Read this article in Hindi to learn about:- 1. शास्त्रीय विचारधारा की उपयोगिता और महत्व (Utility and Importance of Classical Theory) 2. शास्त्रीय विचारधारा की आलोचना (Criticisms of Classical Theory) 3. शास्त्रीय विचारधारा की अवैज्ञानिकता (Unconsciousness of Classical Theory) and Other Details.

शास्त्रीय विचारधारा की उपयोगिता और महत्व (Utility and Importance of Classical Theory):

शास्त्रीय विचारधारा का प्रभाव लोक प्रशासन के संगठनों में प्रारंभिक दौर में उतना नहीं आया, लेकिन समय बीतने के साथ इसका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ा । अमेरिका में इस विचारधारा के प्रभावों का सर्वाधिक देखा गया, विशेषकर 1930 से 50 के मध्य में स्थापित समितियों, आयोगों की सिफारिशों में ।

ADVERTISEMENTS:

(i) इसने ही सर्वप्रथम संगठन का विश्लेषण किया ।

(ii) इस विचारधारा ने कहा कि प्रशासन एक स्वतंत्र क्रिया है जिसका बौद्धिक अन्वेषण (ज्ञान के प्रयोग द्वारा खोज) होना चाहिये ।

(iii) इसने ही संगठन की शब्दावली विकसित की, जो बाद में काम आने लगी ।

(iv) इसने तर्कसंगत और कार्यकुशल ढांचों की स्थापना के लिए जा प्रस्तुत किये थे उन्हें पीटर ने इस प्रकार महसूस किया है- ”फेयोल और साथियों ने दोषों को ढूंढने से अधिक कार्य किया है । उनके अनेक योगदान सराहनीय है, उनमें से एक यह है कि उन्होंने रिर्पोटिंग, एकांउटिंग, बजटिंग जैसी तकनीकों को प्रोत्साहन दिया जिनकी पहले लोक प्रशासन में कमी थी ।”

ADVERTISEMENTS:

(v) शास्त्रीय विचारधारा ने विल्सन की इस अवधारणा को मजबूती प्रदान की कि प्रशासन का विज्ञान प्राप्ति योग्य है । उन्होंने प्रशासन को विज्ञान के रूप में विकसित किया । अब तक वह मात्र ”कला” माना जाता था ।

(vi) उद्योगों में उत्पादन वृद्धि हेतु शास्त्रीय विचारों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

(vii) वस्तुत: शास्त्रीय विचारधारा प्रशासनिक और प्रबंधकीय चिंतन की बुनियाद थी और उसकी कमियों ने ही अन्य अनेक विचारधाराओं के जन्म और विकास को प्रोत्साहित किया ।

(viii) इसने अनेक समितियों और आयोगों की सिफारिशों को भी प्रभावित किया जिनमें प्रमुख है- ब्राउनलो समिति (1937) दोनों हुबर कमीशन (1949 और 1955) आदि ।

ADVERTISEMENTS:

(ix) प्रशासन के सिद्धांतों का निर्माण कर उसे वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया । प्रशासनिक कला के साथ अब प्रशासनिक विज्ञान का भी विकास हो गया ।

(x) संगठन को तार्किक, व्यवस्थित और कार्यकुशल बनाने के लिये शास्त्रीय विचारकों ने व्यवहारिक सुझाव दिये ।

शास्त्रीय विचारधारा की आलोचना (Criticisms of Classical Theory):

1. इन सिद्धांतवादियों ने अपने अनुभवों से जो सिद्धांत खोजे उनकी यह कहकर आलोचना की जाती है कि वे वैज्ञानिक पद्धतियों- अनुसंधानों के परिणाम नहीं थे । साइमन और वाल्डो दोनों ने इस कमी की तरफ इशारा किया है । साइमन ने इन सिद्धांतों को मुहावरों की संज्ञा दी, जिनका मुहावरों की भांति ही युग्मों में प्रयोग हुआ है । प्रत्येक सिद्धांत के समान युक्तिसंगत और मान्य इसका विपरित सिद्धांत दिया जा सकता है ।

2. मात्र संस्थागत ढांचे तक सीमित शास्त्रीय विचारधारा ने जिन सिद्धान्तों को सुझाया, वे सांगठनिक समस्या को हल करने में सफल नहीं हुए ।

3. यह संगठन में मनुष्य के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पहलुओं को नजर अंदाज करती है और उसे ”सामाजिक” के स्थान पर ”यांत्रिक” तत्व के रूप में देखती है । इसलिए वारेन बेनिस इसे ”जनरहित संगठन” और मार्च-साइमन ”मशीन मॉडल” की संज्ञा देते है ।

4. यह संगठन के प्रति ”आण्विक दृष्टिकोण” का शिकार है । अर्थात् संगठन में मनुष्य को एक ऐसा ”कण” मानती है जो स्वतंत्र है और अन्य साथी मनुष्यों से कटा हुआ है ।

5. यह संगठन को ”मशीन” और मनुष्य को उसका ऐसा “पुर्जा” मानती है जिसकी कोई भावना, मूल्य या इच्छा नहीं होती । अत: यह सांगठनिक व्यवहार का वास्तविक अध्ययन नहीं करती और इसलिए अपूर्ण है ।

6. इसमें मानव प्रेरणा को अत्यंत सरल प्रक्रिया मान लिया गया है । दूसरे शब्दों में यह मानव को सामाजिक-मनोवैज्ञानिक रूप से ”जटिल मानव” मानने के बजाय अत्यंत सरल ”आर्थिक मानव” मानती है । इसलिए यह सामाजिक प्रेरणाओं के स्थान पर आर्थिक प्रेरणाओं पर बल देती है । हाथार्न प्रयोगों में मेयों ने इसको उलट दिया और बताया कि आर्थिक से ज्यादा महत्व सामाजिक प्रेरणाओं का होता है ।

7. यह औपचारिक और कार्यगत संबंधों पर आधारित ”औपचारिक संगठन” को ही संगठन का पर्याय मानती है । मेयो ने अनौपचारिक संगठन की खोज करके इस विचारधारा की बुनियाद को ही हिलाकर रख दिया ।

8. यह एक आदर्शवादी विचारधारा है, जो ”क्या होना चाहिए” पर इतना बल देती है कि ”क्या है” (वास्तविक स्थिति) पीछे छूट जाता है । व्यवहारवादियों ने इस कमी को स्पष्ट रूप से प्रकट किया ।

9. क्रिस आर्गे राइरिस के अनुसार एक परिपक्व व्यक्तित्व और शास्त्रीय संगठन की अपनी भिन्न आवश्यकताएं है अर्थात् उनमें मौलिक अंतर है । शास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित संगठन में मनुष्य निष्क्रिय, निर्भर, अधीन और तात्कालिक निर्देशित (दुरगामी रूप से दिग्भ्रमित) हो जाता है ।

शास्त्रीय विचारधारा की अवैज्ञानिकता (Unconsciousness of Classical Theory):

शास्त्रीय सिद्धांत आदर्शात्मक है जिनमें वैज्ञानिकता का अभाव है । वस्तुत: इसके सिद्धांतों और मान्यताओं का वास्तविक परीक्षण नहीं हुआ । साइमन और वाल्डो के अनुसार जब शास्त्रीय विचारधारा में प्रयुक्त पद्धतियां ही अवैज्ञानिक है, तब उनके द्वारा विकसित सिद्धात कैसे वैज्ञानिक हो सकते हैं ।

मार्च-साइमन ”आर्गेनाइजेशंस” में शास्त्रीय विचारधारा की निम्नलिखित कमियां बताते है:

1. प्रेरणा संबंधी गलत दावे ।

2. संगठन के अंदर ”हितों के मध्य टकराव” पर कम ध्यान ।

3. जटिल सूचना प्रौद्योगिकी तंत्र द्वारा मनुष्य पर आरोपित सीमाओं पर कम ध्यान ।

4. कार्य की पहचान और कार्य के वर्गीकरण में संगठन की भूमिका पर कम ध्यान ।

5. ”कार्यक्रम मूल्यांकन” प्रक्रिया पर कम ध्यान ।

शास्त्रीय विचारधारा मूल्यांकन (Evaluation of Classical Theory):

शास्त्रीय विचारधारा का प्रभाव लोक प्रशासन के संगठनों में प्रारंभिक दौर में उतना नहीं आया, लेकिन समय बीतने के साथ इसका प्रभाव उत्तरोत्तर बढा । अमेरिका में इस विचारधारा के प्रभावों को सर्वाधिक देखा गया, विशेषकर 1930 से 50 के मध्य में स्थापित समितियों, आयोगों की सिफारिशों में इसने तर्कसंगत और कार्यकुशल ढांचों की स्थापना के लिए जो सिद्धांत प्रस्तुत किये थे उन्हें पीटर ने इस प्रकार महसूस किया है-”फेयोल और साथियों ने दोषों को ढूँढने से अधिक कार्य किया है । उनके अनेक योगदान सराहनीय है, उनमें से एक यह है कि उन्होंने रिर्पोटिंग, एकाउंटिंग, बजटिंग जैसी तकनीकों को प्रोत्साहन दिया जिनकी पहले लोक प्रशासन में कमी थी ।”

इन सिद्धांतवादियों ने अपने अनुभवों से अनेक ऐसे सिद्धांत खोजे जिनकी आज भी उपयोगिता है यद्यपि इनकी यह कहकर आलोचना की जाती है कि वे वैज्ञानिक पद्धतियों- अनुसंधानों के परिणाम नहीं थे । साइमन और वाल्डो दोनों ने इस कमी की तरफ इशारा किया है ।

साइमन ने इन सिद्धांतों को मुहावरों की संज्ञा दी, जिनका मुहावरों कीं भांति ही युग्मों में प्रयोग हुआ है । प्रत्येक सिद्धांत के समान युक्तिसंगत और मान्य इसका विपरित सिद्धांत दिया जा सकता है। कठोर पदसोपानिक संरचना में हद से अधिक विश्वास भी इस विचारधारा की आलोचना का कारण बना ।

इस आणविक, यांत्रिक, मनुष्य विरोधी विचारधारा की घोर आलोचना हुई, जब कार्मिकों के व्यक्तिगत अनौपचारिक संबंधों और उनके औपचारिक योजना पर प्रभावों को हाथार्न प्रयोगों ने सिद्ध कर दिखाया । मात्र संस्थागत ढांचे तक सीमित शास्त्रीय विचारधारा ने जिन सिद्धांतों को सुझाया, वे सांगठनिक समस्या को हल करने में सफल नहीं हुए ।

संगठन के सैद्धांतिकरण की दिशा में शास्त्रीय चिंतक इतने अधिक आगे बढ़ गये कि व्यवहारिक समस्याओं को भुला बैठें । नतीजतन वे जहां कुछ समस्याओं के समाधान बने, वहीं नवीन समस्याओं के जन्मदाता भी ।

मानव संबंध स्कूल ने संगठन में सामाजिक संबंधों को खोज निकाला और औपचारिक संबंधों पर उनके प्रभाव को भी स्पष्ट किया । इससे औपचारिक संगठन की शास्त्रीय मान्यता खतरे में पड़ गयी । वारेन बेनिस ने इसे ”मानव रहित संगठन” की संज्ञा दी तो साइमन-मार्च ने ”मशीन मॉडल” की ।

वस्तुत: साइमन, वाल्डो जैसे व्यवहारवादियों ने अपने प्रयोगों से इस कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण की घोर अवैज्ञानिकता को उजागर करते हुए बताया कि इसके कथित सिद्धांत अवास्तविक और काल्पनिक है जिनकी सत्यता का परीक्षण तक नहीं किया गया है । साइमन ने ऐसे सिद्धांतों को कहावतों से अधिक योग्य नहीं माना ।

फिर सिद्धांतीकरण के लिये जिन चरम मानकों या आदर्शों की बात की गयी उनसे भी संगठन के मानवीय कारकों की घोर उपेक्षा हुई जैसे संगठन को आर्थिक प्रणाली मात्र माना गया और इसलिए कार्मिक को आर्थिक प्राणी जो मात्र आर्थिक प्रेरणा से ही प्रोत्साहित हो सकता है ।

मेस्लो, हर्जबर्ग, मेक्ग्रेगर आदि व्यवहारवादियों ने सामाजिक प्रेरणा के महत्व को स्थापित कर शास्त्रीय सिद्धांत की दिशा को दुरूस्त किया । रिग्स और ढहल चिंतकों ने स्पष्ट किया कि संगठन बंद के बजाय खुली और स्थिर के बजाय एक गतिशील अवधारणा है अत: सिद्धांतों के निर्माण के लिये इन हकीकतों पर गंभीर विचार होना चाहिये ।

लेकिन इन आलोचनाओं में शास्त्रीय विचारधारा की कमियां बतायी गयी है, न कि उसे अनुपयोगी माना गया । शास्त्रीय विचारधारा के सापेक्षिक गुणों पर ध्यान दे तो स्पष्ट होगा कि यह सांगठनिक विकास और प्रशासनिक विज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रारंभिक रूप से कितनी अधिक महत्वपूर्ण थी ।

इस विचारधारा ने ही अपने प्रयत्नों से प्रशासनिक कला को प्रशासनिक विज्ञान भी बना दिया । वस्तुत: टैलरवाद तो कार्यशाला स्तर पर ही अन्वेषण और अध्ययन तक सीमित रहा, शास्त्रीयवाद ने सर्वप्रथम संगठन के संपूर्ण अध्ययन-विश्लेषण का जोखिम उठाया ।

और इस दिशा में उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि प्रशासन समाज में एक विशिष्ट क्रिया कलाप के रूप में सामने आया जिसका स्वतंत्र अध्ययन अब तेजी से होने लगा । इससे लोक प्रशासन के विषयगत विकास को नयी प्रेरणा और दिशा मिली ।

प्रशासन और प्रबंध का पर्याय बनाकर शास्त्रीय सिद्धांत सरकारी सेवाओं और औद्यौगिक उत्पादन दोनों के स्तर को ऊँचा करने के ऐसे समान आधारों की खोज करता है । इस दिशा में उसके प्रयास विभिन्न ऐसे प्रशासनिक सिद्धांतों के रूप में सामने आते है जिनकी सदैव उपयोगिता रही है, जैसे श्रम विभाजन, समन्वय आदि । लेकिन शास्त्रीय विचारधारा का महत्व कम भले ही हुआ, समाप्त नहीं हुआ । जो भी विचारधाराएं आयी उन्होंने इसका स्थान नहीं लिया अपितु इसकी कमी को पूरा किया ।

निष्कर्षत:

शास्त्रीय विचारधारा ने प्रशासन को कार्यकुशल, मितव्यीय बनाने, उसकी उत्पादकता बढ़ाने के जो प्रयास किए, सीमित ही सही, सफल जरूर हुए । इस विचारधारा के बाद ही संगठन के विश्लेषण के नये दृष्टिकोण विकसित हुए और प्रशासन का विज्ञान और विषय आगे बढ़ा ।

हेनरी फेयोल का योगदान (Contribution of Henry Fayol toward Scientific Management):

कुण्टज ओड़ोनेले के शब्दों में- ”संभवत: आधुनिक प्रबंध सिद्धांत का वास्तविक जनक फ्राँसीसी उधोगपति हेनरी फेयोल ही है ।” वस्तुत: टेलर के समकालीन हेनरी फेयोल ने प्रबंध की दिशा में सर्वाधिक साहित्यिक योगदान दिया है ।

(a) यूरोपीय लेखक तो फेयोल को ही वैज्ञानिक प्रबंध का जनक मानते है, जबकि टेलर को वैज्ञानिक प्रबंध का सूत्रधार ।

(b) आधुनिक विचार यह है कि टेलर वैज्ञानिक प्रबंध के जनक तो फेयोल प्रशासनिक सिद्धांतों के जनक ।

(c) टैलर निम्न स्तर या कार्यशाला स्तर पर प्रबंध के सिद्धांतों की खोज से संबंधित है, तो फेयोल उच्चस्तरीय प्रबंधकीय सिद्धांतों की खोज से ।

1841 में कांस्टेंटीपोल (फ्रांस) में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म हेनरी फेयोल माइनिंग इंजिनियर बनने के बाद ”एस.ए कमेंट्री फोर्चामबोल्ट” नामक कंपनी में नियुक्त हुये । इसी कंपनी में वे प्रबंध निदेशक पद तक पहुंचे और यही से सेवानिवृत्त हुये ।

उक्त कंपनी को घाटे से उबारकर लाभ में ले जाकर फेयोल प्रसिद्ध हो गये । ईसाई दर्शन और एडम स्थित के विचारों से प्रभावित फेयोल ने अपनी सफलता का श्रेय व्यैक्तिक गुणों के बजाय उस प्रबंध-व्यवस्था को दिया, जिसे फेयोल ने ही विकसित किया था ।

रचनाएँ:

(i) फेयोल ने 1880 पहला लख “प्रशासन के सामान्य सिद्धांत” लिखा, जो बाद में पुस्तक स्वरूप में 1914 में “एण्डमिनिस्ट्रेशन आन इण्डस्ट्रीअल इट जनरल” के नाम से छपा । यह पुस्तक 1916 में प्रकाशित हुई ।

(ii) फ्रेंच में लिखी इस पुस्तक का अनुवाद कांसटेंस स्टार्स द्वारा 1921 में अंग्रेजी भाषा में ”जनरल एण्ड इण्डस्ट्रीअल मेनेजमेंट” के नाम से किया गया और तब ही दुनिया के सामने फेयोलवाद आ पाया । इस पुस्तक की प्रस्तावना उर्विक ने लिखी थी ।

(iii) फेयोल के एक लेख “द एडमिनिस्ट्रेटिव्ह थ्योरी इन द स्टेट” को 1923 में सारा गियर ने अंग्रेजी में अनुवादित किया जो ”पेपर्स आन द साइंस आफ एडमिनिस्ट्रेशन” के एक भाग के रुप में 1937 में प्रकाशित हुआ ।