प्राचीन भारत में राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति और कार्य | Origin, Nature and Functions of State in Ancient India.

Contents:

  1. प्राचीन भारत के राज्य का परिचय (Introduction to Ancient Indian States)
  2. प्राचीन भारत के राज्य संस्था की उत्पत्ति (Origin of State Institution)
  3. प्राचीन भारत के  राज्य का स्वरूप (Nature of Ancient Indian States)
  4. प्राचीन भारत के  राज्य का उद्देश्य तथा कार्य (Purpose and Work of Ancient Indian States)
  5. प्राचीन भारत के राज्य के प्रकार (Types of Ancient Indian States)
  6. राज्य तथा धर्म (State and Religion)


1. प्राचीन भारत के राज्य  का परिचय (Introduction to Ancient Indian States):

प्राचीन भारत में प्रारम्भ से ही सामाजिक व्यवस्था एवं सुरक्षा को बनाये रखने के लिये राज्य की आवश्यकता को समझा गया था । ऐसी अवधारणा थी कि यदि राज्य अपराधियों को दण्ड नहीं देता तो समाज में अव्यवस्था (मात्स्यन्याय) उत्पन्न हो जायेगी ।

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राजदण्ड के डर से ही मनुष्य न्याय के मार्ग पर चलते हैं तथा न्याय ही उनका रक्षक हैं । महाभारत में कहा गया है कि- ‘यदि दण्डधारक राजा पृथ्वी पर न हो तो सबल निर्बल का भक्षण उसी प्रकार करेंगे जिस प्रकार जल में बड़ी मछली छोटी मछली का भक्षण करती है ।’

कौटिल्य ने भी इस मत की पुष्टि करते हुए इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं- “व्यवस्था के अभाव में मात्स्यन्याय की स्थिति उत्पन्न होती है, जैसे बड़ी मछलियाँ, छोटी मछलियों के खा जाती हैं वैसे ही बलवान मनुष्य निर्बलों को खा जाते है ।” इस प्रकार प्राचीन भारतीय मनीषियों ने सुशासन के लिये राज्य एवं राजा के अस्तित्व को अपरिहार्य माना है ।


2. प्राचीन भारत के राज्य संस्था की उत्पत्ति (Origin of State Institution):

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राज्य की उत्पत्ति विषयक प्रामाणिक सामग्रियों का अभाव सा है । प्राय: विभिन्न समय में विभिन्न विचारकों ने इस समस्या पर प्रकाश डाला है ।

यहाँ हम कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का विवेचन करेंगे:

दैवी उत्पत्ति:

भारतीय संस्कृति धर्मप्राण है जहाँ प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के पीछे ईश्वर की सत्ता अथवा प्ररेणा को स्वीकार किया गया है । राज्य संस्था भी इसका अपवाद नहीं है । इसकी उत्पत्ति संबन्धी परम्परागत मत इसे दैवी मानता है ।

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इस प्रकार के विचार हमें प्राचीन साहित्य में यंत्र-तंत्र प्राप्त होते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि देवासुर संग्राम में देवता बारम्बार पराजित होते गये । तब उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि राजा के अभाव में उनकी पराजय हो रहीं है ।

अत: उन्होंने सोम को अपना राजा बनाकर उसके नेतृत्व में विजय प्राप्त की । एक अन्य स्थान पर वर्णित है कि सभी देवताओं ने मिलकर इन्द्र को राजा बनाया था । महाभारत में उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में न राज्य था, न राजा, न दण्ड था न दाण्डिक ।

लोग अपनी सहज धर्म भावना से परस्पर सुख एवं शान्तिपूर्वक निवास करते थे । कालान्तर में इस व्यवस्था की समाप्ति हो गयी तथा लोग स्वार्थी, लोभी तथा विलासी हो गये । समाज में घोर अराजकता फैल गयी । बलवान निर्बलों को उत्पीड़ित करने लगे ।

देवता भी यह देखकर घबड़ाये तथा उन्होंने इस व्यवस्था से छुटकारा पाने का निश्चय किया । लोग ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव जाति के कल्याण के निमित्त एक आचारशास्त्र बनाकर उसे किसी राजा द्वारा कार्यान्वित कराना आवश्यक है । अत: उन्होंने एक विधान तैयार किया तथा मानस पुत्र विरजस को उत्पन्न कर उसे राजा बना दिया ।

जनता ने उसकी आज्ञाओं का पालन करना स्वीकार किया । इस प्रकार राज्य तथा राजा की उत्पत्ति हुई । महाभारत में अन्यत्र वर्णन मिलता है कि प्रारम्भ में लोग आपस में एक समझौता करके सुख और शान्तिपूर्वक रहते थे जो बाद में भंग हो गया और अराजक परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयीं । चारों ओर संघर्ष एवं भय का वातावरण उत्पन्न हो गया ।

अत: लोग मिलकर ब्रह्माजी के पास गये तथा उनसे एक योग्य राजा प्रदान करने हेतु प्रार्थना किया । ब्रह्माजी ने मनु को राजा बनाया । उन्होंने एक धर्मशास्त्र भी बनाया तथा उसी के अनुसार शासन करने का आदेश दिया । लोगों ने मनु के राजा स्वीकार किया तथा उनकी सेवाओं के बदले में उन्हें कर देने का वचन दिया ।

इन दोनों विवरणों के देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि राजा के पहले आपसी समझौते द्वारा लोगों ने समाज में शान्ति और व्यवस्था कायम करने का प्रयास किया । किन्तु यह सफल नहीं हो सका । अन्तत: ईश्वर-प्रदत्त शासक ने आकर समाज में शान्ति और व्यवस्था स्थापित किया ।

बौद्ध ग्रन्थ दीर्घनिकाय में वर्णित है कि समाज में पहले स्वर्णयुग था जिसमें मनुष्य धैर्यपूर्वक सुखी जीवन व्यतीत करते थे । किसी प्रकार इस आदर्श व्यवस्था का पतन हो गया तथा चतुर्दिक अराजकता एवं अव्यवस्था व्याप्त हो गयीं ।

संयोगवश महाजनसम्मत नामक एक योग्य तथा अयोनिज पुरुष का जन्म हुआ । जनता ने उससे राजा बनने की प्रार्थना की जिसे उसने स्वीकार कर लिया । फलस्वरूप जनता ने उसे राजा बनाया और उसे धान्य का एक भाग कर के रूप में देना स्वीकार कर लिया ।

जैन ग्रन्थ आदि पुराण में भी इससे मिलता-जुलता विवरण प्राप्त होता है । तदनुसार पृथ्वी अति प्राचीन समय में ‘भोगभूमि’ थी जहाँ कल्पवृक्षों के द्वारा सभी जनों की इच्छायें तथा आवश्यकतायें पूर्ण हो जाती थीं । कालान्तर में इसका अन्त हुआ तथा अराजक परिस्थितियों का बोल-बाला हो गया ।

अन्ततोगत्वा प्रथम तीर्थकंर ऋषभदेव द्वारा व्यवस्था स्थापित की गयी । उन्होंने राजा तथा अधिकारियों की सृष्टि की । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी राजा की दैवी उत्पत्ति की ओर प्रसंगत: संकेत किया गया है । प्रथम अधिकरण के तेरहवें अध्याय में दो गुप्तचरों के बीच वार्त्तालाप के प्रसंग में इस तथ्य का उल्लेख मिलता है । तदनुसार मात्स्यन्याय से दु:खी होकर प्रजा ने मनु को अपना राजा बनाया ।

प्रजा ने स्वत: यह विधान भी बनाया कि राजा प्रजा से कर प्राप्त करेगा । राजा इन्द्र और यम का प्रतिनिधि होता है । मनुस्मृति में भी राज्य अथवा राजा की दैवी उत्पत्ति का विवरण दिया गया है । इसके अनुसार ‘इस संसार को बिना राजा के होने पर बलवानों के डर से प्रजा के इधर-उधर भागने पर सम्पूर्ण चराचर की रक्षा के लिये ईश्वर ने राजा की सृष्टि की ।

इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा तथा कुबेर का सारभूत नित्य अंश लेकर उसने राजा को बनाया । मनु आगे लिखते हैं कि बालक राजा का भी ‘यह तो मनुष्य है’ ऐसा मानकर अपमान कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि यह राजा के रूप में बहुत बड़ा देवता होता है । इस प्रकार मनु राज्य (राजा) की दैवी उत्पत्ति के पूर्ण समर्थक हैं ।

समझौते का सिद्धान्त:

पाश्चात्य विचारकों हॉब्स तथा लॉक की भाँति प्राचीन भारतीय चिन्तक भी राज्य की उत्पत्ति समझौते द्वारा मानते हैं । महाभारत तथा दीघनिकाय के विवरणों से स्पष्ट है कि विरजस अथवा महाजनसम्मत प्रजा को सहमाते से ही राजा हुए थे ।

महावस्तु नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी लोगों द्वारा आपसी सहमति से राजा के चुनाव का विवरण प्राप्त होता है । तदनुसार प्रारम्भ में लोग आदर्श का जीवन व्यतीत करते थे । बाद में स्थिति में गिरावट आई तथा परस्पर लोग परिवार एवं सम्पत्ति के लिए संघर्ष करने लगे ।

अन्ततः उन्होंने अपने बीच के सबसे गुणवान् एवं शक्तिशाली (महासम्मत) को राजा चुना । प्रजा की सहमति से उसे दुर्जनों को दण्डित करने तथा सज्जनों को पुरस्कृत करने का कार्य सौंपा गया । धर्म सूत्रकारों की इस व्यवस्था के पीछे कि- ‘राजा अपनी सेवाओं के बदले प्रजा से धान्य का षष्ठांश कर प्राप्त करता है’ भी सहमति का भाव अन्तर्निहित है ।

हिन्दू विचारकों का समझौते द्वारा राज्य की उत्पत्ति का सिद्धान्त यूरोपीय विचारकों- हॉब्स, लॉक तथा रूसों के सिद्धान्त के समान ही है । किन्तु समझौते अथवा सहमति द्वारा राज्य की उत्पत्ति का सिद्धान्त भारतीय विचारकों में अधिक प्रबल नहीं हुआ । संभवतः राज्य की उत्पत्ति के लिये वे इस सिद्धान्त को अनुपयुक्त मानते थे ।

समझौते द्वारा राज्य की उत्पत्ति का उस समाज में संभव है जहाँ लोग एक दूसरे के अधिकारी तथा कर्त्तव्यों का सम्मान करना जानते हों, न कि उस समाज में जहाँ जंगल का राज्य हो । इससे यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि प्रकृति की अवस्था में रहने वाले लोगों में अचानक किस प्रकार आपसी समझौता हो सका । अत: यह सिद्धान्त तार्किक नहीं लगता ।

कुछ विद्वानों ने राज्य की उत्पत्ति शक्ति अथवा प्रभाव द्वारा समझाने के प्रयास किये हैं । तदनुसार प्राचीन समय में लोगों ने किसी पुरोहित, जिसमें देवताओं को प्रसन्न करने की शक्ति थी, किसी वैद्य जो रोगों को दूर कर सकता था अथवा किसी जादूगर जिसमें चमत्कारिक कार्यों को करने की शक्ति थी, को विशिष्ट अधिकार साँप दिये ।

ऐसे व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित शक्ति के बल पर कालान्तर में अपनी प्रभाव बढ़ाकर राजा वन बैठे । किन्तु इस प्रकार का मत राज्य जैसी संस्था की उत्पत्ति के प्रश्न को पूरी तरह सुलझा नहीं सकता । संभव है कुछ आदिम जातियों में इस प्रकार के तत्व राज्य की उत्पत्ति में सहायक रहे हों ।

ऐतिहासिक सिद्धान्त:

ए. एस. अल्तेकर जैसे विद्वान राज्य की उत्पत्ति का प्रश्न ऐतिहासिक ढंग से हल करने का प्रयास करते हैं । उनके अनुसार आर्यजातियों में पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार के बीज से ही क्रमशः राज्य संस्था की उत्पत्ति संभव हुई । तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के आधार पर पता चलता है कि अपने मूल-स्थान में रहते हुए भी आर्य लोग संयुक्त परिवारों में रहते थे ।

इनमें पितामह, पिता, चाचा, भतीजे, पुत्र, पुत्रवधू आदि एक साथ निवास करते थे । होमर के विवरण से पता चलता है कि कभी-कभी एक ही परिवार में दो-तीन सौ सक लोग रहा करते थे । परिवार के स्वामी का उसके सदस्यों पर पूर्ण एवं निरंकुश अधिकार होता था ।

वह अपनी इच्छा से किसी भी सदस्य को बन्धक रख सकता, बेच सकता, अपराध करने पर अंग-भग कर सकता अथवा उसकी हत्या तक करा सकता था । रोम में परिवार के स्वामी को इस प्रकार के अधिकार प्राप्त थे । कुछ वैदिक मन्त्रों से पता चलता है कि यहाँ भी परिवार के स्वामी पिता को अपने अधीन सदस्यों के ऊपर इसी प्रकार के अनियंत्रित अधिकार मिले हुए थे ।

ऋग्वेद में एक स्थान पर ऋज्रास्व का उल्लेख है जिसकी लापरवाही से उसके पिता की एक-सौ भेड़ों को कोई भेड़िया खा गया था ।  इस पर क्रुद्ध होकर पिता ने उसे अन्धा बना दिया । कालान्तर में अश्विनी कुमारों की कृपा से उसे दृष्टि मिली । एक अन्य स्थल पर शुन:शेप की कथा मिलती है जिसे पिता ने परिवार को भुखमरी से बचाने के लिये बेच दिया था ।

इस प्रकार के अनेक उदाहरणों से सिद्ध होता है कि पिता, राजा की भाँति परिवार के सदस्यों पर शासन करता था । कालान्तर में संयुक्त परिवार के विस्तृत होने के साथ ही साथ पिता के अधिकारों में भी वृद्धि हुई । एक ही गाँव में कई संयुक्त कुल निवास करते थे जो अपने को समान पूर्वज की सन्तान मानते थे ।

जो परिवार सबसे बड़ा होता था उसका स्वामी अन्य ग्रामवृद्धों की सहायता से गाँव का शासन चलाता था । उसे सभी सम्मान देते थे । ऋग्वेद से सूचित होता है कि आर्य समाज में कुटुम्ब, जन्मन, विश तथा जन होते थे । जन्मन से तात्पर्य उस ग्राम से है जिसमें समान पूर्वज से अपनी उत्पत्ति मानने वाले परिवार रहते थे ।

कई ग्रामों का समूह ‘विश्’ कहलाता था जिसका प्रमुख ‘विशूपति’ होता था । कई ‘विश्’ मिलकर ‘जन’ का निर्माण करते थे । ‘जन’ के अध्यक्ष को जनपति अथवा राजा कहा जाता था । इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में भी संयुक्त कुटुम्ब पद्धति ही राज्य की उत्पत्ति में सहायक सिद्ध हुई ।

कुटुम्ब के विस्तार के साथ-साथ उसके अधिपति के अधिकारों में भी वृद्धि होती गयी तथा अन्ततोगत्वा उसने राजा का स्वरूप धारण कर लिया । आर. एस. शर्मा का विचार है कि राज्य संस्था की उत्पत्ति के पीछे निजी सम्पत्ति, परिवार तथा वर्ण या जाति का मुख्य हाथ रहा है । प्रारम्भ में ये संस्थायें नहीं थीं जैसा कि प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से पता चलता है ।

कालान्तर में मनुष्य ने इनका विकास किया तथा इन्हीं की रक्षा के लिये राज्य संस्था का उदय हुआ । कृषि कर्म के आविष्कार के फलस्वरूप मनुष्य अधिकाधिक उत्पादन करने लगा । उसने अपना अलग-अलग घर बनाया । अधिक से अधिक अन्न संग्रहीत करने के लोभ में लोग एक-दूसरे की सम्पत्ति हड़पने लगे जिसकी रक्षा के निमित्त राजा की आवश्यकता पड़ी ।

इसी प्रकार जब समाज में चारों वर्ण अस्तित्व में आये तो उनको परस्पर व्यवस्थित रखने के निमित्त राजसत्ता की आवश्यकता प्रतीत हुई । पुराणों के विवरण से पता लगता है कि ब्रह्मा ने वर्णाश्रम धर्म की स्थापना की, किन्तु लोग अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते थे तथा परस्पर संघर्षरत हो गये ।

अत: वे मनु के पास गये जिन्होंने प्रियव्रत तथा उत्तानपाद नामक दो राजाओं को उत्पन्न कर उन्हें दण्ड देने की शक्ति से युक्त किया । उन्होंने समाज के वर्णों में व्यवस्था स्थापित की । वायुपुराण में तो प्रथम शासक मनु को ही समाज में वर्णधर्म एवं नैतिक व्यवस्था को स्थापित करने का श्रेय प्रदान किया गया है ।

विष्णुपुराण में वर्णित है कि लोगों की मुख्य समस्या यह थी कि बेईमान लोग अपने पड़ोसियों की सम्पत्ति का अपहरण करते थे । अत: प्रथम शासक पृथु ने इस कठिनाई का निवारण किया । इन विवरणों से यही सिद्ध होता है कि लोगों की सम्पत्ति की रक्षा के लिये ही राज्य अथवा राजा का उदय हुआ था । इसी प्रकार वर्ण तथा परिवार की रक्षा के लिये भी राजा की आवश्यकता थी ।

स्मृति गद्यों में तो राजा का मुख्य कर्त्तव्य चतुर्वर्णों के अधिकारों और कर्त्तव्यों की रक्षा बताया गया है । अत: यही निष्कर्ष निकलता है कि सम्पत्ति, परिवार तथा वर्ण (जाति) ने प्राचीन भारत में राज्य की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है ।


3. प्राचीन भारत के  राज्य का स्वरूप (Nature of Ancient Indian States):

प्राचीन भारतीय विचारकों की राज्य विषयक अवधारणा से स्पष्ट है कि वे इसे एक जनहितकारी संस्था मानते थे जिसका आविर्भाव प्रजा के भौतिक तथा नैतिक उन्नति के लिये हुआ था ।  महाभारत में मात्स्यन्याय का जो चित्रण मिलता है उसके आधार पर हाल ही में स्पेलमैन नामक विद्वान् ने यह मत व्यक्त किया है कि भारतीय विचारक राज्य को एक अपरिहार्य बुराई मानते थे जिसे किसी अन्य विकल्प के अभाव में मनुष्य को अपनी रक्षा के लिये सहन ही करना था ।

वह आगे लिखता है कि भारतीय विचारधारा में मनुष्य को स्वभावत: दुष्ट माना गया था जिसको नियन्त्रण में रखने के लिये राज्य जैसी संस्था का होना अनिवार्य था । किन्तु स्पेलमैन का यह विचार एकागी तथा भारतीय को भली-भाँति न समझ सकने के कारण है । भारतीय विचारधारा में सर्वत्र कर्म की महत्ता स्वीकार की गयी ।

इसके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों द्वारा ही अच्छा या बुरा बन सकता है । तो फिर ऐसी स्थिति में उसके जन्मजात दुष्ट या बुरे होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । मनुस्मृति का यह कथन कि जब लोग दण्ड से जीते गये है, स्वभाव से ही शुद्ध मनुष्य दुर्लभ है’ सर्वों दण्ड जितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नर मनुष्य की सहज टुष्टता का प्रमाण नहीं प्रस्तुत करता ।

यह अराजकता की स्थिति में मनुष्य के स्वभाव का चित्रण है, न कि सभी परिस्थितियों में । अन्यत्र मनु कर्म की सर्वोच्चता प्रतिपादित करते हुये कहते हैं जिस प्रकार के भावों से जिन-जिन कर्मों का सेवन करता है वह वैसे शरीर से उन-उन कर्मफलों को प्राप्त करता ।

एक स्थान पर वह सतयुग का वर्णन करते हुए लिखते है कि इसमें धर्म तथा सत्य पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित थे और कोई भी अधर्म द्वारा विद्या अथवा धन की प्राप्ति नहीं करता था । इन उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन विचारकों के मस्तिष्क में मनुष्य के जन्मजात दुष्ट होने की कल्पना नहीं थी ।

जहाँ तक राज्य का प्रश्न है, हम किसी भी विचारक को इसे अपरिहार्य बुराई के रूप में चित्रित करते हुये नहीं पाते है । यह सहीं है कि महाभारत, पुराणों तथा स्मृति अन्यों में हमें कहीं-कहीं राज्य अथवा राजा के प्रति कुछ अपमानजनक बाते मिलती है ।

महाभारत के शान्तिपर्व में युधिष्ठिर राजपद के हिंसा, युद्ध, दण्ड आदि से युक्त होने के कारण उसे ग्रहण करने में अनिच्छा व्यक्त करते है तथा उसके प्रति कुछ निन्दासूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं । किन्तु उनकी यह भावना वैराग्य के कारण उत्पन्न हुई थी । अन्ततोगत्वा वे यह समझ जाते है कि राजपद बुराई नहीं, अपितु यह एक उलट मस्या है तथा यह जान लेने पर वे राज्य ग्रहण रन को तैयार हो जाते है ।

पुराण तथा स्मृति ग्रन्थ राजपद को देवता के समान पवित्र और प्रतिष्ठित मानते है । राजत्व सम्बन्धी उदात्त अवधारणा के विरुद्ध केवल इन अन्यों में एक ही बात दिखाई देती है जो यह है कि वे कभी-कभी राजकीय सेवा में रत ब्राह्मणों को कव्य (अन्त्येष्ठि भोज) तथा श्रव्य (देवभोज) में आमंत्रित किये जाने का निषेध करते है ।

मनुस्मृति में एक स्थान पर कहा गया है कि ‘राजा का अन्न तेज का नाश करता है’ (राजान तेज यादत्ते) । जाने-अनजाने में राजा का अन्न ग्रहण करने वालों के लिये प्रायश्चित का विधान किया गया है । राजा के प्रेष्य (सेवक) तथा दूत को हव्य-कव्य के अवसर पर आमन्त्रण के अयोग्य घोषित किया गया है ।

परन्तु चूंकि ये नियम केवल याज्ञिक एवं अंत्येष्ठि सस्कारों के सम्बन्ध में बनाये गये है, अत: सामान्य राजनीति तथा शासन से इनका कोई तात्पर्य नहीं लगता । राजकीय सेवा में रत ब्राह्मणों की उपेक्षा के लिये तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियाँ उत्तरदायी हो सकती है । सूत्र तथा स्मृतियों के काल में वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा हुई तथा सभी वर्षों के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों का विधिवत् विवेचन किया गया ।

ब्राह्मण समाज के धार्मिक एवं आध्यात्मिक नेता थे । उनका प्रमुख कार्य राजा को दिशा-निर्देश देना था । अतः यह उचित ही था कि उन्हें सभी प्रकार की अधीनता से मुक्त रखा जाय । राजकीय सेवा से उनकी स्वाधीनता समाप्त होती थी । संभवतः इसी कारण व्यवस्थाकारों ने सेवा करने वाले ब्राह्मणों को अयोग्य घोषित कर दिया । एक स्थान पर मनु ने सेवा को ‘श्ववृति’ (कुत्ते की दिनचर्या) बताया है ।

यहाँ तक कि मन्दिरों में वेतन लेकर पूजा की जीविका करने वाले ब्राह्मणों तक को हव्य-कव्य के अवसर पर भोजन कराने का निषेध किया गया है । जहाँ तक अन्य राजकर्मियों का प्रश्न है हम देखते है कि उनका सम्बन्ध युद्ध तथा दण्ड से होने के कारण उन्हें अपात्र समझा गया है ।

यह विचार युद्ध तथा हिंसा के प्रति सामान्य घृणा का परिणाम है । जे॰ एस॰ नेगी के अनुसार सूत्रों तधा स्मृतियों के काल में जैन, बौद्ध तथा वैष्णव धर्मों द्वारा किये गये अहिंसा के प्रचार, निवृत्ति मार्गी विचारों तथा समाज में पुरोहित वर्ग के बढ़ते हुए प्रभाव के परिणामस्वरूप राजा तथा उसके कर्मचारियों के कार्यों की अवमानना की गयी ।

समाज में उपर्युक्त आदर्शों के प्रचलन के फलस्वरूप राज्य तथा शासन को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा । युद्ध तथा साम्राज्यवाद की शान्ति के लिये हानिकारक होने के कारण निन्दा की जाने लगी । यही कारण है कि स्मृति ग्रन्थ इनसे संबद्ध व्यक्तियों के प्रति तिरस्कारपूर्ण भावनायें व्यक्त करते हैं ।

इस प्रकार इनका राज्य के सामान्य स्वरूप के कोई सम्बन्ध नहीं है । स्पेलमैन के मत का एकमात्र आधार महाभारत तथा कुछ अन्य ग्रन्थों में माक्यन्याय का विवरण है जो मनुष्य के स्वभाव को दुष्ट तथा विघटनकारी बताता है ।

लेकिन स्पेलमेन ने इसकी व्याख्या अनुचित रूप से की है । माक्यन्याय से तात्पर्य यह नहीं है कि इस स्थिति में केवल बुराई ही विद्यमान रहती है तथा अच्छाई का बिल्कुल अस्तित्व ही नहीं होता । वस्तुतः बुराई तथा अच्छाई दोनों ही एक ही भौतिक सत्ता के पहलू है । माक्यन्याय की स्थिति में बुराई की प्रधानता रहती है ।

उत्तरोत्तर विकास इसकी प्रवृति है तथा इसी को रोकने के निमित्त राज्य अथवा राजा की आवश्यकता होती है । वास्तव में यदि देखा जाय तो राज्य अच्छाई की बुराई पर विजय दिलाने का एक सवल साधन है । यह दुष्टों का विनाशक तथा सज्जनों का पोषक होता है ।

मनु इसी वात को स्पष्ट करते हुए लिखते है ‘सदाचारियों की रक्षा तथा कण्टकों (चोरों तथा दुस्साहसिक लोगों) के शोधन (विनाश) करने से प्रजापालन में तत्पर राजा स्वर्ग को जाते है ।’ एक अन्य स्थान पर वर्णित है कि जिस राजा के राज्य में चोर, परस्त्रीगामी, कठोर वचन कहने वाले तथा कठोर दण्ड करने वाले पुरुष नहीं है वह राजा स्वर्ग की प्राप्ति करता है ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि राज्य का उद्देश्य उतना अधिक मात्सयन्याय की समाप्ति न होकर सज्जनों की दुर्जनों अथवा अच्छाई की बुराई से रक्षा करना है । अतः स्पेलमैल द्वारा की गयी माक्यन्याय अथवा मानव स्वभाव की व्याख्या तर्कसंगत नहीं है । वास्तविकता यह है कि भारतीय दृष्टि में राज्य अथवा राजा अपरिहार्य बुराई नहीं था, अपितु अच्छाई का पोषक तथा दुर्जनों के विरुद्ध सज्जनों का रक्षक था ।

हिन्दु विचारधारा माक्यन्याय को आदिम अवस्था नहीं मानती वल्कि वह कृतयुग अथवा सतयुग को सृष्टि की आदिम अवस्था मानती है जिसमें मनुष्य नैतिक, ईमानदार एवं सभी गुणों तथा सुखों से सम्पत्र था । माक्यन्याय अथवा अराजक की अवस्था तो कृतयुग की विकृति मात्र है ।

इसी विकृति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से भारतीय विचारकों ने राज्य अथवा राजा की आवश्यकता को महसूस किया है । मनुष्य की प्रकृति को स्वभावत दुष्ट अथवा विध्वंसक मानने को वे कदापि प्रस्तुत नहीं है ।


4. प्राचीन भारत के  राज्य का उद्देश्य तथा कार्य (Purpose and Work of Ancient Indian States):

वैदिक साहित्य से राज्य के उद्देश्य तथा कार्यों का स्पष्ट गान नहीं हो पाता । तथापि इसमें जो यंत्र-तंत्र उल्लेख मिलते है उनसे हम यह निष्कर्ष निकालते है कि राज्य का मुख्य उद्देश्य शान्ति-व्यवस्था की स्थापना करना तथा लोगों को सुरक्षा एवं उचित न्याय प्रदान करना था । राज्य के स्वामी राजा को ‘धृतव्रत’ अर्थात् कानून और व्यवस्था का पोषक कट्टा गया है ।

वह धर्म तथा नैतिकता का संस्थापक था । दुर्जनों को दण्ड देना तथा सज्जनों को पुरस्कृत करना उसका कार्य था । राज्य का उद्देश्य प्रजा का न केवल भौतिक अपितु नैतिक उत्थान करना भी था । वेदों तथा उपनिषदों में राज्य का मुख्य उद्देश्य प्रजा का सर्वाच्चणि विकास बताया गया है । प्राचीन राजशासन पर लिखित अन्यों में राज्य का उद्देश्य त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ एवं काम का संवर्धन बताया गया है ।

धर्म के संवर्धक के रूप में शासक सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों का सम्मान करता था एवं उनके विकास में सहायता प्रदान करता था । भारतीय विचारकों ने राजा को धार्मिक सहिष्णुता के मार्ग से विचलित न होने की सलाह दी है । प्राचीन इतिहास के आदर्श शासकों ने इस सिद्धान्त का पूरा-पूरा पालन किया ।

अर्थ से तात्पर्य कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि के विकास से है जिसे संयुक्त रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है । काम, भौतिक सुखों की सामान्य अंश है । इसकी उन्नति तभी संभव है जब राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था व्याप्त हो । प्रजारक्षण तथा पालन पर हिंदू विचारकों ने विशेष बल दिया है ।

अग्निपुराण में कहा गया है कि ‘जो राजा अपने प्रजा की भली-दाति रक्षा नहीं करता उसकी यज्ञ तथा तपस्या निष्फल है, किन्तु जिसकी प्रजा भली प्रकार से सुरक्षित होती है उसका अपना घर ही स्वर्ग के समान है । प्रजारक्षण के कर्त्तव्य से च्युत राजा नरक को जाता है ।’

मनुस्मृति में भी प्रजापालन को राजा का श्रेष्ठ धर्म बताया गया है । मनु प्रजा पालन तथा रक्षण को ही राजा का यश मानते है । उनके अनुसार जीवों की धर्मपूर्वक रक्षा करता हुआ तथा वधयोग्य जीवों का वध करता हुआ राजा प्रतिदिन सहस्त्रों-सैकड़ों दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करता है ।

यह भी बताया गया है कि प्रजारक्षण के द्वारा राजा को सभी के धर्म का छठी भाग प्राप्त होता है, किन्तु रक्षा न करने वाले को अधर्म का भी छठी भाग मिलता है । अभयदान करने वाला राजा सतत पूजनीय होता है ।

राजा को चेतावनी देते हुए मनु लिखते है जो प्रजा की रक्षा न करते हुए भी वलि, कर, शुल्क तथा प्रतिभाग आदि ग्रहण करता है, वह राजा तत्काल नरक को प्राप्त करता है । इस प्रकार प्रजा पालन तथा रक्षण हिन्दू राजशासन का मुख्य तत्व है ।

इस प्रकार राज्य के समस्त कार्यों को तीन शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है:

(i) सामाजिक कार्य ।

(ii) आर्थिक कार्य ।

(iii) नैतिक तथा धार्मिक कार्य ।

प्राचीन हिन्दू विचारकों की दृष्टि में आदर्श समाज वह है जिसमें वर्णाश्रम धर्म पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो । अत: समाज में वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा करना वे राज्य अथवा राजा का प्रमुख सामाजिक कर्त्तव्य मानते हैं । अर्थशास्त्र से सूचित होता है कि समाज में वर्णाश्रम धर्म को स्थापित करना राज्य का परम कर्त्तव्य था ।

इसमें शासक को स्पष्ट आदेश दिया गया है कि यह सभी वर्णों को अपने-अपने धर्म में प्रवृत्त करें । मत्स्य पुराण में भी राजा को सलाह दी गयी है कि वह सभी लोगों से स्वधर्म का पालन करवाये तथा किसी को एक दूसरे के धर्म को अनाधिकृत रूप से ग्रहण न करने दे ।

मनुस्मृति में भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये गये है । सभी विचारकों का मत है कि वर्णधर्म में व्यतिक्रम होने पर समाज में अराजकता उत्पन्न हो जायेगी जिसके फलस्वरूप राज्य का पतन अवश्यभावी है । समाज की मूलभूत इकाई परिवार होता है और परिवार में सामंजस्य कायम रखना भी राज्य का कर्त्तव्य माना गया है ।

यह उन अराजक तत्वों को दण्डित करके किया जा सकता था जो परिवार की सुव्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करते है । सामाजिक कर्त्तव्यों की कोटि में ही राज्य द्वारा मनुष्यों की निजी सम्पत्ति की रक्षा करना भी शामिल था क्योंकि यह भी सामाजिक सामंजस्य बनाये रखने का एक साधन था ।

विष्णुधर्मोतर पुराण मेख कहा गया है कि राज्य चोरों द्वारा चुराये गये सभी वर्णों के धन को उन्हें दे दे तथा अपराधियों को समाप्त करें । मनु ने भी चोरों का निग्रह करना राजा का कर्त्तव्य निरूपित करते हुए बताया है कि वही राजा स्वर्ग का अधिकारी होता है जिसके राज्य में चोर नहीं होते ।

उनके अनुसार ‘जो राजा’ चोर आदि को दण्डित नहीं करता हुआ प्रजा से कर लेता है उसके राज्य में रहने वाले लोग कुद्ध हो जाते है तथा वह स्वर्ग के अधिकार से वंचित हो जाता है । जिस राजा के बाहुबल के आश्रय से राज्य निर्भय होता है वह सिंचित वृक्ष के समान वृद्धि करता है ।

समाज के आर्थिक जीवन का आधार वार्ता बताया गया है जिससे तात्पर्य कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य से है । राज्य का आर्थिक कर्त्तव्य वार्त्ता की उन्नति द्वारा लोगों के भौतिक जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाना था । वह कृषि तथा उत्पादन के कार्य में लगे हुए लोगों की रक्षा करता तथा उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करता था ।

सभी को आजीविका सुलभ कराना भी राज्य का कर्तव्य माना गया है । मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि वही राजा प्रजा से अपना कर भाग ग्रहण करने का अधिकारी है जो अपनी उदार नीतियों द्वारा उसका भली प्रकार से पोषण करता है ।

कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य की उन्नति के लिये यह आवश्यक था कि इन पर उचित ढंग से कर लगाये जाये । इस सम्बन्ध में मनु का स्पष्ट आदेश है कि ‘जिसमें राजा तथा कृषि आदि कर्मों को करने वाले अपने-अपने उद्योग के अनुसार उचित फल पा सकें ऐसा विचार कर देश में कर लगाने चाहिए ।

जैसे- जोंक, बछड़ा तथा भौंरा थोड़े-थोड़े अपना खाद्य ग्रहण करते है उसी प्रकार राजा को प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर ले लेना चाहिये । राज्य को कर के रूप में जो धन मिलता था उसे सार्वजनिक हित के कार्यों में व्यय किया जाता था । राजा को भेंट-उपहारादि के रूप में जो धन प्राप्त होता था उसे दीनों, अनाथों, विधवाओं आदि के भरण-पोषण पर व्यय किया जाता था ।

हिन्दू विचारधारा मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार करती है। राज्य अथवा राजा के लिये यह आवश्यक था कि वह इसे प्राप्त करने में व्यक्ति की सहायता करें । इस उद्देश्य से राज्य अनैतिक तत्वों का नियंत्रण करता था । धर्म का संवर्धन करना राज्य का प्रमुख कर्त्तव्य माना गया है । राजा का यह कर्त्तव्य था कि वह प्रजा के सामने उच्च नैतिक आदर्श प्रस्तुत करें ।

गो-व्राह्मण की रक्षा, विभिन्न देवी-देवताओं के मन्दिरों की समुचित व्यवस्था में सहायता देना, लोगों में नैतिक एवं धार्मिक चेतना जागत करना, तपस्वियों का सम्मान करना आदि राज्य के कुछ मुख्य धार्मिक कार्य थे । विष्णुधर्मोत्तरपुराण में कहा गया है कि धार्मिक कार्यों को करने से राज्य प्राकृतिक आपदाओं जैसे अकाल, महामारी आदि से सुरक्षित रहता है।

उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय राजशास्त्रियों ने राज्य के कार्य-क्षेत्र की परिधि में मानव-जीवन के सभी पक्षों को समेट लिया था । प्राचीन-काल के मौर्य तथा गुप्त राजाओं ने प्राय उन सभी कार्यों को पूरा किया जिनका विधान ग्रन्थ में किया गया है ।

अधिकांश सम्राट अपने साम्राज्य का व्यापक दौरा किया करते थे जहां वे प्रजा की कठिनाइयों को व्यक्तिगत रूप से सुनते तथा उनका तुरन्त निराकरण कर देते थे । अशोक के तृतीय शिलालेख रो ज्ञात होता है कि उसने अपने प्रमुख पदाधिकारियों के प्रति पाँचवें वर्ष दौरे अनुसंधान पर जाने का आदेश दिया था ।

वह स्वयं भी दौरे पर जाता था । प्राचीन सम्राटों द्वारा जनकल्याण के निमित्त किये गये कार्यों के बहुसंख्यक उदाहरण प्राप्त होते है । किन्तु राज्य का कार्य-क्षेत्र व्यापक होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि प्राचीन काल में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की उपेक्षा की गयी थी । प्राचीन विचारक राज्य को समाज का केन्द्र मानते थे । उनकी सम्मति में समाज का कल्याण राज्य के माध्यम से ही सम्भव था ।

इसी मान्यता के कारण राज्य का कार्य-क्षेत्र अत्यन्त व्यापक बना दिया गया । इसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिये भी पर्याप्त स्थान धा । राज्य में विभिन्न प्रकार के संगठन थे जो जनता के भिन्न-भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करते थे । व्यावहारिक रूप में इनके परामर्श से ही राजकर्मचारी अपना कार्य करते थे । इन संस्थाओं में जनमत की ही प्रधानता ।

श्रेणियों की व्यवस्था से स्पष्ट है कि राज्य सामान्यतः लोक-संस्थाओं के नियमों का सम्मान करता था तथा उनके कुल ही अपने नियम बनाता था । मनु ने स्पष्टतः राजा को निर्देश दिया है कि वह जाति धर्म, जनपद धर्म, कुल धर्म श्रेणी धर्म के रीति-रिवाजों की भली-भाँति छानवीन करके उन्हीं के अनुकूल अपने राजकीय नियम और कानुन स्थापित करें ।

नारद तथा याज्ञवल्कय ने भी इसी प्रकार के विचार प्रकट किये है । ये सस्थायें राज्य से भी अधिक स्थायी सिद्ध होती थीं । राज्य की ओर से विविध शिक्षण संस्थाओं, मन्दिरों, विहारों आदि को सहायता सौ प्रदान की जाती थी किन्तु उनका सम्बन्ध राज्य के हाथ में न होकर स्थानीय समितियों के हाथ में रहता था ।

ग्रामसभाओं तथा नगर निगमों को भी व्यापक अधिकार दिये गये थे । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्राचीन काल में राज्य के अधिकार व्यापक होने पर भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं स्थानीय स्वायत्तता की रक्षा की गयी थी ।


5. प्राचीन भारत के राज्य के प्रकार (Types of Ancient Indian States):

प्राचीन भारत में सामान्यत राजतन्त्र का ही प्रचलन था जिसके शासन सत्ता एक वंशानुगत राजा के हाथ में होती थी । किन्तु प्राचीन साहित्य एवं विदेशी लेखकों के विवरण से इस बात की सूचना मिलती है कि राजतन्त्रात्मक राज्यों के साथ ही साथ प्राचीन इतिहास के विभिन्न युगों में कुछ अन्य प्रकार के राज्य भी थे ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

(i) गण अथवा संघ राज्य:

इसमें शासन-सूत्र एक आनुवंशिक राजा के हाथ में न होकर गण अथवा संघ के हाथ में होता था । प्राचीन साहित्य में इस प्रकार के राज्य को ‘वैराज्य’ की संज्ञा प्रदान की गयी है । सिकन्दर के आक्रमण के समय सिन्ध तथा पंजाब तथा बुद्धकाल में गंगाघाटी के मैदानों में कई गणराज्य विद्यमान् थे । इनमें मालव, अर्जुनायन, लिच्छवि, मद्रक, शाक्य, मोरिय आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इसका शासन एक केन्द्रीय समिति अथवा संस्थागार के माध्यम से संचालित होता था ।

(ii) द्वैराज्य:

इससे तात्पर्य उस राज्य से हैं जिसमें एक ही साथ दो राजाओं का शासन होता है । यूनान के नगर स्पार्टा में इस प्रकार का शासन था । यूनानी लेखकों के विवरण से पता चलता है कि सिकन्दर के भारत-आक्रमण के समय पाटल (सिन्ध) में इस प्रकार का शासन-तन्त्र प्रचलित था ।

अल्लेकर का विचार है कि जब दो भाइयों अथवा उत्तराधिकारियों ने राज्य का वँटवारा करने के स्थान पर सम्मिलित रूप से शासन करना पसन्द किया हो, तभी द्वैराज्य का सूत्रपात होता होगा । किन्तु इस प्रकार का शासन टिकाऊ नहीं रहा तथा ये राज्य गुटवन्दी और आपसी संघर्ष के केन्द्र रहे होंगे ।

अर्थशास्त्र में कहा गया है कि द्वैराज्य परस्पर संघर्ष में नष्ट हो जाता है । जैन ग्रंथ साथ आचारांगसूत्र में भिक्षुओं को सलाह दी गयी है कि वे ऐसे राज्यों में न जायें । द्वैराज्य के दोनों शासक जब परस्पर मेल से रहते थे तो वह औराज्य तथा जब उनमें परस्पर संघर्ष होता था तो वह ‘विरुद्ध राज्य’ कहा जाता था ।

(iii) नगर-राज्य:

इसमें किसी प्रमुख नगर को राजधानी बनाकर समीपवर्ती भागों पर शासन किया जाता था । ऐसे राज्यों का प्रचलन प्राचीन यूनान में अधिक था । यूनानी लेखों के विवरण से सूचित होता है कि सिकन्दर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत में भी कुछ राज्य उसी प्रकार के थे ।

न्यासा, शिवि, संगल, पिम्प्रमा आदि कुछ नगर राज्य यहाँ विद्यमान थे । एरियन हमें बताता है कि सिकन्दर ने न्यासा से एक-सी प्रमुख नागरिकों के बन्धक में रूप में माँगा था जिस पर वहाँ के शासक ने यह कहते हुये अपनी असमर्थता व्यक्त किया था कि इतने नागरिकों के छिन जाने से नगर क शासन ठप्प पड़ जायेगा । इसमें स्पष्ट है कि यहाँ नगर राज्य था ।

(iv) संघीय तथा संयुक्त राज्य:

प्राचीन भारत में संघीय अथवा सम्मिलित राज्यों के अस्तित्व के भी प्रमाण मिलते हैं । उत्तर वैदिक युग में कुरु-पञ्चाल राज्यों का एक संघ था । सिकन्दर के आक्रमण के समय पंजाब में मालव तथा क्षुद्रक गणों का संघ राज्य था । यौधेय गणराज्य में भी तीन राज्य सम्मिलित थे । बुद्धकाल में वज्जिसंघ तथा मल्लसंघ जैसे शक्तिशाली राज्य स्थापित हुये थे ।

जैन घन्धों से पता चलता है कि लिच्छवि प्रमुख चेटक ने मगधराज अजातशत्रु का सामना करने के लिये नौ लिच्छवियों, नौ मल्लों तथा कहच्चिनेशल के 18 राजाओं का संघ-स्थापित किया था । संघीय राज्यों की शासन-पद्धति के विषय में हमें ज्ञात नहीं है । सम्भवत: समान शक्तिशाली शत्रु का सामना करने के उद्देश्य से इस प्रकार के राज्य संगठित होते थे ।

इस प्रकार प्राचीन भारत में हमें विभिन्न श्रेणी के राज्यों के अस्तित्व दिखाई देते हैं । इनमें सर्वाधिक मान्य एवं प्रचलित व्यवस्था राजतन्त्र ही थी । अति प्राचीन काल से राजा को ही सत्ता का स्त्रोत माना गया तथा यह मान्यता थी कि समस्त अधिकारी तथा संस्थायें उसी से अधिकार ग्रहण करते है ।

सप्तांग सिद्धान्त:

वैदिक साहित्य तथा प्रारम्भिक धर्मसूत्रों में राज्य के छिट-फुट उल्लेख के वावजूद हमें उसकी कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं मिलती है । सम्भवत: इसका कारण यह है कि इस समय तक राज्य संस्था को ठोस आधार नहीं मिल सका था । उत्तरी भारत में विशाल राजतन्त्रों की स्थापना के साथ ही राज्य के स्वरूप का निर्धारण किया गया । सर्वप्रथम कौटिल्लीय अर्थशास्त्र में ही हमें राज्य की सुस्पष्ट परिभाषा प्राप्त होती है ।

यह राज्य को एक सजीव एकात्मक शासन-संस्था के रूप में मान्यता प्रदान करता है तथा उसे सात प्रकृतियों अंग की समष्टि निरूपित करता है:

(1) स्वामी,

(2) अमात्य,

(3) भु-प्रदेश (जनपद),

(4) दुर्ग,

(5) कोष,

(6) सेना तथा

(7) मित्र ।

कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राज्य का उपर्युक्त सप्तांग सिद्धान्तवाद के लेखकों के लिये आदर्श स्वरूप बना रहा । कुछ ग्रन्थों में इस अंगों के पर्याय भी मिलते है । विष्णु धर्मोत्तर पुराण में स्वामी तथा अमात्य के स्थान पर क्रमश साम तथा दान का उल्लेख हुआ है । किन्तु कौटिल्य द्वारा निर्धारित अंग ही प्रामाणिक माने जाते है ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

(a) स्वामी:

इससे तात्पर्य राजा अथवा ललाट से है । यह राज्य का प्रथम अंग है ।

कौटिल्य राजा के गुणों की विस्तारपूर्वक चर्चा करता है, तदनुसार राजा को निम्नलिखित गुणों से संयुक्त होना चाहिये:

(i) उच्चकुल में उत्पन्न,

(ii) दैवसम्पन्न,

(iii) बुद्धिमान,

(iv) सत्वसम्पन्न (सम्पति तथा विपत्ति में धैर्यशाली),

(v) वृद्धदर्शी (वृद्ध जनों का सेवक),

(vi) धर्मात्मा,

(vii) सत्यनिष्ठ,

(viii) सत्यप्रतिज्ञ (अविसंवादक),

(ix) क्रतज्ञ,

(x) स्थूललक्ष (महान् दाता),

(xi) महान् उत्साह युक्त,

(xii) आलस्यरहित (अदीर्घसूत्री),

(xiii) सामन्तों को आसानी से वश में करने वाला (शक्य-सामन्त),

(xiv) दृढ़ निश्चयी,

(xv) बड़ी मत्रिपरिषद वाला (अक्षुद्र परिषत्को),

(xvi) विनयशील ।

यहाँ ‘महाकुलीनता’ का उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है । कौटिल्य इस बात के विल्कुल पक्ष में नहीं था कि शासन-सूत्र किसी निम्न कुलोत्पन्न व्यक्ति को प्राप्त हो ।

(b) अमात्य:

इस शब्द का सामान्य अर्थ ‘मन्त्री’ से ग्रहण किया जाता है किन्तु अर्धशास्त्र में इसका प्रयोग सभी उच्च श्रेणी के पदाधिकारियों के लिये किया गया है । इन्हीं में से योग्यतानुमार सम्राट अपने मन्त्रियों तथा अन्य सलाहकारों की नियुक्ति करता था । अमात्थं संज्ञा से राज्य के सभी प्रमुख पदाधिकारियों का वोध होता था क्योंकि कौटिल्य स्पष्टतः कहता है कि जनपद सम्बन्धी सभी कार्य अमात्य के ऊपर ही निर्भर करते हैं ।

कृषि सम्बन्धी कार्य, दुर्ग निर्माण, जनपद का कल्याण, विपत्तियों से रक्षा, अपराधियों को दण्ड देना, राजकीय करों को एकत्रित करना आदि सभी कार्य अमात्यों द्वारा ही करणीय बताये गये है । कामन्दक ने भी अमात्य शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थ में किया है किन्तु उन्होंने अमात्य तथा सचिव को समानार्धी माना है । मौर्योत्तर युग में अमात्य कोसचिव भी कहा जाने लगा ।

(c) जनपद:

मनुस्मृति तथा विष्णु स्मृति में जनपद को ‘राष्ट्र’ कहा गया है, जबकि याज्ञवल्कय स्मृति में इसे केवल ‘जन’ कहा गया है । राष्ट्र से तात्पर्य भू-प्रदेश तथा जन से तात्पर्य जनसंख्या से है । अर्थशास्त्र में जनपद शब्द का प्रयोग भू-प्रदेश तथा जनसंख्या दोनों के लिये किया गया है ।

बताया गया है कि जनपद की जलवायु अच्छी होनी चाहिये, उसमें पशुओं के लिये चारागाह हो, जहाँ कम परिश्रम में अधिक अन्न उत्पन्न हो सके, जहाँ उद्यमी कृषक रहते हों, जहाँ योग्य पुरुषों का निवास हो, जहां निम्न वर्ग के लोग विशेष रूप से रहते हो तथा जहाँ के निवासी राजभक्त एवं चरित्रवान् हों…।

कामन्दक ने जनपद के प्रसंग में लिखा है कि इसमें शूद्रों, शिल्पियों, व्यापारियों तथा उद्यमी एवं अध्यवसायी कृषकों का निवास होना चाहिये । यहाँ व्यापारियों का उल्लेख समाज में उनके बढ़ते हुए महत्व का सूचक माना जा सकता है ।

जनपद का जनसंख्या के विषय में कौटिल्य का विचार है कि एक गाँव में कम से कम सौ तथा अधिक से अधिक पाँच सौ परिवार रहने चाहिये । जनपद की सबसे बड़ी इकाई ‘स्थानीय’ में आठ सौ ग्राम होने चाहिये ।

(d) दुर्ग:

यह राज्य का चौथा अंग है । मनुस्मृति तथा शान्तिपर्व (महाभारत) में इसे ‘पुर’ कहा गया है । ‘दुर्ग’ शब्द का सामान्य अर्थ किला (Fortress) है किन्तु अर्थशात्र में इसका जो वर्णन मिलता है उससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ दुर्ग से तात्पर्य दुर्गीकृत राजधानी से है ।

पुर का भी यही अर्थ है । दुर्ग निवेश प्रकरण में कौटिल्य दुर्ग की विशेषतायें बताता है । तदनुसार दुर्ग का निर्माण नगर के केन्द्र भाग में किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक वर्ण तथा कारीगरों के निवास के लिये नगर में अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिये ।

(e) कोष:

राष्ट्र का पाँचवाँ महत्वपूर्ण अंग कोष बताया गया है । कौटिल्य इसे बहुत अधिक महत्व देता है तथा बताता है कि धर्म तथा काम सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्य इसी के माध्यम से सम्पन्न होते है । सेना की स्थिति कोष पर ही निर्भर करती है ।

कोष के अभाव में सना पराये के पास चली जाती है, यहाँ तक कि स्वामी की हत्या कर देती है । कोष सब प्रकार के सकट का निर्वाह करता है- ‘कोशोधर्म हेतु । कोशमूलोहि दण्ड: । कोशाभावेदण्ड: परं गच्छति, स्वामिनं व हन्ति । सवाभियोगकरश्च… ।’

कौटिल्य का मत है कि राजा को धर्म और न्यायपूर्वक अर्जित कोष (धन) का संग्रह करना चाहिये । कोष स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य रत्नों, मणियों, मुदाओं आदि से परिपूर्ण होना चाहिये, ऐसा कोष अकालादि विपत्तियों का सामना करने में समर्थ होता है ।

(f) दण्ड:

राज्य का छठाँ अंग ‘दण्ड’ कहा गया है जिसका तात्पर्य सेना से है । इसमें आनुवंशिक, भाड़े पर लिये गये, जंगली जातियों से लिये गये एवं निगम के सैनिक होते थे । सेना में पैदल, रथ, गज तथा अश्व सभी थे । कौटिल्य सेना में भत्ती के लिये क्षत्रियों को सबसे उपयुक्त मानता है ।

उसने वैश्य तथा शूद्र वर्ण से भी उनकी संख्या के अनुसार सैनिक लिये जाने का समर्थन किया है । उसने सेना की कुछ अन्य विशेषताओं का भी उल्लेख किया है, जैसे सेना को सदा राजा के अधीन रहना चाहिये । सैनिकों के परिवार का भरण-पोषण राज्य का कर्त्तव्य है ।

शत्रु पर चढ़ाई आदि के समय सैनिकों की सुख-सुविधा के लिये आवश्यक भोग्य वस्तुयें उपलब्ध कराना आवश्यक है । ऐसा होने पर सैनिक सब प्रकार के कष्ट सहन करते हुये अनेक युद्धों में डटकर शत्रु का सामना करेंगे तथा शस्त्रास्त्रों एवं रणविद्या में निपुण हो जावेंगे । वे शत्रु के भेद डालने पर भी नहीं फूटेंगे ।

महाभारत में सेना के आठ अंगों का उल्लेख करते हुये उसे अष्टाग बल’ की सश प्रदान की गयी है । ये इस प्रकार हैं- गजसेना, अश्वसेना, पैदल सैनिक, रथ सेना, नावों की सेना, वेगार सेना, स्वदेशी सेना तथा भाड़े के सैनिकों की रोना । कहीं-कहीं कोष तथा दण्ड का संयुक्त रूप से उल्लेख मिलता है ।

(g) मित्र:

कौटिल्य द्वारा वर्णित यह राज्य का अंतिम अंग है । इसकी विशेषता बताते हुये कौटिल्य लिखता है- मित्र पिता-पितामह के क्रम से चले आ रहे हों, नित्यकुलीन, दुविधा रहित, महान् एवं अवसर के अनुरूप सहायता करने वाले हो । मित्र तथा शत्रु में भेद बताते कौटिल्य लिखता है कि शत्रु वह है जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है । मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता ।

उपर्युक्त सात तत्व राज्य रूपी शरीर के विविध अंग माने गये है । इनमें प्रत्येक एक दूसरे का पूरक है तथा किसी के भी अभाव को कोई दूसरा पूरा नहीं कर सकता । इन्हें राज्य की स्वाभाविक सम्पदा कहा गया है । राज्य के अस्तित्व को बनाये रखने तथा उसकी व्यवस्था को समुचित ढंग से चलाने के लिये सभी अंगों का समन्वय अनिवार्य है ।

मनुस्मृति में कहा गया है कि जिस प्रकार परस्पर संतुलित ढंग से रखे हुये तीन दण्डें किसी एक के हटा देने पर असंतुलित होकर गिर पड़ते हैं उसी प्रकार किसी एक अंग को हटा देने पर राज्य भी धराशायी हो जाता है । इस प्रकार भारतीय विचारक राज्य की सर्वाच्चणि उन्नति के लिये उसके सातों अंगों के समन्वित विकास पर बल देते है ।

कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राज्य के स्रप्तागों में से अधिकांश आधुनिक परिभाषा में भी राज्य के अस्तित्व के लिये अपरिहार्य माने जाते है । राज्य के आधुनिक अनिवार्य अंग प्रभुसत्ता, सरकार, भूमि तथा जनसंख्या हे । ये सप्तांग सिद्धान्त के अन्तर्गत स्वामी, अमात्य तथा जनपद में व्यक्त किये गये है ।

आधुनिक युग में किसी राज्य की वैधानिक स्थिति के लिये उसका दूसरे द्वारा मान्यता दिया जाना आवश्यक है । यह तत्व हमें सप्तांग के अन्तर्गत वर्णित ‘मित्र’ में दिखाई देता है । इस प्रकार कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त राजनीतिक विचारधारा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान है ।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि राज्य का अग्रीय सिद्धान्त उसके बाह्य स्वरूप का द्योतक है, आन्तरिक प्रकृति का नहीं । इसका मुख्य आधार राज्य के विभिन्न तत्वों की अन्योन्याश्रित स्थिति मानी गयी है जिसका उल्लेख मनुस्मृति में मिलता है तथा जहाँ सात अंगों की तुलना संन्यासी के परस्पर मिले हुए तीन दण्डों से की गयी है ।

लेकिन यह तुलना वाह्य समानता के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्रतीत होती क्योंकि सन्यासी का दण्ड एक कृत्रिम रचना है । गेटल तथा बलन्शली जैसे राजनीतिक विचारकों के मतानुसार अंगीय सिद्धान्त में मुख्य बात यह है कि यह राज्य के हित को नागरिकों के हित से ऊपर मानता है । इसमें नागरिक हित विल्कुल गौण होता है जिसका राज्य के लिये मनमाने ढंग से उपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है ।

पाश्चात्य अग्रीय सिद्धान्त का आधार अरस्तु की यह सुप्रसिद्ध उक्ति है कि राज्य व्यक्ति से पहले होता है । किन्तु भारतीय विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में यह मत मान्य नहीं है । यहाँ सभी लेखक राज्य अथवा राजा का अस्तित्व प्रजा के कल्याण के लिये ही मानते है ।

अतः यह स्पष्ट है कि सप्तांग सिद्धान्त का पारम्परिक विवरण राज्य के बाहरी स्वरूप को समझाने के लिये ही प्रतिपादित किया गया है । अधिकांशत इसका उल्लेख विदेश नीति के सम्बन्ध में किया गया है तथा इसका उद्देश्य राज्य की प्रकृति सुनिश्चित करना नहीं है ।

गेटल तथा ब्लशली के शब्दों में ‘अंगीय सिद्धान्त का उद्देश्य यह बताना है कि राज्य मनुष्य की कृत्रिम रचना नहीं है जिसे वह अपनी इच्छानुसार इतिहास तथा परम्पराओं की उपेक्षा करके बना बिगाड़ सके ।’ इस प्रकार पश्चिम में इस सिद्धान्त का आविष्कार कृत्रिम सिद्धान्त का निषेध करने के उद्देश्य से ही किया गया था । अत: भारतीय विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में यह सिद्धान्त असंगत लगता है ।


6. राज्य तथा धर्म (State and Religion):

प्राचीन भारतीय संस्कृति में धर्म का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है तथा यहाँ की सभी संस्थायें उससे प्रभावित हुई । अत: राज्य संस्था के ऊपर भी धर्म का प्रभाव था, किन्तु इसके बावजूद भारतीय राज्य धर्मतंत्रात्मक नहीं कहा जा सकता । धर्मतंत्र में राज्य का स्वामी धर्मगुरु ही होता है तथा राजा को उसके अधीन कार्य करना पड़ता है ।

आठवीं-नवीं शती में इस प्रकार के राज्य यूरोप में विद्यमान थे जिनके शासक पोप तथा विशप के अधीन होते थे । वह राजा को धर्मच्युत होने पर दण्डित कर सकता था । पोप की आज्ञायें, राजाशासाओं के ऊपर पानी जाती थीं । ऐसा माना जाता था कि राजाज्ञा मात्र भौतिक जगत् तक ही सीमित है जबकि पोप की आज्ञा का सम्बन्ध भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों लोकों से है ।

प्राचीन भारतीय साहित्य में कुछ ऐसे स्थल है जिनके आधार पर राज्यसंस्था के ऊपर धर्म का प्रभाव सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि यदि राजा के पास योग्य पुरोहित नहीं होता तो देवता उसकी आहुति स्वीकार नहीं करते हैं । राज्याभिषेक के समय राजा ब्राह्मण पुरोहित के आगे तीन बार मस्तक झुकाकर उसकी अधीनता स्वीकार करता है ।

जब तक वह ऐसा करता है अर्थात् ब्राह्मण के अधीन रहता है उसके राज्य की उन्नति होती है । ऋग्वेद में भी एक स्थान पर वर्णन मिलता है कि अपने ब्राह्मण पुरोहित का सम्मान करने वाले राजा के वश में उसकी प्रजा रहती है तथा वहीं अपने शत्रुओं के ऊपर विजय भी प्राप्त करता है ।

गौतम धर्मसूत्र का मत है कि राजा की उन्नति सभी संभव है जब वह ब्राह्मण पुरोहित का सम्मान करें तथा उसकी सहायता प्राप्त करें ।  इस प्रकार कुछ प्रारम्भिक उल्लेखों से पता चलता है कि पुरोहित वर्ग का राज्य शासन के ऊपर प्रभाव था । किन्तु ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जो इस बात की सूचना देते हैं कि अनेक राजा पुरोहितों के प्रभाव को स्वीकार नहीं करते थे ।

अथर्ववेद में एक स्थान पर ब्राह्मणों की गौवें छीनने वाले राजा के प्रति घोर निन्दा व्यक्त की गयी है । किन्तु हमें भारतीय इतिहास में पुरोहितों तथा शासकों के बीच संघर्ष के उदाहरण प्राय नहीं मिलते है । प्राचीन साहित्य में ही कुछ ऐसे उल्लेख हैं जिनसे पुरोहित के ऊपर राजा का अधिकार सिद्ध होता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि ब्राह्मणों को राजा की इच्छानुसार आचरण करना पड़ता है ।

ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित है कि राजा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण को निकाल सकता है आदायी आप्यायी अनसायी यथाकाम प्रयाप्य । वृहदारण्यक उपनिषद् में क्षत्रिय को ब्राह्मण की अपेक्षा श्रेष्ठतर बताया गया है । इस प्रकार हम यही निष्कर्ष निकाल सकते है कि वैदिक युग में भी पुरोहित की स्थिति राजा के ऊपर नहीं थी ।

यह सही है कि राजा पुरोहित का सम्मान करता था किन्तु वह पुरोहित के प्रभाव में कदापि नहीं प्राप्त और यदि पुरोहित विरुद्ध आचरण करता था जो राजा उसे राज्य के बाहर भी कर सकता था । प्राचीन शास्त्रों में ब्राह्मणों को दण्डमुक्ति का जो विशेषाधिकार प्रदान किया गया है वह सिद्धान्त रूप में ही अधिक था, व्यवहार में कम ।

मौर्य काल तक आते-आते राजनीति ने समाज में स्वतंत्र स्थान प्राप्त कर लिया तथा राजशासन के ऊपर ग्रन्थों का प्रणयन हुआ । अत: राजा की स्थिति सर्वोच्च हो गयी तथा धर्मतंत्र का प्रभाव नगण्य हो गया । अर्थशास्त्र में स्पष्टत: कहा गया है कि राजशासन (राजाज्ञा) धर्म, व्यवहार तथा चरित्र इस तीनों से श्रेष्ठ होता है ।

यदि किसी राजाज्ञा के साथ धर्मशास्त्र का विरोध हो तो राजा का न्याय ही प्रमाण माना जायेगा क्योंकि देशकाल की परिस्थिति के कारण उस समय धर्मशास्त्र के वचन गौड़ हो जायेंगे । इस प्रकार राजा, यद्यपि विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदायों का आदर करता था तथापि वह धर्मगुरुओं या पुरोहितों के हाथ की कठपुतली कदापि नहीं था ।

भारतीय राजतंत्र धर्मतन्त्र नहीं था । इस प्रकार यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन शासन धार्मिक विचारों से प्रभावित नहीं था । धर्म केवल एक नैतिक शक्ति था । हमें ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इसे सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता के रूप में मान्यता दी गयी थी ।

प्राचीन व्यवस्थाकारों ने सिद्धान्त रूप में धर्म की प्रभुसत्ता को भले ही स्वीकार किया हो किन्तु व्यवहार में ऐसी कोई भी संस्था नहीं थी जो धर्म का अतिक्रमण करने वाले राजा को नियंत्रित कर सकती । यह सदैव कार्य करने का नैतिक दार्शनिक प्रतिमान बना रहा किन्तु कभी भी इसकी कल्पना सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता के रूप में नहीं की गयी ।