Read this article in Hindi to learn about the features of prismatic model of public administration. The features are:- 1. विजातीयता या विषमांगता (Heterogeneity) 2. औपचारिकता या प्रारूपवाद (Formalism) 3. अति आच्छादन (Overlapping).

रिग्स कहते हैं कि प्रिज्मेटिक समाजों में विस्तृत और विवर्तित- इन दो एकदम भिन्न लक्षणों के सहअस्तित्व के कारण तीन विशिष्ट लक्षण प्रकट होते है:

1. विजातीयता,

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2. औपचारिकता और

3. अतिआच्छादन ।

1. विजातीयता या विषमांगता (Heterogeneity):

रिग्स ने अत्यधिक विजातीयता को प्रिज्मेटिक समाज का मुख्य लक्षण बताया है । इससे आशय है- विभिन्न विरोधाभासों का सह अस्तित्व । ये विरोधाभास भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्विक क्षेत्रों में नजर आते हैं ।

(i) भौगोलिक विषमांगता:

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प्रिज्मेटिक समाजों में शहरी और ग्रामीण जीवन शैली का सह अस्तित्व रहता है, जिनमे बहुत ज्यादा अन्तर दिखायी देते है । जहां शहरों में पश्चिमी स्टाइल के आधुनिक दफ्तर, अत्याधुनिक संचार व्यवस्था, बहुमंजिली इमारतें, विभिन्न सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संस्थाओं का जाल होता है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में ठेठ पारंपरिक जीवन शैली मौजूद होती है ।

(ii) सामाजिक विषमांगता:

प्रिज्मीय समाज के हर क्षेत्र में विरोधाभास दिखायी देते हैं, चाहे शिक्षा हो या स्वास्थ्य, धर्म हो या संस्कृति । प्रिज्मेटिक समाज बहु-संप्रदायिक होता है अर्थात यहां एक से अधिक संप्रदाय, धर्म के लोग रहते है । इनके मध्य सौहाद्रता भी रहती है और संघर्ष भी जब-तब छिड़ जाता है ।

प्रिज्मेटिक समाज के इन संप्रदायों या जाति-वर्गों में विकास का स्तर भिन्न-भिन्न होता है जिससे संपूर्ण सामाजिक विकास का आकलन कठिन हो जाता है, जैसा कि भारत में सच्चर कमेटी ने कहा है । यहां पाश्चात्य शैली के शैक्षणिक संस्थान भी होते हैं और पारंपरिक भी । इन दोनों में शिक्षा का स्तर भिन्न-भिन्न होता है ।

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एक तो यहां सभी तरह की आधुनिक चिकित्सा पद्धतियां मौजूद हैं, जैसे एलीपैथिक, होम्योपैथिक दूसरी तरफ पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां भी प्रचलित हैं जँसे आयुर्वेदिक, यूनानी, प्राकृतिक । इन वैज्ञानिक पद्धतियों के अलावा झाड़-फूंक, जादू टोना जैसे अंधविश्वास भी हैं ।

(iii) बौद्धिक विषमांगता या बहुल संप्रदायवाद:

यह भी प्रिज्मेटिक समाजों का एक विरोधाभास है कि यहां दो तरह के अभिजन वर्ग विकसित हो जाते हैं । एक वे जो अपनी योग्यता बौद्धिक क्षमता से अभिजन वर्ग में शामिल हो जाते हैं, विशेषकर सरकारी सेवा में आ जाते हैं । लेकिन दूसरे वे जो इस प्रयास में असफल रहते हैं ।

ये असफल बुद्धिजीवी विरोधी अभिजन वर्ग का निर्माण कर व्यवस्था की खामियां प्रकट करते हैं और बिखरे हुए क्रांतिकारी तनावों को अपने नेतृत्व में जन्म देते हैं । रिग्स ने इस ”बहुल संप्रदायवाद” को विषमांगता के ‘तीसरे आयाम’ की संज्ञा दी ।

(iv) बहुल मानकीयबाद:

प्रिज्मेटिक समाजों में पारंपरिक और आधुनिक मूल्यों का सह अस्तित्व बना रहता है । अनेक पारंपरिक मूल्य टूटते है और उनका स्थान नये आधुनिक मूल्य लेते है । इस द्वन्द्व को रिग्स ने ”बहुल मानकीयवाद” कहा और उसे विजातीयता के चतुर्थ आयाम की संज्ञा दी ।

(v) कलैक्टस की उपस्थिति:

प्रिज्मीय समाज में प्रभावशाली स्थिति वाला एक ऐसा वर्ग भी विकसित होता है जो इस्तेमाल तो आधुनिक संगठन और साधन करता है, लेकिन जिसके दिलो-दिमाग में संकीर्ण जातीगत ध्येय बने होते हैं । रिग्स ने इस समूह को ”क्लेक्ट्स” कहा जो वस्तुत: प्राथमिक समाज (पिछड़े समाज) के लक्षण ”सेक्टस” और आधुनिक समाज के लक्षण ”क्लब” के मध्य की स्थिति है । रिग्स के अनुसार कलेक्टस के सदस्य अपनी जाति या धर्म से संबंधित लोगों को विशेष लाभ पहुंचाते हैं ।

(vi) आर्थिक बिषमांगता (बाजार कैंटीन मॉडल):

प्रिज्मेटिक समाजों की आर्थिक उप व्यवस्था को रिग्स ”बाजार-कैटीन” की संज्ञा देते है । यह ”बाजार कैंटीन” मॉडल वस्तुत: विस्तृत समाज की अर्थव्यवस्था (एरीना) और विवर्तित समाज की अर्थव्यवस्था (बाजारीकृत) के सह-अस्तित्व के कारण प्रकट होती है । और इसलिये इसमें दो तरह के कैंटीन व्यवहार पाये जाते है: एक विशिष्ट कैंटीन व्यवहार अर्थात आर्थिक ढांचों द्वारा अपने सदस्यों को रियायती दर पर सुविधायें, सेवायें, वस्तुएं उपलब्ध कराना ।

यह वस्तुत: नियंत्रित अर्थव्यवस्था का उदाहरण है जो इन देशों की सामाजिक-आर्थिक विषमता की जरूरत है जिसके अंतर्गत वंचित और कमजोर तबकों (रिग्स के अनुसार जिन्हें राजनीतिक प्रभाव हासिल है) के लिये रियायती दरों पर वस्तुएं, सेवाएं उपलब्ध करायी जाती हैं (जैसे भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली) । दूसरी और विशिष्ट कैंटीन व्यवहार भी होता है जहां राजनीतिक रूप से अप्रभावी कमजोर आर्थिक स्थिति वालों से और कलेक्ट्स के बाहर के व्यक्तियों से उक्त सुविधाओं की अधिक कीमत ली जाती है ।

रिग्स ने बाजार कैंटीन मॉडल की विशेषताएं बतायी है:

(a) एरीना घटक और बाजार घटकों की उपस्थिति और प्रभाव साथ-साथ रहना ।

(b) इस सौदेबाजी में आर्थिक और गैर आर्थिक दोनों कारकों का परस्पर हस्तक्षेप होता है (यह अति आच्छादन या परस्पर व्यापन को जन्म देता है) । इससे सामान्य मूल्य अनिश्चिता तो समाप्त हो जाती है लेकिन किसी एक वस्तु या सेवा का कोई निश्चित मूल्य भी निर्धारित नहीं रहता । सामान्यता मूल्यों में मानदण्ड से अधिक रहने की प्रवृत्ति होती है जो मोलभाव का परिणाम होती है ।

(c) सौदेबाजी या मोलभाव बाजार कैंटीन मॉडल का अनिवार्य आधारभूत चरित्र होता है ।

(d) भूमि, पारिवारिक स्थिति, अचल संपत्ति, धर्म, सरकारी नौकरी (यहां तक कि चपरासी का पद भी) आदि सामाजिक प्रतिष्ठा के मूलाधार होते हैं जबकि व्यापारिक-व्यवसायिक उपलब्धियों, निजी क्षेत्र की नौकरियों को समाज में महत्व हासिल नहीं होता ।

(i) बचत का स्तर निम्न होता है, क्योंकि जो भी बचता है वह कर्मकाण्ड आदि पर खर्च हो जाता है ।

(ii) बचत नहीं होने से निवेश की दर भी निम्न होती है, अत: उत्पादन वृद्धि के लिये पर्याप्त पूंजी का अभाव बना होता है ।

(iii) बिना पूंजी में वृद्धि किये बाजारी शक्तियों का विकास किया जाता है, जो अर्थव्यवस्था पर भार बन जाता है ।

(iv) जमा खोरी की प्रवृत्ति होती है, जो कालेधन को जन्म देती है । कालाधन एक समानांतर अर्थव्यवस्था के रूप में चलता है जो रिश्वत, अनैतिकता, अपराध को बढ़ाता है ।

(v) जमाखोरी, कालाधन आदि की उपस्थिति महंगाई को जन्म देती है । यह गरीबी, शोषण, भुखमरी का भी कारण बनते हैं ।

2. औपचारिकता या प्रारूपवाद (Formalism):

प्रिज्मेटिक समाज का एक लक्षण औपचारिकता है । इससे आशय है कि इन समाजों में सिद्धांत और व्यवहार के मध्य काफी अंतर पाया जाता है । इन समाजों के प्रत्येक पक्ष में यह अंतर दिखायी देता है । रिग्स के अनुसार यह अंतर केवल प्रिज्मेटिक समाज में ही होता है । प्राथमिक (विस्तृत) और आधुनिक (विवर्तित) समाज में यह अंतर नहीं होता क्योंकि वे जैसे होते है, वैसे ही दिखते है और जैंसे दिखते है, वैसे ही होते हैं ।

प्रिज्मेटिक समाज में औपचारिकता इसलिये आ जाती है कि ये समाज सैद्धांतिक रूप से तो आधुनिक मूल्यों को अपनाये होते हैं लेकिन व्यवहार में उनका पालन कम, उल्लंघन अधिक करते हैं । औपचारिकता न सिर्फ सामाजिक द्वन्द्व को बल्कि व्यैक्तिक द्वन्द्व को भी जन्म देती है जो सर्वत्र दिखायी देता है ।

(i) रिग्स ने संवैधानिक औपचारिकता का जिक्र करते हुये बताया कि प्रिज्मैटिक समाजों ने जिन संवैधानिक सिद्धांतों और आदर्शो को अपनाया है, व्यवहारिक रूप से उनके क्रियान्वयन में उलटा दिखायी देता है। मसलन भारतीय संविधान में कहा गया है कि संसद का सरकार पर नियंत्रण होगा लेकिन वास्तविकता में सरकार संसद की कोई परवाह नहीं करती ।

(ii) रिग्स ने शैक्षणिक औपचारिकता का जिक्र भी किया है, जो वस्तुत: इसलिये प्रकट हुई क्योंकि विदेशी पाश्चात्य ढांचों को इन देशों ने बिना अपने पर्यावरण के अनुकूल ढाले यथास्वरूप अपनाने की कोशिश की ।

(iii) प्रशासनिक औपचारिकता के चलते यहा सरकारी अधिकारी अपनी आचार संहिता का जब-तब उललंघन करते दिखते है, क्योंकि औपचारिक आदर्शों की दिशा में बढ़न के लिये उन पर पर्याप्त सामाजिक, राजनीतिक नियंत्रण नहीं होता । सैद्धांतिक रूप से नौकरशाही जनता के प्रति उत्तरदायी और ”लोक सेवक” की भूमिका में होनी चाहिये लेकिन वास्तविकता में वह जनता से स्वामी जैसा व्यवहार करती है ।

3. अति आच्छादन (Overlapping):

इससे आशय है- एक संरचना का दूसरी संरचना के व्यवहार में प्रभावपूर्ण हस्तक्षेप । वस्तुत: प्रिज्मेटिक समाज में प्रशासनिक संरचना गैर प्रशासनिक कारकों से, आर्थिक संरचना गैर आर्थिक तत्वों से और इसी प्रकार राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि संरचनाएं अन्य कारकों से प्रभावित होती हैं ।

इसके विपरीत विस्तृत और विवर्तित समाजों में ऐसा आच्छादन नहीं होता । प्रिज्मेटिक समाज में इस आच्छादन का मुख्य कारण है, नये विभेदीकृत आधुनिक ढाचों की मौजूदगी के बावजूद पारंपरिक अविभेदीकृत ढांचों का वर्चस्व ।

इन समाजों में संसद, सरकार, दफ्तर से लेकर स्कूल, चिकित्सालय, बाजार आदि क्षेत्रों तक आधुनिक किस्म की संरचनाएं स्थापित हो चुकी होती है और जिनके द्वारा संपादित राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि कार्यों को औपचारिक-वैधानिक स्वीकृति हासिल होती है लेकिन वास्तविकता यह है कि यह सब उपरी तौर पर ही हैं, अंदरूनी तौर पर तो पारंपरिक संरचनाएं जैंसे परिवार, धर्म, जाति आदि का प्रभुत्व बना रहता है ।

उदाहरण के लिये मकान किराये पर देना एक आर्थिक क्रिया है, लेकिन भारत में मकान किराये पर देने से पहले जाति या धर्म पूछा जाता है । यह आर्थिक व्यवहार में धार्मिक-सामाजिक कारक का प्रभाव या हस्तक्षेप है । बाजार कैंटीन मॉडल विजातियता के साथ परस्पर व्यापन का भी परिणाम होता है । भाई-भतीजावाद, बहुल-सांप्रदायिकता, बहुल मानकीयवाद, नियंत्रण से सत्ता का पृथक्करण आदि भी परस्परव्यापिता के ही आशिक परिणाम है ।