Read this article in Hindi to learn about the contributions of Mooney and Reiley to the classical theory of scientific management.

जेम्स डी. मूनी व एलन सी. रेली अमेरिका में क्लासिकीय सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले पहले व्यक्ति बने जब उनकी पुस्तक ऑनवार्ड इंडस्ट्री प्रकाशित हुई । बाद में 1939 में उन्होंने इसी पुस्तक को नए शीर्षक दि प्रिसिपल्स ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के साथ प्रकाशित किया । उनकी राय में सिद्धांत संगठन की प्रभाविता से काम करने की बुनियाद का निर्माण करते हैं ।

उन्होंने संगठन चार्टों और मैनुअलों को लोकप्रिय बनाया और चार सिद्धांत पेश किए:

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1. तालमेल:

मूनी ने तालमेल का- ”किसी समान उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयास में कार्यों में एकता के लिए सामूहिक प्रयासों को क्रमबद्ध रूप से व्यवस्थित करने” के रूप में परिभाषित किया ।

उनके अनुसार- ”तालमेल संगठन का पहला सिद्धांत है और इसमें वे सभी सिद्धांत शामिल है जो इसके तहत हैं और जिनके जरिए यह काम करता है ।” आगे वे कहते हैं- ”तालमेल संगठन के निर्धारक सिद्धांतों, सभी सिद्धांतों को समेटने वाले सिद्धांत और सभी संगठित प्रयासों के आदि और अंत से कम नहीं है ।”

2. स्केलीय प्रक्रिया:

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मूनी व रेली ने संगठन में पदानुक्रम पर बल दिया और उसे ‘स्केलीय प्रक्रिया’ कहा । उनके लिए यह तालमेल की सार्वभौमिक प्रक्रिया का निर्माण करती है, जिसके जरिए पूरे संगठन में सर्वोच्च समन्वयक प्राधिकार काम करता है । उन्होंने कहा कि स्केलीय प्रक्रिया के अपने सिद्धांत, प्रक्रिया और प्रभाव हैं । इसे उन्होंने नेतृत्व, प्रत्यायोजन और कार्यात्मक परिभाषा कहा ।

3. कार्यात्मक विभेदीकरण:

मूनी व रेली ने सुझाव दिया है कि विभागों में कामों को व्यवस्थित करने में कार्यात्मक सिद्धांत का पालन होना चाहिए । उनके अनुसार, कार्यात्मकता का अर्थ है विभिन्न प्रकार के कार्यों के बीच विभेदीकरण । यह कार्य विभाजन या विशिष्टीकरण का सिद्धांत है ।

उन्होंने इसकी व्याख्या इस प्रकार की- ”जनरल और कोलोनलों के बीच का फर्क प्राधिकार में वरीयता का है और इसलिए यह स्केलीय है । किंतु एक पैदल सेना और तोपखाने के अफसरों के बीच का फर्क कार्यात्मक है क्योंकि उनके कामों की प्रकृति में एक विशिष्ट फर्क है ।”

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4. लाइन व स्टाफ:

मूनी व रेली के अनुसार लाइन प्रबंधन को कार्यों को करवाने का प्राधिकार होना चाहिए । साथ ही सलाह व सूचना देने में वे स्टाफ की भूमिका को भी समझते हैं । मूनी के अनुसार स्टाफ ”कार्यकारी के व्यक्तित्व का विस्तार है । इसका अर्थ है अपनी योजना बनाने में उसकी मदद के लिए और ज्यादा आँखें और कान और ज्यादा हाथ ।”

आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation):

विभिन्न समाजवैज्ञानियों ने क्लासिकीय सिद्धांत की विभिन्न आधारों पर आलोचना की:

1. इसकी संगठन के एक अवैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में आलोचना की जाती है । कहा जाता है कि इस सिद्धांत की वैज्ञानिक स्थितियों (नियंत्रित व दोहरावपूर्ण) में परख (सत्यता परीक्षण) नहीं हुई है । आलोचकों ने कहा कि यह सिद्धांत ”अनिरंतरताओं, दुहरावों और सूक्ष्मता के अभाव” से भरपूर है । हरबर्ट साइमन व ड्‌वाइट वाल्डो कहते है कि क्लासिकीय स्कूल द्वारा प्रयोग की गई पद्धतियाँ वैज्ञानिक नहीं हैं ।

2. इसकी इस आधार पर भी आलोचना हुई कि यह संगठन के मानवीय आयाम, अर्थात् प्रबंधन (प्रशासन) के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की उपेक्षा करता है । वारेन बेनिस ने टिप्पणी की, कि क्लासिकीय सिद्धांत का ध्यान ‘जनता रहित संगठन’ पर है । अत: मार्च व साइमन ने इसे ‘मशीन मॉडल’ सिद्धांत के रूप में वर्णित किया है ।

3. क्लासिकीय सिद्धांत की व्याख्या ‘एटम’ रूप में की गई है क्योंकि यह मनुष्यों को संगठन के साथी मनुष्यों से काटकर देखता है । उसी प्रकार इसकी व्याख्या ‘स्वैच्छिकतापूर्ण’ सिद्धांत के रूप में की गई है क्योंकि यह मानता है कि मनुष्य सामाजिक नियंत्रण, अर्थात् समूहों द्वारा नियंत्रण के प्रति प्रतिरक्षित है ।

4. इस सिद्धांत को ‘यांत्रिक’ माना गया है क्योंकि यह सांगठनिक व्यवहार की गतिकी को समझा पाने में असफल है । यह मनुष्य को निष्क्रिय औजार या संगठन के यंत्र का एक पुर्जा मात्र समझता है । यह कर्मचारी से ज्यादा काम से सरोकार रखती है । इस प्रकार यह संगठन में मानवीय कारक को कम करके आँकता है ।

5. क्लासिकीय सिद्धांत के सबसे अहम आलोचक हरबर्ट ए. साइमन है । उन्होंने संगठन के सिद्धांतों की व्याख्या ”कहावतों मिथों, नारों और आडंबरपूर्ण मूर्खताओं” के रूप में की है । उन्होंने टिप्पणी की, कि ये सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से वैध नहीं हैं और इसलिए सार्वभौमिक प्रासंगिकता (उपयोग) के नहीं हैं ।

उनके शब्दों में- ”यह प्रशासन के मौजूदा सिद्धांतों की भयंकर कमी है कि कहावतों की तरह वे भी जोड़ों में होते है । हर सिद्धांत के लिए आप उतना ही संभाव्य और स्वीकार्य विरोधी सिद्धांत खोज सकते हैं । हालांकि जोड़े के दोनों सिद्धांत उल्टे सांगठनिक सुझावों की ओर ले जाते है, किंतु सिद्धांत में यह इंगित नहीं करता कि कौन-सा उपयुक्त है ।”

उन्होंने कहा कि- ”प्रशासन के सिद्धांत ज्यादा-से-ज्यादा प्रशासनिक स्थितियों का वर्णन और पहचान करने की कसौटियाँ हो सकते हैं । सभी कथित सिद्धांतों पर एक प्रभावी प्रशासनिक संगठन की रूपरेखा के तहत विचार होना चाहिए ।”

6. इस सिद्धांत की इस आधार पर भी आलोचना हुई है कि इसमें अति-सरलीकृत मानव प्रेरणा है । यह मान लेता है कि हर कर्मचारी एक आर्थिक मनुष्य है जो अपनी आय को अधिकतम बनाने में दिलचस्पी रखता है ।

उसी के अनुसार इसने गैर-आर्थिक कारकों पर कोई ध्यान नहीं दिया है यानी, इसने मानव प्रेरणा के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारकों पर बल नहीं दिया है । एल्टन मेयो के हॉथार्न प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया कि कर्मचारी महज आर्थिक कारकों से ही नहीं अपितु गैर आर्थिक कारणों से भी प्रेरित होते है ।

7. क्लासिकीय सिद्धांत की व्याख्या ‘मानक सिद्धांत’ के रूप में भी की गई है क्योंकि इसका सरोकार ‘क्या है’ से ज्यादा ‘क्या होना चाहिए’ से है । इस प्रकार, व्यावहारिक उपागम से अलग यह संगठन में वास्तविक व्यवहार का अध्ययन नहीं करता ।

8. क्लासिकीय सिद्धांत की व्याख्या संगठन के ‘स्थिर मॉडल’ के रूप में की गई यानी, यह संगठन को एक ‘बंद व्यवस्था’ मानता है जो बाह्य परिवेश से प्रभावित नहीं होता । संगठन के व्यवस्था उपागम ने क्लासिकीय सिद्धांत की इस कमी की ओर ध्यान खींचा ।

9. क्लासिकीय सिद्धांत की इस आधार पर आलोचना हुई कि यह सिर्फ औपचारिक संगठन से नाता रखता है और अनौपचारिक सांगठनिक प्रक्रियाओं की उपेक्षा करता है ।

औपचारिक संगठन वह होता है जिसका निर्माण (ढाँचा/योजना) कुशल और प्रभावी ढंग से उद्देश्य प्राप्त करने के लिए सोचे-समझे और तार्किक रूप से होता है, जबकि अनौपचारिक संगठन में सामाजिक संबंधों को प्रतिबिंबित करता है । चेस्टर बर्नार्ड और हरबर्ट साइमन ने गौर किया कि सांगठनिक सदस्यों का वास्तविक व्यवहार कई तरीके से तार्किक व्यवहार से भिन्न होता है ।

10. क्रिस ऑर्गिरिस के अनुसार, किसी परिपक्व व्यक्तित्व की जरूरतों और किसी क्लासिकीय संगठन (क्लासिकीय सिद्धांतों के अनुसार बना संगठन) की आवश्यकताओं से एक बुनियादी असमानता है । ऐसे सिद्धांतों को लागू करना कर्मचारियों को निष्क्रिय, निर्भर, अधीन और संक्षिप्त काल-निर्देशित बना देता है ।

11. जे. जी. मार्च व हरबर्ट साइमन (अपनी पुस्तक ऑर्गनाइजेशंस में) क्लासिकीय सिद्धांत की निम्न सीमाएँ बताते हैं:

(a) सिद्धांत की प्रेरणा-संबंधी कल्पनाएँ अनुचित हैं ।

(b) संगठन के भीतर हितों के टकराव पर सिद्धांत में कम ध्यान दिया गया है ।

(c) जटिल सूचना प्रोसेसिंग तंत्र द्वारा मनुष्य पर थोपी गई सीमाओं पर सिद्धांत कम विचार करता है ।

(d) कार्य की पहचान और वर्गीकरण में संगठन की भूमिका पर सिद्धांत में कम ध्यान दिया गया ।

(e) कार्यक्रम मूल्यांकन की परिघटना पर सिद्धांत में कम ध्यान दिया है । पी. सुब्रमण्यम ने अपने लेख ‘दि क्लासिकल ऑर्गेनाइजेशन थ्योरी एंड इट्‌स क्रिटिकल’ में क्लासिकी सिद्धांत की दो सीमाओं का उल्लेख किया है- 1. इस सिद्धांत में परिष्करण का अभाव है, 2. यह संगठन के कार्यात्मक समस्याओं की बजाय प्रबंधन से जुड़ी समस्याओं पर अधिक ध्यान देता है ।

महत्व (Significance):

अपनी सीमाओं के बावजूद क्लासिकीय सिद्धांत ने संगठनिक सिद्धांत और प्रशासनिक चिंतन के उद्भव में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया । वे हैं:

1. क्लासिकीय चिंतकों ने प्रशासन को एक विज्ञान के रूप में विकसित किया । अब तक इसे कला माना गया था । इस प्रकार इसने वुडरो विल्सन (प्रशासन के पिता) के ‘प्रशासन के विज्ञान’ के आह्वान का एक जवाब दिया ।

2. यह विचार व्यक्त करने वाले क्लासिकीय चिंतक पहले थे जिन्होंने कहा कि प्रशासन स्वयं एक अलग गतिविधि है जिस पर बौद्धिक जाँच होनी चाहिए ।

3. क्लासिकीय विचारकों ने कुछ विशेष प्रबंधन तकनीकों के उपयोग को बढ़ावा दिया जिसमें लोक प्रशासन अकुशल था जैसे- रिपोटिंग, लेखांकन और बजट बनाना ।

4. क्लासिकीय सिद्धांत ने प्रशासन में एक अवधारणाओं के समुच्चय को सूत्रबद्ध किया और एक शब्दावली विकसित की जो बाद के शोधकर्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जा सकी ।

5. तार्किक, तर्कसंगत और कुशल सांगठनिक ढाँचों के निर्माण में क्लासिकीय सिद्धांत ने व्यावहारिक सुझाव दिए ।

6. औद्योगिक संगठनों में उत्पादन को तर्कसंगत बनाने और प्रोत्साहित करने में क्लासिकीय सिद्धांत ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की ।

7. क्लासिकीय सिद्धांत की सीमाओं ने ही सांगठनिक सिद्धांत और व्यवहार में जाँच-पड़ताल और शोधों की शुरुआत की । दरअसल, क्लासिकीय उपागम को बीसवीं सदी के प्रशासनिक प्रबंधकीय चितंन की बुनियाद माना जाता है ।

क्लासिकीय सिद्धांत 1930-50 के दौरान अमेरिका में सबसे ज्यादा प्रभावी था । इसने कई प्रशासनिक सुधार कमेटियों और आयोगों को प्रभावित किया जैसे-ब्राउनलो कमेटी (1937), पहला हूवर कमीशन (1949) और दूसरा हूवर कमीशन (1955) ।