Read this article in Hindi to learn about the developments in Indian public administration under the British rule.  

भारतीय प्रशासनिक ढाँचा प्रधानतया ब्रिटिश शासन की विरासत है । भारतीय प्रशासन के विभिन्न ढाँचागत और कार्यप्रणालीगत पक्षों जैसे सचिवालय प्रणाली, अखिल भारतीय सेवाएं, भर्ती, प्रशिक्षण, कार्यालय पद्धति, स्थानीय प्रशासन, जिला प्रशासन, बजट प्रणाली, लेखापरीक्षा, केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति, पुलिस प्रशासन, राजस्व प्रशासन आदि की जड़ें ब्रिटिश शासन में निहित हैं । भारत में ब्रिटिश शासन काल को दो चरणों में विभक्त कर सकते हैं – वर्ष 1858 तक का कंपनी का शासन और वर्ष 1858 से 1947 तक ब्रिटिश ताज का शासन ।

भारतीय प्रशासन में ब्रिटिश-शासन की विरासत का अध्ययन तीन शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है:

1. संवैधानिक विकास

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2. लोकसेवा का विकास क्रम

3. अन्य संस्थाओं का विकास

संवैधानिक विकास (Constitutional Development):

ब्रिटिश शासन के दौरान संविधान में हुए परिवर्तनों (जिससे ब्रिटिश शासनकालीन भारत में प्रशासन की कार्यपद्धति और संगठन के लिए कानूनी आधार प्राप्त हुआ) की प्रमुख घटनाएँ नीचे समयानुक्रम के अनुसार दी जा रही हैं:

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रेगुलेटिंग एक्ट 1773:

ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियंत्रित और विनियमित करने की दिशा में उठाया गया यह पहला कदम था ।

इसके फलस्वरूप केंद्रीय प्रशासन की नींव निम्नलिखित तीन संदर्भों में पड़ी:

(i) इस अधिनियम ने बंगाल के गर्वनर को बंगाल के गवर्नर-जनरल का पद दिया । प्रथम गवर्नर-जनरल होने का श्रेय लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स को मिला ।

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(ii) इसने बंबई और मद्रास के गवर्नरों को बंगाल के गवर्नर-जनरल के अधीन किया ।

(iii) इसने कोलकाता में शीर्ष न्यायालय के रूप में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की ।

पिट्‌स इंडिया एक्ट 1784:

इस अधिनियम ने भारतीय मामलों को सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन कर दिया । ईस्ट-इंडिया कंपनी के शासी निकाय ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ पर नियंत्रण करने के लिए कंट्रोल बोर्ड का गठन किया गया जो ब्रिटिश कैबिनेट का प्रतिनिधित्व करता था ।

चार्टर एक्ट 1833:

इस अधिनियम ने बंगाल के गवर्नर-जनरल को भारत के गवर्नर-जनरल की पदवी प्रदान की । सभी तरह की नागरिक और सैन्य शक्तियां उसे प्राप्त हुईं । बंबई और मद्रास की सरकार को अपनी विधायी शक्तियों से वंचित होना पड़ा । ब्रिटिशकालीन भारत के केंद्रीकरण की दिशा में यह अंतिम कदम था ।

इस एक्ट के फलस्वरूप ही प्रथमतः भारत सरकार का आविर्भाव हुआ जिसे ब्रिटिश शासकों द्वारा अधिकृत समस्त क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त था । इसके अतिरिक्त इस एक्ट के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी की वाणिज्यक गतिविधियों का भी अंत हो गया ।

चार्टर एक्ट 1853:

इस एक्ट के परिणामस्वरूप गवर्नर-जनरल की परिषद के विधायी और कार्यकारी कार्यों का पहली बार पृथकीकरण हुआ । इस एक्ट के फलस्वरूप ही कंपनी के लिए लोकसेवकों की भर्ती की खुली प्रतियोगिता प्रणाली का सूत्रपात हुआ तथा डायरेक्टरों को अपनी शक्तियों से वंचित होना पड़ा ।

गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1858:

इस एक्ट के फलस्वरूप भारत की सरकार, क्षेत्र और राजस्व ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश ताज को हस्तांतरित हुआ । दूसरे शब्दों में कंपनी का शासन भारत में ब्रिटिश ताज के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया । भारत में ब्रिटिश ताज की शक्तियों का प्रयोग सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा होने लगा ।

इस प्रकार कंट्रोल बोर्ड और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का स्थान इस नए पद ने ले लिया । सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था जिसकी सहायतार्थ 15 सदस्यों वाली काउंसिल ऑफ इंडिया थी । सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को भारतीय प्रशासन पर सर्वाधिकार और नियंत्रण की शक्तियाँ प्राप्त थीं । गवर्नर जनरल उसका एजेंट होता था तथा वह ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति जवाबदेह था ।

इंडियन काउंसिल एक्ट 1861:

इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान थे:

(i) भारत में पहली बार प्रतिनिधिक संस्थाओं की शुरुआत हुई ताकि यह व्यवस्था की जा सके कि विधायी कार्यों के समय गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में गैर-सरकारी सदस्यों के रूप में कुछ भारतीय भी शामिल हों ।

(ii) इससे बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी को विधायी शक्तियाँ प्राप्त हुईं जिसके फलस्वरूप विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ ।

(iii) पोर्टफोलियो प्रणाली को संवैधानिक मान्यता मिली ।

(iv) इससे गवर्नर जनरल को परिषद में सुचारु कार्य व्यवहार करने के लिए नियम-निरूपण की शक्ति प्राप्त ई ।

इंडियन काउंसिल्स एक्ट 1892:

इस अधिनियम के माध्यम से अप्रत्यक्ष तौर पर चुनाव के सिद्धांत का परिचय

हुआ । गवर्नर-जनरल को तब भी नामांकन की शक्ति प्राप्त थी, जब सदस्य अप्रत्यक्ष तौर पर चुने जाते थे । इसके अतिरिक्त इस अधिनियम द्वारा विधायी परिषद के कार्यक्षेत्र में विस्तार हुआ उसे बजट संबंधी चर्चा करने और कार्यकारिणी के समक्ष प्रश्न रखने की शक्तियाँ प्राप्त हुईं ।

इंडियन काउंसिल एक्ट 1909:

इस अधिनियम को मॉर्ले-मिंटो सुधार अधिनियम के नाम से भी जानते हैं (लॉर्ड मार्ले भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट थे तथा लार्ड मिंटो गवर्नर-जनरल थे) । इसके द्वारा सेंट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल का नाम बदलकर इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल कर दिया गया और इसमें आधिकारिक बहुमत का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया ।

दूसरी ओर, प्रांतीय विधान परिषदों में अनाधिकारिक बहुमत की शक्ति प्रदान की गई । इसके अतिरिक्त इस अधिनियम के माध्यम से विधान परिषदों के आकार और कार्यप्रणाली को भी विस्तार दिया गया । अधिनियम के माध्यम से ‘पृथक निर्वाचक मंडल’ की धारणा को स्वीकार कर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की शुरुआत भी की गयी ।

इस प्रकार इस अधिनियम के माध्यम से ‘संप्रदायवाद को वैधानिक दर्जा’ प्राप्त हुआ और इसके द्वारा लॉर्ड मिंटो को ‘सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल का जनक’ माना जाता है ।

भारत सरकार अधिनियम 1919:

इस अधिनियम को मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (भारत में तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मॉन्टे तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड चेम्सफोर्ड सुधार) के नाम से भी जाना जाता है । इस अधिनियम के माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विषयों का अलग-अलग निर्धारण के प्रांतों पर केंद्र के नियंत्रण में कमी लाई गई । केंद्रीय और प्रांतीय विधान सभाओं को अपनी-अपनी विषय सूची से संबंधित कानून बनाने के लिए प्राधिकृत किया गया ।

इस अधिनियम के माध्यम से प्रांतीय विषयों को स्थानांतरित और आरक्षित- दो भागों में विभक्त किया गया । स्थानांतरित विषयों को गवर्नर द्वारा प्रशासित किया जाता था जिसे अपने कार्य में विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों का सहयोग प्राप्त था । आरक्षित विषय भी गवर्नर के अधीन थे । किंतु इनमें उसे कार्यकारी परिषद का सहयोग प्राप्त था जो विधान परिषद के प्रति जिम्मेदार नहीं थी । शासन की इस दोहरी पद्धति को ‘द्वैधशासन’ के नाम से जाना जाता था परंतु यह प्रयोग सफल नहीं रहा था ।

इस अधिनियम के फलस्वरूप देश में द्विसदनी और प्रत्यक्ष चुनावों का सूत्रपात हुआ । इस प्रकार इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल की जगह द्विसदनी विधानमंडल अस्तित्व में आया जिसमें अपर हाउस (काउंसिल ऑफ स्टेट) और लोअर हाउस (लेजिस्लेटिव असेंबली) का प्रावधान था । दोनों सदनों के अधिकांश सदस्य प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने जाते थे । इस अधिनियम में यह प्रावधान भी किया गया कि छह सदस्यीय गवर्नर जनरल काउंसिल में तीन सदस्य (कमांडर-इन-चीफ को छोड्‌कर) भारतीय होंगे ।

भारत सरकार अधिनियम 1935:

इस अधिनियम के प्रावधान निम्नलिखित थे:

परिसंघ:

अधिनियम के तहत प्रांतों और इकाइयों के रूप में रजवाड़ों को शामिल करके अखिल भारतीय परिसंघ की स्थापना का प्रावधान किया गया । फलस्वरूप इस अधिनियम द्वारा केंद्र और इकाईयों के बीच शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों के संदर्भ में हुआ- संघीय सूची (केंद्र के लिए 59 मदों सहित), प्रांतीय सूची (प्रांतों के लिए 54 मदों सहित) और समवर्ती सूची (केंद्र और प्रांत, दोनों के लिए 36 मदों सहित) । शेष अधिकार गवर्नर-जनरल को दिए गए थे । तथापि संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया क्योंकि रजवाड़े इसमें शामिल नहीं हुए ।

प्रांतीय स्वायत्तता:

इस अधिनियम के द्वारा प्रांतों के द्वैधशासन का अंत हुआ और इसकी जगह ‘प्रांतीय स्वायत्तता’ ने ली । प्रांत केंद्र के नियंत्रण से काफी हद तक मुक्त हुए तथा इन्हें अपने अपने परिभाषित क्षेत्र के अंतर्गत प्रशासन की स्वायत्त इकाइयों के रूप में कार्य करने की आजादी मिली ।

इसके अतिरिक्त इस अधिनियम द्वारा प्रांतों में जिम्मेदार सरकार की शुरुआत हुई अर्थात प्रांतीय विधानसभा के प्रति जिम्मेदार मंत्रियों की सलाह पर गवर्नर को कार्य करना होता था । अधिनियम का यह भाग वर्ष 1937 में प्रभावी हुआ पर वर्ष 1939 में इसको त्याग दिया गया ।

केंद्र स्तर पर द्वैधशासन:

अधिनियम में केंद्र स्तर पर द्वैध शासन अंगीकृत करने का प्रावधान था । फलस्वरूप, संघीय विषयसूची को आरक्षित और स्थानांतरित विषयसूची में विभक्त किया गया था । तथापि अधिनियम का यह प्रावधान प्रभावी नहीं हुआ ।

प्रांतों में द्विसदनी पद्धति:

अधिनियम द्वारा 11 प्रांतों से 6 प्रांतों में द्विसर्दनी पद्धति की शुरुआत हुई । इस प्रकार मुंबई बंगाल मद्रास बिहार असम और संयुक्त प्रांतों के विधान मंडलों को दो सदनों अर्थात विधान परिषद (उच्च सदन) और विधानसभा (निचला सदन) में बाँट दिया गया । इन पर कई प्रतिबंध भी लगाए गए थे ।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम – 1947:

वर्ष 1935 के अधिनियम के तहत परिसंघ और द्वैध शासन से जुड़े प्रावधानों के वर्ष 1947 तक प्रभावी न होने के कारण भारत सरकार का कामकाज 1919 के अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार चलता रहा । इस प्रकार 1919 के अधिनियम के तहत किया गया – ‘कार्यकारी परिषद द्वारा गवर्नर को सलाह देने का’ – प्रावधान वर्ष 1947 तक जारी रहा ।

इस अधिनियम के प्रावधान इस प्रकार थे:

(i) इसके द्वारा भारत को स्वतंत्र और प्रभुता संपन्न देश घोषित किया गया और भारत के प्रशासन के प्रति ब्रिटिश संसद की जवाबदेही समाप्त हुई ।

(ii) इसके द्वारा केंद्र और प्रांत दोनों स्तरों पर उत्तरदायी सरकार की स्थापना हुई । संवैधानिक प्रमुखों के रूप में नाममात्र के लिए भारत के गवर्नर जनरल और प्रांतीय गवर्नरों की नियुक्ति की गई । दूसरे शब्दों में उक्त दोनों को मंत्री परिषद की सलाह पर कार्य करना होता था ।

(iii) इसने वर्ष 1946 में गठित संविधान सभा को दो कार्य सौपें (संवैधानिक और विधायी) । इस औपनिवेशिक विधायिका को उसमें प्रभुता संपन्न संस्था घोषित किया ।

लोक सेवा का विकासक्रम (Evolution of Civil Service):

‘लोकसेवा’ और ‘लोकसेवा प्रणाली’ की भारत में शुरुआत पहली बार ब्रिटिश शासकों द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल (सत्रहवीं शताब्दी) के दौरान हुई थी । शुरू में वाणिज्यिक कार्य में लगे ईस्ट इंडिया कंपनी के सेवकों को कंपनी की स्थल सेना और नौसेना के कर्मचारियों से अलग रखने के उद्देश्य से ‘लोकसेवक’ कहा जाता था ।

वर्ष 1675 में कंपनी ने पदों को नियमित तौर पर निम्नलिखित ढंग से श्रेणीबद्ध करने की परंपरा डाली (नीचे से ऊपर के क्रम में):

(i) अपरेंटिस

(ii) राइटर

(iii) फैक्टर

(iv) जूनियर मर्चेंट

(v) सीनियर मर्चेंट

बाद में जब कंपनी के नियंत्रण क्षेत्र का विस्तार हुआ तो लोकसेवकों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़े । वर्ष 1765 तक ‘लोकसेवक’ शब्द का प्रयोग कंपनी के आधिकारिक अभिलेखों में होने लगा था । लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स और लॉर्ड कार्नवालिस के प्रयासों के फलस्वरूप लोकसेवा का उदय हुआ । हेस्टिस ने लोकसेवा की नींव रखी और कार्नवालिस ने इसे तर्कसंगत एवं नया स्वरूप प्रदान किया । इसीलिए लॉर्ड कार्नवालिस को ‘भारत में लोकसेवा का जनक’ कहा जाता है ।

उसने उच्च लोकसेवा की शुरुआत की जो निचले स्तर की लोकसेवा से अलग थी । उच्च लोकसेवा का गठन कंपनी के कानून द्वारा जबकि निचले स्तर की लोकसेवा का गठन अन्यथा किया गया था । कार्नवालिस ने उच्च लोकसेवा के पदों को अंग्रेजों के लिए ही आरक्षित रखकर भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखा ।

कार्नवालिस की नीति निम्नलिखित तर्कों पर आधारित थी:

(i) उसे भारतीयों की निष्ठा और योग्यता पर विश्वास नहीं था ।

(ii) उसकी सोच थी कि भारत में ब्रिटिश शासन को स्थापित और संगठित रखने का कार्य भारतीय मूल के लोगों पर नहीं छोड़ा जा सकता ।

(iii) उसका मानना था कि भारत में ब्रिटिश मॉडल पर आधारित प्रशासन केवल अंग्रेजों द्वारा ही स्थापित किया जा सकता है भारतीयों द्वारा नहीं ।

(iv) वह सिविल सेवा के अधीन उच्च पदों को ब्रिटिश समाज के प्रभावशाली लोगों के लिए आरक्षित रखना चाहता था ।

वर्ष 1800 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने कंपनी के लोकसवकों को प्रशिक्षण देने के लिए कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की । वेलेजली के इस कार्य को कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का समर्थन (ईस्ट इंडिया कंपनी का शासी निकाय) नहीं मिला, जिन्होंने प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए इंग्लैंड के हेलीबरी में वर्ष 1806 में ईस्ट इंडिया कालेज की स्थापना की थी ।

चार्टर एक्ट 1833 के माध्यम से कंपनी के लोकसेवकों के चयन के आधार के रूप में खुली प्रतियोगिता प्रणाली की शुरुआत का प्रयास किया । इस एक्ट में यह भी उल्लेख था कि भारतीयों को कंपनी के अंतर्गत रोजगार पद और अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए । तथापि, इस एक्ट के प्रावधान कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण लागू नहीं हो सके जो संरक्षण प्रणाली को ही जारी रखना चाहते थे ।

मैकाले समिति चार्टर एक्ट 1853 के माध्यम से संरक्षण प्रणाली समाप्त हुई तथा कंपनी के लोकसेवकों के चयन और भर्ती के आधार के रूप में खुली प्रतियोगिता प्रणाली का सूत्रपात हुआ । इस प्रकार कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स अपनी संरक्षक शक्तियों से वंचित हो गए और उच्च लोकसेवा की प्रतियोगिता में नियंत्रण बोर्ड द्वारा बनाए जाने वाले नियमों के तहत भारतीयों को भी शामिल कर लिया गया ।

तद्‌नुसार ही अधिनियम के उक्त प्रावधानों को लागू करने के उपाय सुझाने के लिए वर्षा 1854 में मैकाले समिति (भारतीय लोकसेवा से संबंधित समिति) की नियुक्ति हुई ।

समिति ने अपनी रिपोर्ट 1854 में ही प्रस्तुत कर दी जिसमें निम्नलिखित सिफारिशें की गई थीं:

(i) सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए खुली प्रतियोगिता प्रणाली अपनाई जानी चाहिए ।

(ii) इस परीक्षा में प्रवेश के लिए अभ्यर्थियों की आयु 18 से 23 वर्ष होनी चाहिए ।

(iii) प्रतियोगी परीक्षा का आयोजन लंदन में किया जाना चाहिए ।

(iv) अभ्यर्थियों को अंतिम तौर पर नियुक्त करने से पहले उन्हें कुछ समय के लिए परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रखा जाना चाहिए ।

(v) हेलीबरी स्थित ईस्ट इंडिया कालेज को बंद किया जाना चाहिए ।

(vi) प्रतियोगी परीक्षा का स्तर ऊंचा होना चाहिए तथा गहन ज्ञान से युक्त अभ्यर्थियों का चयन ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।

नियंत्रण बोर्ड ने उक्त सभी अनुशंसाओं को स्वीकार कर उन्हें लागू कर दिया । नियंत्रण बोर्ड ने पहली खुली प्रतियोगिता का आयोजन लंदन में कराया । वर्ष 1858 में इस प्रतियोगी परीक्षा के आयोजन की जिम्मेदारी वर्ष 1855 में गठित ब्रिटिश सिविल सर्विस कमीशन को सौंपी गई ।

इसी प्रकार वर्ष 1858 में ही ईस्ट इंडिया कालेज को बंद कर के लोकसेवकों को ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षण दिया जाने लगा था । फिर भी पहले भारतीय (सत्येन्द्र नाथ टैगोर) को उच्चतर लोकसेवा में प्रवेश 1864 में जाकर ही प्राप्त हो सका ।

इंडियन सिविल सर्विस एक्ट 1861 में उच्च सेवा के सदस्यों के कुछ महत्त्वपूर्ण पदों को आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया था । इसके बाद सिविल सर्विस एक्ट 1870 के माध्यम से 1861 के अधिनियम की त्रुटियों को सुधारा गया और इसमें भारतीयों के प्रवेश का प्रावधान किया गया । परंतु इसे तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन द्वारा 1879 में ही लागू किया जा सका । वर्ष 1886 में चार्ल्स एटकिसन की अध्यक्षता में लोकसेवा आयोग का गठन किया गया ताकि लोकसेवा में उच्च पदों पर आसीन होने की भारतीयों की दावेदारी के प्रति पूरा न्याय किया जा सके ।

एटकिसन आयोग ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1887 में प्रस्तुत की जिसमें निन्मलिखित सिफारिशें की गई थीं:

(i) सिविल सेवाओं के दो स्तरीय वर्गीकरण अर्थात (उच्च और निचले) की जगह तीन स्तरीय वर्गीकरण अर्थात इंपीरियल (सर्वोच्च) प्रोविंशियल (प्रांतीय) और सबआर्डिनेट (अधीनस्थ) को अपनाया जाना चाहिए ।

(ii) सिविल सेवा में प्रवेश के लिए अधिकतम आयु सीमा वर्ष निर्धारित की जानी चाहिए ।

(iii) भर्ती की संविधिक सिविल सेवा प्रणाली का अंत होना चाहिए ।

(iv) प्रतियोगी परीक्षा इंग्लैंड और भारत में साथ-साथ आयोजित नहीं होनी चाहिए ।

(v) इंपीरियल सिविल सेवा के अधीन कुछ प्रतिशत पद प्रांतीय सिविल सेवा के सदस्यों को पदोन्नत करके भरे जाने चाहिए ।

आयोग की उक्त अनुशंसाओं को वृहद स्तर पर स्वीकार और लागू किया गया । सांविधिक सिविल सेवा का 1892 में समाप्त कर दिया गया । वर्ष 1912 में पुन: लॉर्ड इसलिंग्टन की अध्यक्षता में भारत में लोकसेवा से संबंधित रॉयल कमीशन की नियुक्ति हुई थी । वर्ष 1915 में प्रस्तुत इस आयोग की रिपोर्ट का प्रकाशन 1917 में हो सका ।

प्रथम विश्व युद्ध के कारण आयोग की अनुशंसाओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया । वर्ष 1922 में भारत सरकार ने निचली श्रेणी की सेवाओं के लिए भर्तीकर्ता केंद्रीय एजेंसी के रूप में स्टाफ सलेक्यान बोर्ड (कर्मचारी चयन बोर्ड) का गठन किया । वर्ष 1923 में लॉर्ड विस्कांउट ली की अध्यक्षता में भारत में उच्च सिविल सेवाओं से संबंधित रॉयल कमीशन की नियुक्ति हुई ।

कमीशन ने अपनी रिपोर्ट 1924 में प्रस्तुत करने हुए निम्नलिखित अनुशंसाएँ कीं:

(i) भारतीय सिविल सेवा भारतीय पुलिस सेवा भारतीय चिकित्सा सेवा भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (सिंचाई शाखा) भारतीय वन सेवा (मुंबई प्रांत को छोड़कर) को बनाए रखना चाहिए । इन सेवाओं के सदस्यों की नियुक्ति तथा उन पर नियंत्रण रखने का कार्य भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा किया जाना चाहिए ।

(ii) अखिल भारतीय स्तर की अन्य सेवाओं यथा इंडियन एग्रीकल्चरल सर्विस ऑफ इंजीनियर्स (सड़क और भवन शाखा) और इंडियन फॉरेस्ट सर्विस (केवल मुंबई प्रति में) के लिए आगे कोई नियुक्ति/भर्ती नहीं की जानी चाहिए । भविष्य में इन सेवाओं के सदस्यों की नियुक्ति और उन पर नियंत्रण रखने का कार्य प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना चाहिए ।

(iii) सेवाओं के भारतीयकरण के लिए उच्च पदों में से 20% पद प्रांतीय सिविल सेवा में से पदोन्नति के आधार पर भरे जाने चाहिए । सीधी भर्ती के समय अंग्रेजी और भारतीयों का अनुपात बराबर होना चाहिए ताकि लगभग 15 वर्षों में 50:50 के अनुपात का लक्ष्य हासिल हो सके ।

(iv) ऐसे ब्रिटिश अधिकारियों को समानुपातिक पेंशन के आधार पर सेवानिवृत्ति की अनुमति दी जानी चाहिए जो भारतीय मंत्रियों के अधीन कार्य करने के इच्छुक न हों ।

(v) भारत सरकार अधिनियम 1919 के प्रावधान के अनुसार लोक सेवा आयोग का गठन किया जाना चाहिए ।

उक्त अनुशंसाओं को मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लागू करते हुए वर्ष 1926 में केंद्रीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की और आयोग को लोकसेवकों की भर्ती करने का कार्य सौंपा । इस आयोग में एक अध्यक्ष और पांच सदस्यों का प्रावधान था और इसके पहले अध्यक्ष ब्रिटिश गृह लोकसेवा के वरिष्ठ सदस्य रॉस वार्कर थे ।

भारत सरकार अधिनियम 1935 में लोकसेवा के सदस्यों के अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा संबंधी प्रावधान तो किया ही गया था, इस अधिनियम में संघीय लोक सेवा आयोग तथा प्रांतीय लोक सेवा आयोग की स्थापना के साथ-साथ दो या दो से अधिक प्रांतों के लिए संयुक्त लोकसेवा आयोग स्थापित करने का भी प्रावधान था ।

वर्ष 1947 में अखिल भारतीय स्तर की केवल दो सेवाएँ ही अस्तित्व में थीं- इंडियन सिविल सर्विस और इंडियन पुलिस सर्विस । इसके अतिरिक्त केंद्रीय और राज्य स्तर की विभिन्न सेवाएँ भी अस्तित्व में थीं । केंद्रीय सेवाएँ चार श्रेणियों में वर्गीकृत थीं- श्रेणी I, श्रेणी II, अधीनस्थ और चतुर्थ श्रेणी की निम्नतर सेवाएँ ।

अन्य संस्थाओं का विकास (Growth of Other Institutions):

केंद्रीय सचिवालय:

इस संदर्भ में निम्नलिखित बिंदु उल्लेखनीय हैं:

(i) वर्ष 1843 में भारत के गवर्नर जनरल ने भारत सरकार के सचिवालय को बंगाल सरकार के सचिवालय से पृथक कर दिया था जिसके फलस्वरूप केंद्रीय सचिवालय में गृह वित्त रक्षा और विदेश विभागों की स्थापना हुई थी ।

(ii) वर्ष 1859 में लॉर्ड कैनिंग द्वारा पोर्टफोलियो (विभाग-विभाजन) प्रणाली शुरू की गई जिसके फलस्वरूप गवर्नर जनरल परिषद के एक सदस्य को केंद्रीय सचिवालय के एक या एक से अधिक विभागों का प्रभारी बनाया गया और परिषद की ओर से आदेश जारी करने के लिए प्राधिकृत किया गया था ।

(iii) वर्ष 1905 में लॉर्ड कर्जन ने सचिवालय के कार्मिकों के लिए कार्यकाल संबंधी प्रणाली शुरू की थी ।

(iv) वर्ष 1905 में भारत सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा रेलवे बोर्ड का गठन किया गया जिसके फलस्वरूप रेलवे पर नियंत्रण का कार्य लोक निर्माण विभाग से लेकर इस बोर्ड को सौंप दिया गया था ।

(v) वर्ष 1947 में भारत सरकार के विभागों का नाम बदलकर मंत्रालय कर दिया गया । उस समय केंद्रीय सचिवालय में कुल 18 मंत्रालय थे ।

राज्य प्रशासन:

ब्रिटिश शासनकाल के समय अस्तित्व में आए और विकसित हुए राज्य प्रशासन से जुड़ी संस्थाएं निम्न थीं:

(i) वर्ष 1772 में लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स ने राजस्व संग्रहण और न्याय प्रदान करने के दोहरे प्रयोजन से जिला कलेक्टर के पद की रचना की ।

(ii) वर्ष 1786 में राज्य स्तर राजस्व प्रशासन से जुड़े मुद्‌दों से निपटने के लिए बंगाल में राजस्व बोर्ड नामक संस्था का गठन किया गया था ।

(iii) वर्ष 1829 में लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने जिला और राज्य मुख्यालयों के बीच के एक मध्यस्थ प्राधिकरण के रूप में प्रभागीय आयुक्त के पद की रचना की थी ।

(iv) वर्ष 1792 में लॉर्ड कार्नवालिस ने जमींदारी थानेदार प्रणाली की जगह दरोगा प्रणाली की शुरुआत की जो जिला प्रमुखों के सीधे नियंत्रण में थी ।

(v) वर्ष 1861 में भारतीय पुलिस अधिनियम के माध्यम से कांस्टेबल प्रणाली की स्थापना हुई थी जिसके द्वारा जिला पुलिस को जिला मजिस्ट्रेट (जिला कलेक्टर) के अधीन किया गया था ।

स्थानीय प्रशासन:

वर्तमान भारत के शहरी स्थानीय शासन से जुड़ी संस्थाएँ ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व में आई और विकसित हुई थीं ।

इस संदर्भ में मुख्य घटनाएँ निम्न हैं:

(i) वर्ष 1687 में भारत में पहले नगर निगम की स्थापना मद्रास में हुई ।

(ii) वर्ष 1726 में मुंबई और कोलकाता नगर निगमों की स्थापना हुई ।

(iii) वर्ष 1870 में लॉर्ड मेयो के वित्तीय विकेंद्रीकरण से संबंधित प्रस्ताव द्वारा स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का विकास हुआ था ।

(iv) लॉर्ड रिपन के वर्ष 1882 के प्रस्ताव को स्थानीय स्वशासन का मैग्नाकार्टा माना गया है । लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है ।

(v) विकेंद्रीकरण के मुद्‌दे पर रायल कमीशन की नियुक्ति वर्ष 1907 में की गई थी जिसने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1909 में प्रस्तुत की । इस कमीशन के चेयरमैन हॉबहाउस थे ।

(vi) भारत सरकार अधिनियम 1919 के माध्यम से प्रांतों में शुरू की गई द्वैधशासन प्रणाली के तहत स्थानीय स्वशासन को हस्तांरित विषय का दर्जा प्राप्त हुआ था जिसके प्रभारी भारतीय मंत्री होते थे ।

(vii) वर्ष 1924 में केंद्रीय विधायिका द्वारा कैंटोनमेंट एक्ट पारित किया गया ।

(viii) भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा शुरू की गई प्रांतीय स्वायत्तता से जुड़ी योजना के तहत स्थानीय स्वशासन को प्रांतीय विषय घोषित किया गया ।

वित्तीय प्रशासन:

इस संदर्भ में निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय हैं:

(i) 1753 में भारतीय लेखापरीक्षा व लेखा विभाग का गठन किया गया ।

(ii) वर्ष 1860 में बजट प्रणाली की शुरुआत हुई ।

(iii) वर्ष 1870 में लॉर्ड मेयो ने वित्तीय प्रशासन का विकेंद्रीकरण किया जिसके फलस्वरूप प्रांतीय सरकारों को स्थानीय वित्तीय प्रबंधन के लिए उत्तरदायी बनाया गया था ।

(iv) वर्ष 1921 में आक्वर्थ समिति की सिफारिश पर रेल बजट को आम बजट से पृथक कर दिया गया ।

(v) वर्ष 1921 में ही केंद्र में लोक लेखा समिति का गठन हुआ ।

(vi) वर्ष 1935 में केंद्रीय अधिनियम द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के परिवर्तन (Post Independence Changes):

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान के माध्यम से भारतीय प्रशासन का जो ढाँचा तैयार हुआ उसमें प्रजातांत्रिक और कल्याणकारी राज्य का प्रावधान किया गया था ।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में प्रशासन की दृष्टि से जो बदलाव हुए वे इस प्रकार हैं:

(i) केंद्र राज्य, दोनों स्तर पर संसदीय प्रणाली की सरकार की शुरुआत हुई । इसमें कार्यपालिका जो विधायिका से उत्पन्न थी, को प्रमुखता प्रदान करने के साथ-साथ इसे विधायिका के प्रति जवाबदेही भी बनाया गया था ।

(ii) केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के बँटवारे के साथ संघीय राजनीतिक प्रणाली की शुरुआत हुई किंतु केद्रं सरकार को अधिक शक्ति प्रदान की गई ।

(iii) राजनीतिक कार्यपालिका की सर्वोच्चता लोकसेवकों पर बरकरार रखी गई तथा लोकसेवकों को राजनीतिक कार्यपालिका के अधीन माना गया ।

(iv) राजनीति के दोनों स्तरों (केंद्र और राज्य) पर कल्याण और विकास से जुड़े कई विभागों का विकास किया गया ।

(v) दोनों स्तरों पर नई लोकसेवाओं (अखिल भारतीय जैसे आई एफ एस और केंद्रीय सेवा दोनों) तथा लोक सेवा आयोगों का गठन किया गया ।

(vi) लोकसेवकों की भूमिका में बदलाव लाया गया और उन्हें सामाजिक-आर्थिक विकास प्रक्रिया में बदलाव लाने वाले अभिकर्ता को कार्यभार सौंपा गया ।

(vii) राष्ट्रीय, प्रांतीय और जिला स्तर पर नियोजन के माध्यम से प्रशासन में कल्याण और विकास संबंधी पक्षों को शामिल किया गया ।

(viii) सबसे नीचे के स्तरों पर प्रजातंत्र को बल प्रदान करने के लिए पंचायती राज प्रणाली का आर्विर्भाव हुआ ।

(ix) सलाहकार समितियों दबाव-समूह और अन्य के माध्यम से सभी स्तरों पर प्रशासन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की गई ।