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वायु-प्रदूषण का इतिहास अत्यंत प्राचीन है । आदि काल में कंदरा में रहने वाले मनुष्य ने उष्णता तथा गर्मी प्राप्त करने, कच्चे मांस को भुनने, रात को अपने आसपास के परिवेश को प्रकाशयुक्त बनाने और रात को ही शिकार की खोज में घूमने वाले जंगली जानवरों का दूर रखने के लिए जब पहली बार आग जलाना सीखा था, बस तभी से कदाचित वायुमंडल प्रदूषण का भी आरंभ हुआ ।

भोजन के बिना मनुष्य कुछ सप्ताह तक जीवित रह सकता है । पानी के बिना भी कुछ दिनों तक उसकी साँसें चलती रह सकती हैं, किंतु वायु के अभाव में मनुष्य के जीवन की कल्पना कुछ मिनटों तक ही की जा सकती है ।

सामान्य आदमी 24 घंटे में 22,000 वार साँस लेता है और 35 पौंड वायु का सेवन करता है जो उसके भोजन व पानी की मात्रा से कई गुणा अधिक है । यदि सभी मनुष्यों में एक सामान्य प्रक्रिया है तो यही कि सब सांस लेते हैं और वायु को दूषित करते हैं ।

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मनुष्य का जीवन अक्रिय गैस से तनुकृत ऑक्सीजन के बिना असंभव है और वायुमंडल में ऑक्सीजन का मिश्रण नाइट्रोजन के साथ है । किंतु इसके अतिरिक्त वायु में नाना प्रकार की अनेक गैसें, वाष्प तथा वायुधुंध भी विद्यमान हैं और मनुष्य ऑक्सीजन के साथ-साथ साँस में अन्य गैसें, वाष्प तथा धुंध के कण ग्रहण करता है ।

यह तथ्य है कि वायुमंडल कभी भी पूर्णतया अप्रदूषित नहीं रह सकता । कारण कि जबसे संसार की रचना हुई है तभी से अनेक घास-फूस के गलने-सड़ने, जीव-जंतु के मरने एवं जंगलों में पेड़-पौधों के सड़ने से जो गैस निकलती है उससे भी वायुमंडल दूषित होता रहता है ।

वायु-प्रदूषण के अनेक कारण हो सकते हैं । उन सभी कारणों अथवा वायु-प्रदूषणों को दो वर्गों में रखा जा सकता है- प्राकृतिक और मनुष्यकृत । वायु के प्रदूषण के लिए हम ज्वालामुखी के विस्फोट, जंगल की आग तथा तेज हवाओं के कारण उड़ने वाली धूलि आदि को दोषी ठहरा सकते हैं ।

मनुष्यकृत प्रदूषकों की संख्या बहुत बड़ी है । विभिन्न कारखाने, खानें, मोटर-कार, ईंधन का दहन, नाभिकीय विस्फोट रासायनिक क्रियाएं आदि मनुष्यकृत प्रदूषणकारी कारण हैं । सभ्यता के विकास के साथ-साथ संसार में दिनोदिन कल-कारखानों की संख्या भी बढ़ती जा रही है ।

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ये उद्योग, कल-कारखाने आदि जहाँ एक ओर मनुष्य की प्रगति में सहायक सिद्ध हुए है, वहाँ इनसे अनेक प्रकार की समस्याएँ भी मनुष्य के साथ आ खड़ी हुई हैं । इन समस्याओं में वायु-प्रदूषण प्रमुख समस्या है । वायु-प्रदूषण एक देश या क्षेत्र-विशेष तक ही सीमित नहीं रहता वरन् वायु के प्रवाह के साथ-साथ प्रदूषक गैसें सारे वायुमंडल में व्याप्त होकर समस्त विश्व को प्रभावित करती हैं ।

हाँ, इतना अवश्य है कि प्रदूषण-स्रोत के आसपास प्रदूषक तत्वों की सांद्रता अधिक होती है और इसीलिए वहाँ के जन-स्वास्थ्य पर इसका अधिक कुप्रभाव होना स्वाभाविक है । वायु-प्रदूषण का सबसे प्रमुख कारण धुओं होता है, जिसमें आम तौर पर कार्बन के महीन कण, राख, तेल, ग्रीज और धातु तथा अन्य ऑक्साइडों के अति सूक्ष्म कण सम्मिलित होते हैं । इनके अतिरिक्त कार से एक विषैली गैस कार्बन मोनोक्साइड निकलती है जो शरीर द्वारा ऑक्सीजन के समुचित अवशोषण में बाधक होती है ।

भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार आदिकाल से ही कृषि रहा है । भारतीय सभ्यता एवं वैदिक संस्कृति वनों में फूली-फली है, किंतु औद्योगिकीकरण पर आश्रित पाश्चात्य सभ्यता इसके ठीक विपरीत है । इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूँजी है और धर्म स्वार्थ है ।

सड़कों पर लगातार बढ़ती हुई संख्या में वाहन तथा कल-कारखानों की धुआँ उगलती चिमनियाँ वायुमंडल में निरंतर जहर घोल रही हैं । यातायात की बढ़ती भीड़ को सँभालना और राजधानी की सड़कों पर वाहनों को नियंत्रित कर पाना कठिन हो रहा है । ये वाहन सड़कों पर भीड़ बढ़ाने के साथ-साथ प्रदूषण भी बढ़ाते हैं । विशेषज्ञों के अनुसार दिल्ली की सड़कों पर वाहनों की भीड़-भाड़ कम करने के लिए कम से कम 200 ऊपरी पुल (फ्लाई ओवर) बनाने की आवश्यकता है ।

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इन ऊपरी पुलों के बनने से यातायात प्रवाह की सुगम बनाया जा सकता है जिसके फलस्वरूप प्रदूषण भी कम होगा । इसके अतिरिक्त प्रदूषण दूर करने का सर्वोत्तम उपाय भूमिगत रंलें विद्युत द्वारा चलाई जाएँ । इस प्रकार न केवल वायु-प्रदूषण एवं ध्वनि-प्रदूषण कम होगा अपितु दुर्घटनाओं की संभावना कम तथा विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा भी होगी ।

सन् 1974 में केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने ‘रेपिड ट्रांजिट कॉरीडोर्स’ नाम से एक विस्तृत रिपोर्ट भारत सरकार को प्रस्तुत की थी । इस रिपोर्ट में दिल्ली की यातायात संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 36 किलोमीटर भूमिगत रेल तथा 97 किलोमीटर भूमितल पर रेल बनाने की सिफारिश की गई थी ।

रेलवे ने इन सिफारिशों के आधार पर जो रिपोर्ट तैयार की उसमें 50 किलोमीटर भूमिगत तथा 150 किलोमीटर भूमितल पर व्यवस्था करने की सिफारिश की गई । आज मेट्रो ट्रेन का दिल्ली में दौड़ना ही उसका एक अंश है । भूमिगत रेलगाड़ी एक खर्चीली व्यवस्था अवश्य है किंतु यातायात की समस्या हल करने और प्रदूषण दूर करने की दृष्टि से यह परियोजना कोलकाता जैसे महानगर में पूर्णतया सफल है । सरकारी अनुमान के अनुसार भूमिगत रेल निर्माण में पचास करोड़ रुपए प्रति किलोमीटर की लागत आएगी ।

देश की राजधानी को यदि यातायात के संकट से बचाना है और यहाँ के निवासियों को प्रदूषण-रहित जीवन सुलभ कराना है तो इन योजनाओं को शीघ्रातिशीघ्र पूर्णतया अमल में लाना आवश्यक है । राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान, नागपुर द्वारा कोलकाता में किए गए अध्ययन में वाहनों द्वारा निष्कासित कार्बन मोनोक्साइड का स्तर 10 पी. पी. एम. से 35 पी. पी. एम. (अंश प्रति दस लाख) तक पाया गया । कोलकाता में कार्बन मोनोक्साइड का स्तर संसार के अन्य बड़े शहरों में मोनोक्साइड स्तर की तुलना में कम है ।

कोलकाता से उपलब्ध आँकड़ों से पता चलता है कि यद्यपि भारतीय नगरों में पाश्चात्य शहरों की अपेक्षा वाहनों की संख्या कम है, परंतु उनके द्वारा उत्पन्न प्रदूषण की सांद्रता लगभग उतनी ही होती है जितनी पाश्चात्य देशों में । इसका एक कारण भारतीय सड़कों पर निम्न क्षमता के इंजन वाले पुराने वाहन ही सकते हैं ।

किंतु आजकल वाहनों में सी.एन.जी. का ईंधन रूप में उपयोग प्रदूषण कम करने में सहायक सिद्ध हुआ । भारत में वायु-प्रदूषण की मुख्य समस्या यह है कि औद्योगिक उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत आठ बड़े औद्योगिक नगरों में केंद्रित है । इसके कारण इन शहरों में विकट प्रदूषण समस्या उत्पन्न हो गई है ।

राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान, नागपुर ने इन शहरों में वायु-प्रदूषण का जायजा लेने और समस्या के नियंत्रण तथा समाधान हेतु निम्न संस्थाओं के लिए कुछ लघु अवधि-सर्वेक्षण किए हैं:

1. मुंबई नगर निगम,

2. कोलकाता महानगर संगठन,

3. दिल्ली नगर निगम,

4. अहमदाबाद नगर निगम,

5. दुर्गापुर विकास प्राधिकरण ।

इन नगरों के सर्वेक्षणों के अतिरिक्त, कुछ विशेष उद्योगों के समीप के पर्यावरण प्रदूषण की विशिष्ट समस्याओं का भी अध्ययन किया गया है । इसके अतिरिक्त संस्थान ने देश के कुछ बड़े सरकारी प्रतिष्ठानों का भी सर्वेक्षण किया और विषैली गैस निष्कासित करने वाली कुछ संस्थाओं को वायु-प्रदूषण नियंत्रण के लिए समुचित सुझाव दिए ।

इन सुझावों के आधार पर संबद्ध संस्थाओं द्वारा अपनी फैक्टरी के क्षेत्र में वायु-प्रदूषण नियंत्रण के उचित उपाय किए गए हैं । इसलिए इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वायु से प्रदूषण तत्व, जहाँ तक हो सके, विसर्जित किए जाएं । घरेलू और औद्योगिक ईंधन (भट्ठियों) से होने वाला वायु-प्रदूषण दो बातों पर निर्भर करता है । एक तो यह कि किस प्रकार का ईंधन प्रयुक्त किया गया है और दूसरे यह कि ईंधन को किस प्रकार जलाया जा रहा है ।

इस दहन क्रिया में निम्नलिखित रासायनिक प्रक्रिया होती है:

उपयुक्त समीकरण में CHxOy ईंधन के लिए सामान्य तात्वयौगिक सूत्र है । उच्च श्रेणी के कोयले में x और y दोनों ही शून्य के बराबर मान रखते हैं, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन में x ≅ 2 तथा y ≅ 2; लकड़ी के लिए x ≅ 2 एवं y ≅ 1; मीथाइल अल्कोहल में x ≅ 4 और y ≅ 1; प्राकृतिक गैस (मीथेन) में x ≅ 4 तथा y ≅ 1 है ।

इस साधारण प्रक्रिया के अंतर्गत दहन अहानिकर है, क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल दोनों ही वायुमंडल के सामान्य तत्व हैं । किंतु, फिर भी कार्बन डाइऑक्साइड की अल्प मात्रा ही पृथ्वी में उष्णता को असंतुलित कर सकती है ।

दहन के समय प्रदूषण के लिए अन्य लक्षण भी दृष्टिगोचर होते हैं:

(1) मोटर-कार इंजनों के अधिक गर्म होने पर वायु के प्रमुख तत्व नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन आंशिक रूप से कुछ यौगिकों का निर्माण करते हैं । इनको NOx से दर्शाया जा सकता है । ये यौगिक प्रकाश रसायन स्मॉग एवं अम्लीय वर्षा के लिए मुख्य भूमिका निभाते हैं ।

अंग्रेजी का स्मॉग (SMOG) शब्द, SMOKE (धूम) और FOG (कुहरा) शब्दों से मिलकर बना है । इस शब्द का नामकरण उन्नीसवीं सदी के अंत में डॉ. एच. ए. डेस बोएक्स द्वारा किया गया था । धूम-कुहरा (स्मॉग) चौबीस घंटों के चक्रीय पैटर्न में मुख्यत: इस प्रकार बनता है कि वायुमंडल में नाइट्रोजन के ऑक्साइड (NOx) और हाइड्रोकार्बन का उत्सर्जन होता है और ये ऑक्साइड आवश्यक सौर ऊर्जा अवशोषित कर हाइड्रोकार्बन की क्रियाओं को परिचालित करने में सहायता करते हैं ।

इस प्रकार सूर्य के प्रकाश के अवशोषण द्वारा नाइट्रिक ऑक्साइड (NO2) का प्राकृतिक नियोजन होता है । फलस्वरूप NOx का उपयोग तथा साथ ही ऑक्सीकारक बनने प्रारंभ हो जाते हैं । सूर्योदय से पूर्व उत्सर्जित हाइड्रोकार्बन और NOx वायुमंडल में संचयित हो जाते हैं और NO का NO2 में ऑक्सीकरण हो जाता है ।

जैसे ही सौर विकिरण इन पर पड़ती हैं, निम्नलिखित अभिक्रिया शीघ्रता से होती है और बहुत ही अधिक क्रियाशील परमाणवीय ऑक्सीजन बनती है:

यह परमाणु ऑक्सीजन कई प्रमुख क्रियाओं की आरंभ करती है:

जहाँ M वायुमंडल में गैसों के अन्य अणु, HC ऑलीफिन या ऐरोमैटिक प्रकार के हाइड्रोकार्बन और R तथा RCO मुक्ता मूलक हैं जिनमें एक या अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं ।

अभिक्रिया (2) में बनी ओजोन भी हाइड्रोकार्बन से क्रिया करके मुक्त मूलक (RCO2) बनाती है:

ये मुक्त मूलक NO2 को NO में परिवर्तित कर देते हैं तथा ऑक्सीजन से क्रिया करके परऑक्साइड मूलक बनाते हैं:

प्रदूषण के लिए दहन के समय दूसरा लक्षण जो दृष्टिगोचर होता है, वह है-प्राकृतिक जीवाश्म ईंधन में उपस्थित अशुद्धियों के कारण उत्पन्न स्थिति । इसमें प्रमुख तत्व सल्फर है जो कोयले और पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन में मौजूद है ।

उपर्युक्त वर्णन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वाहनों द्वारा कार्बन मोनोक्साइड एवं नाइट्रोजन के ऑक्साइड उत्सर्जित होते हैं जबकि कारखानों जैसे अचल स्रोत सल्फर के ऑक्साइडों के लिए उत्तरदायी हैं । विशेषज्ञों का कहना है कि औसतन 15,000 किलोमीटर चलने वाली एक कार 4,350 किलोग्राम ऑक्सीजन लेकर 3,250 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड और लगभग 530 किलोग्राम कार्बोनिक ऑक्साइड, 93 किलोग्राम विषैले हाइड्रोकार्बन तथा 27 किलोग्राम नाइट्रोजन ऑक्साइड छोड़ती है ।

ऐसा अनुमान है कि वह समय दूर नहीं जब वायुमंडल में पर्यावरण असंतुलन के कारण इतनी कार्बन डाइऑक्साइड एकत्र हो जाएगी कि उसमें साँस लेना भी दूभर हो जाएगा । अत: मोटर वाहन के प्रयोग को सीमित करना होगा ।

कोयले और खनिज से सल्फर डाइऑक्साइड बनती है, जो कल-कारखानों के आसपास के वातावरण में सारे संसार में पाई जाती है । बहुत-सी धातुएँ भी वायुमंडल में पहुँच जाती हैं- राख के उड़ने से सल्फर डाइऑक्साइड ऑक्सीकृत होकर सल्फर ट्राइऑक्साइड में परिवर्तित हो जाती है ।

फिर, रासायनिक प्रक्रिया द्वारा सल्फर ट्राइऑक्साइड सल्फ्यूरिक एसिड में परिवर्तित हो जाती है जो कि द्रव के रूप में वायु में छोटी-छोटी बूंदों के रूप में व्याप्त हो जाती है । अम्लीय वर्षा में प्रमुख अम्ल है- गंधक का तेजाब (सल्फ्यूरिक एसिड), जिसका स्रोत वातावरण में व्याप्त सल्फर डाइऑक्साइड गैस है और सल्फर डाइऑक्साइड का मुख्य सात है- कोयले के खनिज तेलों का धुआँ, जिसका वर्तमान ईंधन संकट के बावजूद भरपूर उपयोग किया जा रहा है ।

सल्फर डाइऑक्साइड समुद्रों से आसवित बादलों में घुलकर सल्फ्यूरिक अम्ल में परिवर्तित हो जाती है । यही अम्ल वर्षा के रूप में भूमि पर गिरता है । सल्फ्यूरिक अम्ल के अतिरिक्त वर्षा के साथ आने वाले अन्य अम्ल हैं- नाइट्रिक अम्ल व हाइड्रोक्लोरिक अम्ल ।

वर्षा का स्वरूप अम्लीय होने के कारण वातावरण में वाष्पित भारी धातुओं का भूमि तक पहुंचने का मार्ग सुगम हो जाता है । अत: अम्लीय वर्षा अपने अम्लीय स्वरूप के अतिरिक्त अन्य रूपों में भी जल व थल-प्रदूषण का कारक बनती है ।

थल क्षेत्र पर प्रभाव:

मृदा में अम्लीय वर्षा की वास्तविक प्रक्रिया अभी सुनिश्चित नहीं हो सकी है । लेकिन समझा जाता है कि यह मृदा की उत्पादन क्षमता में ह्रास का प्रमुख कारक है, क्योंकि मृदा का अम्लीयकरण पोषक तत्वों-विशेषत: नाइट्रोजन व फास्फोरस के सुगम प्रवाह में बाधक होता है ।

पश्चिमी जर्मनी में 30% स्प्रूस के जंगलों को अम्लीय वर्षा से हानि पहुंचती है । अम्ल के कारण स्प्रूस को काँटे जैसी पत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं जिससे नैसर्गिक प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है । शहरी क्षेत्रों में अम्लीय वर्षा से इमारतों में सीमेंट, कंक्रीट, लौह कपाटों, पेंट इत्यादि पर प्रभावों को आँका गया है । यूरोप के कई शहरों जैसे- एथेंस, वेनिस, कोलोन, क्रोकोव इत्यादि में इन प्रभावों के प्रत्यक्ष उदाहरण मौजूद हैं ।

भारत में आगरा स्थित ताजमहल के संगमरमर को भी मथुरा स्थित तेल शोध कारखाने से निकली सल्फर डाइऑक्साइड से संभावित अम्लीय वर्षा का खतरा बना हुआ है । स्वीडन के पश्चिमी तट, पोलैंड के कुछ भागों तथा अमेरिका के न्यूयॉर्क व पेनसिल्वेनिया प्रांतों में पीने के पानी के भी अम्लीय जल द्वारा प्रदूषित होने के प्रमाण मिले हैं ।

जल क्षेत्रों पर प्रभाव:

जैसा कि स्वाभाविक है, विश्व के कई जल क्षेत्र अम्लीय वर्षा के प्रकोप से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं । अमेरिका व यूरोप में हजारों झीलों व सरिताओं में अम्लीय वर्षा के कारण मत्स्य संपदा का व्यापक रूप से विनाश हुआ है ।

हन जल समुदायों के अम्लीयकरण के कारण मत्स्य प्रजनन विशेष रूप से खतरे में पड़ गया है । इन जल क्षेत्रों की स्थिति इतने खतरनाक स्तर तक पहुँच गई है कि यदि अम्लीयकरण को रोका न जाए तो वहाँ जलजीवन सदा के लिए नष्ट हो जाएगा ।

नार्वे के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित ‘इरी’ झील में 13,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अम्लीय वर्षा के कारण मत्स्य संपदा पूर्णरूपेण नष्ट हो चुकी है तथा 20,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इसका विनाश निकटप्राय है । अम्लीयकरण के कारण जल समुदायों में भूमि सतह पर शोषित विषैली व विकिरण सक्रिय धातुओं के भी जल में आ जाने के प्रमाण मिले हैं । ऐसी परिस्थितियाँ संपूर्ण जलजीवों विशेषत: मत्स्यकी के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो सकती हैं ।

इस तरह की वर्षा के नामकरण ‘अम्लीय वर्षा’ करने का अभिप्राय यही है कि वर्षा द्वारा पानी नहीं, अम्ल बरसता है जिसकी विभीषिका का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है । इस तरह का अम्ल यदि निरंतर गिरता रहा तो दूरगामी परिणाम क्या होंगे- यही चिंता आज के पर्यावरणीय शोध का मुख्य विषय है । यदि ईंधन का पूर्ण दहन हो तो कार्बन और हाइड्रोकार्बनों के दहन से कार्बन डाइऑक्साइड और पानी बनता है ।

परंतु दहन होने के कारण कार्बन डाइऑक्साइड के बदले वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड व अंशत: अधजले हाइड्रोकार्बन, जो कि स्वयं ईंधन में होते हैं या फिर साइक्लिक पाइरिन यौगिकों के बनने के दौरान उत्पन्न होते हैं, वायुमंडल में आ जाते हैं ।

इन अधजले पदार्थों में कई प्रकार के भारी अंश होते हैं, जो कि अनेक प्रकार के कज्जल उत्पन्न करते हैं । इनमें से 3-4 बैंजपाइरीन एक मुख्य कज्जल है । कुछ मनुष्य यह मानते हैं कि ईंधनों के जलने पर जो कार्बन डाइऑक्साइड बनती है उसकी क्षतिपूर्ति हरे पौधे अतिरिक्त ऑक्सीजन बनाकर कर सकते हैं ।

लेकिन यह सही नहीं है । कोई भी पौधा उतनी ही ऑक्सीजन बनाता है जितनी का उपयोग उसे स्वयं अपने जीवन में करना है तथा जितनी मरने के उपरांत पौधे के ऑक्सीकरण द्वारा उसके पुन: मूल रचकों (जल और कार्बन डाइऑक्साइड) में परिवर्तित होने के लिए चाहिए होगी जिनसे कि उनका निर्माण हुआ था ।

यह ऑक्सीकरण फिर चाहे अग्नि से हो अथवा बैक्टीरियाजन्य विखंडन से या इस पौधे को खाने वाले जानवर के श्वसन से, इनका अंतिम परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । जब यह पौधा इन तीनों में से किसी भी विधि द्वारा सर्वथा समाप्त का दिया जाता है तब उसके द्वारा पूरे जीवन काल में उत्पन्न ऑक्सीजन भी समाप्त हो जाती है । पौधा केवल तभी अतिरिक्त ऑक्सीजन छोड़ पाएगा जबकि उसका विखंडन नहीं होगा और ऐसा बिरला ही कभी हो पाता है ।

उद्योगों से व्यर्थ के रूप में निकलने वाले पदार्थ कई प्रकार के होते हैं जो कि आम तौर पर कारखानों में उत्पादन पर निर्भर रहते हैं । उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाली व्यर्थ गैसें प्रवाह के साथ वायुमंडल में मिल जाती हैं । व्यर्थ पदार्थों का वायु में मिलना एक स्थानीय समस्या है ।

उदाहरणार्थ, आर्सेनिक-युक्त खनिजों का प्रयोग करने वाली फाउंड्रियों के आसपास आर्सेनिक-युक्त वाष्प और एल्यूमिनियम या सुपर फास्फेट बनाने वाली फैक्टरियों से फ्लोराइड धूम और पाइराइटों के निस्तापन से सल्फर डाइऑक्साइड वायुमंडल में आती है ।

सल्फर डाइऑक्साइड से अनेक श्वसन-संबंधी, रोग-श्वसनी शोथ, वातस्फीति, श्वसनिका, दमा आदि हो जाते हैं । यदि वायुमंडल में सल्फर डाइऑक्साइड की सांद्रता 0-15 भाग प्रति दस लाख (पी. पी. एम.) वर्ष तक रहे तो जल-स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है ।

आपने चाकू-छुरी पर धार रखने के लिए काम में आने वाले पहिए को देखा होगा । जब चाकू पर धार रखी जाती है तो आपने देखा होगा कि इस क्रिया में चिंगारियाँ निकलती हैं । चिंगारियों के साथ-साथ अति महीन धूलिकण भी इधर-उधर छिटकते हैं जो धार रखने वाले व्यक्ति के श्वास-मार्ग से होकर उसके फेफड़ों में पहुँच जाते हैं और काफी समय तक यही काम करते-करते उसके फेफड़े धूलिमय हो जाते हैं ।

जिन चीनी के प्यालों में आप चाय, काफी आदि पति हैं, उनको बनाने वाला मजदूर फुस्फुस धूलिमयता (न्यूमोकोनियोसिस) रोग से पीड़ित हो सकता है । ऊंची-ऊंची इमारतों पर रंग करने वाला न केवल नीचे चलते हुए मनुष्यों को रंग व धूलि से हानि पहुंचा सकता है, बल्कि स्वयं भी रंग करते समय प्लास्टर-धूलि को श्वास द्वारा ग्रहण करता ही रहता है ।

कुछ श्वास रोगों का संबंध धूलि-भरे वातावरण और व्यवसाय से शताब्दियों से रहा है । आज से लगभग 2,500 वर्ष पहले हिपोक्रेटीज ने सर्वप्रथम फुस्फुस धूलिमयता रोग का वर्णन किया था, परंतु व्यवसाय और रोग के बीच संबंध स्थापित करने का श्रेय इटली के वैज्ञानिक लेखक श्री रमजीनी को जाता है ।

वस्तुत: रमजीनी से ही व्यावसायिक चिकित्सा का एक नया अध्याय चिकित्सा-विज्ञान में जुड़ा । औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ व्यवसाय से संबंधित रोग भी बढ़े हैं । जन-साधारण में पाए जाने वाले रोग ही उद्योगकर्मियों में भी होते हैं, परंतु उन्हें ये रोग बार-बार सताते हैं और उनको स्वस्थ होने में भी जन-साधारण की अपेक्षा अधिक समय लगता है ।

कुछ रोग ऐसे भी हैं जिनका संबंध विशेष व्यवसायों से है, जैसे कि सीसे से उत्पन्न सीसा विषाक्तता व सिकतामयता (सिलीकोसिस) । सिकतामयता रोग अधिकतर चीनी मिट्टी के बर्तनों आदि के उद्योगकर्मियों में पाया जाता है । जब कोई मजदूर खास रोग से पीड़ित हो तो उसकी सही जाँच व इलाज के लिए उसके व्यवसाय के बारे में जानना आवश्यक है ।

सिलिका तथा पत्थर का कोयला आदि जिन व्यवसायों में प्रयुक्त किए जाते हैं वहाँ पर काम करने वालों में फुस्फुस धूलिमयता के अंतर्गत वे सब रोग आते हैं जो श्वास नली द्वारा फेफड़ों में धूलिकणों के जम जाने से होते हैं और सिकतामयता उनमें से एक रोग है ।

आधुनिक उद्योगों में अनेक प्रकार का कच्चा माल काम में आता है । कच्चे माल में काम करने वाले उद्योगकर्मियों को कच्चे माल की धूलि के प्रभाव में रहना पड़ता है । विभिन्न प्रकार के धूलों के अभिश्वसन से फुस्फुस धूलिमयता नामक रोग हो जाता है ।

फुस्फुस धूलिमयता अनेक प्रकार की होती है । उदाहरणार्थ, सिलिका धूलि के कारण उत्पन्न हुई फुस्फुस धूलिमयता सिकतामयता कहलाती है और एस्बेस्टास धूलिजन्य फुस्फुस धूलिमयता ‘एस्बेस्टोसिस’ । सिकतामयता के रोगी संसार के सभी देशों में पाए जाते हैं ।

फ्लिंट, बलुआ पत्थर तथा ग्रैनाइट आदि का उपयोग करने वाले उद्योगों तथा पाटरी, स्लेट, उत्खनन, लोहा और इस्पात ढलाई उद्योगों में काम करने वालों को सिकतामयता रोग सबसे ज्यादा होता है । इस रोग के आरंभ में श्वसनी-शोथ के लक्षण प्रकट होते हैं और अधिक समय तक सिलिकाधूलि के प्रभाव में रहने पर रोगी पूर्णत: असमर्थ हो जाता है, हृदय का आकार बढ़ जाता है और हृदय-गत्यवरोध भी हो सकता है ।

पाया गया है कि सिकतामयता के रोगियों में से 75 प्रतिशत को यक्ष्मा रोग भी हो जाता है और जटिलता में ही वे काल को प्राप्त होते हैं । इस रोग के संबंध में काफी अध्ययन-अनुसंधान हुए हैं तथा पता लगा कि भोजन में पोषक पदार्थों की कमी का इस रोग पर कोई असर नहीं पड़ता है ।

एस्बेस्टोसिस नामक रोग उत्पन्न करने वाले एस्बेस्टास में मैग्नीशियम और लोहे के सिलिकेट होते हैं । चादरों, टाइलों, अस्तर तथा पृथक कारक के रूप में विभिन्न औद्योगिक कार्यों में एस्बेस्टास उपयोग किया जाता है ।

एस्बेस्टास के उपयोग से उत्पन्न होने वाले स्वास्थ्य-संकटों का मुख्य उपद्रव फेफड़ा-कैंसर और मीजोथीलियोमा है तथा एस्बेस्टास-कर्मियों में मृत्यु-दर की औसत अधिक है । जितने भी व्यावसायिक रोग हैं, सिकतामयता उनमें काफी खतरनाक है ।

संसार में जहाँ भी चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने, सैंड ब्लास्टिंग और ढलाई का काम होता है तथा सीसा, स्लेट व सिलिका पीसा जाता है, वहाँ सिकतामयता रोग हो सकता है । सन् 1930-35 की अवधि में इस रोग से इंग्लैंड में 1500 व्यक्तियों की मृत्यु हुई । इनमें से 270 सिरेमिक उद्योगों में काम करने वाले व्यक्ति थे । वस्तुत: सिरेमिक उद्योग में काम करने वालों में सिकतामयता की घटना सर्वाधिक होती है ।

इस उद्योग के अंतर्गत निम्नलिखित धंधे आते हैं:

1. चीनी मिट्टी का बर्तन व अन्य वस्तुएं,

2. रिफ्रेक्ट्रीज,

3. विसंवाहक पदार्थ व मृदभांड आदि ।

इंग्लैंड में सन् 1863 ई. में नियुक्त एक आयोग की रिपोर्ट के अनुसार सिरेमिक उद्योग में काम करने वाले मजदूरों की प्रत्येक आने वाली पीढ़ी कद में छोटी ओर कम स्वस्थ थी ।

रोग की भयंकरता के वर्णन में एगरीकोला (1556 ई.) ने अपनी पुस्तक ‘डी री मिटेलिका’ में लिखा है कि कारपैथियन पहाड़ों की खानों में काम करने वाले मजदूरों में ऐसी स्त्रियाँ भी थीं, जिन्होंने सात-सात विवाह किए और उनका हरेक पति इसी रोग का शिकार हुआ ।

शुद्ध सिलिका से सिकतामयता रोग अतिशीघ्र व उग्र रूप में होता है । शुद्ध सिलिका धूलि-कणों के साथ श्वास द्वारा फेफड़ों में पहुँच जाता है । सिरेमिक उद्योग में प्रयुक्त किए जाने वाले सभी कच्चे मालों में बड़ी मात्रा में शुद्ध सिलिका विद्यमान होता है ।

सिलिका प्रकृति में हर जगह पाया जाता है । पृथ्वी की ऊपरी परत का 27.6 प्रतिशत भाग सिलिका है ओर केवल ऑक्सीजन ही इससे अधिक मात्रा में है । सिलिका का 12 प्रतिशत अंश सिलिकॉन डाइऑक्साइड होता है जो कि सबसे अधिक हानिकारक है ।

क्वार्ट्ज, बिल्लौरी पत्थर (ट्रिपोली), चकमक पत्थर (फ्लिंट), ट्रिडीमाइट, दूधिया पत्थर (ओपल), श्वेतवर्ण पत्थर (कैल्सेडोना) आदि के रूप में सिलिका प्रकृति में पाया जाता है । सिलिका के अतिरिक्त कुछ सहायक कारक भी हैं, जिनके कारण सिकतामयता और फुस्फुस धूलिमयता रोगों के होने की संभावना बढ़ जाती है, जैसे कि धूलिकणों की सांद्रता, प्रभावन काल, शुद्ध सिलिका की प्रतिशतता, धूलिकणों का आकार, व्यक्ति की रोगग्राह्यता, अन्य प्रदूषित धूलिकणों की उपस्थिति तथा सिगरेट-बीड़ी का प्रयोग ।

अनुमान है कि 50 लाख से एक करोड़ धूलिकण प्रति घनफुट वाले वातावरण में दस वर्षों तक नौकरी करने पर फुस्फुस धूलिमयता की स्थिति आ जाती है । यदि ये धूलिकण दस माइक्रोन से कम हों और उनमें 75 से 50 प्रतिशत शुद्ध सिलिका हो । धूलिकण या सिलिका की मात्रा और अधिक होने पर रोग पाँच वर्षों में या इससे भी कम समय में हो सकता है ।

धूलिमय वातावरण वाले उद्योगों में काम करने वाले सभी कर्मियों को फुस्फुस धूलिमयता रोग नहीं होता । अकसर देखा गया है कि एक ही तरह के वातावरण में कई मजदूर वर्षों काम करते रहते हैं, परंतु धूलिकणों की उन पर अलग-अलग प्रतिक्रिया होती है ।

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के वोर वाल्ड का विचार है कि इन अलग-अलग प्रतिक्रियाओं का कारण यह है कि विभिन्न व्यक्तियों में श्वसन की क्रिया में समान मात्रा में धूलिकण फेफड़ों में नहीं पहुँच पाते, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के श्वसनांगों की धूलिकणों को छानकर अलग करने की क्षमता अलग-अलग होती है ।

अलग-अलग प्रतिक्रियाओं या प्रभावों का कारण उनके कार्य की अवधि तथा छुट्टी आदि भी हो सकती है । सिरेमिक उद्योग में फुस्फुस धूलिमयता रोग की घटना 3 से 66 प्रतिशत तक बताई गई है । 1956 में भारत सरकार द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में इसकी घटना 15.7 प्रतिशत पाई गई । नई दिल्ली टी. बी. सेंटर में चिकित्सक डॉ. भारत भूषण सुरपाल ने 1969 ई. में जो सर्वेक्षण किया उसमें इस रोग की घटना 33.3 प्रतिशत थी ।

सिकतामयता का निदान तभी संभव होता है जब इनके लक्षण एक्स-रे फिल्म में नजर आएँ । एक्स-रे फिल्म द्वारा सिकतामयता का पता चलने पर भी व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ हो सकता है और वह पुन: स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकता है । कभी-कभी इस रोग के बाहरी लक्षण कई वर्ष तक प्रकट ही नहीं होते ।

रोग की शुरुआत होने पर पहले खाँसी और काम करते हुए धीरे-धीरे साँस फूलने की तकलीफ होती है । इसका कारण धूलिकणों का फेफड़ों में जमा हो जाना है । जैसे-जैसे धूलिकणों का जमाव फेफड़ों में बढ़ता जाता है, साँस फूलने की तकलीफ अधिक होती जाती है ।

शुरू में साँस काम करने या चलने पर ही फूलती है, पर एक स्थिति ऐसी आ सकती है जब बैठे-बैठे भी सांस फूलने लगती है । अगर रोगी को सिगरेट या बीड़ी पीने की आदत हो तो खाँसी ओर साँस फूलने की तकलीफ ओर भी उग्र रूप धारण कर लेती है ।

जब फेफड़ों में वायु-कोष्ठ बड़े हो जाते हैं तो यह रोग वातस्फीति कहलाता है । यह सिकतामयता का एक और बुरा लक्षण है, परंतु रोग के काफी बढ़ने पर ही यह होता है । जब एंफाइसीमा होने पर साँस फूलने की शिकायत बहुत बढ़ जाती है, तब धीरे-धीरे इसका कुप्रभाव हृदय पर भी पड़ता है और फुस्फुसजन्य हृदयरोग (कारपल्मोनेल) हो जाता है ।

जिसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है । तपेदिक की शिकायत यदि न हो और धूलिमय वातावरण से व्यक्ति बचता रहे तो उसका साधारण स्वास्थ्य ठीक रहता है । फुस्फुस धूलिमयता रोग पर दूसरी बीमारियों का बुरा असर पड़ सकता है, विशेषकर फुस्फुसशोथ या निमोनिया का ।

इन रोगों के साथ अगर तपेदिक हो जाए तो स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है । लगातार ज्वर रहना और बलगम में खून आना इसके मुख्य लक्षण हैं । डॉ. सुरपाल ने चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने वाली एक फैक्टरी 22 मजदूरों की डॉक्टरी परीक्षा की और एक्स-रे फिल्म द्वारा उनका मुआयना किया । इस परीक्षण में फुस्फुस धूलिमयता का 33.3 प्रतिशत मजदूरों में पाया गया ।

पंद्रह वर्ष से अधिक की अवधि तक काम करने वालों में 50 लाख धूलिकण प्रति घनफुट या अधिक संख्या वाले वातावरण में काम करने वालों में, कुछ धूलिकणों में शुद्ध सिलिका की मात्रा 20 प्रतिशत से अधिक वाले के वातावरण के कर्मियों में, बाल मिल और फायरिंग विभाग में काम करने वालों में तथा उन मजदूरों में जो सदा धूलिमय वातावरण में काम करते रहे हों, इसका प्रभाव अधिक था ।

इस फैक्टरी की धूलि और सिलिका का चूहों पर भी परीक्षण किया गया । प्रयोगशाला में एक धूलिकक्ष बनाया गया और धूलि व सिलिका से इसका वातावरण वैसा ही किया गया जैसा कि फैक्टरी में था । चूहों को अलग-अलग समय के लिए इस धूलि-कक्ष में रखा गया ।

कुछ चूहों में फुस्फुस धूलिमयता रोग होने के चिह्न मिले । उद्योगों में रोगों की रोकथाम हेतु विभिन्न क्रियाओं को अलग-अलग किया जाना चाहिए जिससे धूलिकण एक विभाग से दूसरे विभाग में न फैलें, वायु की समुचित निकास व्यवस्था होनी चाहिए ताकि धूलिकण यथासंभव बाहर निकल जाएँ ।

धूलिकणों के समुचित दमन करने के उपाय किए जाने चाहिए, हर विभाग के फर्श पक्के होने चाहिए तथा फर्श हर रोज साफ होने चाहिए । मिट्टी के तेल का फर्श पर छिड़काव करने से छोटे आकार के हानिकारक सिलिका की मात्रा वातावरण में कम हो जाती है ।

धूलिमय वातावरण वाले विभागों में काम करने वाले मजदूरों को सही ओवरऑल पहनने चाहिए, अधिक धूलि-भरे विभागों में काम करने वाले मजदूरों को श्वसित्र का उपयोग करना चाहिए, पानी का उचित प्रबंध होना चाहिए तथा धूम्रपान निषिद्ध होना चाहिए ।

उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त, नौकरी देने से पहले हर मजदूर की डॉक्टरी और एक्स-रे जाँच होनी चाहिए तथा बाद में भी समय-समय पर डॉक्टरी और एक्स-रे जाँच होती रहनी चाहिए, ताकि रोग का जल्दी निदान हो सके और उचित चिकित्सा की जा सके ।

अगर एक्स-रे फिल्म में क्रमश: रोग बढ़ता दिखाई दे तो मजदूर का विभाग बदल देना चाहिए, धूलिकणों की प्रति घनफुट में संख्या तथा सिलिका की मात्रा समय-समय पर ज्ञात की जानी चाहिए । मजदूरों को रोगों के बारे में शिक्षा दी जानी चाहिए । सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि हवा की दिशा व रफ्तार बदलती रहती है । उसके साथ-साथ प्रदूषक तत्वों का मार्ग भी बदलना स्वाभाविक ही है ।

यदि हवा उत्तर-पूर्व से बदलकर पश्चिम दिशा से बहने लगे तो विसर्जित तत्व भी तदनुसार दक्षिण-पश्चिमगामी न रहकर पूर्वग्रामी हो जाएँगे । इनकी गति भी पवनगति के अनुसार बदलेगी । इस प्रकार विसर्जित प्रदूषक तत्व वायु के साथ उसकी गति से तथा उसी दिशा में यात्रा करते हैं ।

किसी भी प्रदूषक तत्व के लिए निरापद स्तर वायुमंडल तथा औद्योगिक पर्यावरण के लिए अलग-अलग होता है । उद्योग-कर्मियों के लिए प्रदूषक का निरापद स्तर वायुमंडल में विद्यमान उसी प्रदूषक तत्व के लिए निर्धारित निरापद स्तर से कुछ अधिक होता है ।

वायु का प्रवाह दो प्रकार से होता है:

1. स्तरीय और

2. विक्षुब्ध ।

यदि दो कण प्रवाह में छोड़ दिए जाएँ तो स्तरीय प्रवाह में दोनों की यात्रा एक साथ होगी । इसके विपरीत विक्षुब्ध प्रवाह में दोनों के पथ भिन्न-भिन्न हो जाएंगे, क्योंकि विक्षुब्ध प्रवाह में भँवर होते हैं जिनके संघटन-विघटन की प्रक्रिया चालू ही रहती है । ये भँवर वायु की औसत गति से यात्रा करते हैं । फलस्वरूप यदि दोनों कण कुछ समय तक साथ-साथ यात्रा करें तो भी फिर तुरंत ही अलग होकर भिन्न-भिन्न पथ अपना लेते हैं ।

वस्तुतः विक्षुब्ध प्रवाह के कारण वायु में प्रदूषक तत्वों का विसरण होता है । विक्षुब्धता के परिमाण के अनुसार प्रदूषक तत्व वायु में कम या अधिक व्याप्त होते हैं और वायु में उनकी सांद्रता भी यथा विक्षुब्धता अधिक या कम होती है ।

मान लीजिए हम प्रति सेकंड एक कण वायु-प्रवाह में विसर्जित कर रहे हैं और वायु का वेग एक मीटर प्रति सेकंड है तो यह स्पष्ट है कि एक सेकंड के अंतर पर विसर्जित किए गए दो कणों में एक मीटर का अंतर रहेगा और यदि वायु-गति पाँच मीटर प्रति सेकंड हो तो तुरंत अंतर पाँच मीटर रहेगा ।

जितना कणों में अंतर कम होता है उतनी ही सांद्रता अधिक होती है । इसका अर्थ है कि प्रदूषक तत्व की सांद्रता वायु-वेग के व्युत्क्रमानुपानी होती है । यही कारण है कि दिन में सांद्रता कम होगी और रात का अधिक, क्योंकि दिन में वायु-गति प्राय: अधिक होती है और रात को कम ।

विक्षुब्धता का परिणाम दिन-प्रतिदिन बदलता रहता है । साधारणतया दिन में सूर्योदय के बाद विक्षुब्धता बढ़ती जाती है और सायंकाल को कम होती जाती है । रात को विक्षुब्धता और पवन-वेग दोनों ही कम हो जाते हैं । सूर्योदय के बाद भूमि और उसके नजदीक के वायु-स्तर शीघ्र और ऊपर के स्तरों से अधिक गर्म होते हैं ।

साधारणत: दिन में वायुमंडल की स्थिति अस्थायी और रात्रि में स्थायी होती है । इसलिए दिन में विक्षुब्धता और विसरण अधिक और रात्रि को कम होते हैं । जब आसमान में बादल या हवा चल रही हो तब स्थायित्व उदासीन होता है और फैलाव मध्यम होता है ।

वायुमंडल के विभिन्न स्तरों में एक ही समय में अलग-अलग प्रकार के स्थायित्व भी हो सकते हैं । चिमनी से निकलता हुआ धुआँ दूर से पंख की तरह दिखता है । इसलिए उसे धूम्रपत्र कहते हैं । पत्र का तात्कालिक आकार सर्पाकृत जैसा और अस्थिर होता है ।

विसर्जन केंद्र से किसी भी दूरी पर अधिकतम सांद्रता धूम्रपत्र के अक्ष पर होती है । दूरी बढ़ने पर निर्देशित अक्ष पर सांद्रता कम होती है । यदि विसर्जन भूमि-स्तर पर हुआ हो, तो पत्र का अक्ष भी भूमि-स्तर पर होगा । विर्सजन केंद्र से अंतर बढ़ने से भूमि-स्तर पर सांद्रता कम होती जाएगी ।

परंतु जब विसर्जन ऊंचाई पर होता है तब भूमि-स्तर सांद्रता अंतर के अनुसार अलग रीति से बदलती है । इस तथ्य से यह बात स्पष्ट होती है कि ऊँचाई पर विसर्जन के कई लाभ हैं । पहला लाभ यह है कि विसर्जन स्थान के आसपास के कुछ क्षेत्र में वायु प्रदूषण नहीं होता ।

यह स्थायित्व के साथ बदलता है तथा ऊँचाई के साथ भी बदलता है । दूसरा लाभ यह है कि विसर्जन की ऊँचाई ज्यों-ज्यों बढ़ती है त्यों-त्यों अधिकतम सांद्रता कम होती है और सांद्रता विसर्जन स्थल से काफी दूर प्रकट होती है । भूमि-स्तर पर अधिकतम सांद्रता विसर्जन ऊँचाई के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होती है ।

यह सूत्र प्रदूषण नियंत्रण के लिए बहुत उपयोगी है, क्योंकि यदि विसर्जन की मात्रा पवन-गति और निरापद स्तर-सांद्रता ज्ञात हो तो न्यूनतम विसर्जन ऊंचाई इस सूत्र से ज्ञात की जा सकती है और चिमनी उतनी ही ऊंची बनाई जा तकती है ।

लेकिन इसमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

(1) विसर्जन की मात्रा का आकलन कारखाने की स्थापना के काल में ही करना चाहिए ।

(2) दिन-प्रतिदिन बदलते हुए वायुमंडलीय चरों, जैसे- पवन-गति व दिशा, स्थायित्व आदि का स्थानिक अध्ययन और अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए ।

चिमनी की ऊंचाई बिल्डिंग की ऊँचाई से कम से कम ढाई गुनी अधिक होनी चाहिए । कभी-कभी ऐसे भी कारखाने दिखते हैं जो छत में ही दूषित वायु का विसर्जन करते हैं, क्योंकि चिमनी बनाने में रुपए खर्च करना इन्हें अपव्यय जैसा लगता है ।

चिमनियों प्राय: 30-100 मीटर ऊंचाई तक होती हैं । परमाणु ऊर्जा केंद्रों में, जहाँ नियंत्रण अधिक सावधानी से किया जाता है, चिमनी 100 मीटर से भी अधिक ऊंची होती हैं । भारत में ट्रांबे के भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में 120 मीटर व 135 मीटर की हैं ।

अमेरिका में बड़े परमाणु बिजलीघरों की इससे भी अधिक ऊंची हैं । इनमें से मिचेल बिजलीघर की चिमनी 360 मीटर ऊंची है । परंतु ऐसी ऊँची चिमनी बनाना हर जगह संभव नहीं होता ।

अत: फिल्टर, वाशिंग टावर, स्थिर विद्युत अवक्षेपक आदि साधन विसर्जन कम करने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं । ऐसे अवक्षेपक भारत हैवी इलेक्ट्रीकल्स लिमिटेड, भोपाल ने तैयार किए हैं और इनका सफल प्रयोग दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों में स्थित ताप बिजलीघरों में किया गया है ।

प्राकृतिक हवा में धुएँ के कणों और गैसों की मात्रा का पता लगाने के लिए ‘हाई वॉल्यूम सैंपलर’ तथा चिमनी से उठने वाले धुएँ की मात्रा मापने के लिए ‘स्टैक मॉनिटरिंग किट’ उपकरणों का उपयोग किया जाता है । कुछ अंतर के बाद भूमि-स्तर पर विसर्जन और ऊंचाई पर विसर्जन इन दोनों से एक ही सांद्रता प्राप्त होती है । यह बात सच है कि यह अंतर बहुत अधिक होने से सांद्रता भी कम होती है, परंतु यह भी सच है कि यह कम सांद्रता अधिक क्षेत्रों में पाई जाती है ।

कई विसर्जन केंद्रों से मिलाकर प्राप्त कुल सांद्रता स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भले ही हो, परंतु वायुमंडलीय प्रक्रिया में विघ्न डालने के लिए पर्याप्त हानिकारक हो सकती है, जैसे- धूम्रकण और कार्बन डाइऑक्साइड के कारण सूर्य से भूमि पर आने वाली तथा भूमि से अंतरिक्ष में जाने वाली ऊर्जा में परिवर्तन आ सकता है, जिससे वायुमंडल का ताप बढ़ सकता है या वनस्पति जगत के क्रियाकलापों में तबदीली आ सकती है ।

वायुमंडल का ताप बढ़ने का भयंकर दुष्परिणाम यह है कि पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण भाग की बर्फ की चट्टानें पिघलकर प्रलय ला सकती हैं । चिंता की बात है कि ये परिणाम बहुत धीरे-धीरे होने के कारण निश्चित रूप से इनका आकलन नहीं हो सकता ।

मौसम का भी वायु-प्रदूषण पर प्रभाव पड़ता है । धूप व कोहरे के दिनों में जब तापमान समानुपाती होता है तो ऊपरी वायुमंडल का ताप अधिक होने के कारण बहुत-से वायु-प्रदूषक पृथ्वी से अधिक ऊपर नहीं उठ पाते और यदि प्रदूषकों में धुआँ भी मौजूद हो तो काला धुआँ बन जाता है ।

लंदन, न्यूयॉर्क आदि में ‘स्मॉग’ एक बड़ी समस्या बन चुका है । भारत में स्मॉग बहुत कम बनता है । सर्दियों में सल्फर डाइऑक्साइड के साथ एसिड स्मॉग बहुत कम बनता है । स्मॉग एक प्रकार का वायुधुंध अथवा सूक्ष्म कुहासा होता है, जोकि मनुष्य की श्वास नलिकाओं में पहुँचकर श्वासक्रिया पर बुरा प्रभाव डालता है ।

इसके अतिरिक्त सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वातावरण में विद्यमान कार्बोनिल यौगिकों और नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की परस्पर प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ओजोन और पराऐसीटिल यौगिक बन जाते हैं । इससे वायुमंडल क्षोभकारी होता जाता है ।

मुख्य रूप से वायु में धुएँ के कारण प्रदूषण उस समय उत्पन्न होता है, जब घरों और औद्योगिक भट्ठियों में जीवाश्मी ईंधनों, विशेष रूप से कोयले के जलने से धूम और सल्फर डाइऑक्साइड की बहुत अधिक मात्रा वायु में निर्मुक्त होती है ।

ये पदार्थ अधिकतर वायुमंडल में सब तरफ फैल जाते हैं । परंतु कुछ विशेष अवस्थाओं में ये बहुत अधिक घने और संकेंद्रीय हो जाते हैं ओर नमी से संयुक्त होकर धूम-कुहरा बनाते हैं । पर्यावरण में धूम-कुहरा और प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा वायु-प्रदूषण हैं । अंग्रेजी का SMOG (धूम-कुहरा) शब्द, SMOKE (धूम) और FOG (कुहरा) शब्दों से मिलकर बना है । इस शब्द का नामकरण उन्नीसवीं सदी के अंत में डॉ. एच. ए. डेस वोएक्स द्वारा किया गया था ।

यह पाया गया कि समुद्र से आई शीतल नम वायु गर्म शुष्क वायु के नीचे दबकर निश्चल रहती है और इस शीतल नम वायु में लदे गैसों के रूप में प्रदूषक वायुमंडल में मुक्त नहीं हो पाते हैं । सूर्य का चमकीला प्रकाश इन प्रदूषकों को अन्य पदार्थों में परिवर्तित कर प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा बनाता है ।

जब गर्म हवा ऊपर की ओर उठती है तो यह प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा समीप के पर्वतों की और फैल जाता है । लॉस एंजेल्स के समान ही प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा की समस्या विश्व के अन्य भागों में पाई जाती है । 1950 के दशक में ऐरी जे. हाजेन-स्मित, रसायनज्ञ ने प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा के बनने में सूर्य के प्रकाश और प्रकाश रासायनिक क्रियाओं की भूमिका के बारे में पता लगाया ।

उन्होंने बताया कि यह धूम-कुहरा 24 घंटों के चक्रीय पैटर्न में मुख्यतः निम्नलिखित पदों में बनता है:

1. वायुमंडल में नाइट्रोजन के ऑक्साइड (NOx) और हाइड्रोकार्बन का उत्सर्जन । NOx आवश्यक सौर ऊर्जा अवशोषित कर हाइड्रोकार्बन की क्रियाओं को परिचालित करने में सहायता करते हैं ।

2. सूर्य के प्रकाश के अवशोषण द्वारा NO2 का प्रकाशिक वियोजन ।

3. NOx का उपभोग और साथ ही ऑक्सीकारकों का बनना । ये ऑक्सीकारक ओजोन, परमाणु ऑक्सीजन, परऑक्साइड और ऊर्जित ऑक्सीजन होते हैं ।

4. हाइड्रोकार्बन के ऑक्सीकरण द्वारा विभिन्न प्रकार के उत्पादों का बनना । ये अधिकतर ऐरोसॉल और आँखों में चिरमिराहट पैदा करने वाले अश्रुकारी पदार्थ होते हैं ।

5. प्रदूषकों का इधर-उधर फैलना ।

स्पष्ट है कि जब 2, 3 तथा 4 पदों की अभिक्रियाएं हो रही होती हैं तो तापीय न्यूत्क्रमण या अन्य प्रकार के मौसम या स्थलाकृतिक प्रभाव, जिससे वायु संहति का वायुमंडल में इधर-उधर फैलाव रुक जाता है, प्रकाश रासायनिक धूम कुहरा की समस्या को और अधिक गंभीर बना देते हैं । सूर्योदय से पहले उत्सर्जित हाइड्रोकार्बन और NOx वायुमंडल में संचयित हो जाते हैं ओर NO का NO2 में ऑक्सीकरण हो जाता है । जैसे ही सौर विकिरण इन पर पड़ती है ।

निम्नलिखित अभिक्रिया शीघ्रता से होती है और बहुत ही अधिक क्रियाशील परमाणवीय ऑक्सीजन बनती है:

अभिक्रिया (5) में विभिन्न प्रकार के ऐल्डिहाइड और कीटोन भी बनते हैं जो आरंभिक हाइड्रोजन की संरचनाओं पर निर्भर करते हैं । ये अंत में द्रवित होकर ऐरोसॉल बनाते हैं जिनसे पर्यावरण में दृश्यता कम हो जाती है ।

प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा में एक अन्य प्रकार के मुख्य यौगिक आँखों में चिरमिराहट उत्पन्न करने वाले अश्रुकारी पदार्थ हैं, जैसे- परऑक्सीऐसीटिल नाइट्रेट और परऑक्सीबेंजॉयल नाइट्रेट । ये पदार्थ परऑक्साइड मूलकों पर NO2 की क्रिया से बनते हैं ।

PAN और PB2N दोनों ही प्रबल ऑक्सीकारक, बहुत ही तेजी अश्रुकारी और वनस्पति जीवन के लिए नितांत विषैले पदार्थ हैं । इनके अतिरिक्त अन्य मूलकों पर NO2 की क्रिया से दुर्बल ऑक्सीकारक ऐसिलनाइट्रेट भी बनते हैं ।

यह इस प्रदूषण में हो रही सभी अभिक्रियाओं की पूरी सूची नहीं है, इनके अतिरिक्त भी अन्य महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं होती रहती हैं । उदाहरण के तौर पर, प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा में सल्फर डाइऑक्साइड गैस भी होती है जो अन्य पदार्थों से क्रिया करके विषैले यौगिक बनाती है ।

कुल मिलाकर प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा के प्रतिदिन के चक्र में मूलत: सुबह प्राथमिक प्रदूषकों का उत्सर्जन होता है, इसके बाद इनका ऑक्सीकारकों में सौर विकिरण द्वारा प्रकाश रासायनिक परिवर्तन होता है और अंत में ये ऑक्सीकारक हाइड्रोकार्बन से क्रिया करके अनेक प्रकार के उत्पाद बनाते हैं ।

पर्यावरण में धूम-कुहरा और प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा प्राणी और वनस्पति जीवन, इमारतों तथा पदार्थों पर अपना बुरा प्रभाव डालते हैं । जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि दुनिया के कई भागों में धूम-कुहरा के कारण घटी दुर्घटनाओं में अनेक व्यक्तियों को जान से हाथ धोना पड़ा था ।

इन भयंकर प्रमुख हादसों की तुलना में, मनुष्य के स्वास्थ्य पर निम्नस्तरीय परंतु निरंतर धूम-कुहरा के वातावरण का सूक्ष्म और कालांतर में प्रभाव अधिक महत्वपूर्ण है । इस वायु प्रदूषण में रहने वाले व्यक्तियों को चिरकालीन श्वसन रोग जैसे एमफिसेमा, ब्रोंकाइटिस और दमा हो जाते हैं ।

इस प्रदूषण के कैंसर और हृदय रोग से मरने वालों की संख्या अधिक हो जाती है । धूम-कुहरा के प्रभाव से धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों को फेफड़ों का कैंसर अधिक होता है । प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा में उपस्थित ऑक्सीकारकों में मुख्यत: ओजोन, PAN और PBN से आंखों में चिरमिराहट होती है और पानी आता है । श्वसन-तंत्र की श्लेष्मल झिल्ली में जलन हो जाती है ओर दीर्घकालीन श्वसन-व्याधियों में वृद्धि होती है । इस प्रदूषण से दमे की शिकायत भी बढ़ जाती है ।

बच्चों में इस प्रकार के वायु-प्रदूषणों से दमा, एलर्जी ओर गंभीर श्वसन संक्रमण रोग हो जाते हैं । बचपन में इस प्रकार की व्याधियों की वजह से भविष्य के जीवन में दीर्घकालीन बीमारियाँ हो जाती हैं । वातावरण में प्रकाश रासायनिक ऑक्सीकारकों के कारण स्वस्थ बच्चों में व्यायाम-प्रदर्शन की क्षमता कम हो जाती है । इन प्रदूषणों के कारण पालतू पशु ओर जानवर वृद्धता की ओर शीघ्रता से बढ़ते हैं ।

इसमें क्रोमोसोम की क्षति हो सकती है ओर बीमारियों से प्रतिरोध और सहन करने की क्षमता भी कम हो जाती है । धूम-कुहरा और प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा से वनस्पति-जीवन को हानि पहुँचती है । इससे कोशिकाएं पूर्णतः नष्ट हो सकती हैं, पेड़-पौधों के उपजने और वृद्धि के ढाँचे में परिवर्तन हो सकता है, पत्तियों की निचली सतह पर पीला चमकीलापन आ जाता है, फूल, फल और फसल के उत्पादन और स्वरूप पर असर पड़ता है और वनों को क्षति पहुंचती है ।

ये वायु-प्रदूषक विभिन्न प्रकार के पदार्थों को नुकसान पहुंचा रहे हैं । कुछ पदार्थ, जैसे- इस्पात, इनसे संक्षारित हो जाते हैं । इमारतें, स्मारक और मूर्तियों का इनसे अपरदन (क्षय) हो रहा है । इनके कारण भविष्य में पुरातन-स्मारकों, जैसे- एथेंस का एक्रोपोलिस, के नष्ट हो जाने की आशंका बनी हुई है । प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा में उपस्थित ऑक्सीकारक रंगीन पदार्थों को रंगहीन तथा वस्त्रों की शक्ति कम कर देते हैं और रबर में दरार डालकर उन्हें नष्ट कर देते हैं ।

इन वायु-प्रदूषणों से दृश्यता कम हो जाती है जिससे विमानों, जहाजों और मोटर-गाड़ियों के सुरक्षित प्रचलन में कठिनाई होती है और यातायात के निर्धारित कार्यक्रम छिन्न-भिन्न हो जाते हैं । इन प्रदूषण के कारण पर्यावरण में कम दृश्यता से संसार के अनेक भागों में दुर्घटनाएँ हुई हैं ।

धूम-कुहरा और प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा के कारण पर्यावरण प्रदूषण रोकने का सबसे प्रमुख, महत्वपूर्ण और सरल उपाय यह है कि प्रदूषकों के स्रोतों पर नियंत्रण किया जाए । प्रदूषकों की जितनी कम मात्रा बाहर निकलेगी उतना ही वायुमंडल कम दूषित होगा ।

प्रदूषक-स्रोतों पर नियंत्रण विभिन्न प्रकार के उपयुक्त संयंत्रों, पदार्थों तथा विधियों को इस्तेमाल करके किया जा सकता है । उदाहरणतः दहन से पहले ईंधनों को शोधित किया जाता है ताकि उत्सर्जित गैसों में प्रदूषकों की मात्रा कम की जा सके ।

इसीलिए गंधक के ऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए, इस्तेमाल से पहले कोयले का परिष्करण तथा पेट्रोलियम ईंधनों का विसल्फीकरण किया जाता है । प्राकृतिक गैस के जलने से गंधक के ऑक्साइड बाहर कम निकलते हैं, इस कारण विदेशों में बहुत अधिक ईंधन इस्तेमाल करने वाले संयंत्र प्राकृतिक गैस को ही उपयोग में लाते हैं ताकि पर्यावरण प्रदूषण कम हो सके ।

गीली रासायनिक स्क्रबिंग विधि से अपशिष्ट व उत्सर्जित गैसों में से सल्फर डाइऑक्साइड को अवशोषित कर दूर करने के लिए कुछ अघुलनशील सूक्ष्म चूर्णित पदार्थों, जैसे- चूना, चूना पत्थर, मैग्नीशियम हाइड्रोक्साइड के जलीय तनु घोल अथवा सोडियम लवणों जैसे सोडियम कार्बोनेट, बाइकार्बोनेट, सल्फाइड आदि के स्क्रबिंग घोल उपयोग किए जाते हैं । नाइट्रोजन के ऑक्साइड के मुख्य स्रोत उष्मा तथा शक्ति के संयंत्र, परिवहन के साधन तथा कुछ रासायनिक संयंत्र, नाइट्रिक अम्ल उत्पादन संयंत्र आदि हैं ।

दहन प्रक्रियाओं में नाइट्रोजन के ऑक्साइड के उत्सर्जन को निम्न तरीकों से कम किया जा सकता है:

(1) फायर में कम अतिरिक्त वायु का इस्तेमाल,

(2) द्विचरण दहन का उपयोग,

(3) ईंधन-गैस का पुन: परिचालन तथा

(4) जल का अंत:क्षेपण ।

विदेशों में स्वचालित मोटर-गाड़ियों के निकास में से नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा को कम करने के लिए 1975 से उत्प्रेरक संपरिवर्तक उपयोग में लाए जा रहे हैं । यद्यपि स्क्रबिंग विधि में सोडियम लवणों के घोल सल्फर डाइऑक्साइड को दूर करने के लिए प्रभावकारी है, परंतु गैसों में से नाइट्रोजन के ऑक्साइड को अवशोषित करने में ये उतने सहायक नहीं है ।

कारण यह है कि किसी निश्चित ताप पर नाइट्रोजन के ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड की तुलना में जल में कम घुलनशील हैं । यदि परिमुक्त गैसों में गंधक के ऑक्साइड नहीं हैं तो सोडियमयुक्त विधियों को नाइट्रोजन के ऑक्साइड –उन्मूलन में उपयोग किया जा सकता है ।

एक अति आधुनिक विधि में अपशिष्ट गैसों में से नाइट्रोजन के ऑक्साइड दूर करने के लिए यूरिया का तनु अम्लीय विलयन इस्तेमाल किया जाता है । स्थिर तथा चलायमान इंजनों में हाइड्रोकार्बन ईंधनों के अपूर्ण दहन से और स्प्रे पेंट, विलायक शोधन, मुद्रण, रासायनिक तथा धातुकर्मक व अन्य प्रकार के संयंत्रों से, जिनमें अधिक हाइड्रोकार्बन से युक्त विभिन्न द्रवों का उपयोग होता है, हाइड्रोकार्बन वाष्प प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं ।

इंजन के डिजाइन तथा ट्‌यूनिंग को सुधारकर ताकि ईंधन में हाइड्रोकार्बन की मात्रा का पूर्ण दहन हो सके । निर्गम हाइड्रोकार्बन की मात्रा को घटाया जा सकता है । रासायनिक उद्योगों में कुछ नए प्रकार के विलायकों का विकास किया है जो कम वाष्पशील हैं और जिनसे कम हाइड्रोकार्बन वाष्प उत्सर्जित होते हैं ।

प्रकाश रासायनिक धूम-कुहरा में प्रबल प्रकाश रासायनिक ऑक्सीकारकों जैसे ओजोन, परऑक्सीएसीटिल नाइट्रेट, परऑक्सीबेंजॉयल नाइट्रेट आदि का नियंत्रण, पर्यावरण में नाइट्रोजन के ऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन वाष्प के प्रभावकारी नियंत्रण पर निर्भर करता है ।

वायु-प्रदूषण से मनुष्य तथा पशुओं के स्वास्थ्य और वनस्पति पर बुरा प्रभाव पड़ता है । अनुमान हैं कि वायु प्रदूषण के कारण अनेक प्रकार की गले, नाक तथा आँख की जलन उत्पन्न होती है । यहाँ तक कि कैंसर भी हो सकता है ।

ऐसा विश्वास है कि प्राकृतिक ऐरोसाल से मात्र उत्तेजना उत्पन्न होती है, किंतु कोई हानि नहीं पहुँचती, परंतु मनुष्य निर्मित ऐरोसाल श्वास-मार्ग से भीतर पहुँचकर फेफड़ों को क्षतिग्रस्त कर सकते हैं । गैसें तो फेफड़ों में सीधी प्रविष्ट हो जाती हैं ।

इसके अतिरिक्त ये गैसें आँख में आँसू उत्पन्न कर सकती हैं । प्रायः देखा गया है कि जब-जब भी विद्यार्थियों अथवा किसी वर्ग विशेष के आंदोलनों पर अश्रुगैस के गोले छोड़े गए हैं तो देहली निवासी नेत्र रोगों के शिकार बन जाते हैं ।

जब ये गैसें शरीर की चमड़ी के संपर्क में आती हैं तो खुजलाहट उत्पन्न करती हैं । श्वसन मार्ग में पहुंचकर ये खाँसी, छींक उत्पन्न करती हैं तथा कौआ को प्रभावित करती हैं । सल्फर डाइऑक्साइड के प्रभाव से तो निश्चित रूप से ब्रोंकाइटिस हो जाता है ।

आंदोलनों में जब बसों आदि को आग लगाई जाती है तो हानि केवल सरकार की ही नहीं, बल्कि समाज की भी होती है, क्योंकि ये गैसें समाज को रोगग्रस्त कर देती हैं, अत: शिक्षित वर्ग को चाहिए कि जहाँ तक हो सके ऐसी दुर्घटनाएँ समाप्त कर वायु-प्रदूषण से समाज को सुरक्षित रखें ।

कार्बन मोनोक्साइड के कारण मनुष्यों का मस्तिष्क प्रभावित होता है । उनमें सोचने-विचारने की शक्ति घटती है । यह रक्त को अशुद्ध कर देता है । युद्ध के दिनों में आशंका रहती है कि दुश्मन कहीं जैविक अस्त्रों का सहारा लेकर समस्त वायु को प्रदूषित करके मनुष्यों में नाना प्रकार के रोग न फैला दे ।

सन् 1971 के ग्रीष्मकाल में ओसाका में अत्यधिक धूम एकत्र होने के कारण एन्वायमेंटल पॉल्यूशन कंट्रोल ने निरंतर नौ दिनों तक अन्वेषण करने के पश्चात् ज्ञात किया कि धूम में ऐसे रासायनिक तत्व हैं जो मानव-शरीर को कैंसर से ग्रसित एवं प्रभावित करते हैं ।

इस वायु-प्रदूषण का ज्ञान राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली में इलेक्ट्रॉन स्पिन रेजोनेंस द्वारा किया जाता है । वायु-प्रदूषण मापने के लिए सर्वप्रथम ग्लास फाइबर फिल्टरों द्वारा लगभग तीन घंटों तक प्रदूषित वायु का चूषण किया जाता है ।

तत्पश्चात् इन फिल्टरों को 10 × 40 मिलीमीटर के आकार में काटकर क्वार्ट्ज की बनी 5 मिलीमीटर व्यास वाली नली में लगाकर धूलि की मात्रा का पता लगाया जाता है । मनुष्य की तरह पेड़-पौधे एवं फसलें भी वायु-प्रदूषणों से प्रभावित होती है । पौधों के लिए सर्वाधिक घातक गैस सल्फर डाइऑक्साइड है- विशेषतया नई कोंपलें ध्वस्त हो जाती हैं ।

हाइड्रोजन फ्लोराइड तो संचित होने वाली गैस है । देखा गया है कि वृक्षों में 500 अंश प्रति दस लाख हाइड्रोजन फ्लोराइड संचित हो सकती है । इससे पौधे की बढ़ोतरी रुकती है और हरीतिमा जाती रहती है । शोभाकारी वृक्ष तथा लताएँ एथिलीन गैस से प्रभावित होती हैं ।

चिमनियों या कारखानों के आसपास दूर-दूर तक के वृक्ष एवं खेतों की खड़ी फसलों को काफी क्षति पहुँचती है । उनसे उत्पन्न फलों एवं अन्नों में सामान्य रूप से विषैले तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है । अंतत: फलों तथा अन्नों द्वारा मनुष्यों में, फसलों तथा हरी घास द्वारा पशुओं और पशुओं के दूध से फिर मनुष्यों में आकर ये विषैले तत्व प्रभावित करते रहते हैं । इस प्रकार वायु-प्रदूषण का चक्र बढ़ता ही रहता है ।

प्रत्येक प्राणी को स्वच्छ वायु ग्रहण करने का अधिकार बना रहे इसके लिए वैज्ञानिकों को वायु-प्रदूषण के कारणों, वायु-प्रदूषण के लिए उत्तरदायी कारकों एवं वायु-प्रदूषण पर नियंत्रण करने के उपायों की विस्तृत जाँच-पड़ताल करनी आवश्यक है ।

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