Read this article in Hindi to learn about:- 1. नेतृत्व का परिचय (Introduction to Leadership) 2. नेतृत्व का अर्थ (Meaning of Leadership) 3. उत्पत्ति (Origin) 4. प्रकृति (Nature) 5. विशेषताएँ (Features) 6. स्थिति और कार्य (Status and Work) 7. सिद्धांत (Principles) 8. प्रशिक्षण (Training).

नेतृत्व का परिचय (Introduction to Leadership):

‘नेता’ एवं ‘नेतृत्व’ के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है । नेता के अभाव में नेतृत्व का कोई मूल्य नहीं है, साथ ही जिस व्यक्ति में नेतृत्व की क्षमता नहीं हो, वह नेता कहलाने या बनने योग्य नहीं है जब से मानव जीवन आरम्भ हुआ, बदलते सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिदृश्य के अनुरूप नेता एवं नेतृत्व की आवश्यकता पड़ती रही है ।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य को नहीं कर सकता । व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर उनमें कार्यों का विभाजन होना स्वाभाविक है । कार्यों के विभाजन के साथ-साथ व्यक्ति की स्थिति में भी अंतर होता है ।

अर्थात् अगर किसी समूह को लिया जाए तो उसमें सभी नेता ही नहीं होते हैं वरन् एक नेता होता है तथा अन्य व्यक्ति उसके अनुयायी होते हैं । साथ ही एक ही समूह में एक से हमेशा नेता भी हो सकते हैं । नेता एवं नेतृत्व हमेशा से समाज में उपस्थित रहे हैं ।

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यही है कि जब मनुष्य असभ्य अवस्था में था और जंगलों में निवास करता था तब भी नेता होता था और आज जब वह सभ्यता के उच्चतम शिखर पर पहुँचने का दावा कर रहा है तब भी नेता विभिन्न रूपों में दृष्टिगत हो रहा है । जब नेता है तो वहाँ नेतृत्व का होना स्वाभाविक है ।

भारत के गाँवों से लेकर देश स्तर तक नेता एवं नेतृत्व का दर्शन सभी जगह हो सकता है । मानव एक सामाजिक प्राणी है । समाज को सुचारु रूप से कार्योन्वित करने हेतु सफल नेतृत्व की आवश्यकता होती है । क्योंकि समाज की आवश्यकताएं अनन्त है ।

अत: नेता का होना जरूरी है । समूह में इन आदर्शों तथा नियमों का पालन कर पाने, कार्यपद्धतियों के अनुसार कार्य संपन्न करवाने एवं समूह के सदस्यों में एकता तथा संगठन बनाए रखने हेतु नेतृत्व की जरूरत पड़ती है ।

इसलिए नेतृत्व एक सार्वभौमिक घटना है । समाज चाहे सरल हो या जटिल, आदिम हो या सभ्य, परंपरागत हो या मुक्त, किसी न किसी रूप में हर समाज में नेतृत्व जरूर पाया जाता है । नेता एवं नेतृत्व का सम्बन्ध सार्वभौतिक है । मनुष्य के अलावे पशु-पक्षियों में भी नेता एवं नेतृत्व दिखता है ।

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नेता का अर्थ (Meaning of Leader):

नेता का अर्थ सफल नेतृत्व से होता है । कुछ व्यक्ति जन्मजात नेता होते हैं कुछ में समय बीतने के साथ नेतृत्व गुण आता है तथा कुछ पर नेता बनने का भार सौंपा जाता है । इस प्रकार नेता का अभिप्राय स्वयं के योग्यता राव प्रतिभा के अनुसार समाज, देश का सफन संचालन करना है ।

साथ ही नेता अन्य व्यक्तियों के लिए आदर्श भी होता है । हर क्षेत्र का अपना-अपना नेता होता है । उदाहरण के तौर पर पहलवान का नेता वही होगा जो पहलवानी के दाँव-पेंचों में दक्ष ही ।

इसके प्रतिकूल पहलवानी दाँव-पेंच को जानने वाला किसी राजनीतिक दल का नेता नहीं हो सकता है । राजनीतिक दल का नेता वही हो सकता है जिसे राजनीतिक दाँव-पेंचों की जानकारी हो । नेता चाह किसी भी क्षेत्र का हो किन्तु जो अपने अनुयायियों का मार्ग दिखाना है वही नेता होता है ।

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अत: वह अपने समूह के लिए आदर्श होता है । चूँकि वह समूह के लिए आदर्श होता है, अत: स्वाभाविक है कि समूह के सदस्य उसका अनुसार करें । सफल नेता स्वयं के नेतृत्व द्वारा समाज, देश, परिवार, संसार सभी को अपने विचारों के प्रति उन्मुख कर देना होता है ।

अनुयायियों का आदर्श बन जाना ही सफल नेता का परिचायक है (फ्रायड) । नेता के संबंध में विद्वानों ने विभिन्न पहलुओं से विचार किया है । विश्व के कुछ विद्वानों ने नेता शब्द को परिभाषित किया है । जैसे लपियर फ्रान्सवर्थ के अनुसार नेता का मूल गुण है अपने विचारों तथा व्यवहारों द्वारा दूसरों को प्रभावित करना न कि ट्रसटों के विचारों से प्रभावित होना ।

हुलियालकर, जियनदनि एवं कुले अपनी रचना ‘Outlines of Social Psychology’ में लिखा है- “नेता वह होता है जो नेतृत्व करता है, मानने योग्य सुझाव देता है, पथ-प्रदर्शन करता है, दूसरों के लिए आदर्श के रूप में कार्य करता है, सम्मति देता है और ऐसी आज्ञाएँ देता है जिनका सम्मान एवं पालन किया जाता है ।”

स्प्राट के अनुसार कोई व्यक्ति जो अन्यों के लिए आदर्श है, नेता कहलाने के योग्य है । लापियर एवं फ्रान्सवर्थ अपनी कृति में लेखानुसार है- ”नेता वह व्यक्ति है जो अन्य व्यक्तियों के विचारों एवं व्यवहारों से प्रभावित होने की अपेक्षा दूसरे व्यक्तियों के विचारों राव व्यवहारों को अधिक प्रभावित करता है ।”

तृत्व का अर्थ (Meaning of Leadership):

नेतृत्व का तात्पर्य एक विशिष्ट प्रकृति जिसके द्वारा समाज, राज्य देया आदि को नियंत्रित तथा दिशा-निर्देश किया जाता हो । नेतृत्व का ही विकास का व्यक्ति नेता बन जाता है । नेतृत्व में नेता तथा अनुयायी दोनों का ही होना जरूरी होता है क्योंकि यदि अनुयायी ही नहीं होंगे तो नेता नेतृत्व किसके ऊपर करेगा ।

अर्थात् समूह में नेतृत्व करने वाले नेता का स्थान सर्वोपरि होता है तथा उसी के निर्देशों का पालन उस समूह के सभी व्यक्ति करते हैं । समय-समय पर नेतृत्व की जरूरत पड़ती है ।

उदाहरण के तौर पर स्वतंत्रता संग्राम के समय इस संग्राम का संचालित करने के लिए नेतृत्व की जरूरत पड़ी थी एवं विभिन्न नेताओं ने इसका नेतृत्व किया था । इन नेताओं में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाषचंद्र बोस, आदि का नाम प्रमुख है ।

महात्मा गांधी जब 1920 से 1945 तक अखिल भारतीय कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे तो समस्त कांग्रेसियों को उनके नेतृत्व को स्वीकार करना पड़ा था । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सफल नेतृत्व गांधी जी द्वारा किया गया था ।

नेतृत्व के सम्बन्ध में अनेक विचार धाराएं हैं लेकिन सफल नेतृत्व का अर्थ व्यक्ति के समूहों की अपने व्यवहारों के अनुसरण करवाना । जब यह प्रवृत्ति विस्तृत स्वयं धारण कर लेती है तब व्यक्ति नेता कहलाने लगता है । कुछ लोग नेतृत्व तथा प्रभुत्व दोनों का समान अर्थ लगाते हैं ।

किन्तु यह विचार सही प्रतीत नहीं होता है । दोनों एक-दूसरे से भिन्न अवधारणाएं हैं । किम्बाल यंग के अनुसार प्रभुत्व में शक्ति अथवा सत्ता का तत्व आवश्यक रूप से जुड़ा रहता है । प्रभुत्व द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों में जो परिवर्तन लाया जाता है, वह सामान्यत: दबाव के कारण लाया जाता है ।

इसके विपरीत नेतृत्व के माध्यम से व्यक्तियों के व्यवहारों में जो बदलाव लाया जाता है वह ऐच्छिक होता है । इसके अलावा नेतृत्व की सफलता हेतु नेता एवं अनुयायियों में घनिष्ठता व पारस्परिक त्याग का होना जरूरी होता है ।

कभी-कभी नेतृत्व का अर्थ प्रसिद्धि से भी लगाया जाता है । कभी-कभी नेतृत्व का अर्थ ऐसी स्थिति से समझा जाता है जिसमें एक व्यक्ति स्वेच्छा से अथवा दबाव में आकर दूसरे व्यक्ति के आदेशों का पालन कर रहे हों ।

कभी-कभी ऐसा भी माना जाता है कि यदि किसी व्यक्ति में शक्ति के आधार पर दूसरे व्यक्तियों से इच्छित व्यवहार करवा लेने की क्षमता है तो उसे भी नेतृत्व कहा जाएगा । नेतृत्व के सम्बन्ध में अनेक भूंतिपूर्ण धारणाएं प्रचलित है ।

लेकिन नेतृत्व का वास्तविक सम्बन्ध व्यवहार से है । अर्थात् व्यवहार तथा बिखर के द्वारा जनता के एक बड़े वर्ग या जनसमूह को स्वयं के विचारों के प्रभाव में लाना है । उसके लिए शक्ति एवं ज्ञान दोनों का इस्तेमाल भी होता है ।

‘Social Psychology’ लॉपियर एवं फ्रान्सवर्थ ने लिखा है कि- ”नेतृत्व एक व्यवहार है जो कि अन्य व्यक्तियों के व्यवहार को नेता पर उनके व्यवहार के प्रभाव की अपेक्षा अधिक प्रभावित करना है ।”

उपयुक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि नेता अनुयायियों को प्रभावित करने के साथ ही ग्रन्थों के विचारों से प्रभावित भी होता है । अंतर केवल प्रभावित करने की क्षमता की मात्रा में है । चूंकि नेता में दूसरों के व्यवहारों को प्रभावित करने की क्षमता ज्यादा होती है अत: वे अपने अनुयायियों को अधिक प्रभावित करते हैं ।

विश्व के अन्य समाज मनोवैज्ञानियों ने नेतृत्व के सम्बन्ध में विभिन्न अवधारणा विकसित की है जो निम्न हैं:

नेतृत्व के सम्बन्ध में न्यूकाम्ब ने ‘Social Psychology’ में विचार व्यक्त किया है कि- “एक नेता वह (व्यक्ति) है जिसकी भूमिका विशेष प्रकार से भिन्न होती है । विभिन्न नेताओं की आवश्यक भूमिकाओं के लिए ठीक-ठीक व्यवहार तो भिन्न-भिन्न होते हैं, किंतु सभी में सामान्य रूप से पाया जाने वाला कारक यह है कि अन्य सभी भूमिकाएँ विशेष रूप से उन पर निर्भर करती हैं ।”

अपनी पुस्तक ‘Society’ में मैकाइवर एवं पेज ने लेखा है कि- “नेतृत्व का मतलब लोगों को प्रोत्साहित करने अथवा निर्देशित करने की वह योग्यता है जो कि पद के अलावा व्यक्तिगत गुणों से आती है ।”

पिगोर्स ने अपनी रचना ‘Leadership or Domination’ में लिखा है- ”नेतृत्व परस्पर प्रोत्साहित करने की एक प्रक्रिया है जबकि प्रभुता नियंत्रण की प्रक्रिया है जिसमें श्रेष्ठता प्राप्त करके व्यक्ति अथवा समूह अपनी इच्छानुसार प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए दूसरों की क्रियाओं पर नियंत्रण करता है ।”

”विस्तृत अर्थों में नेतृत्व का तात्पर्य किसी समय में एक व्यक्ति का अनेक पर पारस्परिक प्रभुत्व है ।” अकोलकर ने यह मत ‘Social Psychology’ में दिया है । टीड ने अपनी कृति ‘The Art of Leadership’ में लिखा है- ”नेतृत्व किसी लक्ष्य के लिए जिसके लिए वे वांछनीय पाते हैं, सहयोग के लिए जनता को प्रभावित करने की क्रिया है ।”

सीमेन तथा मॉरिस के विचार है- ”नेतृत्व  एक अनुकरणीय अस्थाई परिभाषा नेतृत्व के प्रभाव के स्वरूप पर बल देती है, नेतृत्व के कार्य वे कार्य हैं जो अन्य व्यक्तियों को एक सामूहिक दिशा में कार्य करने के लिए प्रभावित करते हैं ।” अर्थात दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने के साथ ही सही दिशा में अनुगमन कराना नेतृत्व है ।

Handbook of Social Psychology में किम्बाल यंग के अनुसार- “नेतृत्व, प्रभुत्व का प्रतीक है अर्थात् नेतृत्व प्रभुत्व का वह स्वरूप है जो प्रभावित एवं नियंत्रित होने वाले सदस्यों द्वारा कम या अधिक रूप में अपनी इच्छा से स्वीकार किया जा सकता है ।”

कार्टराइट एवं जेन्डर ने नेतृत्व को परिभाषित करते हुए ‘Group Dynamics : Research and Theory’ में लिखा है- ”नेतृत्व का संबंध समूह के सदस्यों द्वारा किए गए उन कार्यों से है जो समूह के उद्देश्यों को निश्चित करने में सहायता करते हैं, समूह को इसके उद्देश्यों की ओर बढ़ाते हैं, समूह के सदस्यों के बीच अंत:क्रिया के स्तर को सुधारते हैं तथा समूह की एकता को बनाए रखने एवं समूह को साधन उपलब्ध कराने में सहायता करते हैं ।”

क्रेच एवं क्रचफील्ड ने अपनी कृति प्दकप. अपकनंस पद वैबपमजल में विचार व्यक्त किया है कि, नेतृत्व संबंधी हमारे विवेचन में समूह के उन सदस्यों को हम नेता के रूप में परिभाषित करेंगे जो समूह के क्रियाकलापों को प्रभावित करते हैं ।

“नेतृत्व सामाजिक संरचना को परिभाषित, प्रवर्तित तथा संपोषित करता है इसलिए सामाजिक व्यवस्था नेतृत्व के द्वारा आयोजित की जाती है ।” टेननबाम (Encyclopedia of Social Sciences) ।

शॉ के अनुसार है- ”नेतृत्व समूह के सदस्य का नेता है जो समूह के सदस्यों को, समूह के सदस्य जितना उसे प्रभावित करते हैं, उससे कहीं अधिक वह उन्हें प्रभावित करता है ।”

डेनियल केट्‌ज एवं रॉबर्ट एल. शान के अनुसार- “नेतृत्व की अवधारणा, जिस प्रकार यह समाज विज्ञान साहित्य में प्रयोग की जाती है, के तीन मुख्य अर्थ हैं- किसी एक पद की श्लाघ्यता, किसी व्यक्ति की एक विशेषता तथा एक विशेष प्रकार का व्यवहार ।”

लिण्डग्रेन ने नेतृत्व के संबंध में है- “नेतृत्व, किसी हद तक, दूसरों को प्रभावित करने के प्रयास से भी कहीं अधिक है, नेतृत्व की उपस्थिति का आभास इसके परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों से प्रदर्शित होता है ।”

प्रसिद्ध कृति ‘Social Psychology’ में शेरिफ एण्ड शेरिफ ने नेतृत्व के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है कि नेता किसी भी संगठन में सदस्य के साथ एक सर्वोच्च प्रस्थिति है । उसकी उपयोगिता समयानुसार प्रदर्शित होती है ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नेतृत्व तथा अनुभावी के बीच अन्यान्याश्रय सम्बन्ध है । नेता प्रभावित करने के साथ ही दूसरों से प्रभावित भी होते हैं । जो व्यक्ति जितनी ज्यादा मात्रा में समूह के सदस्यों के व्यवहारों को प्रभावित करता है वह व्यक्ति उतनी ही ज्यादा मात्रा में समूह नेतृत्व का अधिकारी होता है ।

नेतृत्व में पारस्परिक अंतःक्रिया भी होती है । नेता अपने समूह के सदस्यों के व्यवहार को प्रभावित करता है व वह अनुयायियों के व्यवहार से प्रभावित भी होता है । इस तरह नेता एवं अनुयायियों के बीच पारस्परिक अंतःक्रिया चलती रहती है ।

यथार्थता नेतृत्व वही व्यक्ति कर सकता है जिसका व्यवहार समूह के सदस्यों के व्यवहार को प्रभावित करता हो । इस प्रकार नेतृत्व का तात्पर्य समाज, राज्य आदि के संगठनात्मक स्वरूप को व्यवस्थित रूप से सही दिशा-निर्देश प्रदान करना है ।

नेतृत्व की उत्पत्ति (Origin of Leadership):

नेतृत्व की उत्पत्ति के संदर्भ में विभिन्न मान्यताएँ प्रचलित है । विद्वानों के बीच नेतृत्व के सम्बन्ध में एक मतता नहीं पाई जाती है । ब्राउन, कारलायल, उमरसन, गाल्टन ने व्यक्ति सिद्धांत को मान्यता प्रदान की है जिसके अनुसार नेतृत्व का गुण जन्मजात होते हैं ।

अर्थात् वंशानुक्रमण की प्रक्रिया का प्रतिफल हैं उसके लिए गुण एवं योग्यता की आवश्यकता नहीं है । नेतृत्व का विकास के लिए परिस्थितियाँ अथवा पर्यावरण जरूरी होती हैं अर्थात् नेता समय एवं सामाजिक स्थितियों की उपज हैं । इस सिद्धांत को समय सिद्धांत के नाम से जाना जाता है ।

इस सिद्धांत के समर्थकों में केलर, जेनकिंस, कार्टराइट एवं जेन्डर आदि प्रमुख है । उन्होंने कहा कि विश्व में ऐसे अनेक नेताओं के उदाहरण मिलते हैं जिनके माता-पिता में नेतृत्व के गुण नाम मात्र भी नहीं थे ।

अगर नेता जन्मजात होते या नेतृत्व के गुणों का विकास आनुवंशिक प्रक्रियाओं के कारण होता तो सिर्फ वे ही व्यक्ति नेता होते जिनके माता-पिता नेता थे । किन्तु हकीकत ऐसी नहीं है ।

ऐसा भी देखा जाता है कि जिनके माता-पिता नेता थे उनके किसी भी संतान में नेतृत्व के गुण नहीं पाये गए या सभी संतानों में नहीं पाए गये जो इस बात को सिद्ध करते हैं कि नेतृत्व का कारण आनुवंशिकता नहीं है । नेता परिस्थितियों एवं पर्यावरण की उपज होती हैं नेता स्थान तथा काल के अनुसार जन्म लेते हैं । अत: समय सिद्धांत के अनुसार नेता जन्मजात नहीं होते है ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नेतृत्व की उत्पत्ति में कोई एक अवधारणा सही नहीं है बल्कि विभिन्न घटकों के सम्मिश्रण का प्रतिफल है । नेता न तो केवल बनाए जाते हैं और न ही इसका विकास सिर्फ आनुवंशिक प्रक्रियाओं या पर्यावरणीय प्रक्रियाओं के कारण होता है अपितु इसके गुणों का विकास आनुवंशिकता एवं पर्यावरण दोनों ही प्रकार के कारकों की अंनःक्रियाओं के फलत: होता है ।

नेतृत्व का संबंध सामूहिक अंत:क्रियाओं से होता है अर्थात् यह नेता एवं अनुयायियों के मध्य पारस्परिक अंतःक्रिया का परिणाम होता है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल रहते ही कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के कुछ विशिष्ट गुणों के आधार पर नेता वन सकता है ।

किम्बाल यंग के अनुसार है- ”हमारा अपना मत है कि व्यक्तित्व एवं परिस्थिति संबंधी कारक दोनों को ही महत्व देना चाहिए ।” अर्थात नेतृत्व पर्यावरण तथा आनुवंशिकता दोनों ही कारकों की उपज है ।

बोगार्डस ने अपनी कृति ‘Leaders and Leadership’ में नेतृत्व की उत्पत्ति के संबंध में निम्नलिखित विचारधाराएँ प्रस्तुत की है:

(i) वंशानुक्रमिक उत्पत्ति (Hereditary Origins):

वंशानुक्रमिक उत्पत्ति के आधार पर नेतृत्व वंशानुक्रमिक रूप से बनते हैं । अर्थात् यह वंशानुक्रमण की प्रक्रिया के माध्यम से बनाए जाते हैं । फ्रांसिस गॉल्टन के कथनानुसार प्रतिभाशाली व्यक्तियों को बनाया नहीं जाता अपितु वे जन्मजात होते हैं ।

गॉल्टन के विचारानुसार वंशानुक्रम के उत्तम गुणों के आधार पर ही व्यक्ति कुछ अच्छे कार्य कर सकता है, महान बन सकता है या नेतृत्व प्राप्त कर सकता है । किन्तु व्यावहारिकता में ऐसी बातें देखने को नहीं मिलतीं ।

विश्व के अनेक ऐसे महान नेता हुए हैं जिन्हें उत्तम वंशानुक्रमण प्राप्त नहीं हुआ है साथ ही अनेक महान नेताओं की संतानें भी महान नहीं बन सकी हैं । यह अर्द्धसत्य है कि वंशानुक्रम नेतृत्व की उत्पत्ति में सहायक होता है लेकिन यह उसका एकमात्र कारण नहीं है ।

(ii) सामाजिक उत्तेजनाओं से उत्पत्ति (Origins from Social Stimuli):

नेतृत्व की उत्पत्ति में सामाजिक परिस्थितियाँ तथा उत्तेजनाओं की अहम भूमिका महत्वपूर्ण होती है । किसी समाज में यदि कोई जाति या वर्ग सामाजिक निर्योग्यताओं का शिकार है, उसे अपने सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास के संपूर्ण अवसर प्राप्त नहीं हैं तो उस जाति अथवा वर्ग के व्यक्ति नेता नहीं बन सकते ।

उदाहरणार्थ स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में शूद्र सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताओं के शिकार थे । अत: उन्हें नेता बनने का अवसर प्राप्त नहीं था ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें सभी क्षेत्रों में उच्च जातियों के समान अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए उन्हें नेतृत्व में भी स्थान प्राप्त हो रहे हैं । इसी प्रकार एक छोटे स्थान की तुलना में बड़े स्थान में किसी भी व्यक्ति को नेतृत्व के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं ।

इसी तरह उच्च जाति, उच्च आर्थिक पृष्ठभूमि एवं उच्च भूस्वामित्व, आदि सामाजिक स्थितियों वाले लोगों को निम्न जाति, निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि एवं कम स्वामित्व वाले लोगों की अपेक्षा नेतृत्व के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं । इस तरह यह कहा जा सकता है कि नेतृत्व सामाजिक दशाओं से प्रभावित होता है ।

(iii) व्यक्तित्व से उत्पत्ति (Genesis):

यह बांगार्डस की महत्वपूर्ण अवधारणा है । व्यक्ति की शारीरिक शक्ति, मानसिक योग्यता, तीक्ष्ण बुद्धि, कार्यकुशलता, प्रेरणात्मकता, सामाजिकता, व्यापक समझ, उत्साह तथा मित्रता, आदि उसके व्यक्तित्व के गुण भी उसे नेतृत्व प्रदान करने में मददगार होते हैं । इन गुणों के आधार पर वह दूसरों को प्रभावित, नियंत्रित तथा निर्देशित कर सकता है ।

नेतृत्व की उत्पत्ति तथा विकास के लिए विभिन्न कारकों (घटकों) कस उपस्थित होना अनिवार्य है । जेनिंग्स का कथन है कि नेतृत्व के विकास हेतु व्यक्तित्व के गुण एवं परिस्थिति दोनों अनिवार्य है ।

नेतृत्व की प्रकृति (Nature of Leadership):

नेतृत्व नेताओं एवं अनुयायियों के बीच के संबंध की दर्शाता है बगैर नेतृत्व के नेता का अस्तित्व नहीं होता है । नेतृत्व सार्वकालिक, सार्वदेशिक तथा गतिमान अवधारणा है जो देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलते रहता है ।

उस तरह नेतृत्व की प्रवृत्ति के विभिन्न रूप निम्नलिखित है:

(1) यह एक सार्वभौमिक घटना है । अर्थात यह सर्वत्र एवं सभी समाजों में पायी जाती है । इतना ही नहीं अपितु यह सभी कालों में भी पाया जाता है । समूह चाहे लघु हो अथवा बड़ा नेतृत्व उसने जरूर पाया जाता है । साथ ही आदिकालीन समाज से लेकर वर्तमान समाज तक नेतृत्व हमेशा अस्तित्व में रहता है ।

(2) सभी सदस्यों में नेतृत्व के गुण विद्यमान नही होते हैं । नेता में समूह के अन्य सदस्यों की अपेक्षा अधिक मौलिकता तथा साहस का अस्तित्व होता है । नेता में यह विशिष्ट गुण होता है कि वह समूह की आकांक्षाओं, अभिलाषाओं तथा आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाकर जल्दी ही सफल हो जाए ।

साथ ही नेता अपने समूह के सदस्यों से संयम, अनुशासन तथा नियम निष्ठा, आदि भी बनाए रखना है । यह उत्तरदायित्व नेता का होता है कि वह समूह को संगठित एवं सुदृढ़ बनाए रखे ।

(3) नेता समूह के सदस्य के साथ ही विशेष प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व तथा गुण वाले होते हैं । वह समूह की विशेष परिस्थितियों में विशेष तरह की भूमिका निभाने में सक्षम होता है । अनुयायियों के विश्वास तथा आस्था पर ही किसी व्यक्ति का नेतृत्व आधारित होता है ।

बिना अनुयायी के नेतृत्व का कोई मतलब नहीं है । जो व्यक्ति समूह का विश्वासपात्र नहीं बन सकता वह नेतृत्व भी नहीं कर सकता है । उससे ज्ञात होता है कि नेता एवं नेतृत्व दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है ।

(4) नेतृत्व नेता एवं अनुयायियों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक व्यवहार प्रतिमान को प्रदर्शित करता है । नेता जितना अनुयायियों के व्यवहार से प्रभावित होता है उससे ज्यादा वह अपने व्यवहार से अनुयायियों का प्रभावित करता है ।

अर्थात् नेतृत्व की सफलता ही इस बात पर आश्रित है कि नेता अपने अनुयायियों के विचारों, भावनाओं व क्रिया-प्रतिक्रियाओं से कहाँ तक अनुकूलन कर पाता है एवं किस हद तक अपने अनुयायियों को लेकर चल पता है । यदि नेता गुणवान होता है तो वह अपने गुणों के बल पर समूह में उच्च प्रस्थिति प्राप्त कर लेता है ।

नेता अपने व्यवहार से समूह के सदस्यों के व्यवहार को प्रभावित करने के साथ-साथ संकटपूर्ण परिस्थितियों में समूह के सदस्यों का रास्ता दिखाता भी है । नेता समूह के सदस्यों की मनोवृत्तियों तथा व्यवहारों का निर्देशित करने में भी सफलता प्राप्त करता है ।

(5) नेतृत्व अनुयायियों पर जबरन थोपी नहीं जाती है । इसमें अनुयायियों के स्वैच्छिक समर्पण का भाव समाहित होता है । जौ नेतृत्व अनुयायियों की परवाह नहीं करता वह निरंकुश होता है ।

वह अल्पजीवी भी होता है क्योंकि निरंकुशतापूर्वक ज्यादा दिनों तक नेतृत्व नहीं किया जा सकता है । वही नेतृत्व सफल होता है जो अपने अनुयायियों के सहयोग तथा सद्भावना को जीत पाता है । आधुनिक समय लोकतांत्रिक नेतृत्व का है ।

हालाँकि अधिनायकवादी नेतृत्व भी प्रभावशील है किन्तु उसमें अपने अनुयायियों की साथ लेकर चलने का बीज सन्निहित होता है । अनुयायियों का विश्वास खोकर कोई भी नेतृत्व कायम नहीं रह सकता है ।

(6) चाहे वह कोई भी नेतृत्व हो उसका संबंध एक विशिष्ट परिस्थिति से होता है । यहाँ परिस्थिति से तात्पर्य व्यवहार के एक निश्चित क्षेत्र से है । उदाहरण के तौर पर जो कला के क्षेत्र का नेतृत्व करता है वह राजनीति के क्षेत्र का नेतृत्व नहीं कर सकता ।

नेतृत्व के विभिन्न रूप होते हैं । जैसे- राजनीतिक नेता, सैन्य नेता, नाट्य नेता आदि निम्न गुण एक व्यक्ति में नहीं हो सकते हैं । अत: सभी कौशलों का संदर्भ अपनी विशिष्ट क्षेत्रों में है ।

नेतृत्व की विशेषताएँ (Features of Leadership):

नेतृत्व के सम्बन्ध में अनेक विचारधाराएँ प्रचलित है । विवेचन के अंतर्गत पक्ष-विपक्ष में विभिन्न तर्क प्रस्तुत किए गए है, इस सुधार पर नेतृत्व के सम्बन्ध में कुछ विशेषताएं उद्भूत होती है ।

जो निम्न प्रकार हैं:

(1) सफल नेतृत्व के लिए अनुयायी का होना आवश्यक है । नेतृत्व के अस्तित्व अनुयायी पर निर्भर करता है । अत: बिना अनुयायी अर्थात् समर्थक के किसी नेतृत्व का कोई अर्थ नहीं है ।

(2) इसमें नेतृत्व करने वाला व्यक्ति अनुयायियों की अपेक्षा उच्च एवं श्रेष्ठ होता है ।

(3) समय तथा परिस्थिति के अनुसार नेतृत्व का स्वरूप बदलाव होता रहता है ।

(4) इसमें नेता तथा अनुयायियों के बीच जो पारस्परिक संबंध पाये जाते हैं वे शक्ति तथा दबाव पर आधारित नहीं होते हैं अपितु स्वेच्छा पर आधारित होते हैं । शक्ति एवं दबाव पर आधारित नेतृत्व ज्यादा स्थिर नहीं होता है ।

(5) नेता तथा अनुयायियों में ज्यादा परस्पर सहयोगात्मक संबंध होता है । यही कारण है कि नेता अपने अनुयायियों को कभी आदेश देता है, कभी सुझाव देता है एवं कभी अनुनय-विनय भी करता है ।

(6) सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षी में विभिन्न तरह का नेतृत्व पाया जाता है । इतना ही नहीं बल्कि विभिन्न परिस्थितियों में भी विभिन्न प्रकार का नेतृत्व पाया जाता है ।

यही कारण है कि कोई राजनीतिक क्षेत्र का नेता होता है, कोई धार्मिक क्षेत्र का नेता होता है, कोई शिक्षा क्षेत्र का नेता होता है तथा कोई संगीत क्षेत्र का नेता होता है । अर्थात् विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नेतृत्व पाया जाता है ।

(7) इसमें नेता तथा अनुयायी दोनों परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं ।

(8) यह एक विशिष्ट तरह का व्यवहार है जो प्रभुत्व एवं अनुनय-विनय के संबंधों पर आधारित होता है ।

(9) इसमें पारस्परिक अंत:क्रिया पाई जाती है । नेतृत्व में नेता तथा अनुयायियों के मध्य परस्पर अंत:क्रियात्मक संबंध पाये जाते हैं । इसमें नेता स्वयं भी अनुयायियों से प्रभावित होता है तथा अनुयायियों को भी प्रभावित करता है । एक अन्य बात है कि नेता अपने अनुयायियों से प्रभावित होने की तुलना उन्हें ज्यादा प्रभावित करता है । किन्तु दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं ।

नेतृत्व की स्थिति और कार्य (Leadership Status and Work):

नेतृत्व का स्थान किसी भी संगठन में महत्वपूर्ण सम्बन्ध होता है । उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नेता एवं अनुयायियों के बीच भावनात्मक होता है । जो परिस्थिति विशेष में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है ।

अत: नेतृत्व की स्थिति एवं कार्य निम्नांकित हैं:

(1) नेतृत्व अनुगामियों का आदर्श होता है । किसी भी समूह के अन्तर्गत व्यक्ति नेता बन सकता है जिसको और लोग भी आदर्श मानते हैं । यदि जनता उसको दीर्घकाल तक आदर्श मानने रहेंगे तो वह लंबे समय तक नेता बना रह सकता है ।

यदि लोग उसकी कम समय तक आदर्श मानते रहेंगे तब वह उतने ही समय तक नेता बना रह सकता है । अर्थात जब तक वह जनता के लिए आदर्श बना रहेगा, तब तक वह नेता बना रहेगा ।

(2) सभी व्यक्तियों को नेता बनाना सम्भव नहीं है न बन सकते हैं । नेता एक सम्मानित एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है । समूह के अन्य लोगों के समक्ष आदर्श रूप में रहने के लिए यह जरूरी होता है कि नेता सम्मानित एवं प्रतिष्ठित हो । प्राय: जो जितना बड़ा नेता होता है उसका उतना ही सम्मान एवं प्रतिष्ठा होती है ।

(3) नेतृत्व की आज्ञा को स्वीकार करना होता है । अर्थात् उसके अनुयायियों द्वारा उसकी आज्ञा का पालन किया जाता है । जिस तरह एक परिवार में बच्चा अपने पिता की आज्ञा को अवज्ञा नहीं कर सकता है उसी तरह समूह में नेता की आज्ञा उसके अनुयायियों के लिए सदैव स्वीकृत होती है ।

(4) नेतृत्व का हमेशा सत्कार किया जाता है । नेतृत्व तथा अनुयायियों के परस्पर व्यवहार में अनुयायी हमेशा नेतृत्व का सत्कार करते हैं । नेतृत्व की बातों को ध्यान से सुना जाता है ।

नेतृत्व हेतु उसके अनुयायी अपनी जान तक की परवाह नहीं करते हैं । उसके एक इशारे पर वे मरने-मिटने तक को तैयार रहते हैं । अनुयायियों के इस सत्कार से नेता भी प्रोत्साहित होता है एवं अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना है ।

(5) नेतृत्व समूह संगठन, राज्य, समाज के व्यवहार को निर्धारित करता है । समूह के सभी लोग नेतृत्व के सुझावों तथा जिज्ञासाओं का अनुसरण करते हैं । इस तरह समूह के नेतृत्व की स्थिति श्रेष्ठतम एवं केंद्रीय होती है ।

उसके अनुयायी हमेशा उसकी ओर उन्मुख रहते हैं । हर कठिनाई में वे नेतृत्व की ओर देखते हैं और वह जैसा कहता है वैसा ही वे करते हैं । सीमेन तथा मोरिस के अनुसार है- “नेतृत्व की एक अस्थाई रूप से मानने योग्य परिभाषा उसके प्रभाव के पहलू पर जोर देती है । नेतृत्व के कार्य उन व्यक्तियों के कार्य हैं जो अन्य व्यक्तियों को अनुरूप दिशा मैं प्रभावित करते हैं ।”

(6) नेतृत्व समूह के अन्य सदस्यों पर भी नियंत्रण रखता है । हर समूह में बहुत से व्यक्ति होते हैं । उनके विशेष तरह के संबंधों से नेतृत्व की प्रक्रिया निर्धारित होती है ।

पिगोर्स ने ‘Leadership or Domination’ में लिखा है- “नेतृत्व व्यक्ति और पर्यावरण के संबंध में लागू किया गया एक ऐसी परिस्थिति का ज्ञान देने वाला प्रत्यय है जब एक व्यक्ति पर्यावरण में इस प्रकार स्थित होता है कि उसके संकल्प अनुभूतियों और अंतर्दृष्टि के सामान्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अन्य निर्देशित और नियंत्रित होते हैं ।”

(7) सफल नेतृत्वकर्त्ता हमेशा अनुयायियों को विचारों तथा निर्देशों से बांधे रहता है । अनुयायियों के मन-मस्तिष्क पर छाया रहता है । वह उनका सम्मान करता है तथा उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाता है । वह अपने-अपने अनुयायियों पर बल आजमाइश नहीं करता है अपितु उनके दिलों पर अधिकार करता है ।

इस तरह वह उसका प्रिय नेता बन जाता है । वह अपने अनुयायियों से भी प्रभावित होता है । उनके विचारों तथा ज्ञानों से नेतृत्व भी प्रभावित होता है । इस तरह स्पष्ट है कि अनुयायी एवं नेतृत्व परस्पर पूरक है ।

नेतृत्व के सिद्धांत (Principles of Leadership):

नेताओं तथा अनुयायियों के बीच अंत: क्रियात्मक संबंधों तथा व्यवहारों के समन्वित रूप को नेतृत्व कहते हैं । नेतृत्व का सिद्धांत विभिन्न परिस्थितियों यथा सामाजिक, राजनीतिक, पर्यावरणिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक आदि के अंतसंबधों का परिणाम होता है ।

उस प्रकार नेतृत्व के सिद्धांत को आधारभूत मान्यता दिलाने में महत्वपूर्ण अवधारणाएं निम्नलिखित हैं:

(i) संतुलन का सिद्धांत (Balance Principle):

इस सिद्धांत के अनुसार नेतृत्व की सफलता के लिए व्यक्तित्व के विभिन्न गुणों का होना जरूरी होता है । इसमें सभी गुणों का संतुलित विकास इस प्रकार से होना चाहिए कि दूसरों को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित करते हुए व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखे एवं नेतृत्व की रक्षा कर सके ।

अगर किसी गुण विशेष का अत्यधिक विकास हो जाता है तो इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है । उदाहरणार्थ यदि किसी नेता में आशावादिता का गुण अत्यधिक बढ़ जाता है तो उसकी विचार शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है एवं वह कुछ भी कर सकता है ।

इसलिए नेतृत्व की सफलता इस बात पर आधारित होती है कि व्यक्ति में नेतृत्व के जो गुण मौजूद हैं उनमें उचित संतुलन पाया जाना चाहिए । अत्यधिक आशावादिता एवं निराशा में संतुलन होना चाहिए । इस तरह स्पष्ट है कि नेतृत्व के विकास के लिए संतुलन का सिद्धांत जरूरी होता है ।

संतुलन के सिद्धांत की कुछ कमजोरियां भी हैं नेतृत्व की सफलता पर्यावरण एवं परिस्थिति पर भी निर्भर करती है । संतुलन का सिद्धांत सिर्फ गुणों के संतुलन पर आधारित है ।

(ii) संयोग का सिद्धांत (Doctrine of Chance):

संयोग के सिद्धांत के आधार पर नेतृत्व के विकास हेतु तीन कारकों तथा परिस्थितियों का संयोग होना जरूरी होता है ।

ये तीन कारक इस प्रकार हैं:

(क) संकट अथवा समस्या का सामना करने का व्यक्ति का मौका प्राप्त होना । इन तीनों कारकों के मिलने से अर्थात् संयोग से ही नेतृत्व का जन्म होता है । इनमें से किसी एक कारक अथवा दो कारकों के रहने से नेतृत्व नहीं पनपता है । तीनों कारकों का होना जरूरी होता है ।

(ख) नेता की व्यक्तिगत योग्यता तथा

(ग) किसी संकट या समस्या का उत्पन्न होना ।

(iii) अयोग्यता में योग्यता का सिद्धांत (Theory of Merit in Disqualification):

नेतृत्व का यह सिद्धांत क्षतिपूर्ति के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित है । इस सिद्धांत के आधार पर जब व्यक्ति में कुछ योग्यता या अयोग्यता होती है तो वह अन्य किसी विषय में योग्यता प्राप्त करके उस कमी की क्षतिपूर्ति करता है ।

व्यक्ति जितनी अधिक मुश्किलों का सामना करता है वह उनसे संघर्ष करने का अभ्यस्त हो जाता है । संघर्ष करने की यह क्षमता उसे नेतृत्व प्रदान करने में मदद प्रदान करती हे ।

उदाहरणार्थ अगर कोई छात्र हमेशा परीक्षा में असफल हो जाता है तो वह अपनी शक्ति को पढ़ाई के स्थान पर खेल के क्षेत्र में लगाकर उस क्षेत्र में विशेष स्थान प्राप्त कर सकता है या फिर दोगुनी शक्ति पढ़ाई के क्षेत्र में लगाकर ही अच्छा बन सकता है । इस तरह एक क्षेत्र में असफल व्यक्ति दूसरे क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है या उसी क्षेत्र में शक्ति लगाकर आगे बढ़ सकता है ।

(iv) विलक्षणता का सिद्धांत (Theory of Singularity):

इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति अपनी किन्हीं विलक्षण योग्यताओं के आधार पर भी नेता बन जाता है । संसार में किसी भी दो व्यक्तियों में समानता नही होती है । उनकी क्षमताओं एवं योग्यता में कुछ अंतर जरूर होता है । अत: जब अपनी किसी विलक्षण योग्यता के आधार पर व्यक्ति समाज की किसी समस्या का हल कर देता है तो समाज उसे अपना नेता मान लेता है ।

(v) अंतर्दृष्टि का सिद्धांत (Theory of Insights):

इस सिद्धांत के आधार पर जिस व्यक्ति में जितनी ज्यादा अंतर्दृष्टि अर्थात् दूसरों को समझने की शक्ति होती है, उसकी नेता बनने की संभावना भी उतनी ही अधिक होती है ।

अंतर्दृष्टि व्यक्ति को वह क्षमता प्रदान करती है जिसके बल पर वह किसी समस्या के विभिन्न पहलुओं को पहले से ही भाँप लेता है और उसके निदान के उपाय ढूँढ लेता है । उद्देश्यों तथा हितों को पूरा करने के क्षमता का संबंध नेतृत्व से होता है ।

(vi) समूह प्रक्रिया का सिद्धांत (Theory of Group Process):

इस सिद्धांत के आधार पर नेतृत्व सामूहिक प्रक्रिया का परिणाम है । हर समूह के अपने उद्देश्य होते हैं और अपनी सामान्य जरूरत होती है । इन उद्देश्यों तथा आवश्यकताओं की पूर्ति करने में जो व्यक्ति समूह के सदस्यों हेतु सर्वाधिक सहायक होता है, उसी के हाथ में नेतृत्व की बागडोर चली जाती है ।

फिर भी इस दिशा में समूह के सभी सदस्य क्रियाशील होते हैं किन्तु अपनी योग्यता तथा क्षमता के आधार पर जो व्यक्ति ज्यादा सफल हो जाते हैं वे ही समूह के नेता बन जाते हैं ।

(vii) मानसिक शक्ति के केन्द्रीयकरण का सिद्धांत (Principle of Centralization of Mental Power):

नेतृत्व के इस सिद्धांत के मुताबिक कोई भी ज्यादा या कम बुद्धि वाला व्यक्ति अपने प्रयत्नों से या शक्ति को केंद्रित करके किसी भी क्षेत्र, समस्या तथा कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है ।

इस तरह से एक साधारण योग्यता वाला व्यक्ति अपने परिश्रम एवं कोशिश को एक स्थान पा केंद्रित करके कठिन से कठिन काम कर लेता है अथवा बड़ी से बड़ी सफलता प्राप्त कर लेता है । लेस्टर वार्ड ने ऐसे प्रतिभागियों को ‘Genius by Hard Work’ की संज्ञा दी है ।

विभिन्न अवधारणाओं के विश्लेषण से नेतृत्व के सिद्धांत की व्याख्या दर्शाता है कि नेतृत्व किसी एक कारण की उपज नहीं बल्कि विभिन्न घटकों के प्रतिक्रिया का परिणाम है । इसलिए किसी एक कारक को सर्वोपरि नहीं माना जा सकता है । सभी सिद्धांतों का महत्व है ।

नेतृत्व प्रशिक्षण (Leadership Training):

नेतृत्व प्रशिक्षण का सम्बन्ध नेताओं को प्रशिक्षित किए जाने से हे । चूँकि प्रशिक्षित व्यक्ति अथवा नेता ही सफल दिशा निर्देश दे सकते हैं लेकिन उस संदर्भ में विभिन्न विरोधी मत है कुछ विद्वानों के अनुसार नेतृत्व का प्रशिक्षण आवश्यक हैं इसके समर्थक केलर तथा जेकीन्स है जबकि ब्राउन एवं गॉल्टन नोत के प्रशिक्षण का अनिवार्य नहीं मानते हैं ।

अत: यह स्पष्ट होता है कि नेताओं के प्रशिक्षण की समस्या के बारे में विभिन्न विद्वानों ने पृथक्-पृथक् मत प्रस्तुत किए हैं । आधुनिक युग में ‘Time Theory’ के समर्थकों का विचार विशेष रूप से मान्य है ।

किन्तु युग में सैनिकों, प्रशासनिक अधिकारियों, डॉक्टर एवं बी.एल.डब्ल्यू., आदि के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था है किन्तु राजनीति के क्षेत्र में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है ।

वर्तमान में यह अनुभव किया जा रहा है कि प्रशिक्षण किसी व्यक्ति को उसके जिम्मेदारियों एवं कार्यों को सही दिशा प्रदान करने में सहायता करता है । इससे व्यक्तियों की योग्यताओं तथा कार्यक्षमताओं में बढ़ोतरी होती है । फलस्वरूप प्रशिक्षण के आधार पर ही एक व्यक्ति अपने जिम्मेदारी को उचित तरीके से निभा सकता है ।

यही कारण है कि आज नेताओं के प्रशिक्षण की भी जरूरत महसूस की जा रही है । नेताओं को प्रशिक्षित करने पर वे अपने उत्तरदायित्वों को उचित तरीके से समझ सकते हैं एवं विकास कार्यों को सही दिशा दे सकते हैं ।

अगर यह कहा जाए कि न केवल वर्तमान समय में नेताओं के प्रशिक्षण की जरूरत को महसूस किया जा रहा है अपितु प्राचीनकाल से ही इसकी जरूरत महसूस की जा रही है ।

नेताओं का मुख्य कार्य संगठन का निति-निर्धारण एवं निर्देशन से होता है । प्राचीन कालीन ग्रंथ महाभारत तथा रामायण में राजाओं के प्रशिक्षण पर बल दिया गया है । साथ ही नेता समूह प्रतिनिधि तथा मार्गदर्शक के रूप में काम करता है ।

इन सभी उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने हेतु नेताओं का प्रशिक्षण आवश्यक होता है । लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि प्रशिक्षण से ही कोई व्यक्ति नेता बन सकता है । प्रशिक्षण एक नेता की कार्यकुशलता में वृद्धि कर सकता है ।

इस प्रकार नेतृत्व के प्रशिक्षण की भी आवश्यकता होती है । यही कारण है कि पश्चिमी देशों में विभिन्न विद्वानों ने प्रायोगिक अध्ययनों के आधार पर नेतृत्व की सफलता में प्रशिक्षण के महत्व को स्पष्ट किया है । नेतृत्व की सफलता के लिए प्रशिक्षण जरूरी है । उसके लिए कई विद्वानों न समर्थन किया है । व्यावसायिक समूह के निरीक्षकों पर बेवल्स तथा ब्रेडफोर्ड (1942) ने कार्य किया है ।