्षेत्रों में होगी ।

अतः उसके लिये भिन्न दशाओं की आवश्यकता होगी । उदाहरण के लिये अमरीका में मानसिक और यौन सम्बन्धी व्याधियों का दूर होना प्रगति की आवश्यक दशा है सांस्कृतिक विकास के कार्यक्रम उस देश की प्रगति में सहायक दशा हो सकती है जहाँ लोगों को पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो । जिस देश में लोगों को खाने को भी न हो वहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम केवल समय और शक्ति बर्बाद करेंगे । इस प्रकार सामाजिक प्रगति में सहायक दशाओं को सब देश काल के लिये निश्चित नहीं किया जा सकता ।

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इस सापेक्ष रूप को सामने रखते हुये कुछ मुख्य सामान्य दशायें अग्रलिखित हो सकती हैं:

(i) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य:

स्वस्थ मन और शरीर किसी भी प्रकार की प्रगति की पहली शर्त है । इसी से भावी पीढ़ी भी स्वस्थ होगी और देश का भाविष्य उज्ज्वल बनेगा ।

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(ii) भौतिक वस्तुओं का संचय:

स्वास्थ्य के साथ ही गरीबी और अभाव से मुक्ति मिलना परमावश्यक है । गरीबी और भुखमरी में स्वास्थ्य भी क्या ठीक रहेगा ? अतः जीवन की आवश्यकता की चीजों का संचय प्रगति की आवश्यक दशा है ।

(iii) सार्वभौम शिक्षा:

पर्याप्त साधनों के साथ ही सार्वभौम शिक्षा भी प्रगति में सहायक दशा है । इसके बिना ज्ञान विज्ञान की प्रगति नहीं हो सकती ।

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(iv) सामाजिक सुरक्षा:

प्रगति में सहायक एक अन्य महत्वपूर्ण दशा, रोग, आपत्ति, वृद्धावस्था तथा बेकारी आदि के बीमों की व्यवस्था है ।

(v) स्वतन्त्रता और समानता:

स्वतन्त्रता और समानता के बिना लोग प्रगति की दिशा में सफलतापूर्वक काम नहीं कर सकते । ये प्रगति में बड़ी सहायक दशाएँ है ।

(vi) प्रगति की सम्भावना:

लोगों को प्रगति की सम्भावना में विश्वास होना चाहिये और किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये । जब प्रगति की सम्भावना ही नहीं होगी तो प्रगति के लिये प्रेरणा कहां से मिलेगी? परन्तु दूसरी ओर प्रगति की सम्भावना अनिवार्य भी न मालूम पड़े अन्यथा लोग उसके लिये प्रयत्न करना बन्द कर देंगे ।

(vii) न्यूनतम बाधायें:

मनुष्यों के आने-जाने, व्यवहार तथा जीवन में आगे बढ़ने के रास्ते में बाधाओं का कम से कम होना प्रगति में सहायक दशा है । उनको कार्य करने की अधिक से अधिक स्वतन्त्रता होनी चाहिये । कहना न होगा कि प्रगति में सहायक दशाओं का उपरोक्त वर्णन संक्षिप्त और अपूर्ण है । देशकाल के अनुसार इसमें बहुत सी बातें बढ़ाई जा सकती है । इसमें केवल मौलिक दशायें बतलाई गई है जो प्रगति के लिये अनिवार्य हैं । आगे प्रगति की कसौटियों के विचार से उसकी दशायें और भी स्पष्ट होंगी ।

सामाजिक प्रगति की कसौटियाँ (Challenges of Social Progress):

प्रगति की दशाओं के समान प्रगति की कसैटियों का भी वर्णन कठिन है और देश काल की परिस्थितियों में सापेक्ष है । प्रगति की कसौटियाँ सामाजिक मूल्य हैं और सामाजिक शून्य देश काल के अनुसार बदलते रहते हैं । अतः प्रगति की सर्वमान्य कसौटी निश्चित करना कठिन है ।

फिर भी मोटे तौर से इसकी अग्रलिखित कसौटियां बतलाई जा सकती हैं:

(a) स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन:

ए. जे. टॉड ने लिखा है कि एक डाक्टर के मतानुसार ”जीवन की औसत लम्बाई ही केवल एक मात्र और निश्चित कसौटी है कि दुनिया बेहतर हो रही है ।” परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि अधिक लम्बा जीवन अधिक सुखी और अच्छा भी हो, अतः यह कसौटी अपूर्ण है ।

(b) धन सम्पत्ति:

कुछ विद्वानों के अनुसार धन सम्पत्ति अथवा आर्थिक उन्नति प्रगति की कसौटी है । परन्तु स्वास्थ्य के अभाव में धन का क्या लाभ ? भारत जैसे धर्म-प्रधान देश में धर्म अथवा नैतिकता को सदैव धन से ऊपर माना गया है ।

(c) जनसंख्या:

कुछ लोगों के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि प्रगति का चिन्ह है । परन्तु यदि ऐसा है तो भारत जोर-शोर से परिवार नियोजन द्वारा जनसंख्या की वृद्धि को रोकने में क्यों लगा है ? यदि जनसंख्या ही कसौटी हो तो इंग्लैण्ड और अमरीका तथा रूस नहीं बल्कि चीन और भारत ही संसार में सबसे अधिक प्रगतिशील देश माने जाने चाहियें ।

(d) नैतिक आचार:

महात्मा गांधी जैसे कुछ विचारकों के अनुसार नैतिक आचरण ही प्रगति की कसौटी है । यह मत सामान्य रूप से ठीक है परन्तु इसमें कठिनाई यही है कि नैतिक आचार क्या है, यही निश्चित नहीं है ।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि प्रगति की कोई एक कसौटी नहीं बनाई जा सकती क्योंकि जीवन बहुरंगी है । किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले इस सम्बन्ध में कुछ मुख्य मतों पर दृष्टि डालना उपयुक्त होगा ।

कुछ मुख्य मत निम्नलिखित है:

(A) बोगार्डस का मत:

बोगार्डस के अनुसार सामाजिक प्रगति के निम्नलिखित 14 आधार होते है, जिनको देखकर यह निश्चित किया जा सकता है कि प्रगति हो रही है अथवा नहीं:

(1) प्राकृतिक सम्पत्ति का सार्वजनिक हित के लिये उपयोग ।

(2) शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ व्यक्तियों की वृद्धि ।

(3) स्वास्थ्यप्रद पर्यावरण में वृद्धि ।

(4) उपयोगी मनोरंजन में वृद्धि ।

(5) संगलित परिवारों में वृद्धि ।

(6) अधिकाधिक लोगों को रचनात्मक कार्य के लिये अवसर ।

(7) उद्योगों और व्यापारों के जनतन्त्रीयकरण की वृद्धि ।

(8) दुर्घटनाओं, बीमारियों, मृत्यु, बेकारी आदि के विरुद्ध सामाजिक बीमे की वृद्धि ।

(9) अधिक से अधिक लोगों के रहन-सहन के स्तर में वृद्धि ।

(10) सरकार के साथ सहयोग में अधिक से अधिक वृद्धि ।

(11) कला का अधिक से अधिक प्रसार ।

(12) मानव प्रकृति के धार्मिक और आध्यात्मिक पहलुओं का विशेष विकास ।

(13) व्यावसायिक, अव्यावसायिक और कल्याणकारी शिक्षा का प्रसार

(14) संश्लिष्ट अथवा सहकारी जीवन में वृद्धि ।

सामाजिक प्रगति के इन आधारों में भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक सभी तरह के मूल्यों को स्थान देने का प्रयास किया गया है । अतः काम चलाऊ रूप से प्रगति की इन कसौटियों को माना जा सकता है ।

(B) लम्ले का मत:

लम्ले ने सामाजिक प्रगति के निम्नलिखित आठ आधार माने हैं । इन आधारों को उसने मानव प्रगति की दशायें कहा है अर्थात् इन दशाओं में किसी समाज में गति को प्रगति कहा जा सकता है ।

ये आठ दशायें निम्नलिखित है:

(1) प्रगति की पहली दशा यह है कि लोगों को यह विश्वास हो कि संघर्ष से वांख्ति फल होगा । इससे वे परिवर्तन की चेष्टा करेंगे । इसके न होने पर परिवर्तन की सम्भावना और इसलिये प्रगति की संभावना कम रहती है ।

(2) प्रगति की दूसरी दशा में लोगों का यह विश्वास है कि प्रगति अनिवार्य नहीं है अर्थात् वह स्वयं नहीं होती । ऐसा विश्वास होने पर लोग प्रगति के लिये चेष्टा करेंगे और इसके न होने पर वे हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहेंगे ।

(3) प्रगति की तीसरी दशा लोगों का यह विश्वास है कि प्रगति सम्भव है । इस विश्वास से वे प्रगति के लिये कोशिश करेंगे और ऐसा न होने पर वे भाग्यवादी बन जायेंगे ।

(4) प्रगति की चौथी दशा यह है कि मनुष्य को मनुष्येतर शक्तियों का भय न हो । इसके होने पर वे बहुत से परिवर्तन करते हुए डरेंगे जिससे प्रगति में बाधा पड़ेगी । भय न होने पर वे निशंक होकर नये-नये प्रयोग और आविष्कार करेंगे ।

(5) प्रगति की पाँचवीं दशा भौतिक पदार्थों का पर्याप्त मात्रा में संग्रह है । निर्धनता बढ़ने को अवनति ही कहा जायेगा । भौतिक पदार्थों के संग्रह के साथ प्रगति के लिये उसका अधिक से अधिक व्यक्तियों में वितरण भी आवश्यक है ।

(6) प्रगति की छठी दशा शिक्षा का सार्वभौम रूप से प्रसार है जिससे कि अधिक से अधिक लोग उसका लाभ उठा सकें ।

(7) प्रगति की सातवीं दशा आनुवंशिक रूप से दोषपूर्ण व्यक्तियों की संख्या में बराबर कमी होना है । इस कमी से समाज में शक्ति और सम्पत्ति की भारी बचत होगी जिसको रचनात्मक कार्यों में उपयोग किया जा सकेगा ।

(8) प्रगति की आठवीं दशा व्यक्ति को दुनिया में कहीं भी घूमने फिरने की स्वतन्त्रता है । उससे भिन्न-भिन्न समाजों में मेल-जोल बढ़ेगा तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को एक दूसरे के सम्पर्क में आने का अवसर मिलेगा ।

प्रगति की उपरोक्त आते दशायें प्रगति की कसौटियां न होकर वे परिस्थितियां हैं जिनमें कोई समाज प्रगति कर सकता है । परन्तु इन आठों परिस्थितियों में सामाजिक प्रगति के लिये आवश्यक सभी परिस्थितियाँ नहीं आतीं ।

इनके अलावा और बहुत सी परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती है जो सामाजिक प्रगति के लिये आवश्यक हों और इन आठों दशाओं के रहने पर भी यह आवश्यक नहीं कि प्रगति अवश्य है ।

(C) हार्ट का मत:

हारनेल हार्ट ने सामाजिक प्रगति के निम्नलिखित तीन आधार माने है:

(1) आयु का अधिक होना ।

(2) मानसिक स्वास्थ्य ।

(3) अवकाश का अधिक समय ।

सामाजिक प्रगति के लिये ये तीन आधार तो आवश्यक है ही परन्तु इनके अलावा और कितने ही ऐसे आधार हैं जो सामाजिक प्रगति के लिये आवश्यक है । अत: हार्ट का मत एकांगी और अपूर्ण है ।

(D) डेवाइन का मत:

ई. टी. डेवाइन ने सामाजिक प्रगति की निम्नलिखित कसौटियां मानी हैं:

(1) प्राकृतिक साधनों का संरक्षण और कुछ थोड़े से चतुर व्यक्तियों के लिये नहीं बल्कि सभी व्यक्तियों के लाभ के लिये उनका अपेक्षाकृत अधिक उपयोग ।

(2) अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, मानसिक और शारीरिक आनुवंशिकता दुर्बल मस्तिष्क या शराबी माता पिता से उत्पन्न होने वाले नष्ट धर्मी सन्तानों की संख्या में अपेक्षाकृत कमी ।

(3) स्वास्थ्य के लिये अधिक अनुकूल परिस्थिति और हानिप्रद मकानों सफाई की असन्तोषजनक व्यवस्था तथा संक्रामक रोगों का अभाव ।

(4) स्वास्थ्यप्रद मनोरंजन में वृद्धि और हानिकारक मनोरंजन में कमी तथा नागरिक जीवन को थकाने वाली गति में कमी ।

(5) स्वास्थ्य और सम्पन्न परिवारों और शिक्षित बालकों की संख्या में वृद्धि और माता पिता द्वारा तिरस्कृत बच्चों की संख्या में कमी तथा उद्योग में बालकों के साथ होने वाले अत्याचार में कमी ।

(6) अपेक्षाकृत अधिक व्यक्तियों के लिये रचनात्मक कार्यों के अवसर, ऐसे व्यक्तियों की संख्या में कमी जो कि अपने काम को ईमानदारी के साथ करते हैं और कमजोरी नहीं रखते तथा ऐसे व्यक्तियों की संख्या में कमी जो अपने जीवन के मध्य काल में बेकार हो जाते है ।

(7) उद्योग और व्यापार का अधिक जनतन्त्रीयकरण । इसमें उद्योग और व्यापार में नियन्त्रण में मजदूर, पूंजीपति, जनता सभी का महत्व हो और ऐसे मजदूर कारीगर तथा मालिकों की संख्या में वृद्धि हो जो दूसरों की भलाई और तब अपनी भलाई के लिये काम करें ।

(8) दुर्घटनाओं रोगों बुढ़ापा मृत्यु और बेकारी के सामाजिक बीमे में वृद्धि ।

(9) अपेक्षाकृत अधिक व्यक्तियों के जीवन स्तर में वृद्धि जिसमें पौष्टिक भोजन, ताजगी लाने वाले मनोरंजन और रचनात्मक कार्यों के अवसर शामिल हैं ।

(10) इस बात पर अपेक्षाकृत कम जोर दिया जाता है कि मैं सरकार से क्या प्राप्त कर सकता हूँ बल्कि इस बात पर अधिक जोर दिया जाना चाहिये कि मैं सरकार के लिये क्या कर सकता हूँ । अच्छे संगीत, चित्रकला, काव्य, मूर्तिकला तथा अन्य कलाओं में अधिक रुचि ।

(11) व्यावसायिक अव्यवसायिक और जनकल्याण सम्बन्धी शिक्षा का प्रसार ।

(12) अपेक्षाकृत अधिक व्यक्तियों के आध्यात्मिक और धार्मिक पहलुओं का अपेक्षाकृत अधिक विकास ।

इस प्रकार सामाजिक प्रगति एक सापेक्ष परिवर्तन है । यदि किसी वांछित लक्ष्य की ओर परिवर्तन पहले की अपेक्षाकृत अधिक है तो उसको प्रगति कहा जायेगा । स्पष्ट है कि यह प्रगति कभी भी खत्म नहीं होती । सामाजिक प्रगति कोई गन्तव्य स्थान नहीं है जहां पहुँचने के बाद कुछ अन्य करना शेष रह न जाय ।

वास्तव में वह स्वयं यात्रा है । वह अभीष्ट लक्ष्यों की ओर लगातार बढ़ते जाना है । इस यात्रा में अभीष्ट लक्ष्यों की ओर यह परिवर्तन की गति ही प्रगति है । इस प्रकार किसी समाज ने प्रगति की है या नहीं यह उसकी वर्तमान अवस्था की भूतकालीन अवस्था से तुलना करने से मालूम हो सकता है । लक्ष्य की ओर कितना आगे बड़े है यह एक अलग बात है परन्तु यदि उस दिशा में कुछ भी परिवर्तन हुआ है तो सामाजिक प्रगति अवश्य है ।

सामाजिक प्रगति की कसौटियों के विषय में उपरोक्त मतों से उसके विभिन्न पहलुओं का आभास होता है समाज सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था है । ये सामाजिक सम्बन्ध केवल शारीरिक न होकर मानसिक और आध्यात्मिक भी होते है । ये सामाजिक सम्बन्ध शून्य में नहीं होते । इन पर राजनैतिक, आर्थिक तथा अन्य परिस्थितियों का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य पड़ता है । अतः सामाजिक प्रगति में इन सभी दिशाओं में प्रगति आवश्यक है । यह एक सर्वागीण विचार है ।

इसमें जैविक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी मूल्यों का समुचित स्थान होना चाहिये । परन्तु फिर भी सामाजिक प्रगति की कसौटियों को पूरी तरह से निश्चित नहीं किया जा सकता क्योंकि जैसे-जैसे मनुष्य मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित होता है उसको प्रगति के विचार में और भी अंर्तदृष्टि मिलती रहती है । स्पष्ट है कि सामाजिक प्रगति का प्रत्यय एक विकासमान प्रत्यय है ।

फिर सामाजिक प्रगति का निश्चय भी बड़ा कठिन है । किसी विशेष समाज ने प्रगति की है अथवा नहीं या मानव समाज पहले से प्रगति की ओर जा रहा है या अवनति की और ? इस प्रश्न का पूरी तरह उत्तर देना बड़ा कठिन है क्योंकि सामाजिक प्रगति का निश्चय करने के लिये समाज के सभी क्षेत्रों के विकास का चित्र उपस्थित करना पड़ेगा ।

अव्वल तो पूरे समाज का चित्र उपस्थित ही नहीं किया जा सकता और यदि किया भी जाय तो उसे देखने से यह मालूम पड़ेगा कि परिवर्तन सब कहीं एक सा नहीं है । सामाजिक जीवन के किसी पहलू में वांछित परिवर्तन दिखाई पड़ेगा तो कहीं अवांछित परिवर्तन दिखाई पड़ेगा । ऐसी स्थिति में यह निश्चय करना कठिन होगा कि समाज प्रगति कर रहा है अथवा नहीं । सामाजिक, आर्थिक और औद्योगिक सभी क्षेत्रों में जब कि कुछ कारक आगे बढ़ते हैं तो दूसरे तत्वों में विलम्बना दिखाई पड़ती है । इन सब बातों की वजह से सामाजिक प्रगति का निश्चय करना कठिन होता है ।

जैसा कि फैरिस ने कहा है ”आधुनिक मस्तिष्कों के सामने उपस्थित समस्या के रूप में प्रगति के तथ्य को प्रदर्शित करने की कठिनाई बहुत वास्तविक हो गई है । यह सिद्ध करना तो सम्भव है कि दुनिया अधिक जटिल हो गई है । यह सिद्ध करना मुश्किल से ही सम्भव है कि वह बेहतर हो गई है और यह सिद्ध करना तो बिलकुल असम्भव ही है कि वह ऐसा करती रहेगी ।”

फैरिस के इस कथन में इतना सत्य तो अवश्य है कि अन्तिम रूप से और पूरी तरह संतोषजनक दशा में यह निश्चय करना कठिन है कि मानव समाज प्रगति कर रहा है अथवा नहीं परन्तु यदि मूल्यों के संस्तरण को ध्यान में रखा जाय तो किसी छोटे-मोटे विशेष सामाजिक प्रगति समाज के बारे में यह निश्चय अवश्य किया जा सकता है कि उसमें परिवर्तन किस ओर जा रहे हैं ।

सामाजिक प्रगति की कसौटियों में मतभेद होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि सभी विचारक प्रगति के लक्ष्यों के विषय में एक मत नहीं है । कुछ उसे आर्थिक बतलाते है तो कुछ आध्यात्मिक, कुछ उसे धार्मिक बताते हैं तो कुछ धर्म को बिल्कुल बेकार समझते हैं ।

इस मतभेद में कोई ऐसा सिद्धान्त उपस्थित करना सम्भव नहीं है जो सभी को मान्य हो और न ऐसा करना आवश्यक ही है । शून्य आदर्श रूप में निर्धारित किये जाते है अतः उनके विषय में मतभेद होना स्वाभाविक ही है । परन्तु यदि गौर किया जाय तो यह मालूम पड़ेगा कि यह मतभेद इतना अधिक नहीं है कि भिन्न-भिन्न मत परस्पर विरोधी हो जायें । सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है । कि सामाजिक प्रगति में समाज की सर्वागीण प्रगति निहित है और इस सर्वागीण प्रगति में भिन्न-भिन्न पहलुओं का समान नहीं बल्कि अनुपातिक महत्व है ।

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