Read this article in Hindi to learn about:- 1. मंत्रिमंडल की भूमिका (Role of Cabinet) 2. मंत्रिमंडलीय समितियां (Cabinet Committee) 3. सिफारिशें (Recommendations).

वस्तुतः मंत्रिपरिषद का ही जिक्र संविधान में हुआ है जिसके अंतर्गत प्रधानमंत्री और तीनों स्तर के समस्त मंत्रीगण आते हैं । 44वें संशोधन (1978) ने अनुच्छेद 352 के अंतर्गत “मंत्रिमंडल” को शामिल करते हुए इसे भी संविधानिक मान्यता प्रदान कर दी है ।

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अनुच्छेद 352 में मंत्रिमंडल को इस परिभाषित किया गया है- ”यह प्रधानमंत्री और उन कैबिनेट मंत्रियों से मिलकर बनी परिषद या मंडल है जिन्हें अनुच्छेद 75 के तहत शामिल किया गया है ।” भारत में उक्त परंपरा ब्रिटिश परंपरा की ही देन है ।

मंत्रिपरिषद से कैबिनेट और कैबिनेट से किचन कैबिनेट अमेरिका, ब्रिटेन के साथ भारत में प्रचलित रही संविधानोत्तर अवधारणा है । यह कैबिनेट (जिसमें 15 से 20 कैबिनेट मंत्री होते हैं) का भी अत्यंत संक्षिप्त रूप है । इसके अंतर्गत प्रधानमंत्री, उनके अत्यंत विश्वासपात्र 2 से 4 कैबिनेट मंत्री और कुछेक पारिवारिक मित्र और सदस्य आते हैं ।

कभी-कभी विश्वासपात्र राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) को भी इसमें शामिल किया जाता है । भारत में किचन कैबिनेट (घेरे के अंदर घेरा) पहले प्रधानमंत्री पं. नेहरू से लेकर बाद के सभी प्रधानमंत्रियों तक प्रभावी और प्रचलित रही है ।

उदाहरणार्थ- ”जवाहर लाल नेहरू की ‘आंतरिक कैबिनेट’ में पटेल, आजाद, आयंगर और किदवई थे । लाल बहादुर शास्त्री को वाई.बी. चव्हाण, स्वर्ण सिंह और जी.एल.नंदा पर विश्वास था । श्रीमती इंदिरा गांधी के ‘आंतरिक कैबिनेट’ (जिसे अब ‘किचन कैबिनेट’ कहा जाने लगा था) में वाई. बी.चव्हाण, उमाशंकर दीक्षित, फखरूद्दीन अली अहमद, डा.करन सिंह और अन्य प्रभावशाली व्यक्ति थे ।

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प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ‘आंतरिक कैबिनेट’ में एल.के. आडवानी, जार्ज फर्नाडीज, एम.एम. जोशी, प्रमोद महाजन और अन्य थे ।” भारत में किचन कैबिनेट की विद्वानों द्वारा आलोचना की जाती रही है क्योंकि इससे मंत्रिपरिषद और मंत्रिमंडल की उपेक्षा होती है और बाहरी व्यक्तियों का प्रभाव शासन कार्यों पर आता है ।

मंत्रिमंडल की भूमिका (Role of Cabinet):

विशाल मंत्रिपरिषद की नियमित बैठक संबंधी संरचनात्मक समस्या का समाधान ”लघुरूप मंत्रिमंडल” आसानी से कर देता है ।

इसकी भूमिका भारतीय शासन प्रणाली में इस प्रकार है:

1. सर्वोच्च निर्णयकारी सत्ता, नीति नियामक संस्था और समन्वयकारी सत्ता के रूप में ।

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2. विधायी, वित्तीय, संवैधानिक, प्रशासनिक सभी मामलों में अंतिम निष्कर्ष देने वाली कार्यकारी सत्ता ।

3. भारत के आंतरिक और वैदेशिक मामलों को तय करती है ।

4. भारत के प्रमुख संवैधानिक पदों, प्रशासनिक पदों आदि पर नियुक्ति हेतु व्यक्तियों की पहचान ।

5. देश और राज्यों में आपातकालीन परिस्थितियों की पहचान, आपातकाल का निर्णय और उस दौरान संकट समाधान की भूमिका ।

6. राष्ट्रपति को उक्त सभी कार्यों, मामलों में परामर्श देना । इस संदर्भ में विद्वानों के कथन उल्लेखनीय है ।

रैम्जे म्यूर- ”कैबिनेट राज्य रूपी पोत की स्टीयरिंग व्हील है ।”

लॉवेल के अनुसार- ”कैबिनेट राजनीतिक गुंबद की आधारशिला है ।”

जान मैरिअट के अनुसार- ”कैबिनेट वह धुरी है जिसके आसपास पूरा राजनीतिक मंत्र घूमता है ।”

ग्लैडस्टोन के अनुसार- ”कैबिनेट सूर्य की भांति है जिसके चारों और अन्य ग्रह घूमते हैं ।”

बार्कर के अनुसार- ”सभी नीतियां कैबिनेट से जुड़ी होती है ।”

आयवर जेनिंग्स के अनुसार- ”मंत्रिमंडल ब्रिटिश संवैधानिक प्रणाली का सूत्रधार है । यह ब्रिटिश शासन प्रणाली को एकता का स्वरूप प्रदान करता है ।”

एल.एस.अमरे के अनुसार- ”कैबिनेट सरकार का मुख्य निर्देशक तंत्र है ।”

ब्रिटेन में कैबिनेट के बढ़ते प्रभाव को रैम्जेम्योर ने ”कैबिनेट की तानाशाही” कहा । रैम्जेम्यूर ने “हाउ ब्रिटेन इज गवर्नड” में लिखा है कि कैबिनेट इतनी सर्वाधिक संपन्न संस्था है कि वह सभी दूर व्याप्त है लेकिन वह अपनी शक्तियों का पूरा प्रयोग नहीं कर पाती है ।

मंत्रिमंडलीय समितियां (Cabinet Committee):

भारत के शासन को चलाने की महत्वपूर्ण जवाबदारी मंत्रिपरिषद पर है । इस कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए वह समितियों का सहयोग लेती है, जो उसके कार्यों का बोझ कम करके त्वरित और सही निर्णय लेने में अति उपयोगी सिद्ध हुई है । क्योंकि उसके पास इसके लिए पर्याप्त समय का अभाव होता है । अतएव ब्रिटिश परम्परा की भांति भारत में भी मंत्रिमण्डल समितियों का विकास हुआ है ।

भारत में मंत्रिमंडलीय समितियों के संबंध में निम्नलिखित तथ्य महत्वपूर्ण है:

1. समितियां स्थायी और तदर्थ (अस्थायी) दो प्रकार की है ।

2. अस्थायी समिति प्रतिवेदन देकर स्वत: समाप्त हो जाती है । स्थायी समितियां महत्वपूर्ण होती हैं जो अपने विषयों पर निरन्तर विचार करती रहती है ।

3. भारत में 1947-1949 के दौरान क्रमश: दो समितियों- रक्षा समिति और आर्थिक समिति का गठन किया गया था ।

4. वर्तमान में 13 प्रमुख स्थायी समितियां हैं जिनमें सर्वाधिक प्रमुख है- राजनीतिक मामलों की समिति, आर्थिक समिति, विदेश समिति, नियुक्त समिति तथा संसदीय मामलों की समिति । राजनीतिक मामलों में जुड़ी समिति को “सुपर कैबिनेट” माना जाता है ।

5. सामान्यता कोई भी विषय मंत्रिमण्डल के समक्ष प्रस्तुत होने के पूर्व समिति में विचार हेतु पेश होता है । समिति अपने सचिवालय की सहायता से उस पर विचार करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास करती है जिसे विचारार्थ मंत्रिमण्डल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है ।

6. इनमें अमूमन 3-8 मंत्री सदस्य होते हैं । इनमें मंत्री ही सदस्य और अध्यक्ष होते हैं । तथापि उन मंत्रियों को इन समितियों में शामिल करने की मनाही नहीं है जिनको कैबिनेट दर्जा प्राप्त नहीं है ।

7. इनमें विषय से संबंधित प्रभारी मंत्री के अलावा अन्य वरिष्ठ मंत्री भी शामिल किये जाते हैं ।

8. इन समितियों की अध्यक्षता प्रायः प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है । कभी-कभी गृहमंत्री तथा वित्त मंत्री भी इन समितियों की अध्यक्षता करते हैं, किंतु प्रधानमंत्री यदि समिति का सदस्य है तो उसकी अध्यक्षता वह ही करता है ।

लाभ:

समिति व्यवस्था के महत्वपूर्ण लाभ हैं:

1. मंत्रिमण्डल के कार्यभार को हल्का करना,

2. मंत्रिमण्डल अधिक महत्वपूर्ण अन्य मामलों पर ध्यान देने में समर्थ,

3. लोक सेवाओं पर प्रभावशाली नियन्त्रण रखने में मंत्रिमण्डल की मदद करना और

4. मंत्रियों पर सामूहिक नियन्त्रण स्थापित करना, यहां तक कि प्रधानमंत्री पर भी ।

दोष:

भारत में समिति प्रथा का अच्छा विकास हुआ है, लेकिन इसमें कुछ गम्भीर खामियां भी हैं ।

जैसे:

1. सभी सरकारी काम इसके दायरे में नहीं लाए गये हैं,

2. इनकी सदस्य संख्या में एकरूपता का अभाव है,

3. इनकी नियमित बैठकें नहीं हो पाती इत्यादि ।

मंत्रिपरिषद और समितियों से संबंधित प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें (Recommendations of the Administrative Reform Commission Related to the Council of Ministers and Committees):

प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966-70) ने ”सरकारी तंत्र और उसकी कार्यप्रणाली” (1968) संबंधी अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित सिफारिशें मंत्रिपरिषद और समितियों के संदर्भ में की थी:

1. मंत्रिपरिषद त्रिस्तरीय रहे । संसदीय सचिव जैसा अव्यवहारिक पद फिर से शुरू नहीं किया जाए ।

2. मंत्रालय का नेतृत्व कैबिनेट स्तर के मंत्री को ही दिया जाए । राज्यमंत्रियों को स्वतंत्र प्रभार देने की प्रथा समाप्त हो ।

3. उपमंत्री का पद समाप्त नहीं किया जाए ।

4. मंत्रिपरिषद में सामान्य रूप से 40 और अपवाद रूप से 45 तक मंत्री हो सकते हैं । इससे ज्यादा कदापि नहीं ।

5. मंत्रिमंडल (कैबिनेट) में प्रधानमंत्री सहित 16 मंत्रियों से अधिक नहीं हो ताकि त्वरित कार्य के साथ उद्देश्यपूर्ण कार्य सुनिश्चित हो सके ।

6. राज्यमंत्रियों की संख्या 15 से 18 रहे और शेष उपमंत्री हो ।

7. राज्यमंत्रियों और उपमंत्रियों के कार्यों, दायित्वों का स्पष्ट उल्लेख हो ।

8. मंत्रालय की निर्णयन प्रक्रिया में दो से अधिक मंत्रियों को शामिल नहीं किया जाए ।

9. उपप्रधानमंत्री कार्यालय को सरकारी कार्य संबंधी नियमालवली में विधिवत शामिल किया जाए । प्रशासनिक सुधार विभाग को उसके नियंत्रण में रखा जाए ।

10. मंत्रिमंडल की स्थायी समितियों की संख्या 11 हो तथा प्रत्येक में अधिकतम 6 सदस्य हो । इनमें संबंधित मंत्रियों को अनिवार्यत: सदस्य बनाया जाए ।

11. कैबिनेट की प्रत्येक स्थायी समिति की सहायतार्थ सचिवों की समिति होनी चाहिए जो मंत्रिमंडल समिति के समक्ष रखे जाने वाले सभी विषयों पर पहले विचार विमर्श करें ।

12. उपमंत्री का पद सांत्वना पुरस्कार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए । अपितु यह एक प्रतिभा खोज और भावी उच्च पद के लिये प्रशिक्षण केंद्र के रूप में उपयोगी है ।

13. उपमंत्री की नियुक्ति वरिष्ठ मंत्रियों के कार्य के बोझ को हल्का करने के लिए की जानी चाहिए तथा उसे-

(क) किसी महत्वपूर्ण कार्यक्रम या कुछ नीतियों और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की निगरानी का प्रभार या

(ख) छोटे नीतिगत निर्णयों से जुड़ी शक्तियों के अनुकूल विभाग और

(ग) संसदीय कार्यों का प्रभार सौंपा जाना चाहिए ।