लाल बहादुर शास्त्री का भाषण “ताशकंद सम्मेलन” । Speech of Lal Bahadur Shastri on “Tashkent Conference” in Hindi Language!

ताशकंद सम्मेलन में 4 जनवरी, 1966 को श्री शास्त्रीजी द्वारा दिया गया सम्मेलन के समक्ष उनका ऐतिहासिक भाषण । अध्यक्ष कोसीगिन ! आपके जिस साहसपूर्ण कदम ने मुझे और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्युब खां को इस ऐतिहासिक एशियाई नगर में एक स्थान पर मिलाया है, मेरी जनता, मेरी सरकार और मैं उस कदम की हृदय से सराहना करते हैं ।

सबसे पहले मैं उसी भावना को व्यक्त करना चाहता हूं । मुझे यह कहते हुए अपार हर्ष होता है कि हमें इस नगर में जो आतिथ्य मिल रहा है, हमारी जिस तरह प्रेमपूर्वक देखभाल की जा रही है, उसके लिए मैं और मेरा प्रतिनिधिमण्डल हृदय से आपका आभारी है । ताशकंद की जनता ने हमारा जो भव्य स्वागत किया वह सचमुच हमारे हृदय को छू गया ।

मुझे ज्ञात है कि हमारे दोनों देशों के बीच अनेक ऐसे मतभेद हैं जिसका हल नहीं हो सकता है । जिन देशों में बहुत अच्छे सम्बन्ध होते हैं उनके बीच भी मतभेद और विवाद पाये जाते है । हमारे सामने आज प्रश्न यह है कि क्या हमें उन मतभेदों और विवादों को हल करने के लिए शक्ति के तरीके के बारे में सोचना है या हमें यह तय करके घोषणा कर देनी है कि हम शक्ति का कभी इस्तेमाल नहीं करेंगे ।

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यदि दूसरे देश जो बहुत साधन-सम्पन्न हैं और जिनके बीच मतभेद है, सशस्त्र संघर्ष बचाकर शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के आधार पर साथ-साथ जीवित रह सकते हैं, तो क्या भारत और पाकिस्तान-जैसे देशों का जिनके सामने मुख्य समस्या अपने-अपने जनगण की आर्थिक दशा सुधारने की है, यह कर्तव्य नहीं कि वे हथियारों की मदद से समस्याओं को हल करने का विचार त्याग दें । ‘ताशकंद सम्मेलन’ के लिए आपने निमन्त्रण दिया है ।

इस उद्देश्य की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी है । शान्ति भारत और पाकिस्तान के लिए तो परम आवश्यक है ही सारी दुनिया के लिए भी यह बहुत जरूरी है । हमें भारत-पाक सम्बन्धी एक नये अध्याय का सूत्रपात करने का प्रयत्न करना चाहिए । मैं पुरानी बातें नहीं दोहराना चाहता । मैं समझता हूं और मेरा ख्‌याल है कि हमारे दोनों देशों के बीच यह युद्ध बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना रही ।

हमें इस सम्मेलन में अपने पुराने गुस्से निकालने की जरूरत नहीं बल्कि हमें भविष्य की ओर देखना है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रसंग में आक्रमण का जवाब देने के लिए ही शक्ति-प्रयोग का औचित्य माना जा सकता है । इसलिए यदि हम एक-दूसरे को शक्ति का प्रयोग न करने का आश्वासन देते है तो इसका अर्थ यह होगा कि हम एक-दूसरे की प्रादेशिक अक्षुण्णता का सम्मान करते हैं ।

हमारा सदा से यह कहना है और आज भी मैं कहता हूं कि हम पाकिस्तान की प्रभुसत्ता और प्रादेशिक अक्षुण्णता को बिना किसी हिचक के स्वीकार करते हैं । इसी प्रकार हमें अपनी प्रभुसत्ता तथा प्रादेशिक अक्षुण्णता की रक्षा करनी है । शान्ति और अच्छे सम्बन्धों के लिए एक-दूसरे की प्रभुसत्ता का सम्मान करना अत्यन्त आवश्यक होता है ।

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यदि इस सिद्धान्त को इस बार स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया जाये तो भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों के पूरे स्वरूप को दोनों देशों के जनगण के दिल में बदल दिया जा सकता है । मैं अपनी अनुमति से यहां स्पष्ट शब्दों में और पूरी सचाई के साथ यह कहना चाहता हूँ कि हमारी कामना है कि पाकिस्तान की जनता फूले-फले ।

हम स्वयं अपनी जनता के जीवन में सुधार लाने का प्रयत्न कर रहे हैं । हमारा विश्वास है कि यदि भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे सम्बन्ध बन जायें तो यह उप-महाद्वीप शीघ्र ही समृद्ध हो सकता है । जैसा कि हमने कहा इस तरह के सम्बन्ध की आधारशिला शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति की स्वीकृति होनी चाहिए । इस नीति का पालन करते हुए अनेक मोर्चों पर कदम उठाने होंगे ।

मसलन शीत-युद्ध के वातावरण को समाप्त करना होगा । यदि समाचारपत्रों और रेडियो के प्रचारों द्वारा दोनों देशों के जनगण में बैर या अविश्वास की भावना भरने का कम जारी रहेगा तो हम दोनों सरकारों के प्रधान चाहे जो कुछ करें संघर्ष का खतरा सदैव बना रहेगा । दोनों देशों के सारे सम्बन्धों में सुधार लाने को ही हमें अपना लक्ष्य बनाना चाहिए । हमारा व्यापार संकुचित होता जा रहा है । उसमें विकास होना चाहिए ।

भारत और पाकिस्तान से होकर अनेक नदियां बहती हैं । आज वे विवादस्रोत बनी हैं । होना यह चाहिए कि उनके द्वारा हमारा सहयोग और बड़े । इससे हमारे देशों को लाभ पहुंचेगा । इसी प्रकार आर्थिक सहयोग के अनेक क्षेत्र हैं । इन्हें और समझदारी के आधार पर परस्पर हित की दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है ।

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यह सब कहते समय मेरा यह सुझाव नहीं है कि हमें दोनों देशों के बीच पाये जाने वाले अनेक मतभेदों से अपनी आखें बन्द कर लेनी चाहिए । मैं उन मतभेदों को गिनाना नहीं चाहता लेकिन मेरा यह कहना जरूर है कि इन समस्याओं को शक्ति-प्रयोग से नहीं बातचीत के द्वारा हल करना चाहिए ।

सशस्त्र संघर्ष समस्याओं को हल करने की बजाय नयी समस्याएं पैदा करता है । इससे युद्ध और सुलह के रास्ते में रोड़े आते हैं । दूसरी ओर शान्तिपूर्ण वातावरण में अपने विचारों को हल करने की दिशा में हम सही अर्थों में प्रगति कर सकते हैं । यदि हम सम्मेलन में-जिसे अध्यक्ष कोसीगिन ने बुलाया है-सारे मतभेदों के हल के लिए शक्ति का प्रयोग न करने का समझौता हो जाता है, तो यह सचमुच एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होती है ।

इससे हमारे बीच अच्छे पड़ोसियों के सम्बन्धों का मार्ग प्रशस्त होता है, जिसकी दोनों देशों को बड़ी आवश्यकता है और जिससे हमारी अन्य समस्याओं के हल आसान हो जायेंगे । हम अन्य, प्रश्नों पर भी बात कर सकते हैं । ऐसा करना भी चाहिए, लेकिन यदि उन पर हमारा मतभेद भी हो और तुरन्त समझने का कोई रास्ता नहीं निकल पा रहा हो तो भी हमें शान्ति का रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए ।

हमारे कन्धों पर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है । हमारे इस महाद्वीप में 60 करोड़ जनता बसती है । यह पूरी मानव-जाति का पांचवां भाग है । यदि भारत और पाकिस्तान को प्रगति करनी है, तो उन्हें शान्तिपूर्वक रहना होगा । यदि संघर्ष और बैर बना रहा तो हमारे जनगण और बड़ी-बड़ी मुसीबतों में फंसते जायेंगे । इसके बजाय कि हम आपस में लड़े हमें आज गरीबी बीमारी और युद्ध के विरुद्ध युद्ध छेड़ना है ।

दोनों देशों के जनसाधारण की समस्याएं आशाएं तथा सपने एक हैं । वे संघर्ष और युद्ध नहीं शान्ति और प्रगति चाहते हैं । उन्हें अस्त्र-शस्त्र की नहीं भोजन की आवश्यकता है, वस्त्र और घर की जरूरत है । यदि हमें अपनी जनता की इन आवश्यकताओं को पूरा करना है, तो हमें इस सम्मेलन में कुछ ठोस और विशिष्ट उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील होना होगा । यह एक ऐतिहासिक सम्मेलन है ।

सारी दुनिया की निगाहें हमारे ऊपर लगी हुई हैं ।  हमें दुनिया को यह कहने का मौका नहीं देना है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमन्त्री ताशकंद में मिले तो जरूर लेकिन कोई समझौता न कर सके । आइये, हम अपने कार्यों से दिखा दें कि हममें अपनी समस्याओं को विश्व के सन्दर्भ में रखकर देखने की क्षमता है ।