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1. लेंडल फाउनस उर्विक (Laydel Frawns Urvick):

लेंडल फाउनस उर्विक का जन्म 1891 में ब्रिटेन में हुआ था । उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की तरफ से लेफ्‌टिनेंट कर्नल के रूप में भाग लिया था । वे औद्योगिक प्रबंध सलाहकार के रूप में भी अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से संबद्ध रहें ।

पुस्तकें:

ADVERTISEMENTS:

उर्विक की प्रसिद्ध पुस्तकों में ”मैनेजमेंट ऑफ टुमारों”, “द मेकिंग ऑफ साइंटिफिक मैनेजमेंट” (3 भागों में), ”दी एलिमेंट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन”, “द पैर्ट्नस ऑफ मैनेजमेंट एण्ड लीडरशीप इन द ट्‌वेंटीथ सेंचुरी आर्गेनाइजेशन” आदि शामिल है ।

शोधपत्र:

उनका शोध पत्र जिसने उन्हें अत्यधिक लोकप्रिय बनाया, वह है ”पेपर्स आन द साइंस आफ एडमिनिस्ट्रेशन” (1937) जो लुथर गुलिक के साथ उन्होंने संपादित किया था । इसके अलावा ”डायनामिक एडमिनिस्ट्रेशन एण्ड फ्रीडम एण्ड कोर्डीनेशन” भी उनका प्रमुख शोधपत्र है । लोक सेवा, सैनिक सेवा और औद्योगिक सेवा का अनुभव गुलिक की भांति उर्विक को भी था और दोनों को ही फेयोलवाद और कुछ हद तक टेलरवाद से प्रेरणाएं मिली थी ।

संरचनात्मक दृष्टिकोण:

ADVERTISEMENTS:

उर्विक-गुलिक ने संगठन की कार्यकुशलता के लिये उसके संरचनात्मक पक्ष पर ही बल दिया ।

(i) उर्विक ने संगठन का अर्थ भी डिजाइनिंग मात्र (संरचना-प्रारूप का निर्धारण) से लिया ।

(ii) कार का उदाहरण देते हुए उर्विक कहते है कि कार की डिजाइनिंग, कार निर्माण की प्रक्रिया और स्वयं कार तीनों भिन्न अवस्थाएं है और संगठन का अर्थ मात्र डिजाइनिंग से है ।

(iii) उर्विक कहते है कि कोई संगठन बनाते समय यदि पता चले कि उसकी कोई डिजाइनिंग ही नहीं है, तो यह बहुत ही अतार्किक, क्रूर, नुकसानदेह और निरर्थक होगा ।

ADVERTISEMENTS:

(iv) उर्विक ने इस बारे में कहा है- ”मानव सभ्यता के लिए संगठन के बारे में अपने ज्ञान को विकसित करना तब तक असंभव है जब तक इसकी संरचना के कारकों को अलग से न समझा जाए, भले ही यह अलगपन अनावश्यक या कृत्रिम ही क्यों न लगे ।

संगठन के सिद्धांत:

उर्विक ने संगठन को डिजाइनिंग या संरचना-प्रारूप मानते उसके आठ सिद्धांत प्रतिपादित किये:

1. उद्देश्यों का सिद्धांत (Principle of Objectives):

संगठन का कोई प्रतिपादित उद्देश्य होना चाहिए ।

2. समरूपता का सिद्धांत (Principle of Correspondence):

प्रत्येक स्तर पर सत्ता और उत्तरदायित्व में समानता होनी चाहिये ।

3. उत्तरदायित्व का सिद्धांत (Principle of Responsibility):

अधीनस्थों के कार्यों की पूरी जवाबदारी उच्चाधिकारियों को लेनी चाहिए ।

4. श्रेणीक्रम का सिद्धांत (Scalar Principle):

संगठन की संरचना पिरामिडाकार स्वरूप में होनी चाहिये ।

5. नियंत्रण विस्तार का सिद्धांत (Principle of Span of Control):

एक उच्चाधिकारी अपने प्रत्यक्ष अधीन 5 या ज्यादा से ज्यादा 6 से अधिक उन अधीनस्थों का नियंत्रण नहीं कर सकता जिनके काम अंतरसंबंधित हो ।

6. विशेषीकरण का सिद्धांत (Principle of Specialisation):

एक व्यक्ति-एक कार्य की अवधारणा का पालन होना चाहिएं ।

7. समन्वय का सिद्धांत (Principle of Co-Ordination):

संगठन के विभिन्न भागों में उचित तालमेल स्थापित होना चाहिये ।

8. निर्धारण या परिभाषा का सिद्धांत (Principle of Definition):

प्रत्येक पद के कार्य अधिकार दायित्व और अन्य पदों के साथ उसके संबंधों का स्पष्ट निर्धारण होना चाहिऐ ।

संगठन के सिद्धांत और उपसिद्धांत:

उर्विक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ”प्रशासन के तत्व” (The Elements of Administration, 1943) में 29 सिद्धांतों-उपसिद्धांतों का एक पूरा समूह प्रस्तुत किया ।

इनमें उर्विक ने टेलर के वैज्ञानिक प्रबंध सिद्धांत फेयोल के चौदह सिद्धांत, मुने-रेले के सिद्धांत, फालेट और ग्रेक्यूनास के विचार आदि को संशोधित स्वरूप में एकीकृत करके निम्नलिखित सिद्धांत उनके उपसिद्धांत दिये:

1. लागू होने योग्य (Applicative)

2. उपयुक्तता (Appropriateness)

3. कार्यों को सौंपना (Assignment of Function)

4. प्राधिकार (Authority)

5. केंद्रीकरण (Centralization)

6. निर्देश (Command)

7. नियंत्रण (Control)

8. समन्वय सिद्धांत (Co-Ordination)

9. समन्वयक सिद्धांत (Coordinative Principle)

10. प्रत्यायोजन (Delegation)

11. निर्धारक (Determinative)

12. अनुशासन (Discipline)

13. साम्य (Equity)

14. पूर्वानुमान (Forecasting)

15. कार्यात्मक परिभाषा (Functional Definition)

16. सामान्य हित (General Interest)

17. पहल (Initiative)

18. व्याख्यात्मक (Interpretative)

19. जांच (Investigation)

20. नेतृत्व (Leadership)

21. व्यवस्था (Order)

22. संगठन (Organisation)

23. नियोजन (Planning)

24. पुरस्कार व प्रतिबंध (Rewards and Sanction)

25. स्केलीय प्रक्रिया (Scalar Process)

26. चयन व पदस्थापना (Selection and Placement)

27. भावना (Spirit)

28. स्थिरता (Stability)

29. कर्मचारी नियुक्ति (Staffing)

उर्विक के अनुसार उनका प्रबंधकीय सिद्धांत ऐसे विचार का ढांचा प्रस्तुत करता है जिसके माध्यम सें अन्य सभी विद्वान अपने विचार और अनुभवों को परख सकेंगे और उनमें संशोधन भी कर सकेंगे ।

उर्विक यह भी कहते हैं कि ये सिद्धांत अंतिम नहीं है और उनमें निरंतर सुधार की गुंजाइश बनी रहेगी । उनके अनुसार प्रशासनिक संगठन का क्षेत्र अब भी एक ”अनन्वेषित क्षेत्र” (जिसका अन्वेषण नहीं हुआ है) है । इसकी खोज के लिये अभी अनेक तथ्यों को जुटाना होगा ।

2. लूथर हाल्सी गुलिक (Luther Halsey Gullick):

1892 में ओसाका (जापान) में जन्में लूथर हाल्सी गुलिक की उच्च शिक्षा अमेरिका में हुई ।

गुलिक ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में कार्य किया और बाद में 40 वर्षों तक सिटी रिसर्च इंस्टीट्‌यूट (न्यूयॉर्क) से जुड़े रहे ।

1954-56 में न्यूयॉर्क लोक प्रशासन संस्थान के अध्यक्ष और 1962-82 तक इसके सभापति रहे, जहां बाद में अपनी मृत्यु तक अवकाशकालीन सेवाएं देते रहे ।

समय-समय पर वे प्रोफेसर भी रहे और प्रशासनिक- प्रबंधकीय सलाहकार भी ।

पुस्तकें और शोधपत्र:

गुलिक कृत अनेक पुस्तकों और शोधपत्रों में से महत्वपूर्ण है, ”एडमिनिस्ट्रेटिव रिफ्‌लेक्शंसफ्राम वर्ल्ड वार- ।।”, ”मेट्रोपालिटन प्राब्लम्स एण्ड अमेरिकन आईडियाज”, ”मार्डन मैनेजमेंट फार द सिटी आफॅ न्यूयॉर्क” और उर्विक के साथ ”पेपर्स आन द सादंस आफ एडमिनिस्ट्रेशन” का संपादन ।

लोक सेवा, सैनिक सेवा और औद्योगिक सेवा का अनुभव गुलिक की भांति उर्विक को भी था और दोनों को ही फेयोलवाद और कुछ हद तक टेलरवाद से प्रेरणाएं मिली थी ।

संरचनात्मक दृष्टिकोण:

उर्विक की भांति गुलिक ने भी संगठन की कार्यकुशलता के लिये उसके संरचनात्मक पक्ष पर ही बल दिया ।

(a) उर्विक-गुलिक दोनों का उद्देश्य प्रबंध या प्रशासनिक विज्ञान की प्राप्ति हेतु तटस्थ सिद्धांतों की खोज करना था । वे औपचारिक संगठन के पक्षधर थे और उसे ही संगठन मानते थे अर्थात् अनौपचारिक संगठन को नकारते थे । इस प्रकार उन्होंने मानवीय कारकों, पर्यावरणीय कारकों की उपेक्षा की ।

(b) दोनों विद्वान फेयोल की भांति प्रबंध और प्रशासन तथा लोक और निजी प्रशासन में कोई भेद नहीं मानते थे । इसलिए वे एक सार्वभौमिक प्रशासनिक विज्ञान की प्राप्ति में लगे रहे ।

(c) गुलिक के अनुसार- “प्रशासन के साथ सदैव से यह समस्या रही है कि उसे मात्र कला ही माना जाता रहा है, लेकिन हम ऐसा कोई कारण नहीं देखते कि प्रशासन को विज्ञान नहीं माना जा सके ।”

डिजाइनिंग के 10 सिद्धांत:

गुलिक-उर्विक ने अभिकल्पना प्रक्रिया (Designing Process) के महत्व को ध्यान में रखकर इसके निश्चित सिद्धांतों की खोज का प्रयास किया । चूंकि उर्विक-गुलिक डिजाइनिंग को ही संगठन कहते है, अत: ये संगठन के भी सिद्धांत है । गुलिक फेयोल के 14 सिद्धांतों से अत्यधिक प्रभावित थे और उन्हें ”प्रशासन के मुख्य गुण” कहते थे ।

इन्हीं 14 सिद्धांतों पर आधारित गुलिक के 10 सिद्धांत है:

1. कार्य विभाजन या विशेषीकरण (Division of Work or Specialisation)

2. विभागीय संगठनों के आधार (Bases of Departmental Organisation)

3. पदसोपान के माध्यम से समन्वय (Co-Ordination through Hierarchy)

4. सचेष्ट समन्वय (विचारपूर्वक समन्वय) (Deliberate Co-Ordination)

5. समितियों के माध्यम से समन्वय (Co-Ordination through Committees)

6. विकेंद्रीकरण या नियंत्रण कंपनी का विचार (Decentralization or the Holding Company Idea)

7. आदेश की एकता (Unity of Command)

8. स्टाफ और सूत्र (Staff and Line)

9. प्रत्यायोजन (Delegation)

10. नियंत्रण का विस्तार (Span of Control)

इनमें से गुलिक ने ”कार्य विभाजन” को सर्वाधिक महत्व दिया और कहा कि ”कार्य विभाजन संगठन का आधार है । सही मायनों में देखा जाए तो कार्य का विभाजन ही संगठन है ।”

विभागीयकरण के सिद्धांत:

लूथर गुलिक के अनुसार उद्देश्य प्रक्रिया व्यक्ति तथा स्थान विभागीय संगठन के 4 आधार हो सकते है । इस सिद्धांत को 4 पी का सिद्धांत कहा गया है ।

पोस्डकार्ब:

पहले पहल हेनरी फेयोल तथा उर्विक ने इसकी चर्चा की थी । इसे ”पोल्डकार्ब” के रूप में सूत्रबद्ध ”लुथर गुलिक” ने किया । इसका प्रत्येक अक्षर लोक प्रशासन का एक कार्य है । ऐसे कार्य जो उच्च प्रबंधकीय वर्ग के व्यक्ति करते है ।

समन्वय के सिद्धांत:

गुलिक के अनुसार समन्वय का अर्थ है- कार्य के विभिन्न भागों को परस्पर अंतर्सबंधित करना । वह कहते है कि जब कार्य का उपविभाजन जरूरी है, तो उनमें समन्वय भी अनिवार्य है । गुलिक यह भी कहते है कि संगठन का आकार और समय दो प्रमुख तत्व है जो समन्वय को प्रभावित करते है । अत: उन्होंने समन्वय को लागू करने के लिये ”विचारशीलता” का सिद्धांत दिया ।

गुलिक ने समन्वय के 3 साधन बताये:

(1) पदसोपान

(2) समितियां और

(3) सचेत विचार अर्थात कार्मिकों में एक सामान्य उद्देश्य का विकास करना ।

आदेश की एकता पर उर्विक-गुलिक:

उर्विक-गुलिक आदेश की एकता के सिद्धांत का समर्थन करते है लेकिन वे मानते थे कि व्यवहारिक और सार्वभौमिक रूप से इस सिद्धांत का पूरी तरह पालन नहीं किया जा सकता अर्थात इसके अपवाद हो सकते है । गुलिक, ”हम इस सिद्धांत के पालन से प्राप्त होने वाले लाभों को पसंद करते है और इसलिए इस सिद्धांत का उल्लंघन करने से बचते है क्योंकि इसके उल्लंघन का मतलब है- दुविधा, अकुशलता और उत्तरदायित्वहीनता ।”

स्टॉफ सिद्धांत पर उर्विक-गुलिक:

गुलिक-उर्विक के अनुसार स्टॉफ का सिद्धांत “नेतृत्व की एकता” के सिद्धांत से निकला है । संगठन में समस्त सत्ता कार्य एक नेता में निहित माने जाते है और इसलिए नेता को कार्य संचालन में कार्य सहायकों की जरूरत पड़ती है जो “स्टॉफ” का निर्माण करते है । गुलिक-उर्विक के अनुसार स्टॉफ के दो मुख्य स्वरूप है- सामान्य स्टॉफ और विशिष्ट स्टॉफ ।

उर्विक-गुलिक ने सामान्य स्टॉफ के ये कार्य तक बताये है:

1. विशिष्ट स्टॉफ से आदेश प्राप्त करना ।

2. इन आदेशों को आगे प्रेषित करना ।

3. कार्यान्वयन पर नजर रखना ।

4. विशिष्ट स्टॉफ के कार्यो में हाथ बंटाना ।

गुलिक के मानवीय सरोकार:

गुलिक ने 1980 के दशक में बदली परिस्थितियों के संदर्भ में अपने विचारों का पुन: परीक्षण किया । उन्होंने महसूस किया कि 1937 के मुकाबले 50 वर्षों के बाद के इस समय में प्रशासन के क्षेत्र में भारी परिवर्तन आ चुके है ।

गुलिक कहते है कि कुछ भी हो सरकारें बनती तो आदमियों से ही है और उन्हें चलाते भी आदमी ही है । गुलिक जोर देकर कहते है कि राज्य का सर्वप्रमुख काम लोगों का कल्याण करना और उनके जीवन को बेहतर बनाना होना चाहिये ताकि बदलते हुए पर्यावरण की चुनौतियों का सामना किया जा सके ।

लेकिन अफसोसजनक यह है कि आधुनिक राज्य की अवधारणा कल्याण के बजाय विध्वंस (युद्ध) पर आधारित है । यहां तक कि आधुनिक लोक प्रशासन की शब्दावली भी सैन्य प्रशासन सें ली गयी है । 1980 के दशक के गुलिक 1940 के गुलिक से भिन्न विचार रखते है । वे अब केंद्रीकरण के स्थान पर विकेंद्रीकरण, पदसोपान के स्थान पर लचीले संगठन का समर्थन करते है ।

गुलिक कहते है कि ”लोक प्रशासन को अस्तित्वहीन आर्थिक व्यक्ति को भूल जाना चाहिए और अस्तित्वहीन मुक्त बाजार के साथ वास्तविकता से पेश आना चाहिए तथा अपनी मूल संवेदनाओं में मानव कल्याण को शामिल करना चाहिए ।”

गुलिक यह बात भी वजनदार ढंग से कहते है कि समय हर घटना के लिए महत्वपूर्ण कारक होता है ।

वह इसके पांच प्रमुख पहलुओं का जिक्र करते है:

i. समय निवेश के रूप में,

ii. समय नतीजे के रूप में,

iii. समय घटना प्रवाह के रूप में,

iv. समय दो या दो से अधिक महत्वपूर्ण घटनाओं अथवा प्रक्रियाओं के अंतराल के रूप में,

v. समय प्रबंधन नीति के रूप में ।

3. जेम्स डी मुने और एलन सी रेले (James D Munne and Allen C Relley ):

जेम्स डी मुने और एलन सी रेले दोनों ने संयुक्त रचनाओं का प्रकाशन किया ।

1931 में ”आनवर्ड इण्डस्ट्री” में उन्होंने शास्त्रीय सिद्धांतों का वर्णन किया और अमेरिका में शास्त्रीय विचारधारा के सर्वप्रथम प्रतिपादक बन गए ।

1939 में इसी पुस्तक को उन्होंने कतिपय संशोधन के साथ ”प्रशासन के सिद्धांत” (The Principles of Administration) के नाम से पुन: प्रकाशित कराया ।

मुने-रेले ने सिद्धांतों को उस नींव की संज्ञा दी जिस पर आधारित होकर ही संगठन प्रभावी और कार्यकुशल हो सकते है । उन्होंने सिद्धांतों के अलावा चार्ट्स, मैन्यूल्स आदि को भी प्रशासन के क्षेत्र में लोकप्रिय बना दिया ।

संगठन के सिद्धांत:

मुने-रेले ने संगठन के 4 औपचारिक सिद्धांत दिये:

1. समन्वय (Co-Ordination):

मुने-रेले ने समन्वय को संगठन का पहला सिद्धांत कहा । उनके अनुसार समन्वय के अंतर्गत वे सभी सिद्धांत आ जाते है जो इसके अधीन है और जिनके माध्यम से समन्वय का सिद्धांत लागू होता है । मुने-रेले के शब्दों में, “समन्वय से आशय है, सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में एकबद्ध कार्यवाही सुनिश्चित करने हेतु सामूहिक प्रयासों का व्यवस्थित प्रबंध उनके अनुसार- ”समन्वय संगठन का निर्धारक सिद्धांत है (उससे कम नहीं है) । इसके अंतर्गत प्रारंभ से लेकर अंत तक संगठन के सभी सिद्धांत आ जाते है ।”

2. क्रमिक प्रक्रिया (Scalar Process):

मुनेरेले संगठन में ”श्रेणीक्रम सिद्धात” पर बल देते है और इसे ”क्रमिक प्रक्रिया” (Scalar Process) का नाम देते है । उनके अनुसार ”स्केलर प्रोसेस” ही ”समन्वय” की उस सार्वभौमिक प्रक्रिया का निर्माण करती है जिसके माध्यम से सर्वोच्च समन्वयकारी सत्ता काम करती है । मुने-रेले कहते है कि, ”स्केलर प्रोसेस का अपना सिद्धांत, प्रक्रिया और प्रभाव है जैसे नेतृत्व प्रत्यायोजन और कार्यात्मक निर्धारण ।”

3. कार्यात्मक विभेदीकरण अर्थात् विशेषीकरण (Functional Differential):

मुने-रेले ने संगठन में विशेषीकरण को कार्यकुशलता के लिये आवश्यक माना और विशेषीकरण के लिये कार्यात्मक विभेदीकरण का सुझाव दिया । इसे उन्होंने ”श्रम विभाजन” या विशेषीकरण की अवधारणा कहां । उनके अनुसार कार्यात्मकता का अर्थ है, विभिन्न कार्य-दायित्वों के मध्य विभेदीकरण ।

मुने-रेले ने कार्यों को विभागवार संगठित करने के लिये कार्यात्मक सिद्धांत अपनाने पर बल दिया । इस सिद्धांत की व्याख्या करते हुए मुने-रेले कहते है कि ”सैन्य संगठन में एक जनरल और कर्नल के मध्य अंतर वस्तुतः सत्ता की मात्रा का अंतर है और इसलिए यह ‘स्केलर’ श्रेणिबद्ध है । लेकिन एक पैदल सेना के अफसर और एक तोपखाने के अफसर के बीच का अंतर ‘कार्यात्मक’ है क्योंकि उनके कार्यों में अंतर (सत्ता में नहीं)” ।

4. सूत्र और स्टॉफ (Line and Staff):

सूत्र- स्टॉफ को एक सिद्धांत के रूप में सर्वप्रथम मुने-रेले ने ही चुना । उनके अनुसार संगठन में दो भिन्न और विशिष्ट सत्ता होती है-एक ”कार्य” की सत्ता जिसे ”सूत्र” है और दूसरी ”सलाह” की सत्ता, जिसे ”स्टॉफ” । मुने के अनुसार, ”स्टॉफ कार्यकारी के व्यक्तित्व का ही विस्तार है । इससे आशय है निर्णयन और में सहायता हेतु कार्यकारी की अधिक आंख, अधिक कान और अधिक हाथ ।”

मुने-रेले ने स्टॉफ के तीन कार्य बताये:

(i) विचार करना,

(ii) परामर्श देना और

(iii) योजना बनाना ।

पार्किन्सन्स थ्योरी:

पार्किन्सन के अनुसार नौकरशाही का आकार बढता जाता है जबकि उसकी गुणवत्ता घटती जाती है । इस अवस्था ही नौकरशाही का उठता हुआ पीरामिड कहा जाता है । नौकरशाही को पार्किन्सन्स ली की प्रतिभूति माना जाता है । पार्किन्सन के अनुसंधानों ने नौकरशाही के आकार में प्रति 5.75 वर्ष प्रतिशत औसत वृद्धि का उल्लेख किया है ।