Read this article in Hindi to learn about the contribution of Chester Bernard to public administration.

व्यवस्थावादी और चेस्टर बर्नार्ड ने मेरी पार्कर के चिंतक को अधिक विकसित किया । उन्होंने एल्टन मेयो के मानव-संबंधों की सीमाओं को मानव-व्यवहार के अध्ययन से करने का प्रयास किया । वे प्रथम ”पूर्ण व्यवहारवादी” भी माने जाते है । चेस्टर बर्नार्ड ने ही जीव विज्ञान की सावयवी एकता को लोक प्रशासन में लागू करते हुए व्यवस्था उपागम की नींव रखी । उन्हें ”सामाजिक व्यवस्था स्कूल” का आध्यात्मिक पिता कहा जाता है । फालेट की भांति बर्नार्ड ने भी संगठन के सामाजिक-मनौवैज्ञानिक अध्ययन पर बल दिया और फालेट की ही भांति प्रशासन को एक सामाजिक व्यवस्था माना । बर्नार्ड ने संगठन को ‘सामाजिक-सहकारी व्यवस्था’ की संज्ञा दी ।

ADVERTISEMENTS:

चेस्टर बर्नार्ड मैस्लो, हजबर्ग की भांति ही व्यक्ति के एकल व्यवहार और सामूहिक व्यवहार में अंतर नहीं मानते है । जबकि रिग्स, क्रिस आर्गेराइरिस, डगलस मैक्ग्रेगर जैसे व्यवहारवादी दोनों में अनिवार्य रूप से समानता हो, इससे इंकार करते है ।

रचनाएं:

बर्नार्ड की दो प्रमुख रचनाएं हैं- ”दि फंक्शंस आफ दि एक्जिक्यूटिव्ह” (1938) और ”आर्गेनाइजेशन एण्ड मैनेजमेंट” (1948) ।

योगदान:

1. व्यवस्था उपागम का विकास:

ADVERTISEMENTS:

मूलत: व्यवहारवादी चेस्टर बर्नार्ड ने व्यवस्था दृष्टिकोण को अपनाया । उन्होंने संगठन को सहकारी सामाजिक व्यवस्था की संज्ञा दी । प्रत्येक संगठन में दो प्रकार की सीमाएं होती है- शारीरिक और प्राकृतिक (या भौतिक) । दोनों की किसी उद्देश्य को प्राप्त करने में अकेले सक्षम नहीं होने की अपर्याप्तता ही दोनों के मध्य सहयोग को आवश्यक कर देती है ।

इस सहयोग में से ही सहकारी व्यवस्था का जन्म होता है । चेस्टर बर्नार्ड ने ‘प्रशासनिक संगठन’ को भी एक ‘व्यवस्था’ के रूप में देखा जो कि मानवीय क्रियाओं से मिलकर बनती है तथा सदस्यों के प्रयास, जो कि समन्वित हैं क्रियाओं को एक ‘व्यवस्था’ में बदल देते हैं ।

2. औपचारिक संगठन का विकास:

बर्नार्ड ने औपचारिक संगठन को मनुष्यों की एक सहकारी व्यवस्था माना ।

ADVERTISEMENTS:

बर्नार्ड के अनुसार- ”दो या अधिक व्यक्तियों को जान बूझकर लक्ष्य की तरफ समन्वित करना ही औपचारिक संगठन है ।”

बर्नार्ड ने संगठन के तीन तत्व बताये:

(i) संचार:

बर्नार्ड ने संचार को संगठन का अनिवार्य अंग माना । यह संचार ही है जिसके माध्यम से विभिन्न व्यक्ति परस्पर बातचीत कर संगठन का निर्माण करते है ।

(ii) सहयोग:

बर्नार्ड के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की अपनी भौतिक, सामाजिक एवं जैविक सीमा होती है अत: वह अकेला उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सकता है । यह सीमा ही सहयोग को आवश्यक बना देती है । इस सहयोग को संचार ही सुनिश्चित करता है ।

(iii) सामूहिक लक्ष्य:

व्यक्ति तभी परस्पर सहयोग करेंगे जब उनके लक्ष्य समान होंगे ।

3. अनौपचारिक संगठन एक प्राकृतिक व्यवस्था:

बर्नार्ड ने औपचारिक संगठन के अपने दृष्टिकोण में मानवीय तत्वों को प्रमुख स्थान दिया और यांत्रिक संगठनात्मक तत्वों की उपेक्षा की । उन्होंने अनौपचारिक संगठन की विशिष्ट उपस्थिति को माना और उसका विश्लेषण किया । बर्नार्ड के अनुसार अनौपचारिक संगठन प्राकृतिक व्यवस्था है ।

बर्नार्ड- ”अनौपचारिक संगठन व्यैक्तिक संपर्कों और पारस्परिक क्रियाओं का योग होते हैं । वे व्यक्तियों के सामूहिक संघ होते है ।”

(a) बर्नार्ड के अनुसार अनौपचारिक संगठनों से ही औपचारिक संगठन जन्म लेते हैं ।

(b) अनौपचारिक संगठन प्राकृतिक है जो स्वत: बनते है जबकि औपचारिक संगठन कृत्रिम है जो निर्मित किये जाते है ।

(c) लेकिन दोनों संगठन का सह अस्तित्व होता है अर्थात् दोनों ही व्यवस्था के अनिवार्य भाग है ।

(d) अनौपचारिक संगठन के उद्देश्य भी अनौपचारिक होते है जो संगठनात्मक औपचारिक उद्देश्यों से भिन्न होते है ।

(e) औपचारिक उद्देश्यों के आधार पर पूरा औपचारिक संगठन ‘एक’ होता है । जबकि अनौपचारिक उद्देश्यों के आधार पर एक संगठन में अनेक अंतः संगठन (अनौपचारिक संगठन) विद्‌यमान होते है ।

बर्नार्ड ने अनौपचारिक संगठन के तीन उद्देश्य या कार्य घोषित किये जो कार्य घोषित किये, जो इस प्रकार है:

(1) उन अमूर्त तथ्यों, विचारों, सुझावों और शंकाओं का संचार करना जो बिना मुद्‌दा बने औपचारिक चैनल से नहीं गुजर सकते ।

(2) सेवा करने की इच्छा और वस्तुनिष्ठ सत्ता की स्थिरता को नियमित करके सांगठनिक अखण्डता को बनाए रखना ।

(3) व्यक्तिगत अखण्डता, आत्मसम्मान और स्वतंत्र रूचि के अहसास को बनाये रखना । वस्तुत: बर्नार्ड अनौपचारिक संगठन को ऐसे व्यक्तित्व को बनाये रखने का साधन मानते है जो औपचारिक संगठन के उन प्रभावों को कम करता है जो व्यक्तित्व का विघटन करते हैं ।

4. योगदान-संतोष के मध्य संतुलन का सिद्धांत:

चेस्टर बर्नार्ड का व्यवहारवाद संगठन में मानवीय संतोष को प्राथमिकता प्रदान करता है । उसके अनुसार एक संगठन का अस्तित्व तब तक ही बना रहता है जब तक उसके कार्मिकों को प्राप्त संतोष और उनके द्वारा दिये गये योगदान में एक संतुलन बना रहे ।

बनार्ड का संतुलन समीकरण:

संगठन का अस्तित्व = कार्मिकों का योगदान + कार्मिकों को प्राप्त संतोष

बर्नार्ड के अनुसार योगदान एवं संतुष्टि उभयगामी प्रतिक्रिया है अर्थात् जब तक संतुष्टि है, तब तक योगदान है और जब तक योगदान है तब तक संतुष्टि भी ।

लेकिन फिर भी संगठन में कार्मिकों के संतोष को उनके योगदान से अधिक महत्व दिया गया है ।

कार्मिकों को व्यैक्तिक रूप से संतोष या प्रोत्साहन मिलेगा तो ही वे संगठन में अपेक्षित योगदान दे सकेंगे और संतोष की मात्रा योगदान से सदैव ही अधिक होनी चाहिए ।

स्पष्ट है कि बर्नार्ड ने यांत्रिक विचारकों की ”आर्थिक मानव” परिकल्पना को अस्वीकृत कर दिया और एक हद तक मेयो के ”सामाजिक मानव” सिद्धांत को पुष्ट किया । बर्नार्ड ने सांगठनिक मानव की प्रेरणा के संबंध में मेया के गैर भौतिक प्रोत्साहन को प्रमुख माना यद्यपि मामूली तौर पर भौतिक कारक (धन) को भी महत्व दिया ।

प्रेरणा के भौतिक कारक:

बर्नार्ड ने संतुष्टि प्रदान करने वाले चार संतोषकों का उल्लेख किया है:

1. भौतिक कारक जैसे सत्ता या धन ।

2. विशिष्ट उपलब्धि के लिये व्यैक्तिक अभौतिक अवसर ।

3. कार्य की अपेक्षित भौतिक अवस्थाएं ।

4. आदर्शात्मक कल्याण या प्रोत्साहन जैसे कुशलता को मान्यता, पुरस्कार आदि ।

प्रेरणा के गैर-भौतिक कारक:

बर्नार्ड ने उपर्युक्त भौतिक, अभौतिक कारकों की तुलना करते हुए कहा कि ”आजीविका स्तर” बनाये रखने तक ही भौतिक कारक संतोष प्रदान करते है और इस स्तर से आगे वे अप्रभावी हो जाते है । आगे अभौतिक कारक संतोष या प्रोत्साहन देते है ।

ये ”सामान्य प्रोत्साहक” निम्नानुसार चार होते है:

(1) सहयोगियों के साथ अनुकूलता से उत्पन्न एक संयुक्त आकर्षण । अर्थात् व्यक्ति जब समूह से अनुकूलन कर लेता है तो उससे व्यक्ति और समूह को एक विशेष संतोष की अनुभूति होती है ।

(2) व्यक्ति जिन पद्धतियों और व्यवहार का आदि हो उसके अनुसार काम की परिस्थितियों का ढल जाना ।

(3) जब कभी कोई घटना या अवसर उपस्थित हो तब व्यक्ति उसमें अपनी बडी हुई भागीदारी महसूस करें ।

(4) समूह में अन्य व्यक्तियों के साथ संचार की स्थिति । ऐसी स्थिति जिसमें व्यक्ति सामाजिक संबंधों में सहज महसूस करें ।

बर्नार्ड के अनुसार ये चार सामान्य कारक संगठन में व्यक्ति के संतोष को अधिक प्रभावित करते है और उसके योगदान को भी। और अंतत: संगठन के अस्तित्व को भी ।

5. सत्ता और उत्तरदायित्व:

बर्नार्ड ने सत्ता और उत्तरदायित्व के पारंपरिक सिद्धांत को भी संशोधित किया ।

सत्ता को परिभाषित करते हुए बर्नार्ड कहते है, ”सत्ता वस्तुत: औपचारिक संगठन में संचार का वह स्वरूप है जिसके माध्यम (संचार) से वह (सत्ता) संगठन के योगदानकर्ता या सदस्य द्वारा उन कार्यों के निर्धारक या संचालक के रूप में स्वीकारा जाता है, जो वह करता है या नहीं करता है (जहां तक संगठन का संदर्भ है)” ।

सत्ता के तत्व:

बर्नार्ड ने सत्ता के तीन तत्व बताये है:

1. उद्देश्य

2. योगदान की तत्परता या निरंतरता

3. संचार या सत्ता ।

बर्नार्ड ने संगठन में सत्ता को संचार के लिए आवश्यक माना । वस्तुत: बर्नार्ड ने संचार को ही सत्ता माना । उन्होंने फेयोल, वेबर की सत्ता सबंधी यह धारणा उलट दी कि सत्ता शीर्ष पर केन्द्रीत होती है और उच्चाधिकारी के पास होती है । इसके स्थान पर बर्नार्ड ने ”सत्ता की स्वीकृति विचारधारा” का समर्थन किया ।

‘सत्ता की स्वीकृति’ विचारधारा:

बर्नार्ड कहते है कि उच्चाधिकारी की सत्ता का वैधानिक आधार अधीनस्थ की स्वीकार्यता में है । उच्चाधिकारी सत्ता के आधार पर जो भी निर्णय लेता है या आदेश देता है वे तभी प्रभावी होते है जब अधीनस्थ उन्हें स्वीकार कर ले । अर्थात् वे ही निर्णय या आदेश सत्ता रखते है, जिन्हें अधीनस्थ स्वीकार करते है । उनकी अस्वीकृति सत्ता को अनुपस्थित कर देती है ।

और किसी भी संचार (निर्णय/देश) को अधीनस्थ तभी मानेगा जब निम्नलिखित चार शर्तें एक साथ पूरी हो:

1. जब संचार बोधगम्य हो अर्थात् वह संचार को समझ ले ।

2. जब संचार संगठन के उद्देश्यों के प्रतिकूल नहीं हो ।

3. जब संचार उसके व्यैक्तिक हितों के पूर्ण अनुकूल हो ।

4. जब वह संचार का अनुपालन करने हेतु मानसिक और शारीरिक रूप से योग्य हो ।

इस प्रकार बर्नार्ड की सत्ता विचारधारा के प्रमुख अवलंब है:

(a) संगठन में सत्ता या प्राधिकार का प्रवाह नीचे से ऊपर की और होता है । (फेयोल जैसे शास्त्रीय विचारक सत्ता का प्रवाह ऊपर से नीचे की और मानते है ।)

(b) सत्ता का निवेश या उसकी उपस्थिति ही प्राधिकार नहीं है अपितु सत्ता का अनुपालन प्राधिकार है। (शास्त्रीय विचारक सत्ता की उपस्थिति को ही प्राधिकार कहते है जिसका अनुपालन बाध्यकारी होता है ।)

(c) सत्ता एक कार्यात्मक अवधारणा है अर्थात् कार्य से संबंधित होती है, पद से नहीं । (शास्त्रीय विचारक इसे संरचनात्मक अवधारणा मानते है)

(d) उदासीनता का क्षेत्र- सत्ता की स्वीकृति विचारधारा के अंतर्गत बर्नार्ड ने ”उदासीनता का क्षेत्र” निर्धारित किया । बर्नार्ड के अनुसार कार्मिक या तो निर्णयों को अस्वीकृत कर देते है या आशिक रूप से स्वीकार करते है या निर्विवाद रूप से निर्णयों को पूर्ण स्वीकृति दे देते हैं ।

निर्विवाद रुप से स्वीकृत निर्णय या आदेश इसलिए बिना आपत्ति के स्वीकार हो जाते है क्योंकि कार्मिकों को उनकी आशा सदैव बनी रहती है । ऐसे आदेशों या निर्णयों के प्रति वे प्राय: उदासीन (प्रतिक्रियाहीन) रहते है ।

इनसे ही उदासीनता का क्षेत्र निर्मित होता है । यह वह क्षेत्र है जिसके अंतर्गत आदेशों पर प्रबंधक और कार्मिक एकमत होते है । स्पष्ट है कि सत्ता की स्वीकार्यता उदासीनता के क्षेत्र से निर्धारित होती है । अत: उच्चाधिकारियों को ऐसे आदेश ही देने चाहिए जो इस क्षेत्र में आते हो ।

उदासीनता का क्षेत्र कैसे निर्धारित हो ?

बर्नार्ड कहते है कि उदासीनता के क्षेत्र का निर्धारण ”संतोष-योगदान” के संतुलन द्वारा निर्धारित होता है । स्पष्ट है कि इस क्षेत्र को विस्तृत करके ही अधिकाधिक आदेशों को स्वीकार्य बनाया जा सकता है और इस क्षेत्र को बढ़ाना है तो संतोष और योगदान को बढ़ाना होगा । योगदान तभी बढ़ेगा जब संतोष बढ़ेगा । अत: प्रबंधकों को कार्मिक-संतोष पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।

6. कार्यकारी या प्रबंधक के कार्य:

चेस्टर बर्नार्ड ने संगठन में ”कार्यकारी” को इतना महत्वपूर्ण माना कि अपनी पुस्तक का नामकरण भी तदनुरूप रखा, “कार्यपालिका के कार्य” । बर्नार्ड कहते है कि- ”कार्यकारी के कार्य संगठन की जीवंतता और सहनशीलता को बनाये रखने के लिए जरूरी प्रत्येक कार्य से इस सीमा तक जुड़े होते है कि उन्हें समन्वित कर पूरा किया जा सके ।”

बर्नार्ड ने कार्यपालिका (प्रबंधक) के तीन कार्य बताये है:

1. उद्देश्यों का निर्धारण:

बर्नार्ड ने कार्यकारी का पहला कार्य सांगठनिक लक्ष्यों और कार्यों का निर्धारण बताया ।

ये लक्ष्य दो तरह से निर्धारित किये जा सकते है:

प्रथम- तरीका यह है कि संगठन के मुख्य लक्ष्य को तय करके उसे उपलक्ष्यों में बांट दिया जाए और वे कार्मिकों को सौंप दिये जाए । लेकिन बर्नार्ड कहते है कि यह लक्ष्यों का आरोपण है, निर्धारण नहीं । यह अलोकतांत्रिक और अमानवीय तरीका है ।

द्वितीय- बनार्ड ने दूसरे तरीके का ही समर्थन किया जिसमें कार्मिक स्वयं अपने लक्ष्य तय करते है । चूंकि कार्मिकों के स्वभाव भिन्न और प्रतिस्फर्धात्मक होते है अत: वे अपने बहुत से लक्ष्य बनाते है । इन लक्ष्यों का एकीकरण करके संगठन का मुख्य लक्ष्य बनाया जाए तो वह आकार में वृहद होता है । इससे लक्ष्य की प्राप्ति भी आसान और सुनिश्चित हो जाती है ।

2. संगठन में संचार व्यवस्था का निर्धारण और संधारण:

बर्नार्ड संचार को ”संस्था” के लिये अनिवार्य मानते है । इसलिए प्रबंधक या कार्यकारी का दूसरा प्रमुख कार्य है- संचार की प्रभावी प्रणाली की स्थापना । प्रभावी संचार तभी होगा जब कार्यकारी अधीनस्थों के साथ संपर्क बनाये रखेगा । अत: संचार व्यवस्था का निर्धारण ही नहीं, संधारण में जरूरी है ।

बर्नार्ड कहते है कि संगठन में संचार सड़क के समान है और आदेश उस सड़क पर फिसलती गाड़ी । जिस प्रकार अच्छी सड़क और अच्छी गाड़ी परस्पर पूरक होते है, उसी प्रकार संचार और आदेश भी । अत: बर्नार्ड ने प्रभावी संचार और प्रभावी आदेश दोनों की कतिपय विशेषताएं बतायी है ।

प्रभावी संचार की विशेषताएं:

बर्नार्ड ने प्रभावी संचार के सात सिद्धांत बताये:

(1) संचार के मार्ग निर्धारित होने चाहिए।

(2) संगठन में प्रत्येक व्यक्ति के पास भी संचार का एक निश्चित औपचारिक मार्ग होना चाहिए । कार्मिकों को ज्ञात संचार माध्यम से ही संचार होना चाहिए ।

(3) संचार की रेखाएं जहां तक संभव हो लंबी के बजाय छोटी और अप्रत्यक्ष के बजाय प्रत्यक्ष होनी चाहिए ।

(4) संचार-केन्द्र की भूमिका निभा रहे व्यक्तियों में इस हेतु आवश्यक योग्यता होनी चाहिए ।

(5) संचार की औपचारिक रेखा का पूर्णत: पालन होना चाहिए । भाषा शैली भी औपचारिक होनी चाहिए ।

(6) संचार की रेखा में बाधा नहीं आनी चाहिए ।

(7) प्रत्येक संचार विश्वसनीय और पारदर्शी हो तथा अधिकृत व्यक्ति द्वारा ही हो ।

प्रभावी आदेश की विशेषताएं:

बर्नार्ड के अनुसार एक आदेश का तभी अनुपालन होता है जब उसमें निम्नलिखित विशेषताएं हो:

(1) आदेश स्पष्ट, सरल और पारदर्शी हो ।

(2) आदेश कार्मिकों की मानसिक और शारीरिक योग्यता के अनुकूल हो ।

(3) आदेश सांगठनिक हितों के अनुकूल हो ।

(4) आदेश कार्मिक के व्यैक्तिक हितों के भी अनुकूल हो ।

(5) आदेश की भाषा बोधमम्य हो ।

(6) आदेश ”उदासीनता के क्षेत्र” में आता हो ।

3. अधीनस्थों से उद्देश्यों के अनुरूप प्रयास प्राप्त करना:

कार्यकारी या प्रबंधक का तीसरा महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है, अधीनस्थों से सहयोग प्राप्त करना । वस्तुत: अधीनस्थों को उद्देश्यों के अनुरूप कार्य करने के लिये प्रेरित करना कार्यकारी के लिये एक चुनौतिपूर्ण दायित्व है ।

इस दायित्व की पूर्ति के दो विकल्प होते है:

(I) पुरस्कार या

(II) दण्ड

बर्नार्ड ने यहां ‘दण्ड’ का समर्थन करके एक बारगी तो चौंका दिया । लेकिन इसके पीछे उनके तर्क ठोस प्रतीत होते है ।

उनके अनुसार:

(a) पुरस्कार एक प्रभावी तरीका हो सकता है लेकिन यह तभी प्रभावी है जब कार्मिक सदैव ही सहयोग देता रहे । लेकिन यदि वह सहयोग देने की स्थिति में नहीं है तब उसे पुरस्कार नहीं मिलेगा और जब पुरस्कार नहीं मिलेगा तो वह और अधिक असहयोगी बन सकता है ।

(b) अत: असहयोग की स्थिति में दण्ड ही उपर्युक्त तरीका है जिसके द्वारा कार्मिक से आदेश का पालन करवाया जा सके ।

(c) वस्तुत: यह इस अवधारणा पर आधारित है कि जब संचार और आदेश को प्रभावी बनाने के लिये कार्यकारी पर कठोर शर्तें आरोपित की गयी है तो कार्मिकों पर भी उनके अनुपालन के लिये कुछ कठोर शर्तें होनी चाहिए ।

आलोचनात्मक मूल्यांकन:

चेस्टर बर्नार्ड ने प्रशासनिक संगठन में मानवीय महत्व को स्थापित करने में एक आध्यात्मिक चिंतक की भूमिका निभायी । उन्होंने संगठन में जन और जनतांत्रिक मूल्य दोनों को अधिक महत्व दिया ।

उनके सिद्धांतों का महत्व स्वीकारते हुए भी उनकी आलोचना की गयी है:

(a) उन्होंने मात्र व्यैक्तिक और तात्विक चिंतन के आधार पर सार्वभौमिक सिद्धांत देने की कोशिश की ।

(b) उनकी भाषा शैली औपचारिक और तकनीकी नहीं है अपितु निम्न स्तर की है ।

(c) उन्होंने प्रयोग औपचारिक परिस्थितियों में नहीं किये ।