समानता पर निबंध: शीर्ष 3 निबंध | Essay on Equality: Top 3 Essays!

Essay # 1. समानता की अवधारणा (Concept of Equality):

समानता का विचार एक जटिल विचार है, जो आदिकाल से ही राजनीतिक चिंतन की मुख्य समस्या रही है ।

अतः शुरू-शुरू में इसके बारे में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करना जरूरी है:

1. समानता अधिकार का विवरण देती है, तथ्य की नहीं-समानता एक ऐसा तत्व है जिसकी मांग अधिकारों की भांति की जाती है । यह ऐसा गुन नहीं जिसका हम विवरण दे रहे हों । दूसरे शब्दों में, हम यह कहते हैं कि मनुष्यों के साथ समानता का बर्ताव होना चाहिए; यह नहीं कहते कि मनुष्य वास्तव में समान हैं ।

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हाँ, कभी-कभी हम लाक्षणिक अर्थ में मनुष्यों की समानता की बात अवश्य करते हैं । उदाहरण के लिए, हम यह कहते हैं कि ”सब मनुष्य जन्म से समान हैं” या ”ईश्वर ने सब मनुष्यों को समान बनाया है”; या यह कहते हैं कि ”मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, अतः इस दृष्टि से सब मनुष्य समान हैं ।”

इन सब बातों का अभिप्राय यह होता है कि सब मनुष्यों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए । हम यह दावा नहीं करते कि सब मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ, सुन्दरता या प्रतिभा, इत्यादि समान या बराबर हैं । कुछ भी हो, समानता विश्वास करने की चीज है, खोजने और पाने की चीज नहीं है ।

कभी-कभी समानता के विरोध में यह तक दिया जाता है कि समानता प्राकृतिक नियम (Natural Law) के विरुद्ध है परंतु ऐसे तर्क वास्तव में वही लोग देते हैं जिन्हें समाज में व्याप्त विषमताओं से लाभ प्राप्त हो, और जो इस लाभ को अपनी योग्यता का पुरस्कार मानते हुए दूसरों को उससे वंचित रखना चाहते हों ।

2. समानता एक आधुनिक विचार है- अमेरिकी क्रांति (1776) और फ्रांसीसी क्रांति (1789) से पहले तक समाज में धन-संपदा, पद-प्रतिष्ठा और शक्ति, आदि की जो विषमताएं प्रचलित थी, उन्हें स्वाभाविक माना जाता था परंतु आधुनिक युग के आरंभ से इन विषमताओं पर सवाल उठाकर यह पता लगाने की कोशिश की जाने लगी कि कौन-सी विषमताएं सामाजिक व्यवस्था की उपज हैं; इनमें से कौन-सी विषमताएं अनुचित है; और ऐसी किन-किन विषमताओं को सामाजिक कार्रवाई के द्वारा दूर किया जा सकता है?

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3. समानता का विचार सामाजिक परिवर्तन की मांग करता है- जे.जे. रूसो ने अपनी कृति ‘A Discourse on the Origin of Inequality -1755’ के अंतर्गत दो प्रकार की विषमताओं की चर्चा की है- प्राकृतिक विषमता और परंपरागत विषमता ।

मनुष्य-मनुष्य में आयु, स्वास्थ्य, बुद्धि, बल, इत्यादि की जो भिन्नताएं पाई जाती हैं, उसे प्राकृतिक विषमता (Natural Inequality) कहा जाता है । ये भिन्नताएं प्राकृतिक व्यवस्था की देन हैं और प्रायः अटल या अपरिवर्तनीय हैं । दूसरी ओर, परंपरागत विषमता (Conventional Inequality) धन-संपदा, पद-प्रतिष्ठा और शक्ति की भिन्नताओं को सूचित करती है ।

ये भिन्नताएं सामाजिक व्यवस्था की देन हैं और परिवर्तनीय हैं । उदाहरण के लिए, जब हम समानता के सिद्धांत के आधार पर यह कहते हैं कि गोरे और काले लोगों को शिक्षा, पद-प्रतिष्ठा, धन-सपंत्ति और सुख-सुविधाएं प्राप्त करने के एक-जैसे अवसर और अधिकार मिलने चाहिए तब हम निश्चय ही सामाजिक परिवर्तन की मांग कर रहे होते हैं । हम यह मांग नहीं करते कि सारे काले लोगों को गोरा बना दिया जाए ।

4. समानता का अर्थ अक्षरशः समानता नहीं है- समानता का अर्थ उचित और न्यायपूर्ण समानता है । इसका अर्थ यह नहीं कि आँख बंदकर सबको समान बना दिया जाए । उदाहरण के लिए, हम स्त्री-पुरुषों में ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ की मांग करते हैं क्योंकि हम रह सोचते हैं कि पुरुषों के समान कार्य करने वाली स्त्रियों को पुरुषों से कम वेतन देना अन्याय है; हम यह नहीं कहते कि किसी भी तरह का काम करने वाले सभी स्त्री-पुरुषों का वेतन बराबर कर देना चाहिए ।

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इसी प्रकार योग्यता, अनुभव और कर्मठता के आधार पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न पदों पर नियुक्त करना समानता के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं है । यदि विशेष योग्यता के लिए विशेष पुर२कार नहीं होगा तो अधिक परिश्रम या सूझ-बूझ से काम करने के लिए कोई प्रोत्साहन (Incentive) नहीं रह जाएगा ।

ऐसी हालत में हमारा समाज उन महान कलाकृतियों और वैज्ञानिक आविष्कारों से वंचित रह जाएगा जिनके लिए निरंतर साधना और लगन की जरूरत होती है । इसके अलावा, अक्षरशः समानता लाने से समाज वैसे भी उत्कृष्ट गुणों से वंचित हो जाएगा ।

भेदभाव (असमानता) का तर्कसंगत आधार:

समानता की सकारात्मक अवधारणा कुछ भेदभाव स्वीकार करती है, शर्त यह है कि यह भेदभाव समानता की पुष्टि करे, उसका हनन न करे ।

इस भेदभाव के दो तर्कसंगत आधार हो सकते है:

(क) भेदभाव का कोई युक्तियुक्त कारण अवश्य होना चाहिए, और

(ख) खुली प्रतिस्पर्धा की स्थिति में कमजोर पक्ष को कुछ रियायत दी जानी चाहिए ताकि ताकतवर पक्ष के मुकाबले उसे नुकसान न उठाना पडे ।

इसमें पहले नियम से यह संकेत मिलता है कि किसी को कोई भी अधिकार प्रदान करने या न करने का तर्कसंगत आधार अवश्य होना चाहिए, किसी के साथ मनमाने तौर पर दूसरों से भिन्न बर्ताव नहीं किया जा सकता । उदाहरण के लिए, मताधिकार उन सबको मिलना चाहिए जो उसका प्रयोग करने में समर्थ हों, जैसे कि प्रत्येक व्यस्क को ।

केवल सम्पन्न वर्गों को यह प्रदान करना अनुचित होगा, क्योंकि मतदान की क्षमता संपत्ति के स्वामित्व पर आश्रित नहीं है । तर्कसंगत आधार की कसौटी उन सभी मामलों में लागू करनी चाहिए जहाँ किसी एक वर्ग को कोई विशेषाधिकार प्रदान किया जाता है और शेष वर्गों को उससे वंचित रखा जाता है ।

एच॰जे॰ लॉस्की ने अपनी कृति ‘The State in Theory and Practice -1935’ में लिखा है कि जहाँ कहीं किसी एक वर्ग को ऐसे आधार पर समान अधिकारों से वंचित रखा जाता है कि उसके पास संपत्ति नहीं है या वह किसी जाति, धर्म या दल विशेष से संबद्ध नहीं है, वही विशिष्ट वर्गों के हित में तत्कालीन शक्ति-संतुलन को कायम रखने की इच्छा अवश्य छिपी रहती है परंतु तर्कबुद्धि की कसौटी पर ऐसी दलीलें खरी नहीं उतरतीं ।

अरस्तू ने दास-प्रथा की पैरवी की, लीक ने रोमन कैथोलिकों को, और हिटलर ने यहूदियों को नागरिकता से वंचित रखने का समर्थन किया परंतु ये सारे तर्क निहित स्वार्थ से प्रेरित थे, जिन्हें तर्कसंगत नहीं माना जा सकता ।

भेदभाव का दूसरा युक्तियुक्त आधार यह होगा कि अधिकारों का वितरण करते समय दुर्बल वर्गों को यथोचित छूट दी जाए । वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में जो वर्ग अपनी शिक्षा, प्रशिक्षण, इत्यादि देर से आरम्भ कर पाते हैं, उन्हें नौकरी देते समय आयु-सीमा में छूट देना समानता का उल्लंघन नहीं होगा ।

भारत में SC, ST और OBC के सदस्यों के लिए बहुत सारी विशेष व्यवस्थाएँ की गई हैं । यह सारी व्यवस्था इसलिए की गई है क्योंकि अपने सदियों के पिछड़ेपन के कारण ये सारे समूह अन्य नागरिकों के साथ समानता के स्तर पर मुकाबला नहीं कर सकते ।

अतः उनके लिए विशेष व्यवस्था तब तक कायम रखनी होगी जब तक यह निश्चित न हो जाए कि उनका समुचित सामाजिक-आर्थिक विकास हो चुका है और अब वे समानता के स्तर पर दूसरों का मुकाबला कर सकते हैं । इस तरह की व्यवस्थाएं सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action) के रूप में जानी जाती हैं ।

Essay # 2. समानता के सिद्धांत (Principles of Equality):

समानता के समाजवादी विचार की युक्तिसंगतता का पता लगाने के लिए टॉनी ने कुछ मौलिक प्रश्न उठाए हैं और उनका उत्तर भी दिया है:

मनुष्य के जीवन में समानता क्यों अभीष्ट है? यह एक दार्शनिक प्रश्न है । टॉनी ने इसका उत्तर देते हुए स्पष्ट किया है कि समानता का सिद्धांत ‘मानवीय आवश्यकताओँ की पूर्ति’ और ‘मानवीय क्षमताओं को फलीभूत करने’ के लिए सर्वथा उपयुक्त है । ‘जीवन और स्वाथ्य के साधन’ मनुष्य की मूल आवश्यकताएं हैं क्योंकि इनके बिना कोई भी स्त्री-पुरुष मनुष्य की तरह कार्य नहीं कर सकता ।

दूसरी ओर, मनुष्य की कुछ ऐसी मूल क्षमताएं हैं जिन्हें फलीभूत करना स्वतंत्रता के प्रयोग के लिए आवश्यक है । इन दोनों विशेषताओं के कारण सारे मनुष्य ‘समान आदर और सम्मान’ (Equal Respect and Consideration) के पात्र हैं । समानता की इस प्रकार व्याख्या करके टॉनी ने कल्याणकारी राज्य के विचार को बढावा दिया है ।

समकालीन पूंजीवादी या गैर-पूंजीवादी समाजों में जीवन की परिस्थितियों में कितनी विषमता पाई जाती है? यह एक समाज वैज्ञानिक प्रश्न है और इसका उत्तर पाने के लिए वर्तमान विषमताओं के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक और समकालीन तथ्यों की जानकारी आवश्यक होगी ।

क्या इन असमानताओं को दूर नहीं किया जा सकता या इन्हें दूर करने के लिए इतनी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी जितनी हम चुका नहीं सकते? यह एक नैतिक प्रश्न है । इस प्रश्न के उत्तर के लिए टॉनी ने उन तर्कों का विश्लेषण किया है जिन्हें साधारणतः असमानता के समर्थक प्रस्तुत करते हैं ।

टॉनी के विचार से, सामाजिक विषमताएं केवल इसलिए नहीं बनी हुई हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में अमीर लोग गरीबों का शोषण करते हैं बल्कि इसलिए भी बनी हुई हैं कि बहुत सारे गरीब लोग अमीरों का गुणगान करते हैं और इस तरह विषमता के प्रति पूज्यभाव को मान्यता देते हैं ।

विषमता के समर्थक साधारणतः दो संदर्भों में समानता का खण्डन करते हैं-दुख यह मान लिया जाता है कि सारे लोग वास्तव में समान हैं और जब यह तर्क दिया जाता है कि सभी मनुष्यों को बिना शर्त समान बना देना चाहिए ।

उपरोक्त दोनों तर्क समानता के सही विश्लेषण हैं । कोई भी गंभीर विचारक प्राकृतिक समानता (Natural Equality) की माँग नहीं करता क्योंकि सभी मनुष्य अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं एवं गुणों की दृष्टि से समान नहीं हो सकते । इस प्रकार समानता के आलोचक ‘ऐसी जगह बमबारी करते हैं जहाँ कोई बैठा ही नहीं है ।’

अर्थात् वे ऐसे तर्क को काटने की कोशिश करते हैं जो किसी ने दिया ही नहीं था । समानता की उपयुक्त व्याख्या यह होगी कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ तब तक समान व्यवहार करना चाहिए जब तक उसके साथ असमान व्यवहार करने के पर्याप्त कारण मौजूद न हों ।

 

भेदभाव का तर्कसंगत आधार:

टॉनी ने समानता के उपयोगितावादी विचार का खण्डन करते हुए सब मनुष्यों की ‘समान नैतिक मूल्यवता’ (Equal Moral Worth) के सिद्धांत को अपनाया है जिसका मूल स्रोत काण्ट के विचार में निहित है और जिसे ग्रीन ने बढ़ पचा दिया ।

अतः टॉनी अंकगणितीय समानता (Arithmetical Equality) या सर्वथा समान बर्ताव (Identical Treatment) वाली समानता के स्थान पर ‘सभ्यता के साधनों का सामान्य विस्तार’ (A General Diffusion of the Means of Civilization) वाली समानता का समर्थन करता है, जिससे स्वतंत्रताओं का विस्तार होगा आत्म-विकास को बढावा मिलेगा और समान में ‘पर्वत-शिखर और घाटी के बीच की दूरी’ कम हो सकेगी ।

टॉनी का कहना है – ”आधुनिक समाज की समस्या अनुपातों की समस्या है, परिमाणों की नहीं, न्याय की समस्या है, खुशहाली की नहीं ।”

सब मनुष्यों की ‘समान नैतिक मूल्यवता’ के सिद्धांत पर आधारित सामाजिक संगठन एक सामान्य संस्कृति को बढावा देगा । अतः टॉनी की चिंतन प्रणाली में ‘सामाजिक संसक्ति और सुदृढ़ता’ (Social Cohesion and Solidarity) के प्रति गहरा सरोकार दिखाई देता है । पूंजीवाद प्रणाली में सामाजिक एकता का अभाव रहा है क्योंकि उसमें ऐसी नैतिकता न तो थी, न हो सकती थी जो ‘सामान्य उद्देश्य’ से प्रेरित हो ।

स्वतंत्रता और समानता:

अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Equality’ में टॉनी ने यह विचार व्यक्त किया है कि स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों में कोई मौलिक अंतर नहीं है । यदि इन दोनों के युक्तियुक्त अर्थ पर विचार किया जाए तो ये दोनों एक दूसरे की पूरक सिद्ध होंगे ।

टॉनी के शब्दों में – ”ग्रेट ब्रिटेन में साधारणतः स्वतंत्रता और समानता को विरोधाभाषी माना जाता है । समानता का अर्थ है, व्यक्ति की शक्ति के विस्तार पर सामाजिक प्रतिबंधों की सुविदित स्वीकृति । इसका मतलब है, सार्वजनिक हित के लिए, सार्वजनिक कार्रवाई के द्वारा सपदा और शक्ति की घोर विषमताओं की रोकथाम । अतः यदि स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने अवसरों के अनुसार अपनी असीम इच्छाएं पूरी करने के लिए स्वतंत्र होगा तो ऐसी स्वतन्त्रता न केवल आर्थिक और सामाजिक समानता के साथ बल्कि नागरिक और राजनीतिक समानता के साथ भी नहीं चल सकती क्योंकि वह बलशाली को अपनी शक्ति का भरपूर लाभ उठाने से रोकती है परंतु इस अर्थ में बड़ी मछली की स्वतंत्रता छोटी मछली की मृत्यु का संदेश बन जाएगी । अतः यह संभव है कि समानता को स्वतंत्रता का विरोधी न समझा जाए, बल्कि उसे स्वतंत्रता की एक विशेष व्याख्या के विरुद्ध समझा जाए ।”

इस प्रकार स्वतंत्रता और समानता के सम्बन्ध में टॉनी ने मुख्य रूप से घोर आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को दूर करने पर जोर दिया है, और लोक हित के नजरिए से व्यक्ति की आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के विस्तार पर प्रतिबंध लगाने को कहा है । ये प्रतिबंध स्वतंत्रता की संतुलित व्याख्या के विरुद्ध नहीं होंगे ।

जॉन मेनार्ड केन्स के विचार:

केन्स ने अपने आर्थिक सिद्धांतों के तहत इस प्रश्न को उठाया है कि राष्ट्रीय सरकारों को आर्थिक मामलों में क्या भूमिका निभानी चाहिए ? केन्स समाज की आर्थिक गतिविधियों में राज्य का हस्तक्षेप केवल इसलिए चाहता है ताकि मुक्त उद्यम और चयन के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उपर्युक्त ढांचा जुटाया जा सके ।

अतः पूर्ण रोजगार बनाए रखने और निर्धनता की समस्या सुलझाने के लिए उसने राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन किया और उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें स्थिर रखने के लिए उसने उत्पादक संघों जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका पर जोर दिया ।

राजनीति-सिद्धांत के क्षेत्र में केन्स ने कल्याणकारी राज्य (Welfare State) के विचार को आगे बढाया । जहाँ मिल, ग्रीन, लॉस्की, हॉबहाउस और टॉनी ने कल्याणकारी राज्य के लिए मुख्यतः नौतिक तर्क का सहरा लिया वहीं केन्म ने इसके लिए युक्तियुक्त आर्थिक नीति (Sound Economic Policy) की तलाश की ।

 

Essay # 3. समानता के विविध आयाम (Dimensions of Equality):

समानता के सिद्धांत को सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है । यही कारण है कि हम समानता के कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक आयामों की चर्चा करते हैं । वास्तव में ये सभी आयाम एक-दूसरे के साथ निकट से जुड़े हैं ।

i. कानूनी समानता (Legal Equality):

आधुनिक युग के आरंभ में समानता की मांग पहले-पहल कानूनी समानता के रूप में उठाई गई थी । इसका अर्थ यह था कि समाज में सभी व्यक्तियों को जन्म, दैहिक या मानसिक क्षमताओं तथा अन्य भिन्नताओं के बावजूद समान कानूनी हैसियत (Equal Legal Status) प्रदान की जाए ।

जे.जे. रूसो ने अपनी विख्यात कृति ‘The Social Contract -1762’ के अंतर्गत लिखा था कि सभी नागरिकों को कानूनी समानता प्रदान करना नागरिक समाज (Civil Society) की प्रमुख विशेषता है ।

”राज्य का मूल सिद्धांत यह है कि वह हमें कानूनी व्यक्तित्व के एक-जैसे मुखौटे पहना देता है । हममें चाहे जो भी भिन्नताएं रही हों, कानून के समक्ष हम सबका महत्व एक जैसा होता है । अतः समानता के सिद्धांत का अर्थ यह है कि मुझे अधिकारों के रूप में जो भी परिस्थितियां प्रदान की जाती हैं, वे उतनी ही मात्रा में दूसरों को भी प्रदान की जाएंगी, और जो अधिकार दूसरों को दिए जाते हैं, वे मुझे भी दिए जाएंगे ।”

आज के युग में कानूनी समानता के सिद्धांत को स्वाभाविक रूप में मान्यता दी जीती है, परंतु इसे यह मान्यता प्राप्त होने में कई युग लगे हैं । प्राचीन समाजों में कानूनी समानता का विचार सर्वथा अज्ञात था ।

उदाहरण के लिए, मनुस्मृति के अंतर्गत एक ही अपराध के मामले में विभिन्न वर्णों (Castes) के लिए भिन्न-भिन्न दंड की व्यवस्था की गई है । इसी प्रकार अरस्तू ने भी यह सुझाव दिया है कि एक ही अपराध के लिए स्वतंत्रजन (Freeman) की तुलना में दास (Slave) को अधिक कठोर दंड देना चाहिए ।

फ्रांसीसी क्राति (1789) से पहले वहाँ कुलीन व्यक्ति तो न्यायालय में अपनी ओर से साक्ष्य (Evidence) प्रस्तुत कर सकता था परंतु जनसाधारण को अपने पक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं था । इंग्लैंड में दास की कोई कानूनी हैसियत (Legal Capacity) नहीं थी, अर्थात् कानून की दृष्टि में उसका कोई व्यक्तित्व नहीं था ।

कानूनी समानता की एक अभिव्यक्ति ‘कानून के समक्ष समानता’ (Equality before the Law) है । जे.आर. ल्यूक्स ने ‘Principles of Politics -1976’ के अंतर्गत ‘कानून के समक्ष समानता’ की बहुत सटीक परिभाषा दी है ”कानून के समक्ष समानता यह विश्वास नहीं दिलाती कि कानून सबसे साथ समान बर्ताव करेगा, बल्कि यह निश्चित करती है कि कानून तक सबकी समान पहुँच होगी, और केवल उन्हीं बातों पर विचार किया जाएगा जिन्हें कानून के अंतर्गत प्रासंगिक (Relevant) माना जाता है । कोई इतना छोटा नहीं है कि वह न्यायालयों की शरण में न जा सके; कोई इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह न्यायालयों के प्रति उत्तरदायी न हो । कोई भी व्यक्ति न्यायालयों की सहायता मांग सकता है, और हर कोई उनकी आज्ञा का पालन करने को बाध्य है । न्यायालय सभी विवादों का निर्णय दोनों पक्षों की सुनवाई करने के बाद ही, उचित और निष्पक्ष भाव से, बिना किसी भय या पक्षपात के देंगे ।”

अतः कानूनी समानता का अर्थ यह है सभी नागरिक समान रूप से कानून के अधीन होंगे (Equal Subjection to the Law) और सभी नागरिकों को कानूनों का समान संरक्षण (Equal Protection to the Law) प्राप्त होगा ।

ल्यूकस ने चेतावनी दी है – ”यदि न्यायालय में एक पक्ष का मामला ढीले-ढाले ढंग से पेश किया जाता है, और दूसरे का मामला पैसे के बल पर सबसे बढिया वकील की सेवाएं प्राप्त करके बहुत ही प्रभावशाली ढंग से पेश किया जाता है, तो इससे न्याय के उद्‌देश्य की सिद्धि नहीं होती ।”

ऐसी हालत में न्यायाधीश पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ जाता है । जैसा कि ल्यूकस ने आगे लिखा है – ”हम न्यायाधीशों पर इस बात का अत्यधिक भरोसा करते हैं कि भिन्न-भिन्न पक्षों के वकीलों की योग्यताओं में चाहे जितना भी अंतर हो, फिर भी वे प्रस्तुत मामले के असली गुण-दोष का पता लगा लेंगे परंतु हम कानूनी सहायता के द्वारा यह निश्चित करके ठीक ही करते हैं कि न्यायालयों तक समान पहुँच कम-से-कम खोखली समानता तो न रह जाए, और कुछ न बोल पाने या गरीबी की वजह से कोई सुनवाई से ही वंचित न रह जाए ।”

यह मामला यही खत्म नहीं हो जाता । स्वयं न्याया धीशों के अपने कोई-न-कोई सामाजिक विचार होते हैं । अधिकांश प्रतिभाशाली और सफल वकील तथा न्यायाधीश समाज के उच्च वर्गों से आते हैं, और यह संभव है कि उनमें से अधिकांश मन-ही-मन धनवान वर्गों के हितों में आस्था रखते हों ।

ऐसी हालत में वे कानून और न्याय की व्याख्या इस ढंग से कर सकते हैं जिससे गरीब को सच्चा न्याय न मिल पाए । हर्ष का विषय है कि भारत की न्यायपालिका में अब सामाजिक न्याय (Social Justice) को उचित महत्व दिया जा रहा है जिससे कानूनी समानता को तात्त्विक समानता (Substantive Equality) का रूप देने की दिशा में प्रगति के संकेत मिलने लगे हैं ।

ii. राजनीतिक समानता (Political Equality):

राजनीतिक समानता का अर्थ है, नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों (Political Rights) की समानता । इसका अभिप्राय है, ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ (One Man, One Vote) के नियम का पालन । इनमें यह विचार भी निहित है कि किसी व्यक्ति को जन्म, लिंग या धर्म के आधार पर राजनीतिक पद प्राप्त करने से नहीं रोका जाएगा ।

मतलब यह कि समाज में कोई ऐसा विशेषाधिकारयुक्त वर्ग (Privileged Class) नहीं होगा जिसे शासन का अनन्य अधिकार हो । राजनीतिक समानता का सिद्धांत इस विश्वास पर टिका है कि मनुष्य स्वयं एक विवेकशील प्राणी है और वह राजनीतिक सूझबूझ रखता है, चाहे भिन्न-भिन्न मनुष्यों के बाहुबल, बुद्धि-बल, शिक्षा या संपदा में कितना ही अतर क्यों न हो !

इसके साथ यह मान्यता भी जुडी है कि जब सब मनुष्यों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे तब वे सर्वहित (Common Good) को सर्वोत्तम अभिव्यक्ति प्रदान कर सकेंगे, और नीति-निर्माताओं को सर्व-हित के अनुरूप सार्वजनिक नीतिक बनाने के लिए प्रेरित तथा विवश कर सकेंगे ।

राजनीतिक समानता की मांग कानूनी समानता की मांग के साथ शुरू हुई । शुरू-शुरू में इन दोनों में कोई फर्क नहीं था । उदारवादी सिद्धांत की विकसित अवस्था में राजनीतिक समानता को जनसाधारण के लोकतंत्रीय अधिकारों के रूप में पहचाना जाने लगा, जैसे कि सार्वजनीन मताधिकार (Universal Franchise), बिना भय या पक्षपात के कोई भी राजनीतिक मत रखने और उसे व्यक्त करने की समान स्वतंत्रता और राजनीतिक निर्णयों को प्रभावित करने के लिए संघ बनाने का समान अधिकार ।

राजनीतिक समानता का आरंभ एक प्रगतिशील विचार के रूप में हुआ । इसका परिणाम पश्चिमी जगत में लोकतंत्र (Democracy) की स्थापना के रूप में सामने आया परंतु आगे चलकर यह अनुभव किया गया कि यह विचार सर्वसाधारण की आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं था क्योंकि जैसे-जैसे पूंजीवाद (Capitalism) का विकास हुआ, वैसे-वैसे समाज में सामाजिक-आर्थिक विषमताएं बढ़ती गईं ।

इन्हें दूर करने के लिए ही सामाजिक-आर्थिक समानता की मांग प्रस्तुत की गई । प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक अलेक्सी द ताकवील ने ‘Democracy in America -1835’ के अंतर्गत लिखा कि राजनीतिक समानता और आर्थिक विषमता में जो विसंगति पाई जाती है, उसे लोकतंत्रीय समाज अनिश्चित काल तक स्वीकार नहीं करेंगे ।

अतः उसने यह मत प्रकट किया कि लोकतंत्रीय विश्व क्रांति का पहला दौर राजनीतिक परिवर्तन का दौर था, परंतु वह अनिवार्यतः उसके दूसरे दौर को जन्म देगा जो मुख्यतः सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का दौर होगा ।

iii. सामाजिक-आर्थिक समानता (Socio-Economic Equality):

सामाजिक-आर्थिक समानता के विचार में समानता के सामाजिक और आर्थिक पक्ष एक-दूसरे के साथ गुँथे हुए हैं क्योंकि इन दोनों में निकट संबंध पाया जाता है । देखा जाए तो कानूनी समानता और राजनीतिक समानता अपने मूल रूप में औपचारिक समानता (Formal Equality) की सुचक रही हैं जिसे ‘भेदभाव के अभाव’ (Absence of Discrimination) के रूप में व्यक्त कर सकते हैं, परंतु सामाजिक और आर्थिक समानता तात्त्विक समानता (Substantive Equality) की मांग करती हैं जो सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा-शक्ति हैं ।

कानूनी-राजनीतिक समानता का विचार आरंभिक उदारवाद का नारा था; सामाजिक-आर्थिक समानता का विचार समाजवाद के लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया । सामाजिक-आर्थिक समानता की संकल्पना समानता के आरंभिक विचार की तर्कसंगत परिणति थी । अतः यह एक प्रगतिशील विचार था जिसे आगे चलकर सकारात्मक उदारवादी सिद्धांत (Positive Liberal Theory) ने अपना लिया ।

यह बात महत्वपूर्ण है कि कानूनी-राजनीतिक समानता की मांग नए मध्यवर्ग-अर्थात् उद्योग-व्यापार के संचालक-वर्ग के अधिकारों पर बल देने के लिए प्रस्तुत की गई थी; सामाजिक-आर्थिक समानता की मांग कामगार वर्ग के अधिकारों पर बल देने के लिए उठाई गई । कानूनी-राजनीतिक समानता ने पूंजीवाद की स्थापना में योग दिया सामाजिक-आर्थिक समानता का ध्येय पूंजीवाद की त्रुटियों को दूर करने के लिए समाजवाद को बढावा देना था ।

सामाजिक-आर्थिक समानता के समर्थकों ने यह तर्क दिया कि कानूनी-राजनीतिक समानता से केवल संपत्तिशाली वर्ग को लाभ हुआ है; सर्वसाधारण को अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए सामाजिक-आर्थिक समानता की स्थापना जरूरी है ।

सामाजिक-आर्थिक समानता केवल उन विषमताओं में कटौती (Reduction of Inequalities) की मांग करती हैं जो सामाजिक अन्याय (Social Injustice) को जन्म देती हैं । उदाहरण के लिए, कानूनी-राजनीतिक समानता का यह अर्थ लगाया जाता है कि शिक्षा, रोजगार, यात्रा, मनोरंजन, इत्यादि के दरवाजे बिना किसी भेदभाव के (Without Discrimination) सब लोगों के लिए खुले होंगे परंतु इससे यह निश्चित नहीं होता कि इनका लाभ उठाने के अवसर समाज के सभी वर्गों के लिए सुलभ होंगे ।

सामाजिक-आर्थिक समानता यह मांग करती है कि जीवन को सुखमय, सम्मानपूर्ण और उन्नत बनाने के साधन निर्धन और वंचित वर्गों को भी सुलभ कराए जाएं; उनकी विवशता उनके शोषण (Exploitation) का कारण न बन जाए ।

सामाजिक-आर्थिक समानता के विचार ने ही आधुनिक राज्य को कल्याणकारी राज्य (Welfare State) में परिणत कर दिया है । संक्षेप में, सामाजिक-आर्थिक समानता बाजार अर्थव्यवस्था से पैदा होने वाले असंतुलन को सुधारने का साधन है ।