Read this article in Hindi to learn about:- 1. राष्ट्र-निर्माण का अर्थ  (Meaning of National Integration) 2. भारत में राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियां (Challenges of National Integration in India) 3. देश का विभाजन तथा उससे उत्पन्न समस्याएँ (Partition of the Country and Problems Arising from it) 4. देशी रियासतों का एकीकरण (Integration of Indigenous Princely States).

राष्ट्र-निर्माण का अर्थ  (Meaning of National Integration):

किसी भी राष्ट्र के लिये राष्ट्र-निर्माण एक चुनौती भरा कार्य है । प्रत्येक नये राष्ट्र को इस चुनौती का सामना करना पड़ता है । आजादी के बाद भारत को भी इस चुनौती का सामना करना पड़ा राष्ट्र का तात्पर्य एक ऐसे समुदाय से है जो संस्कृति, भाषा, अथवा इतिहास या अन्य किसी आधार पर एकता की भावना से प्रेरित हो ।

अत: राष्ट्र एक सांस्कृतिक धारणा है जिसका मूल तत्व एकता की भावना है राष्ट्र- निर्माण का तात्पर्य ऐसी सचेत प्रक्रिया से है जिसके अन्तर्गत किसी राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों व वर्गों में एकीकरण के द्वारा राष्ट्रीय पहचान को सुनिश्चित किया जाता है, जिससे एक एकीकृत समुदाय के रूप में राष्ट्र के विकास को गति प्राप्त हो सके ।

दूसरे शब्दों में राष्ट्र-निर्माण किसी नये राष्ट्र में एकीकरण राजनीतिक स्थिरता तथा विकास की सुनियोजित प्रक्रिया है यह प्रक्रिया राष्ट्रीय जीवन के लिये सार्थक कतिपय मूल्यों, विश्वासों तथा आदर्शों पर आधारित होती है ।

भारत में राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियां (Challenges of National Integration in India):

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राष्ट्र-निर्माण वैसे भी एक जटिल प्रक्रिया है, लेकिन 1947 में आजादी के समय साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन के कारण इसकी जटिलताएं अधिक बढ गई थीं ।

आजादी के समय भारत में राष्ट्रनिर्माण की तीन प्रमुख चुनौतियां उपस्थित थीं:

1. राष्ट्रीय एकीकरण की चुनौती (The Challenge of National Integration):

इसके अन्तर्गत विभाजन के बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर विभिन्न देशी रियासतों को भारतीय राष्ट्र के अन्तर्गत एकीकृत करना था ऐसा करना भारत की क्षेत्रीय अखण्डता के लिये अत्यंत आवश्यक था मुख्य चुनौती यह थी कि भारत की सांस्कृतिक, भाषायी तथा धार्मिक विभिन्नताओं के आलोक में राष्ट्रीय अखण्डता को कैसे संरक्षित किया जाये ।

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इस सम्बन्ध में नेहरू का दृष्टिकोण उदारवादी था । नेहरू भारत की विभिन्नताओं से परिचित थे तथा वे क्षेत्रीय व अन्य विभिन्नताओं में समायोजना (Accommodation) के माध्यम से राष्ट्रीय एकीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते थे ।

यह नीति विभिन्नताओं को समाप्त कर एकता को थोपने की नीति न होकर विभिन्नताओं का सम्मान करते हुये समायोजन के द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण की नीति थी । भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन पंथ निरपेक्षता अल्पसंख्यकों के विशिष्ट हितों का संरक्षण, संतुलित क्षेत्रीय विकास आदि इसी नीति का हिस्सा थे ।

2. लोकतंत्र को मजबूत बनाने की चुनौती (The Challenge to Strengthen Democracy):

भारत में ब्रिटेन की तर्ज पर संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था की गयी थी । नये संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों व स्वतंत्रताओं के साथ-साथ प्रत्येक वयस्क नागरिक को सार्वभौमिक मताधिकार की व्यवस्था पहली बार की गयी थी । बहुदलीय प्रणाली को अपनाया गया तथा नियमित अन्तराल पर स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनावों के सम्पादन के लिये एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग का प्रावधान किया गया ।

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जाति, धर्म तथा अन्य परम्परागत विशेषताओं से युक्त भारतीय सामाजिक परिवेश में नये लोकतंत्र की सफलता व मजबूती एक गंभीर चिन्ता का विषय थी । यह चिन्ता निराधार नहीं थी क्योंकि भारत के कई पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, म्यांमार तथा अन्य नवोदित अफ्रीकी देशों में शीघ्र ही लोकतंत्र का स्थान तानाशाही सरकारों ने ले लिया था ।

नेहरू उदारवादी लोकतंत्र के समर्थक थे । उनका विश्वास था कि जैसे-जैसे समानता व न्याय पर आधारित विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी भारत में लोकतंत्र की जड़ें भी मजबूत होती जायेंगी । लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करना कमजोर व वंचित वर्गों की आरक्षण आदि के माध्यम से राजनीतिक भागीदारी बढ़ाना विधि का शासन न्यायपालिका व समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता आदि भी नेहरू की लोकतांत्रिक दृष्टि के अंग थे ।

उन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ आर्थिक व सामाजिक लोकतंत्र पर बल दिया । उनके अनुसार लोकतंत्र केवल शासन का एक प्रकार नहीं है, बल्कि यह एक जीवन शैली है ।

3. समता व न्याय पर आधारित तीव्र विकास की चुनौती (Challenges of Rapid Development based on Equality and Justice):

भारत में राष्ट्र-निर्माण की तीसरी चुनौती विकास की ऐसी प्रक्रिया को सुनिश्चित करना था कि उसका लाभ केवल कुछ उच्च वर्गों तक सीमित न होकर समाज के सभी वर्गों को प्राप्त हो सके ।

संविधान में कमजोर वर्गों तथा अल्पसंख्यकों के विशिष्ट हितों की रक्षा के साथ-साथ नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत एक कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था की गयी थी । लेकिन व्यापक असमानता, गरीबी, बेरोजगारी, ढाँचागत सुविधाओं के अभाव के चलते कल्याणकारी राज्य की धारणा को व्यावहारिक रूप देना एक कठिन कार्य था ।

इस सम्बन्ध में नेहरू लोकतांत्रिक समाजवाद की धारणा से प्रभावित थे । इसके अन्तर्गत लोकतांत्रिक तरीके से क्रमश: समता व न्याय पर आधारित समाज की स्थापना का लक्ष्य रखा गया था । 1955 में अवाडी में कांग्रेस के अधिवेशन में स्वीकृत ‘समाज के समाजवादी ढांचे’ (Socialist Pattern of Society) का प्रस्ताव इसी समाजवादी दृष्टि का परिचायक है ।

नेहरू ने जमींदारी उन्मूलन, मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा उसमें सरकारी क्षेत्र की प्रभुत्वपूर्ण भूमिका (Public Sector as Commanding Heights of Economy), योजनागत विकास प्रक्रिया, कमजोर वर्गों के हितों का संरक्षण आदि उपायों द्वारा समता व न्याय पर आधारित विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाया । विकास में बड़े उद्योगों तथा ढाँचागत सुविधाओं की स्थापना व विज्ञान व तकनीकी के विकास पर विशेष बल दिया गया । आधुनिक भारत के विकास की आधारशिला रखने के कारण नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है ।

देश का विभाजन तथा उससे उत्पन्न समस्याएँ (Partition of the Country and Problems Arising from it):

भारत का साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन उसके इतिहास की एक भयंकर त्रासदी है । 14-15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो एक अखण्ड राष्ट्र के रूप में नहीं बल्कि विभाजन के परिणामस्वरूप एक साथ दो राष्ट्र अस्तित्व में आये भारत और पाकिस्तान ।

भारत के विभाजन की योजना 1947 के माउण्टबेटन प्लान में निहित थी जिसे उसी वर्ष ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम द्वारा क्रियान्वित किया गया था । देश का विभाजन राष्ट्रीय आन्दोलन के समय मुस्लिम लीग द्वारा साम्प्रदायिकता की राजनीति तथा अंग्रेज की फूट डालो और शासन करो की नीति का तार्किक परिणाम था ।

कांग्रस के नेताओं ने सैद्धान्तिक तौर पर देश के विभाजन को कभी उचित नहीं माना । लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से उन्हें विभाजन की वास्तविकता को स्वीकार करना पड़ा । गाँधी जी का तो यहाँ तक कहना था कि भारत का विभाजन उनकी लाश के टुकड़ों पर होगा । लेकिन अन्तत: उन्हें भी विभाजन की सच्चाई को स्वीकारना पड़ा ।

विभाजन की पृष्ठभूमि की शुरुआत अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति से होती है । इस नीति का उद्देश्य यह था कि ब्रिटिश शासन तभी स्थायी हो सकता है, जब हिन्दू और मुस्लिम आपस में विभाजित रहें तथा राष्ट्रीय आन्दोलन कमजोर बना रहे ।

1905 में बंगाल का विभाजन 1906 में ढाका में ब्रिटिश सहयोग से मुस्लिम लीग की स्थापना 1909 में मुसलमानों के लिए केन्द्रीय विधानमण्डल में साम्प्रदायिक आधार पर अलग सीटों का आरक्षण आदि ब्रिटिश नीति के प्रमुख अंग थे ।

ब्रिटिश सरकार ने इस तथ्य को बार-बार रेखांकित किया कि कांग्रेस हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती है तथा मुस्लिम लीग मुसलमानों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है । यद्यपि कांग्रेस ने तथा विशेषकर महात्मा गांधी ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली ।

ब्रिटिश शासन की उक्त विभाजनकारी नीति का तार्किक परिणाम अंत में जिन्ना के द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त (Two-Nation Theory) के रूप में देखने में आया । इस सिद्धान्त का आशय यह है कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग समुदाय हैं, उन दोनों के हित अलग-अलग हैं अत: वे एक साथ नहीं रह सकते । उनके लिए दो अलग-अलग राष्ट्रों की जरूरत है ।

मुस्लिम लीग ने 1940 में अपने लाहौर अधिवेशन में इसी सिद्धान्त के आधार पर अलग मुस्लिम राज्य की माँग कर दी । इस माँग को समय-समय पर दोहराया गया तथा इसे ब्रिटिश सरकार का भी समर्थन प्राप्त था । 1946 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही के नाम पर व्यापक आन्दोलन चलाया ।

इसकी परिणति हिन्दू-मुस्लिम दंगों के रूप में सामने आयी । इसका परिणाम 14-15 अगस्त 1947 को देश के विभाजन के रूप में सामने आया । पाकिस्तान अपना स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त को मनाता है जबकि भारत में स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को मनाया जाता है ।

विभाजन की कठिनाइयाँ (Difficulties of Division):

जब ब्रिटिश सरकार कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया तो उसका यह आधार तय किया गया कि जिन क्षेत्रों में मुस्लिम जनसंख्या अधिक है, वे क्षेत्र पाकिस्तान का हिस्सा होंगे तथा जहाँ हिन्दू बहुमत में है वे क्षेत्र भारत का हिस्सा रहेंगे ।

लेकिन इस सिद्धान्त को लागू करना आसान नहीं था क्योंकि हिन्दू और मुस्लिम जनसंख्या का संकेन्द्रण कई स्थानों पर मिश्रित प्रकार का था ।

अत: विभाजन के समय निम्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ा:

1. पहला, ब्रिटिश भारत में किसी स्थान पर भी पूरी तरह मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र नहीं थे । यद्यपि देश के पूरब में बंगाल तथा पश्चिम में पंजाब प्रान्त में मुस्लिम जनसंख्या का संकेन्द्रण था । यदि इन दोनों प्रान्तों को मुस्लिम जनसंख्या के आधार पर विभाजित किया जाता है, तो पकिस्तान के दो हिस्से होंगे-एक पश्चिमी पाकिस्तान तथा दूसरा पूर्वी पकिस्तान । इन दोनों के बीच में भारत का क्षेत्र स्थित होगा । अत: विभाजन के परिणामस्वरूप पाकिस्तान के दो हिस्से हो गये जिनका आपस में कोई सम्पर्क नहीं था । पूर्वी पाकिस्तान ही 1971 में पाकिस्तान से स्वतंत्र होकर बांग्लादेश नामक राज्य बन गया है ।

2. दूसरी कठिनाई यह थी कि सभी मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र पाकिस्तान में नहीं शामिल होना चाहते थे । अत: उन्हें विवशकर पाकिस्तान में शामिल किया गया । उदाहरण के पाकिस्तान स्थित उत्तरी-पश्चिम सीमा प्रान्त के लोकप्रिय नेता खान अब्दुल गफ्फार खान जिन्ना के द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के विरोधी थे तथा वे इस प्रान्त को पाकिस्तान में शामिल नहीं करना चाहते थे लेकिन फिर भी उनकी माँग को अस्वीकार कर इस प्रान्त को पाकिस्तान में शामिल किया गया । खान अब्दुल गफ्फार खान को सीमान्त गांधी के नाम से जाना जाता है ।

3. तीसरी कठिनाई यह थी कि ब्रिटिश भारत में पंजाब तथा बंगाल दो मुस्लिम बाहुल्य प्रान्त थे लेकिन इन दोनों ही प्रान्तों में कई ऐसे क्षेत्र थे जहाँ गैर-मुस्लिम बहुसंख्या में थे । अत: यह तय किया गया कि मुस्लिम बहुसंख्या का निर्धारण जिला अथवा निचले स्तर तक किया जाये तत्पश्चात् उसे किसी भी देश में शामिल किया जाये । इस तरह का निर्धारण एक लम्बी प्रक्रिया थी । जिस कारण इन दोनों ही प्रान्तों में साम्प्रदायिक तनाव और कठिनाइयों का लम्बे समय तक सामना करना पड़ा ।

4. विभाजन की चौथी कठिनाई यह थी कि विभाजन के बाद भी दोनों ही देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों का अस्तित्व बना रहना था । उदाहरण के लिए विभाजन के बाद भी पाकिस्तान में बड़ी संख्या में सिख और हिन्दू थे जो सदियों से वहाँ निवास कर रहे थे । इसी तरह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक भी बड़ी मात्रा में थे जो कई पीढ़ियों से भारत में निवास कर रहे थे । विभाजन के बाद 1950 में भारत में मुस्लिम आबादी कुल जनसंख्या का 12 प्रतिशत थी ।

विभाजन के परिणाम (Partitioning Results):

साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन कई दु:खद परिणाम लेकर सामने आया । मानव इतिहास में इस तरह के अचानक, अनियोजित तथा व्यापक स्तर पर जनसंख्या के विभाजन का कोई दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं है ।

विभाजन के निम्न परिणाम सामने आये:

1. साम्प्रदायिक दंगे (Communal Riots):

जब विभाजन की प्रक्रिया लागू की गयी तो कई स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे अधिक तीव्र हो गये । पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हिन्दुओं और सिखों की हत्या की गयी । इसी तरह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की हत्या व उनके विरुद्ध अत्याचार किये गये ।

उनकी सम्पत्ति लूट ली गयी तथा कई अमानवीय अत्याचार भी किये गये जिनमें महिलाओं का अपहरण तथा उनका धर्म परिवर्तन भी शामिल है । कई शहरों जैसे लाहौर, अमृतसर तथा कलकत्ता में जनसंख्या की धार्मिक बहुलता के आधार पर साम्प्रदायिक जोन बन गये जहाँ दूसरे धर्म के लोग जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे । अर्थात् हिन्दू और सिख क्षेत्रों में मुस्लिम जाने से बचने लगे तथा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में हिन्दू और सिख नहीं जा सकते थे ।

देश के विभिन्न हिस्सों में आजादी के समय 1947 में साम्प्रदायिक दंगे इतने व्यापक स्तर पर फैले कि उन्हें संभालना एक अत्यंत कठिन कार्य था । यहाँ तक कि महात्मा गांधी 15 अगस्त, 1947 को नई दिल्ली में देश के पहले स्वतंत्रता समारोह में शामिल नहीं हो सके, क्योंकि उस दिन वे बंगाल में साम्प्रदायिक दंगों को शांत कराने में प्रयासरत् थे ।

उन्होंने बंगाल के नोवाखली के क्षेत्र में साम्प्रदायिक दंगों को सीमित करने का भरसक प्रयास किया । यह अनुमान लगाया जाता है कि इन साम्प्रदायिक दंगों में दोनों देशों में पाँच से दस लाख लोग हत्या के शिकार हुये । कई समाचार पत्रों तथा फिल्मों में इन दंगों को चित्रित करने का प्रयास किया गया है । 1987 में गोविंद नहलनी की फिल्म ‘तमस’ में पाकिस्तान में विभाजन के समय हिन्दुओं और सिखों के पलायन तथा उनके नरसंहार की कहानी को चित्रित किया गया है ।

2. जनसंख्या का विस्थापन तथा शरणार्थियों की समस्या (Displacement of Populations and Problems of Refugees):

विभाजन के परिणामस्वरूप करीब 80 लाख जनता का दोनों देशों में विस्थापन हुआ । कई सिख और हिन्दू सदियों से पाकिस्तानी क्षेत्रों में निवास कर रहे थे लेकिन विभाजन के परिणामस्वरूप अपनी सम्पत्ति व जायदाद छोड़कर वे भारत चले आये तथा अपने ही देश में शरणार्थी की स्थिति में आ गये ।

भारत में इस तरह के शरणार्थी कैम्प स्थापित किये गये जहाँ उन्हें अस्थायी रूप से रखा गया । इसी तरह लाखों की तादाद में भारत के मुसलमान अपनी सम्पत्ति छोड़कर पाकिस्तान को पलायन कर गये । वहाँ उन्हें भी विभिन्न शरणार्थी कैम्पों में रखा गया था ।

शरणार्थियों ने पलायन के लिए प्रत्येक प्रकार के उपलब्ध यातायात साधनों का प्रयोग किया । वे रेलगाड़ी, बसों तथा अधिकांशत: पैदल ही पाकिस्तान अथवा भारत की सीमा में गये । उनके साथ इस दर्द भरी यात्रा में हत्या, लूटपाट व बलात्कार जैसी घटनाएँ भी हुईं ।

भारत में जो शरणार्थी आये थे, उनके लिए स्कूलों, कॉलेजों, धर्मशालाओं तथा अन्य स्थान पर अस्थायी शरणार्थी कैम्प बनाये गये थे । दिल्ली में स्थित लालकिला में एक बहुत बड़ा शरणार्थी कैम्प स्थापित किया गया था ।

भारत सरकार ने शरणार्थियों को पुनर्स्थापित करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये:

(i) शरणार्थी कैम्पों में उनके लिए भोजन पानी तथा अन्य आवश्यक सुविधाओं का इंतजाम किया गया । सरकार तथा स्वयं सेवी संस्थाओं दोनों ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । कई बार ये शरणार्थी इन कैम्पों में महीनों तथा सालों तक रहते रहे । इसका मनोवैज्ञानिक पहलू यह है कि विस्थापितों ने विस्थापन के दौरान एक गंभीर मानसिक वेदना का सामना किया जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती ।

साहित्यकारों तथा फिल्मकारों ने इस मानसिक वेदना को चित्रित करने का प्रयास किया है । 1973 में एम.एस. सथ्यू द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गरम हवा’ में विभाजन के परिणामस्वरूप विस्थापितों की मानसिक वेदना व ऊहापोह की स्थिति को दर्शाया गया है । इसमें मुख्य भूमिका बलराज साहनी ने निभाई है ।

(ii) सरकार ने विस्थापितों के लिए योग्यतानुसार नौकरियाँ देने की व्यवस्था की तथा उन्हें स्वरोजगार के लिए सस्ता ऋण भी उपलब्ध कराया ।

(iii) भारत से भी लाखों की संख्या में मुस्लिम पाकिस्तान को पलायन कर गये थे तथा अपनी सम्पत्ति भारत में ही छोड़ गये थे । पाकिस्तान से जो शरणार्थी भारत में आये थे वे अपनी सम्पत्ति पाकिस्तान में ही छोड़ आये थे । उनके दावों को भारत सरकार ने पाकिस्तान की सरकार से सत्यापित कर पाकिस्तान गये शरणार्थियों की सम्पत्ति भारत आये शरणार्थियों में आवंटित कर दी ।

(iv) भारत आये विस्थापितों को नियमानुसार भारत की नागरिकता प्रदान की गयी । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विस्थापित नागरिकों ने भारत में यथाशीघ्र अपने को स्थापित कर लिया तथा सामान्य जीवन-यापन की प्रक्रिया आरंभ की ।

3. भारत और पाकिस्तान के बीच सम्पत्ति का विभाजन (Partition of Property between India and Pakistan):

इस विभाजन में भारत और पाकिस्तान के बीच जमीन और जनता का विभाजन ही नहीं हुआ बल्कि दोनों देशों के मध्य प्रशासनिक उपकरणों वित्तीय दायित्वों, परिसम्पदाओं तथा रक्षा उपकरणों का भी बँटवारा किया गया । यह कार्य भी अधिक जटिल था क्योंकि इसमें देयता की गणना करना मुश्किल था । फिर भी दोनों देशों ने अपने दायित्वों का विभाजन अन्तर्राष्ट्रीय नियमों तथा सहयोग की भावना से किया ।

4. अल्पसंख्यकों की समस्या (Minority Problem):

देश के विभाजन के उपरान्त भी दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की समस्या बनी रही । पाकिस्तान में हिन्दू और सिख विभाजन के बाद भी वहाँ के नागरिक बने रहे । पाकिस्तान को एक मुस्लिम राज्य घोषित करने के बाद उनकी स्थिति द्वितीय स्तर के नागरिकों की हो गयी ।

आज भी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को तमाम भेदभाव और यातनाओं का सामना करना पड़ता है । दूसरी तरफ भारत में भी विभाजन के बाद बड़ी संख्या में मुसलमान बच गये थे । जिन्होंने भारत को ही अपना देश माना । इनकी जनसंख्या विभाजन के बाद देश की कुल जनंसख्या की 12 प्रतिशत थी । भारत के संविधान में भारत को एक पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया तथा अन्य अल्पसंख्यकों की भाँति मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भी संविधान में शैक्षणिक व सांस्कृतिक अधिकार प्रदान किये गये ।

साथ ही भारत के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्रदान किये गये हैं । निष्कर्ष यह है कि भारत में अल्पसंख्यक पाकिस्तान की तुलना में अधिक सहज अनुभव कर रहे हैं । फिर भी आजाद भारत में समय-समय पर होने वाले हिन्दू-मुस्लिम झगड़े कहीं न कहीं विभाजन की मानसिकता से प्रभावित होते हैं । साम्प्रदायिक झगड़े व तनाव विभाजन की विरासत के रूप में हमें मिले हैं ।

महात्मा गांधी का बलिदान (Sacrifice of Mahatma Gandhi):

जब सारा देश 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली में आजादी का जश्न मना रहा था, तो महात्मा गांधी कलकत्ता में विभाजन के परिणामस्वरूप चल रहे हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों को शांत करन में प्रयासरत् थे । वास्तव में विभाजन के समय हिन्दू-मुस्लिम झगड़े तथा उनमें होने वाली हिंसा गांधी जी के सत्या और अहिंसा के सिद्धांतों का सीधा उल्लंघन था । इस कारण उन्हें पीड़ा होना स्वाभाविक था ।

गांधी जी ने दोनों समुदायों को हिंसा त्यागने के लिए समझाने का प्रयास किया । इसके लिए उन्होंने सडकों पर प्रार्थना बैठकें आयोजित कीं । इसका परिणाम यह हुआ कि कलकत्ता में साम्प्रदायिक दंगों में कमी आयी, लेकिन बाद में ये दंगे पुन: भड़क उठे तथा उन्हें शांति स्थापित करने के लिए आमरण अनशन करना पड़ा ।

गाँधी जी सितम्बर 1947 में दिल्ली आ गये । उनकी मुख्य चिंता यह थी कि भारत में जो भी मुस्लिम समुदाय के लोग विभाजन के बाद रहना चाहते हैं, उन्हें सम्मान तथा गरिमा के साथ रखा जाये उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जाये इसी बीच नई भारतीय सरकार ने पाकिस्तान को वायदे के अनुरूप 70 करोड़ की वित्तीय धनराशि देने में आपत्ति उठा दी ।

गांधी जी ने इसका विरोध किया । उन्होंने कहा कि भारत को अपनी वित्तीय देयता व वायदे को पूरा करना चाहिए । इसके लिए उन्होंने जनवरी 1948 में व्रत भी किया, जो उनके जीवन का अंतिम व्रत था ।

उनके इन प्रयासों से दिल्ली तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों में साम्प्रदायिक सद्‌भाव बनाने में सहायता मिली मुस्लिम अल्पसंख्यकों को गांधी जी के दृष्टिकोण से सुरक्षा की भावना प्राप्त हुई । लेकिन कट्‌टरपंथी हिन्दू संगठनों ने गांधी जी के उक्त दृष्टिकोण की आलोचना की । उनका मानना था कि गाँधी जी अपने इस दृष्टिकोण से पाकिस्तान तथा मुसलमानों की सहायता कर रहे हैं ।

जबकि गाँधी जी ने इन आलोचकों को दिग्भ्रमित व्यक्तियों की संज्ञा दी । गांधी जी का मानना था कि यदि भारत को एक हिन्दू राष्ट्र माना जाता है, तो यह भारत के लिए घातक सिद्ध होगा ।

गांधी जी के दृष्टिकोण से आहत उग्रवादी हिन्दू तत्वों ने उन पर हमले करने शुरू किये लेकिन उन्होंने किसी प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था लेने से मना कर दिया । अंतत: 30 जनवरी, 1948 को नाथू राम विनायक गोडसे नामक हिन्दू उग्रवादी ने उनकी प्रार्थना सभा में गोली मारकर हत्या कर दी यह भारत के लिए एक अत्यंत दु:खद क्षण था, क्योंकि गांधी जी की हत्या के साथ ही सत्य, अहिंसा, न्याय तथा सहनशीलता के संघर्ष के एक युग का अंत हो गया ।

नाथू राम गोडसे का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से था । अत: सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया । यद्यपि बाद में ये प्रतिबंध हटा लिया गया, लेकिन गांधी जी के बलिदान से भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का प्रभाव कम हुआ ।

देशी रियासतों का एकीकरण (Integration of Indigenous Princely States):

राष्ट्र निर्माण की एक महत्त्वपूर्ण समस्या देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय करना था । ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में दो तरह के क्षेत्र थे । प्रथम वे क्षेत्र जिन पर ब्रिटिश सरकार का सीधा शासन था । इन क्षेत्रों को 11 प्रान्तों में विभाजित किया गया था । इन प्रान्तों में शासन की व्यवस्था केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के माध्यम से की गयी थी । दूसरे वे क्षेत्र थे जो देशी राजाओं के अधीन थे ।

इन्हें देशी रियासतें कहा जाता था । आजादी के समय भारत में 565 देशी रियासतें देशी रियासतों का आन्तरिक शासन वहाँ के देशी राजाओं द्वारा किया जाता था । लेकिन बाहरी मामलों में ये देशी रियासतें ब्रिटिश शासन के अधीन थीं । ब्रिटिश शासन के इस नियन्त्रण को पारामाउण्टसी (Paramountcy) अथवा ब्रिटिश प्रभुत्व कहा जाता था । इन देशी रियासतों के अधीन भारत की 25 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती थी तथा अधीन कुल क्षेत्रफल भारत के क्षेत्रफल का एक-तिहाई था ।

भारत में ब्रिटिश शासन की समाप्ति के साथ ही ब्रिटिस पारामाउण्टसी अथवा प्रभुत्व भी समाप्त हो गया । अत: कानूनी रूप से इनकी स्थिति एक स्वतंत्र राष्ट्र की हो गयी । देश के आजादी के समय देशी रियासतों के समक्ष तीन तरह के विकल्प थे । प्रथम वे भारतीय संघ में शामिल हो सकते थे, दूसरा वे पाकिस्तान में शामिल हो सकते थे तथा तीसरा, एक स्वतंत्र देश के रूप में भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकते थे ।

सरदार बल्लभ भाई पटेल (31 अक्टूबर, 1875-15 दिसम्बर, 1950) [Sardar Vallabhbhai Patel (October 31, 1875-15 Dec., 1950)]:

उन्होंने भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन में अग्रणी निभाई । सरदार की उपाधि उन्हें 1928 के बरदोली सत्याग्रह के समय ग्रामीण महिलों द्वारा दी गयी थी । वे स्वतंत्र भारत के पहले उप प्रधान मंत्री तथा पहले गृह मंत्री बने । कश्मीर के प्रति नेहरू के नरम रूख के कारण उनका नेहरू से मतभेद था ।

सरदार पटेल ने देशी रियासतों के भारत के विलय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा अद्‌भुत् सूझ-बूझ का परिचय दिया । इसी कारण उन्हें भारत के लौह पुरूष तथा भारत के विस्मार्क की संज्ञा दी जाती है । उन्होंने देश की एकता व अखण्डता के लिये अखिल भारतीय सेवाओं के गठन को आवश्यक बताया ।

भारत सरकार का नजरिया (Government of India View):

देशी रियासतों के भारत के विलय के सम्बन्ध में भारत सरकार के नजरिए के तीन बिन्दु महत्त्वपूर्ण हैं:

1. भारत सरकार का मानना था कि अधिकांश देशी रियासतों की जनता भारतीय संघ में शामिल होने के लिए इच्छुक है ।

2. भारत सरकार कुछ देशी रियासतों को स्वायत्ता देने के लिए भी तैयार थी । विलय के संबंध में सरकार का दृष्टिकोण लचीला था ।

3. देश के विभाजन के उपरान्त सरकार के लिये यह एक महत्त्वपूर्ण प्राथमिकता थी कि भारत की क्षेत्रीय एकता को दृढ़ता के साथ सुनिश्चित किया जाये ।

भारत के तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल के अथक प्रयासों तथा वार्ता कूटनीति के द्वारा भारतीय क्षेत्र में स्थित अधिकांश रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने में सफलता प्राप्त हुई । इनके लिए यह तरीका अपनाया गया था कि बातचीत के द्वारा देशी रियासत के शासकों को भारतीय संघ में शामिल करने के लिए राजी किया जाता था ।

भारत में शामिल होने के लिए उन्हें एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने होते थे । इस दस्तावेज को इन्स्ट्रमेण्ट ऑफ एक्शेसन (Instruments of Accession) अथवा विलय पत्र के नाम से जाना जाता था । भारतीय संघ में शामिल होने के बदले में देशी रियासतों को वित्तीय क्षतिपूर्ति करने के लिए उन्हें सालाना पेंशन देने का प्रावधान किया गया था, जिसे प्रिवी पर्स के नाम से जाना जाता था । देशी रियासतों के विलय के लिए केन्द्र सरकार में राज्य विभाग के नाम से गृह मंत्रालय में एक अलग विभाग की स्थापना की गयी ।

सरदार पटेल के इन प्रयासों के कारण 15 अगस्त 1947 तक चार देशी रियासतों- मनिपुर, हैदराबाद, जूनागढ़ तथा जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी देशी रियासतों ने भारतीय संघ में शामिल होने की घोषणा कर दी थी । पटेल की सूझ-बूझ तथा प्रयासों से बाद में इन चारों देशी रियासतों को भी भारतीय संघ में शामिल किया गया ।

इनका विवरण निम्नलिखित है:

1. जूनागढ़ (Junagadh):

जूनागढ़ में बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी, लेकिन वहाँ के शासक मुस्लिम थे । जूनागढ़ में जनमत संग्रह कराया गया । जिसमें वहाँ के लोगों ने भारत में रहने की इच्छा व्यक्त की तथा इस प्रकार जूनागढ़ को 31 दिसम्बर 1948 को भारत में शामिल कर लिया गया ।

2. मनिपुर (Manipur):

मनिपुर के देशी राजा बोध चन्द्र सिंह ने 1947 में ही भारतीय संघ में शामिल होने के लिए विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये थे । लेकिन जनता के दबाव में आकर उन्होंने जून 1948 में वहाँ की विधानसभा के चुनाव करा दिये तथा संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की । वास्तव में आजादी के बाद मनिपुर पहला राज्य था, जहाँ पर सार्वभौमिक मताधिकार पर चुनाव कराये गये थे ।

नव-निर्वाचित विधानसभा में भारत के साथ विलय को लेकर विभिन्न समूहों में तीव्र मतभेद थे । लेकिन भारत सरकार ने मनिपुर के महाराजा को विलय के लिए सहमत कर लिया तथा विलय संधि पर सितम्बर 1949 में हस्ताक्षर किये गये । तब से मनिपुर भारतीय संघ का अभिन्न अंग बन गया । चूंकि इस कार्य में वहाँ की नव-निर्वाचित विधानसभा की राय नहीं ली गयी, अत: विलय के बाद भी वहाँ जनता में भारत सरकार के विरुद्ध आक्रोश बना रहा ।

3. हैदराबाद (Hyderabad):

उक्त चारों रियासतों में हैदराबाद रियासत जनसंख्या की दृष्टि में सबसे बड़ी थी । उस समय इसकी जनसंख्या 1.06 करोड़ थी । यहाँ हिन्दू जनसंख्या का बहुमत था लेकिन हैदराबाद का शासक एक मुस्लिम था, जिसे निजाम की पदवी प्राप्त थी ।

हैदराबाद के निजाम ने 29 नवम्बर, 1947 को भारत सरकार के साथ एक यथास्थिति समझौते पर हस्ताक्षर किये, जिसका तात्पर्य यह था कि हैदराबाद की कानूनी स्थिति वही बनी रहेगी जो 15 अगस्त, 1947 को थी । इसी बीच हैदराबाद की जनता ने निजाम के अत्याचारों के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया । इस आन्दोलन में साम्यवादी पार्टी तथा कांग्रेस पार्टी द्वारा नेतृत्व प्रदान किया गया । आन्दोलन को दबाने के लिए निजाम ने अर्धसैनिक बलों का प्रयोग किया । इन अर्धसैनिक बलों को हैदराबाद में रजाकार के नाम से जाना जाता था ।

रजाकारों ने निरीह जनता पर हिंसा व अत्याचार का प्रयोग किया । जिससे वहाँ शांति और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गयी । भारत सरकार की चेतावनी के बाद जब निजाम ने सरकार की शर्तें नहीं मानीं तो 13 सितम्बर 1948 को भारत सरकार द्वारा निजाम के विरुद्ध पुलिस कार्यवाही की गयी ।

18 सितम्बर 1948 को निजाम की सेनाओं ने भारतीय सेनाओं के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया तथा इसी के साथ हैदराबाद भारतीय संघ का अंग बन गया । उल्लेखनीय है कि निजाम ने अपनी रियासत में भारतीय सरकार के हस्तक्षेप के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रार्थना की थी जिसे बाद में वापस ले लिया गया ।

4. जम्मू व कश्मीर (Jammu and Kashmir):

इन चारों देशी रियासतों में जम्मू व कश्मीर के भारत में विलय की समस्या सर्वाधिक जटिल थी । आजादी के समय जम्मू व कश्मीर की जनसंख्या 42 लाख थी, जिसमें करीब 76 प्रतिशत मुसलमान तथा शेष हिन्दू, सिख व बौद्ध थे । स्पष्ट तौर पर जम्मू व कश्मीर में मुस्लिम समुदाय का बहुमत था तथा यह पाकिस्तान की सीमा से लगी हुई देशी रियासत थी ।

वहाँ के शासक हरी सिंह ने भारत और पाकिस्तान दोनों से अलग रहकर स्वतंत्र देश बने रहने की नीति अपनाई । लेकिन पाकिस्तान किसी भी कीमत पर जम्मू व कश्मीर को अपने अधीन करना चाहता था । अत: पाकिस्तान के कबाइलों ने पाकिस्तान की फौजों की सहायता से 24 अक्टूबर 1947 को जम्मू व कश्मीर पर सैनिक हमला कर दिया ।

जब कश्मीर के महाराजा ने भारत से सैनिक मदद की गुहार की तो भारत ने यह तर्क देकर सेना भेजने से मना कर दिया कि जम्मू व कश्मीर भारत का अंग नहीं है । अत: 26 अक्तूबर 1947 को महाराजा ने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये तथा जम्मू व कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया ।

उस समय जम्मू व कश्मीर की देशी रियासत में लोकतंत्र की स्थापना के लिए शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेस द्वारा आन्दोलन चलाया जा रहा था । शेख अब्दुल्ला ने भी जम्मू व कश्मीर के महाराजा द्वारा भारत में विलय के निर्णय का स्वागत किया ।

इसके बाद भारत ने 27 अक्टूबर 1947 को अपनी सेनाएँ जम्मू व कश्मीर में भेज दीं । परिणामस्वरूप पाकिस्तानी कबाइली जम्मू व कश्मीर की मुख्य भूमि को छोड़कर वापस चले गये तथा मुख्य भूमि पर भारत की सेनाओं का नियन्त्रण स्थापित हो गया । लेकिन पाकिस्तानी कबाइली इस देशी रियासत के एक हिस्से पर अपना कब्जा स्थापित करने में सफल रहे । इसे पाक अधिकृत कश्मीर के नाम से जाना जाता है तथा जम्मू व कश्मीर का यह हिस्सा आज भी पाकिस्तान के कब्जे में हैं ।

संयुक्त राष्ट्र संघ का शांति प्रस्ताव:

भारत ने 31 दिसम्बर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में अपील करके पाकिस्तान की आक्रामक कार्यवाही रोकने के लिए निवेदन किया । सुरक्षा परिषद् ने 13 अगस्त 1948 को दोनों देशों के बीच युद्ध विराम समझौते का प्रस्ताव रखा जिस पर दोनों देशों ने 1 जनवरी 1949 को सहमति व्यक्त की ।

संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव में यह कहा गया कि दोनों देश जम्मू व कश्मीर से अपनी सेनाएँ आक्रमण के पूर्व की स्थिति में वापस कर लेंगे तथा तत्पश्चात वहाँ पर जनमत संग्रह कराया जायेगा तथा जनता की राय के अनुसार जम्मू व कश्मीर के भविष्य का फैसला किया जायेगा । लेकिन पाकिस्तान ने जम्मू व कश्मीर के अधिकृत हिस्से से अपनी सेनाएं आज तक वापस नहीं लीं । अत: वहाँ पर जनमत संग्रह नहीं हो सका ।

जम्मू व कश्मीर का अलग संविधान:

जम्मू व कश्मीर का शासन भारतीय संविधान की धारा 370 के अंतर्गत संचालित हो रहा है । इसी धारा के अनुसार जम्मू व कश्मीर को कतिपय मामलों में अपना अलग संविधान बनाने की इजाजत दी गयी है । 1951 में जम्मू व कश्मीर की संविधान सभा का गठन हुआ तथा संविधान सभा द्वारा 17 नवम्बर, 1956 को जम्मू व कश्मीर के नये संविधान को स्वीकार कर लिया गया ।

6 फरवरी, 1954 को जम्मू व कश्मीर की संविधान सभा में कश्मीर के भारत में विलय का अनुमोदन कर दिया तथा तब से लेकर भारतीय संसद में जम्मू व कश्मीर के प्रतिनिधि नियमित रूप से निर्वाचित होकर आ रहे हैं ।

बाद में 26 जनवरी 1957 को अपना कार्य पूरा करने के कारण जम्मू व कश्मीर की संविधान सभा को भंग कर दिया गया । इस प्रकार जम्मू व कश्मीर देश का एकमात्र राज्य है, जिसका अपना अलग संविधान है । वर्तमान में जम्मू व कश्मीर राज्य का शासन भारतीय संविधान की धारा 370, राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर निर्गत आदेशों तथा जम्मू व कश्मीर के संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत संचालित होता है ।

राज्यों का पुनर्गठन (Reorganization of States):

उल्लेखनीय है कि देशी रियासतों के भारतीय संघ में विलय के उपरान्त तथा भारत में नया संविधान लागू होने के बाद भी भारत के क्षेत्रीय गठन की समस्या का समाधान नहीं हुआ । क्षेत्रीय विभिन्नताएँ भारत की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । क्षेत्रीयता के कई आधारों में से एक महत्त्वपूर्ण आधार क्षेत्रीय भाषाएँ हैं ।

क्षेत्रीय भाषाएँ किसी क्षेत्र विशेष की संस्कृति तथा उसकी ऐतिहासिकता का प्रतीक हैं । अतः क्षेत्रीय भाषाओं का प्रश्न वास्तव में क्षेत्रीय जनता की अस्मिता व उनकी भावनाओं का प्रश्न है । अतः स्वतंत्रता के बाद क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर राज्यों के गठन का मुद्दा उठ खड़ा हुआ । 1948 में कांग्रेस ने एक तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया था, जिसमें जवाहर लाल नेहरू बल्लभ भाई पटेल व पट्‌टाभि सीतारमैया सदस्य थे ।

इसे जे.बी.पी. कमेटी के नाम से भी जाना जाता है । इस कमेटी ने 1 अप्रैल, 1949 को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में भाषायी आधार पर राज्यों के गठन की बात को स्वीकार नहीं किया । इस कमेटी का तर्क था कि भारत में बहुत भाषाएँ बोली जाती हैं और यदि भाषा को राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनाया जाता है तो भारत में राज्यों की संख्या बहुत अधिक हो जायेगी अत: यह माँग व्यावहारिक नहीं है । फिर भी यह मुद्दा शान्त नहीं हुआ ।

भाषायी आधार पर आंध्र प्रदेश का गठन:

इसी बीच तेलगू भाषा-भाषी लोग अपने लिये एक अलग आन्ध्र प्रदेश राज्य की माँग करने लगे । तेलगू बोलने वाले लोग 21 जिलों में निवास करते थे । इनमें से 9 जिले हैदराबाद की देशी रियासत के अंग थे तथा 12 जिले मद्रास प्रान्त के अंग थे ।

इस आन्दोलन को बल तब मिला जब कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता पोट्‌टि श्रीरामलू ने तेलगू लोगों के लिए आंध्र प्रदेश की मांग को लेकर माँग के समर्थन में आमरण अनशन की घोषणा कर दी । 55 दिनों के आमरण अनशन के बाद उनकी मृत्यु हो गयी । इसका परिणाम यह हुआ कि इस माँग के समर्थन में तेलगू आन्दोलन तेजी से फैल गया तथा उसने हिंसक रूप ग्रहण कर लिया ।

ऐसी तनावपूर्ण स्थिति में केन्द्र सरकार ने तेलगू आन्दोलनकारियों की माँग को स्वीकार करते हुए 1 अक्टूबर, 1953 को आंध्र प्रदेश के गठन की घोषणा की । इस राज्य में मद्रास राज्य के तेलगू भाषी क्षेत्रों को शामिल किया गया । बाद में जब 1956 में राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो हैदराबाद रियासत को आन्ध्र प्रदेश में मिला दिया गया तथा उसकी राजधानी कुरनूल से बदलकर हैदराबाद कर दी गयी ।