लोक प्रशासन के लिए व्यवहार दृष्टिकोण | Behavioural Approach to Public Administration | Hindi!

व्यवहारवादी उपागम का मूल विषय वस्तु (Basic Theme of Behavioural Approach):

व्यवहारवादी उपागम संगठन के मानव संबंध सिद्धांत का परिष्कृत व्यवस्थित और सूक्ष्मतर संस्करण है । दरअसल, प्रशासनिक व्यवहार को 1930 के दशक में मानव संबंध आंदोलन के साथ शुरू माना जाता है । व्यवहारवादी उपागम के लोकप्रिय होने से काफी पहले ही डी.एस.पुग एल्टन मेयो को व्यवहारवादी वैज्ञानिक कहते हैं ।

बाद में यह चेस्टर बर्नार्ड, हरबर्ट साइमन, अब्राहम मास्लोव, डगलस मैकग्रेगर, क्रिस आर्गिरिस, ई.डब्ल्यू.बाक्के, हर्जबर्ग, रेंसिस लिकर्ट, वॉरेन बेनिस, जार्ज होमस, कर्ट लेविन, कार्ल रोजर्स, जे.एल.मोरेनो व अन्य द्वारा विकसित किया गया । किंतु इसके सर्वप्रसिद्ध अग्रणी हरबर्ट व्यवहारवादी उपागम को ‘सामाजिक मनोवैज्ञानिक उपागम’ और नव मानव संबंध उपागम के रूप में भी जाना जाता है ।

इसका लक्ष्य सांगठनिक व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन है । अत: व्यवस्थित, वस्तुगत और आनुभविक अध्ययनों के जरिए यह सांगठनिक विन्यास में मानव व्यवहार के बारे में व्यावहारिक सुझाव विकसित करने का प्रयास करता है ।

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व्यवहारवादी उपागम का सरोकार सांगठनिक व्यवहार (सांगठनिक विन्यास में लोगों का व्यवहार) को वैज्ञानिक ढंग से समझने के लिए समाजशास्त्र मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान और नृपविज्ञान की तकनीकों और नतीजों को लागू करने से है । संक्षेप में, व्यवहारवादी उपागम संगठनों में मानव व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन का नाम है ।

व्यवहारवादी उपागम की विशेषताएँ (Features of Behavioural Approach):

लोक प्रशासन के अध्ययन के व्यवहारवादी उपागम की निम्न विशेषताएँ हैं:

(i) यह सुझावात्मक होने की बजाय व्याख्यात्मक और विश्लेषणात्मक है । इसका सरोकार संगठनों में लोगों के वास्तविक व्यवहार से है । दूसरे शब्दों में, इसका नाता सांगठनिक व्यवहार के तथ्यों से है । इसका मानना है कि सामान्यीकृत कथन (सार्वभौमिक नियम) विकसित करने के लिए संगठन में लोगों के व्यवहार का वस्तुपरक अध्ययन किया जा सकता है ।

(ii) यह किसी संगठन में काम कर रहे लोगों के बीच अनौपचारिक संबंधों और संचार प्रतिरूपों पर जोर देता है ।

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(iii) यह सांगठनिक व्यवहार की गतिकी पर ज्यादा ध्यान देता है । जोकि प्रेरणा, नेतृत्व, निर्णय निर्माण, शक्ति, प्राधिकार इत्यादि सिद्धांत के रूप में हैं ।

(iv) मुख्य रूप से इसका सरोकार परिमाणीकरण, अकंगणितीय और औपचारिक सिद्धांत निर्माण से है । यह प्रशासन के अध्ययन की वैज्ञानिक अंतर्वस्तु को बढ़ावा देना चाहता है ।

इस प्रकार, जिन्होंने क्लासिकीय चिंतकों से अलग प्रांतीय उपागम पर बल दिया, वे व्यवहारवादी सार्वभौमिक उपागम पर बल देते है । अर्थात् वे उन सांगठनिक प्रक्रियाओं की व्याख्या का दावा करते हैं जो तमाम प्रकार के संगठनों में समान होती है ।

(v) अत: यह समाजशास्त्र, मनोवैज्ञानिक, नृविज्ञान आदि जैसे अन्य सामाजिक विज्ञानों से अवधारणाएँ, तकनीक, सूचना और परिप्रक्ष्य लेता है ।

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(vi) यह पद्धति विज्ञान में आनुभाविक है । दूसरे शब्दों में यह क्षेत्र अध्ययन, प्रयोगशाला अध्ययन जैसी वैज्ञानिक पद्धतियों का समर्थन करता है ।

स्मिथबर्ग के अनुसार लोक प्रशासन के अध्ययन के व्यवहारवादी उपागम की चार मुख्य चारित्रिक विशेषताएँ हैं:

1. यह व्यक्ति और प्रशासनिक संगठन के साथ उसके संबंधों पर ज्यादा ध्यान देता है । पहले के दृष्टिकोण, विशेषकर टेलर का वैज्ञानिक प्रबंधन, व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं और उसके प्रशासनिक संगठन से अलग सामाजिक समूहों से उसके संबंधों पर ध्यान दिए बगैर, उसे महज वस्तु या साधन मान लेते थे ।

2. यह प्रशासनिक संगठन का एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में अध्ययन करता है । जिसके परिणामस्वरूप वह संगठन के लोगों के अनौपचारिक और औपचारिक दोनों ही प्रकार के संबंधों पर समान रूप से ध्यान देता है । इससे विपरीत, पहले के उपागम सिर्फ औपचारिक और तार्किक संबंधों पर जोर देते थे ।

3. प्रशासन को मानव संबंधों का एक जटिल योग बताते समय यह संचार के साधनों पर ज्यादा ध्यान देता है । इसके अतिरिक्त लोक सेवा में यह संचार के औपचारिक साधनों से ज्यादा अनौपचारिक साधनों पर जोर देता है । दूसरी ओर पहले के उपागम संचार के केवल औपचारिक साधनों पर जोर देते थे ।

4. यह संप्रभुता की सिद्धांत का स्थान वैधता के सिद्धांत को देता है । संप्रभुता के पारंपरिक सिद्धांत ने उच्चानीचक्रमिक ढाँचे, प्राधिकार की रेखा, निर्देश की श्रृंखला, क्रमिक प्रत्यायोजन इत्यादि के सिद्धांतों को जन्म दिया ।

दूसरी ओर, वैधता की नयी सिद्धांत का मुख्य रुझान यह अध्ययन करना है कि क्यों कुछ व्यक्ति व्यक्तिगत तौर पर और सामूहिक रूप से विचार करने पर भी यह महसूस करते हैं कि उन्हें आदेशों का पालन करना चाहिए । इस प्रकार, व्यवहारवादी उपागम प्रशासनिक नेतृत्व और प्रेरणा पर बल देते है ।

हरबर्ट साइमन ने प्रशासनिक व्यवहार पर समकालीन शोध को चार श्रेणियों में बाँटा:

(i) वेबर की धारा से जुड़ी नौकरशाही पर शोध ।

(ii) बढ़ती कार्य संतुष्टि और उत्पादकता से सरोकार रखने वाले और प्रेरणाओं पर केंद्रित मानव संबंध शोध ।

(iii) बर्नार्ड-साइमन के सांगठनिक संतुलन का इस्तेमाल करने वाले शोध, जिनका लक्ष्य संगठन के भागीदारों की प्रेरणाओं के अंतर्संबंधों के अर्थों में संगठनों के जीवित रहने और बढ़ने की व्याख्या करना है ।

(iv) संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं और प्रशासनिक व्यवहार के तार्किक अंगों पर खास तौर से ध्यान देते हुए निर्णय निर्माण प्रक्रिया पर शोध ।

व्यवहारवादी उपागम में चेस्टर बर्नार्ड के योगदान की चर्चा पहले ही की जा चुकी है और हरबर्ट साइमन के योगदान की चर्चा ‘प्रशासनिक व्यवहार’ के अध्याय में निर्णय-निर्माण के संबंध में की जाएगी ।

व्यवहारवादी उपागम के योगदानी (Contributories of Behavioural Approach):

व्यवहारवादी उपागम क्रिस आर्गिरिस के योगदान (Contribution of Chris Argyris to Behavioural Approach):

अपनी पुस्तक पर्सनैलिटी एंड ऑर्गनाइजेशन (1957) में क्रिस आर्गिरिस व्यक्ति और संगठन के बीच के संबंधों की पड़ताल करते हैं और संगठन के क्लासिकीय सिद्धांत की आलोचना करते हैं ।

व्यवहारवादी उपागम सिद्धांत के विकास में उनके योगदानों पर निम्न शीर्षकों के तहत चर्चा की जा सकती है:

परिपक्वता-अपरिपक्वता सिद्धांत:

क्रिस आर्गिरिस के अनुसार संगठनों में लोगों में अपरिपक्व से परिपक्व स्थिति की ओर विकसित होने की प्रवृत्ति होती है ।

यह विकास निम्न सात परिवर्तनों से होता है:

(i) निष्क्रिय शैशव से वयस्क सक्रियता तक ।

(ii) निर्भरता से सापेक्ष अनिर्भरता तक ।

(iii) सीमित व्यवहार से कई भिन्न व्यवहारों तक ।

(iv) अनिश्चित, उथली, संक्षिप्त रुचियों से स्थायी, गहरी रुचियों तक ।

(v) लघुकालीन परिप्रेक्ष्य से दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य तक ।

(vi) अधीनस्थ सामाजिक स्थिति से समान या श्रेष्ठ सामाजिक स्थिति तक ।

(vii) आत्म-जागरूकता के अभाव से आत्म जागरूकता और आत्म-नियंत्रण तक ।

आर्गिरिस ने तर्क दिया कि एक वयस्क व्यक्तित्व और एक क्लासिकीय संगठन (क्लासिकीय सिद्धांतों पर बना एक औपचारिक संगठन) की जरूरतों मैं एक मूल असंगति होती है । ऐसे सिद्धांत कर्मचारियों को निष्क्रिय, निर्भर, अधीनस्थ और लघुकाल निर्देशित कर देते हैं ।

उन्होंने कहा कि यह असंगति तीन स्थितियों मैं बढ़ती है:

(i) जब लोग ज्यादा परिपक्व हो जाते हैं ।

(ii) जब संगठन के औपचारिक ढाँचे को ज्यादा सख्त और तार्किक बनाया जाता है ।

(iii) जब हम निर्देश की रेखा में नीचे जाते है अर्थात्, निचले स्तरों पर ।

ऐसी असंगत स्थितियों में व्यक्ति निम्न रूप से प्रतिक्रिया देता है:

1. वह संगठन छोड़ सकता है ।

2. वह सांगठनिक पदानुक्रम में ऊपर चढ़ने का प्रयास कर सकता है, जहाँ असंगति कम हो ।

3. वह रक्षात्मक तरीकों का प्रयोग कर सकता है ।

4. वह थका और नीरस हो सकता है ।

संलयन प्रक्रिया सिद्धांत:

क्रिस आर्गिरिस व ई.डब्ल्यू.बाके ने संलयन प्रक्रिया सिद्धांत का विकास किया । इस सिद्धांत के अनुसार संगठन और व्यक्ति दोनों आत्म वास्तवीकरण प्राप्त करने का प्रयास करते हैं । व्यक्ति अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए संगठन का इस्तेमाल करता है ।

यह वैयक्तीकरण प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है । उसी प्रकार संगठन अपने लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए व्यक्ति का इस्तेमाल करता है । इसे समाजीकरण प्रक्रिया कहा जाता है । इन दोनों प्रक्रियाओं के एक साथ सक्रिय होने को क्रिस आर्गिरिस व ई.डब्ल्यू. बाके ने संलयन प्रक्रिया कहा है ।

व्यक्तिगत और सांगठनिक लक्ष्यों का एकीकरण:

क्रिस आर्गिरिस ने व्यक्ति की जरूरतों और संगठन के लक्ष्यों को जोड़ने की निम्न रणनीतियाँ सुझाईं:

(i) उन्होंने क्लासिकीय औपचारिक सांगठनिक ढाँचे में एक परिवर्तन और मेट्रिक्स संगठन की वकालत की । इसके अंतर्गत श्रेष्ठतर अधीन संबंधों को हटा दिया जाता है और उनका स्थान आत्मानुशासित व्यक्तियों को दे दिया जाता है ।

विशिष्ट मुद्दों के समाधान के लिए प्रोजेक्ट टीमें बनाई जाती हैं और शक्ति की बजाय प्रासंगिक सूचना और विशेषज्ञता के आधार पर उनकी रचना होती है । वे संगठन के क्षैतिज और उर्ध्याधर आयामों के आर-पार व्याप्त होती है ।

(ii) उन्होंने व्यक्तियों की व्यक्तिगत योग्यता और अंतरवैयक्तिक प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाने के लिए टी ग्रुप प्रशिक्षण (या संवेदनशीलता प्रशिक्षण) का सुझाव दिया । यह सामूहिक सक्रियता की प्रकृति को समझने का व्यक्तियों को अवसर देने के लिए बनाया गया प्रयोगशाला कार्यक्रम है । इसमें कर्मचारियों के बीच एक दूसरे के प्रति रुख को लेकर निर्बाध चर्चा और विचार होता है ।

(iii) उन्होंने डबल लूप शिक्षण तकनीक का सुझाव दिया जिसमें आत्म व्याप्त तकनीकों की बजाय दूसरों से सीखना शामिल होता है ।

(iv) उन्होंने कर्मचारियों के बीच जिम्मेदारी की भावना पैदा करने और काम को ज्यादा रुचिकर और संतोषकारी बनाने के लिए कार्य विस्तार का सुझाव दिया । इस विस्तार में व्यक्ति की बौद्धिक और अंतरवैयक्तिक क्षमताओं का अधिक उपयोग शामिल होना चाहिए ।

(v) उन्होंने भागीदारीपूर्ण नेतृत्व शैली का सुझाव दिया, जिसमें कार्य की स्थितियों निर्धारित करते समय नेता अपने अधीनस्थों से सुझाव लेता है । इस शैली के प्रोत्साहन से प्रबंधन और मजदूरों के बीच असहमति और विरोध घटता है ।

आर्गिरिस ने दलील दी कि उपरोक्त सुझाव (सुधार की रणनीतियाँ) व्यक्तिगत आवश्यकताओं को सांगठनिक लक्ष्यों से जोड़ने में मदद करेंगे । ऐसा एकीकरण हर व्यक्ति के लिए आत्म वास्तवीकरण की स्थितियां पैदा करता है । यह व्यक्ति, संगठन और उसके परिवेश के लिए लाभदायी होता है ।

व्यवहारवादी उपागम रेंसिस लिकर्ट के योगदान (Contribution of Rensis Likert to Behavioural Approach):

रेंसिस लिकर्ट की मुख्य रचनाओं में न्यू पैटर्न्स ऑफ मैनेजमेंट (1961), दि हयूमन ऑर्गनाइजेशन (1967) और न्यू वेज ऑफ मैनेजिंग कान्फिलक्ट (1976) शामिल हैं । उनके अध्ययन का विषय ‘संगठन में मानव संसाधन के प्रभावी उपयोग के लिए उपयुक्त प्रबंधकीय रणनीति को लागू करना’ रहा है । इस प्रकार, उनका मुख्य सरोकार सांगठनिक लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रबंधकीय कुशलता से है ।

लिकर्ट ने चार भिन्न प्रकार के प्रबंधकीय तंत्रों (या शैलियों) की अवधारणा की जिन्हें एक निरंतरता में देखा जा सकता है । वे हैं:

1. तंत्र 1 प्रबंधन (शोषक-निंरकुश),

2. तंत्र 2 प्रबंधन (उदार-निरंकुश),

3. तंत्र 3 प्रबंधन (परामर्शीय),

4. तंत्र 4 प्रबंधन (भागीदारीपूर्ण-सामूहिक) ।

तंत्र 1 प्रबंधन क्लासिकीय प्रबंधन का प्रतिनिधित्व करता है जबकि तंत्र 4 उसके विपरीत आदर्श संगठन की ।

लिकर्ट ने तंत्र 4 प्रबंधन का समर्थन किया । उन्होंने कहा कि वे प्रबंधक जिन्होंने अपने प्रबंधन में तंत्र 4 उपागम को लागू किया, वे नेताओं के रूप में ज्यादा सफल रहे । यह मामलों के प्रबंधन में अधीनस्थों की भागीदारी के कारण हुआ ।

लिकर्ट से जुड़ी अन्य अवधारणाएँ हैं:

1. पर्यवेक्षकीय शैलियाँ, जोकि कार्य केंद्रित और कर्मचारी केंद्रित हैं ।

2. समर्थक संबंधों का सिद्धांत ।

3. सम्बद्धकारी पिन मॉडल ।

4. अन्तर्क्रिया प्रभाव तंत्र ।

व्यवहारवादी उपागम अन्य के योगदान (Contribution of Others to Behavioural Approach):

प्रशासनिक अध्ययन में व्यवहारीय उपागम के विकास में अन्य चिंतकों के योगदान निम्न हैं:

1. कर्ट लेविन- समूह गतिकी और क्षेत्र सिद्धांत ।

2. कार्ल रोजर्स- परामर्श पद्धति का उपचारक उपागम ।

3. जे.एल.मोरिनो- अंतरवैयक्तिक संबंधों के अध्ययन ।

4. मास्लो- आवश्यकताओं का उच्चानीचक्रम ।

5. डेविड सी. मैलीलैंड- अर्जित आवश्यकता सिद्धांत या उपलब्धि प्रेरक सिद्धांत ।

6. हर्जबर्ग- प्रेरणा हाइजीन सिद्धांत ।

7. वॉरन बेनिस- प्रयोगशाला प्रशिक्षण (टी समूह प्रशिक्षण) ।

8. ब्लेक और मॉटन- प्रबंधकीय ग्रिड या नेतृत्व ग्रिड ।

9. जॉर्ज सी. हॉमैन्स- मानव समूह (गतिविधियों, अंतरक्रियाओं एवं संवेदनाओं की पारम्परिक निर्भरता) ।

मास्लो व हर्जबर्ग के विचारों को ‘प्रशासनिक व्यवहार’ अध्याय में प्रेरणा के संबंध में विस्तार से बताया जाएगा ।

महत्व (Significance):

प्रशासनिक चिंतन के विकास में व्यवहारवादी उपागम ने एक अहम योगदान किया है ।

निम्न बिंदु इसके महत्व को समझाते हैं:

1. वैज्ञानिक रूप से वैधता की परख के लिए संस्कृति पारीय और राष्ट्र पारीय परिप्रेक्ष्य में परिकल्पना की जाँच करने की पद्धति के कारण इसने तुलनात्मक लोक प्रशासन के आरंभ और विकास को प्रेरित किया है ।

2. इसने क्लासिकीय उपागम की कमियों को मजबूती से दिखलाया है । साइमन ने कहा- ”किसी विज्ञान के सिद्धांत विकसित होने से पहले, इसके पास अवधारणाएँ होनी चाहिए ।”

3. आनुभविक उपागम का समर्थन करके इसने वैज्ञानिक शोध और व्यवस्थित सिद्धांत निर्माण हेतु औजार प्रदान किया ।

4. यह निर्णय निर्माण, संचार, प्रेरणा, नेतृत्व जैसे लोक प्रशासन के नए आयामों को सामने लाया ।

5. इसने प्रशासन में संचार को सुधारने के लिए उपयोगी सुझाव दिए हैं । दरअसल, व्यवहारवादी युग के दौरान ही संचार प्रशासन के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत के रूप में उभरा ।

6. इसने प्रशासनिक व्यवहार के अध्ययन में नई सामाजिक मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टियाँ प्रदान कीं ।

7. इसने लोक प्रशासन के अध्ययन के लिए साइमन के निर्णय निर्माण उपागम के रूप में क्लासिकीय उपागम को एक वैकल्पिक ढाँचा दिया ।

8. इसने यह तथ्य उजागर किया कि प्रशासनिक प्रक्रिया मानव भावनाओं, बोधों और इसके परिवेश से बहुत प्रभावित होती है ।

9. इसने अपने अंतरविषयक चरित्र के कारण लोक प्रशासन के क्षेत्र को कौशलों, अनुभवों, तकनीकों और सामाजिक विज्ञान की अन्य अवधारणाओं से समृद्ध किया है ।

10. इसने लोक प्रशासन के अध्ययन के केंद्र को औपचारिक कानूनी ढांचों से लोगों और उनके व्यवहार की ओर विस्थापित किया है ।

आलोचना (Criticism):

उपरोक्त महत्वपूर्ण योगदानों के बावजूद व्यवहारवादी उपागम की विभिन्न आधारों पर आलोचना हुई है:

1. इसने लोक प्रशासन के अध्ययन को लोकनीति के मुद्दों के लिए निष्प्राण और अप्रासंगिक बना दिया है । ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यवहारवादी उपागम प्रशासनिक परिघटना से मूल्यों को पूरी तरह अलग कर देता है ।

2. यह प्रशासन के मूल्य निर्देशित (भौतिक) मुद्दों की व्याख्या नहीं कर सकता है । लिओ स्ट्रास ने व्यवहारवाद को ‘प्रत्यक्षवाद’ का वह रूप कहा जो मूल्य मुक्त ज्ञान की तलाश करता है । उसी प्रकार क्रिश्चियन बे ने पाया कि व्यवहारवाद का अंतिम उत्पाद ‘नैतिक रूप से तटस्थ’ साहित्य है जो रूढ़िवादी भी होता है और सामाजिक रूप से अप्रासंगिक भी ।

3. यह बड़े संगठनों की बजाय छोटे संगठनों के अध्ययन में ही लागू हो सकता है । अत: लोक प्रशासन में इसका सीमित उपयोग है क्योंकि इसका सम्बंध मतलब बड़े संगठनों से होता है ।

4. प्रशासनिक संगठनों के कामकाज को सुधारने के लिए यह ठोस रूप में कोई सुझाव नहीं देता । ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यवहारवादी उपागम मानक होने की बजाय वर्णनात्मक है । अर्थात यह ‘क्या होना चाहिए’ की बजाय ‘क्या है’ को व्याख्यायित करता है ।

5. यह सांगठनिक परिघटना को समझने के लिए पर्याप्त अवधारणात्मक रूपरेखा मुहैया नहीं कराता । ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यवहारवादी उपागम संगठन के मनोवैज्ञानिक चरों पर ध्यान केंद्रित करता है इस प्रकार व्यवहारवादी उपागम अभिमुखीकरण और विश्लेषण में समष्टि की बजाय व्यष्टि है ।

संगठन विकास:

कर्ट लेविन ने संगठन विकास के क्रम को मापने का आरम्भिक औजार दिया था । संगठन विकास की दो ऐतिहासिक जड़ें प्रयोगशाला प्रशिक्षण तथा सर्वेक्षण अनुसंधान फीडबैक हैं । रिचर्ड बेकहार्ड द्वारा दी गयी व्यापक परिभाषा के अनुसार- ”संगठन विकास एक नियोजित, संगठित, शीर्ष से प्रबंधित, होने वाला प्रयास है जो कि संगठन की प्रक्रिया में व्यवहार विज्ञान की जानकारी का प्रयोग करते हुए नियोजित हस्तक्षेप के माध्यम से संगठन की प्रभाविता और स्वास्थ्य में वृद्धि करता है ।”

वार्नर बर्क द्वारा दी गयी साधारण परिभाषा के अनुसार- ”संगठन विकास व्यवहारात्मक विज्ञान तकनीक, शोध और सिद्धान्त के प्रयोग के माध्यम से एक संगठन की संस्कृति में चलने वाली परिवर्तन की एक नियोजित प्रक्रिया है ।”

निकोलस हेनरी ने संगठन विकास के लक्ष्य के निम्नलिखित पहलुओं का उल्लेख किया है:

1. अन्य सदस्यों के साथ मिलकर एक सदस्य विशेष की योग्यता में सुधार करना ।

2. संगठन में मानवीय भावनाओं का वैधीकरण ।

3. सदस्यों के बीच आपसी समझ में वृद्धि करना ।

4. तनावों को घटाना ।

5. टीम प्रबन्धन और अन्तरसमूह सहयोग को बढ़ाना ।

6. गैर प्राधिकारात्मक और अन्तर्क्रियात्मक पद्धतियों के माध्यम से संघर्ष समाधान हेतु अधिक प्रभावी तकनीकों का विकास करना ।

7. अल्प संरचनात्मक किन्तु अधिक जैविक संगठनों का विकास करना ।