“परमाणु धमकी” पर कोफी अन्नान का भाषण । Speech of Kofi Annanon “The Nuclear Threat” in Hindi Language!

घाना में जन्मे राजनयिक कोफी अत्ता अन्नान 1 जनवरी, 1997 से 37 दिसम्बर 2006 तक सयुंक्त राष्ट्र के महासचिव रहे । निरस्त्रीकरण पर अपना यह भाषण इन्होंने 28 नवम्बर, 2006 को अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में दिया था ।

मुझे बहुराष्ट्रवाद के महान् रचयिता और विश्व शान्ति के समर्थक वुडरो विल्सन के नाम पर स्थापित इस विद्यालय में भाषण देने के लिए बुलाये जाने पर बहुत प्रसन्नता हो रही है । उन्होंने अन्य बातों के साथ यह तर्क भी पेश किया कि महाविध्वंस के शस्त्रास्त्रों पर एक स्वीकृत अन्तर्राष्ट्रीय सीमा निर्धारित की जानी चाहिए ।

प्रिंस्टन अल्वर्ट आइंस्टाइन तथा अन्य कई महान् वैज्ञानिकों की याद से अरि भन्न रूप से सम्बद्ध है, जिन्होंने इस देश को पहली परमाणु शक्ति बनाने में भूमिका अदा की । इससे आज की शाम मेरे इस भाषण के लिए अत्यन्त ठानुकूल पृष्ठभूमि बनती है; क्योंकि मेरा विषय है परमाणु अस्त्रों का खतरा और उसे खतरे का सामना करने की तात्कालिक जरूरत जो परमाणु प्रसार को रोकने तथा निरस्त्रीकरण-दोनों को एक साथ करने से ही हो सकता है ।

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मेरा कहना है कि ये दोनों लक्ष्य परमाणु अप्रसार और निरस्त्रीकरण अभिन्न रूप से परस्पर सम्बद्ध हैं । अत: इनमें से किसी भी एक में विकास के लिए हमें दूसरे के प्रति आगे बढ़ना होगा । वर्तमान विश्व में प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको असुरक्षित अनुभव करता है, लेकिन इसमें से प्रत्येक व्यक्ति किसी एक ही वस्तु को लेकर असुरक्षित अनुभव नहीं करता ।

विश्व के विभिन्न भागों में अलग- अलग प्रकार के खतरे वहां की जनता को अधिक तात्कालिक लगते हैं । सम्भवत: अधिक संख्या में लोग गरीबी पर्यावरण के नष्ट होने और संक्रामक बीमारियां जैसे आर्थिक व सामाजिक खतरों को सर्वश्रेष्ठता देना चाहेंगे ।

दूसरे अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष पर बल दे सकते हैं या कुछ अन्य गुहयुद्ध सहित आन्तरिक संघर्ष पर बल दे सकते हैं । केवल विकसित विश्व में ही नहीं अन्यत्र भी कई लोग अब आतंकवाद को सूची में सबसे ऊपर जगह देना चाहेंगे ।

वास्तव में ये सभी खतरे परस्पर सम्बद्ध हैं । ये सभी राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार हैं । हमें इन सबका सामना करने के लिए वैश्विक रणनीति की जरूरत है । इसलिए सरकारें भी अब इन रणनीतियों को बनाने तथा उन्हें लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र में और अन्यत्र एकजुट हो रही हैं ।

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एक क्षेत्र ऐसा भी है, जिसके लिए किसी साझा रणनीति का बहुत अभाव है, जबकि उससे सबसे अधिक खतरा परमाणु अस्त्रों का क्षेत्र हो सकता है । मैं इसे सबसे बड़ा खतरा क्यों मानता हूं ? इसके तीन कारण हैं: पहला, परमाणु अस्त्र पूरी मानवता के अस्तित्व के लिए खतरा हैं; दूसरा परमाणु अप्रसार के क्षेत्र में भरोसे का बहुत बढ़ा संकट है ।

उत्तर कोरिया परमाणु अप्रसार सन्धि से पीछे हट गया है । भारत पाकिस्तान और इजराइल कभी इसमें शामिल ही नहीं हुए । ईरान के परमाणु कार्यक्रम से सम्बन्ध में कई गम्भीर खवाल उठते हैं । यह वर्तमान परमाणु शक्तियों द्वारा अपनाये गये हर मामले के बारे में विशिष्ट रवैये की वैधता व विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाता है ।

तीसरा खतरा आतंकवाद के कारण है कि आतंकवादियों के हाथ परमाणु हथियार लग सकते हैं । इससे उनके प्रयोग का खतरा बहुत ज्यादा बढ़ जाता है । फिर भी इस गम्भीर खतरे के सर्वव्यापी स्वरूप के बाबुजूद विश्व की सरकारें इसका सामना समस्त रूप से न करके अलग-अलग कर रही हैं । एक दृष्टि से तो यह बात समझ में आती है । समस्त विश्व के आत्मविनाश की कल्पना भी असहनीय है ।

लेकिन यह कोई बहाना नहीं । हमें विश्व के किसी एक या कई प्रमुख नगरों में परमाणु बम के विस्फोट या फिर दो परमाणु शक्तियों के परस्पर टकराव के पर्यावरण व मानवता पर होने वाले परिणाम के बारे में सोचने का प्रयत्न करना चाहिए ।

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मैं परमाणु अस्त्रों के बारे में बात करते वक्त रासायनिक या जैविक अस्त्रों की समस्या को अप्रधान नहीं मान रहा हूं जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों द्वारा प्रतिबन्धित किया गया है । वास्तव में आतंकवाद से सबसे बड़ा डर जिस पर ध्यान नहीं दिया गया उनके द्वारा जैव अस्त्रों का प्रयोग करना ही है । लेकिन परमाणु अस्त्र सबसे खतरनाक हैं ।

एक बम ही पूरे शहर को खत्म कर सकता है, यह बात हम हिरोशिमा और नागासाकी के भयानक उदाहरणों से जानते हैं और आज भी उनकी तुलना में कहीं ज्यादा शक्तिशाली बम हैं । ये बम समस्त मानवता के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं ।

चालीस साल पहले इस बात को समझते हुए कि इस खतरे को हर मूल्य पर टालना होगा विश्व के लगभग सभी राष्ट्रों ने मिलकर एक महान् समझौता किया जो परमाणु अप्रसार सन्धि में सन्निहित है । वास्तव में तत्कालीन परमाणु अस्त्रों वाले राष्ट्रों और शेष विश्व के मध्य यह एक सन्धि थी ।

परमाणु अस्त्र वाले राष्ट्रों ने अच्छी नीयत से परमाणु निरस्त्रीकरण अप्रसार परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग की सुविधा उपलब्ध कराने का अनुबन्ध किया । इसके अलावा उन्होंने अलग से घोषणा की कि वे परमाणु अस्त्रविहीन राष्ट्रों को परमाणु अस्त्रों की धमकी नहीं देंगे । इसके बदले में शेष राष्ट्रों ने वचन दिया कि वे न तो परमाणु अस्त्रों का उत्पादन करेंगे न ही उन्हें कहीं से प्राप्त करेंगे ।

वे अपनी सभी परमाणु गतिविधियों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षण में रखेंगे । इस तरह इस सन्धि का प्रारूप परमाणु अप्रसार निरस्त्रीकरण की प्रगति के साथ-साथ विशिष्ट स्थितियों में परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण प्रयोग के लिए राष्ट्रों के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए तैयार किया गया ।

सन् 1970 में यह सन्धि लागू हुई । तब से लेकर अभी हाल तक इसे मुख्यत: विश्व सुरक्षा की आधारशिला माना जाता था । इसने अपने कटु आलोचकों की भविष्यवाणियों को भी गलत सिद्ध कर दिया है । सन् 1960 के दशक में जॉन एफ॰ केनेडी तथा कई अन्य राजनेताओं ने जो भविष्यवाणी की थी उसके अनुसार परमाणु अस्त्रों का प्रसार दर्जनों राष्ट्रों में अभी तक भी नहीं हुआ है ।

वास्तव में परमाणु अस्त्र प्राप्त करने की बजाय अधिक राष्ट्रों ने उन्हें प्राप्त करने की इच्छा को त्याग दिया है । फिर भी कुछ सालों में परमाणु अप्रसार सन्धि की अपमानपूर्ण आलोचना हुई है । इसका कारण यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी इस बात पर एकमत होने में असमर्थ रही है कि दक्षिण एशिया कोरियाई प्रायद्वीप और मध्य-पूर्व की विशिष्ट विपत्तिपूर्ण स्थितियों में इसे कैसे कार्यान्वित किया जाये ।

इसके अलावा सन्धि के सदस्य कुछ राष्ट्रों का आरोप है कि वे परमाणु अस्त्र क्षमता प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं । सन् 2005 में दो बार सरकारों को सन्धि की आधारशिला को दृढ करने का मौका  मिला । पहली बार मई के पर्यवेक्षण सम्मेलन में और फिर सितम्बर के विश्व शिखर सम्मेलन में परन्तु वे दोनों बार नाकामयाब रहे; क्योंकि दोनों बार वे इस बात पर एकमत होने में असफल रहे कि पहले परमाणु अप्रसार होना चाहिए या निरस्त्रीकरण ।

परमाणु अप्रसार पहले होना चाहिए का तर्क देने वाले मुख्य रूप से परमाणु अस्त्रों वाले राष्ट्र और उनके समर्थक हैं । उनका कहना है कि मुख्य भय परमाणु अस्त्रों से नहीं बल्कि जिसके पास ये अस्त्र हों उसके चरित्र के कारण है । अत: नये राष्ट्रों तक तथा गैर-राष्ट्रों तक उनके प्रसार से भय है ।

परमाणु अस्त्रों वाले राष्ट्रों का कहना है कि उन्होंने शीत युद्ध खत्म होने के पश्चात् से पर्याप्त निरस्त्रीकरण किया है, लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा के लिए उनके उत्तरदायित्व को निभाने के लिए उनके पास परमाणु अस्त्रों का निवारण के रूप में होना जरूरी है ।

निरस्त्रीकरण पहले ही होना चाहिए था । इस तर्क को देने वालों का कहना है कि परमाणु अस्त्रों के वर्तमान जखीरे और उसमें आये दिन होने वाले परिवर्तन से विश्व में अत्यन्त जोखिम की स्थिति बनी हुई है । अनेक अपरमाणु राष्ट्रों ने आरोप लगाया है कि परमाणु अस्त्रों वाले राष्ट्र सन् 1995 में परमाणु अप्रसार सन्धि के अनिश्चितकाल तक बढ़ाये जाने के वक्त किये अपने वादों से पीछे हट रहे हैं ।

यही बात सन् 2000 में फिर से दोहरायी गयी । उनका कहना है कि परमाणु अप्रसार का महान् समझौता एक झासा बनकर रह गया । उनका यह भी कहना है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने भी महाविनाश के अस्त्रों के प्रसार को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा के लिए अकसर खतरा बताया है, लेकिन यह घोषणा कभी नहीं की कि सुरक्षा परमाणु अस्त्र अपने आप में ही ऐसा खतरा है ।

उनका कहना है कि परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए कोई गम्भीर कदम नहीं उठाया गया है और ऐसा न करने से परमाणु राष्ट्रों व अपरमाणु राष्ट्रों के मध्य एक स्थायी भेदभाव की स्थिति बन गयी है । इस विवाद के दोनों पक्षों का कहना है कि परमाणु अप्रसार सन्धि के दायरे से बाहर के चार अतिरिक्त राष्ट्रों के पास परमाणु अस्त्रों का होना उनके तर्क को और ताकतवर बनाता है ।

शस्त्रास्त्रों को संचित करने से खतरा उत्पन्न होता है, जो युद्ध की स्थिति तक पहुंच सकता है । राजनीतिक संघर्ष अस्त्रों को एकत्रित करने के लिए प्रेरित करते हैं । अत: शस्त्रास्त्रों और संघर्ष दोनों को कम करने की कोशिश करने की जरूरत है । इसी प्रकार निरस्त्रीकरण और परमापु अस्त्रों के अप्रसार दोनों के लिए कोशिश करने की जरूरत है ।

फिर भी, प्रत्येक पक्ष दूसरे द्वारा पहल किये जाने के इन्तजार में है । परिणामस्वरूप परस्पर सुनिश्चित विनाश ने परस्पर सुनिश्चित निष्कियता व गतिहीनता की जगह ले ली है । यह असहमति का भयानक संकेत है । सन्धि के प्राधिकार का सम्मान करने की जरूरत है, अन्यथा इस शून्य का अनुचित फायदा उठाये जाने की पूरी आशंका है ।

इससे पहले इसी साल मैंने कहा था कि हम नींद में गर्त की तरफ चल रहे हैं । वास्तव में स्थिति उससे भी बुरी है । हम तो तेज गति से उड़ते एक विमान के नियन्त्रण कक्ष में नींद ले रहे हैं । यदि हम जागकर इसे नियन्त्रित नहीं करेंगे तो परिणाम की सहज ही कल्पना की जा सकती है ।

कोई विमान तभी तक आकाश में उड़ान भर सकता है, जब तक उसके दोनों पंख सही कार्य कर रहे हों । हम अप्रसार व निरस्त्रीकरण में चुनाव नहीं कर सकते । हमें ये दोनों ही कार्य तात्कालिक स्तर पर करने होंगे । मैं यहां इन दोनों पक्षों के बारे में अपना मत प्रस्तुत करना चाहूंगा ।

जो निरस्त्रीकरण पहले होना चाहिए इसके लिए आग्रह करते हैं मेरा उनसे कहना है: परमाणु अस्त्र प्रसार मुख्यत: उनके लिए खतरा नहीं है, जिनके पास ये अस्त्र हैं । जितनी ज्यादा उंगलियां परमाणु अस्त्रों के मुक्त करने वाले पर होंगी और उनमें जितनी ज्यादा उंगलियां अस्थिर राष्ट्रों के नेताओं की होंगी या इससे भी बदतर गैर-राष्ट्रीय पात्रों की होंगी समस्त विश्व के लिए उतना ही बड़ा खतरा होगा ।

निरस्त्रीकरण में विकास न होना परमाणु प्रसार के खतरे का सामना न करने के लिए कोई सही तर्क नहीं है । किसी भी राष्ट्र को यह नहीं समझना चाहिए कि परमाणु अस्त्रों के अपने कार्यक्रम को बढ़ावा देकर वह परमाणु अस्त्र अप्रसार सन्धि का संरक्षक बन सकता है या अन्य राष्ट्रों को निरस्त्रीकरण के लिए मना सकता है ।

सब राष्ट्रों से मेरा अनुरोध है कि जिसको श्रेय मिलना चाहिए उसे दिया जाये । जहां भी निरस्त्रीकरण होता है, उसे मान्यता दी जाये । परमाणु अस्त्र वाले राष्ट्रों ने जो कदम उठाये हैं, उनकी प्रशंसा की जाये ।  भले ही उन्होंने यह कार्रवाई अपनी इच्छा से एक तरफा की हो या समझौते के कारण ।

चाहे परमाणु अस्त्रों के भण्डार को कम करने के लिए हो या फिर उनका प्रसार रोकने के लिए । हमें इस बात की सराहना करनी चाहिए कि परमाणु शक्तियों ने अस्त्रों के उत्पादन के लिए नये विखण्डनीय पदार्थों का उत्पादन रोक दिया है और परमाणु परीक्षण पर रोक लगाने के लिए दृढ़निश्चयी हैं ।

इसी तरह इसके प्रसार पर नियन्त्रण रखने के लिए उठाये गये छोटे कदमों का भी स्वागत करें जैसे कि महाविनाश के अस्त्रों के लिए जरूरी पदार्थों पर निर्यात को नियन्त्रित करने की कोशिश जो सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव संख्या 1540 के अनुरूप है ।

कृपया आई॰ए॰ई॰ए॰ के महानिदेशक और अन्य के सभी राष्ट्रों की असैनिक जरूरतों के लिए उनके परमाणु कार्यक्रमों के लिए ईंधन उपलब्ध कराने के तरीकों की गारण्टी देने के प्रयासों का समर्थन करें । राष्ट्रों को अपनी ऊर्जा की बढ़ती जरूरत को पूरा करने के लिए इन कार्यक्रमों की जरूरत है ।

लेकिन जहां देश परमाणु ईंधन की संवेदनशील प्रक्रिया को अपने आप पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं उनके बारे में हम कुछ नहीं कह सकते । आखिर में हमें ऐसे प्रयत्नों को बढावा देने या उनकी अनुमति देने का प्रयास नहीं करना चाहिए जहां परमाणु अस्त्रों को खत्म करने या उनके अप्रसार को सशर्त बनाया जा रहा हो तथा उनको किसी देश को दी जाने वाली छूटों या दूसरे मुद्दों के साथ जोड़ा जा रहा हो ।

इस धरती पर मनुष्य जीवन की सुरक्षा इतनी अमूल्य है कि उसे बन्धक बनाने की आज्ञा नहीं दी जा सकती । जो परमाणु अस्त्र अप्रसार को पहले किये जाने के लिए आग्रह करते हैं, उनसे मेरा कहना है । यह सच है कि शीतयुद्ध के पश्चात् से परमाणु निरस्त्रीकरण में कुछ विकास हुआ है । कई देशों ने तैनाती से परमाणु अस्त्रों को हटा लिया है । उन्होंने परमाणु अस्त्रों के संचालन/प्रक्षेपण की सम्पूर्ण प्रणाली को खत्म कर दिया है ।

अमेरिका व रूस ने परमाणु अस्त्रों की तैनाती की संख्या को सीमित करना मान लिया है । उन्होंने गैर-रणनीतिक अस्त्रों को युद्धपोतों व पनडुब्बियों से हटा लिया है ।  अमेरिकी संसद ने कथित बंकर ध्वंसक बम के लिए धनराशि स्वीकार करने से मना कर दिया है । अधिकांश परमाणु परी क्षण केन्द्र बन्द कर दिये गये हैं । परमाणु परीक्षणों पर राष्ट्रीय स्थगन जारी है ।

फ्रांस रूस और ब्रिटेन ने व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (C.T.B.T.) की अभिपुष्टि की है । फिर भी, संचयित अस्त्रों की संख्या भयानक रूप से ज्यादा है । प्राप्त सूचना के अनुसार 27,000 परमाणु अस्त्र अभी भी मौजूद हैं, जिनमें से 12,000 सक्रिय रूप से तैनात हैं ।

कुछ देशों का विचार है कि उन्हें कम अस्त्रों की जरूरत है । वे छोटे और इस्तेमाल करने योग्य होने चाहिए । उनकी धारणा है कि इनका इस्तेमाल युद्ध में किया जा सकता है । परमाणु अप्रसार सन्धि के सभी परमाणु अस्त्रों वाले राष्ट्र अपने परमाणु अस्त्रों के भाण्डार प्रणाली का आधुनिकीकरण कर रहे हैं ।

उन्हें यह नहीं समझना चाहिए कि यह परमाणु अप्रसार सन्धि के अनुकूल है । प्रत्येक व्यक्ति आसानी से समझ सकता है कि यह क्या है,परमाणु अस्त्रों से दोबारा लैस होने की शिष्टोक्ति ! यह भी स्पष्ट नहीं है कि ये देश परमाणु अप्रसार सन्धि से बाहर के परमाणु शक्ति वाले देशों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहते हैं ।

परमाणु क्षमता अर्जित करने के खतरे के प्रति वे चेतावनी तो देते हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि उस पर रोकथाम कैसे लगायी जाये या यदि ऐसा हो गया है, तो उसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए । उन्हें निश्चय ही इस खतरा बढ़ाने वाली प्रक्रिया को उलटने का प्रयास करना चाहिए ।

यह परमाणु अस्त्रों के भाण्डार में निरन्तर कमी लाकर की जा सकती है, जिससे परमाणु अस्त्रों की मुद्रा का अवमूल्यन होगा और दूसरे भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित होंगे । लेकिन इसके विपरीत अपने अस्त्र भाण्डार से चिपके रहकर और उसका आधुनिकीकरण करके विशेषत: ऐसी स्थिति में जब उनके देश को ऐसा कोई खतरा नहीं है, जिसकी रोक के लिए परमाणु अस्त्रों की जरूरत हो परमाणु अस्त्रों वाले राष्ट्र अन्य देशों को प्रोत्साहित कर रहे हैं ।

खासतौर से उन देशों को जो अपने क्षेत्र में वास्तविक खतरा अनुभव करते हैं । उनको लगता है कि परमाणु अस्त्र उनकी सुरक्षा और रुतबे दोनों के लिए जरूरी है । यदि परमाणु अस्त्रों के अस्तित्व को ही सार्वभौम रूप से खतरनाक और अवैध मान लिया जाये तो इन अस्त्रों का प्रसार करने वालों का सामना करना आसान हो जायेगा ।

इसी प्रकार यदि दूसरों को परमाणु परीक्षण के लिए उसका उत्साह नष्ट करने वाले देश खुद परमाणु प्रतिबन्ध सन्धि को कड़ाई से लागू करें तथा अपना प्रक्षेपास्त्र परीक्षण स्थगित करें तो वे अपने तर्क को ज्यादा प्रभावी रूप से प्रस्तुत कर सकते हैं । इस तरह के कदम उठाने से परमाणु अप्रसार में किसी अन्य उपाय की तुलना में कहीं अधिक विकास होगा ।

अर्जेण्टीना ब्राजील जर्मनी और जापान जैसी बड़ी शक्तियों ने इन अस्त्रों का विकास न करके यह दिखा दिया है कि परमाणु अस्त्र उनकी सुरक्षा या रुतबे के लिए जरूरी नहीं हैं ।  दक्षिण अफ्रीका ने अपना भाण्डार नष्ट कर दिया और परमाणु अस्त्र अप्रसार सन्धि का सदस्य बन गया । बेलारूस, यूक्रेन और कजाकिस्तान ने पूर्व सोवियत सँघ के अपने परमाणु अस्त्रों को त्याग दिया ।

लीबिया ने अपना परमाणु और रासायनिक अस्त्र उत्पादन का कार्यक्रम त्याग दिया । परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों ने इन उदाहरणों की तारीफ की है । उन्हें चाहिए कि वे खुद भी इनका अनुकरण करें । अनेक देशों की सरकारें व नागरिक समाज शीत युद्ध के परमाणु अस्त्रों की रोक वाले सिद्धान्त की प्रासांगिकता पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं । सभी परमाणु अस्त्र सम्पन्न देश इस तर्क का प्रयोग करते हैं ।

लेकिन इस युग में जब गैर-राज्यीय पात्रों से भी खतरा लगातार बढ़ रहा है, इसकी क्या प्रासंगिकता रह जाती है? क्या हमें इसके बदले में प्रसार को रोकने के लिए कोई सर्वसम्मत रणनीति नहीं अपनानी चाहिए ? मैं उपर्युक्त सभी कारणों से परमाणु अस्त्रों वाले सभी देशों का आह्वान करता हूं कि वे निश्चित समय-सारणी के साथ अपनी निरस्त्रीकरण की वचनबद्धता को लागू करने के लिए कोई ठोस योजना बनायें ।

मेरा उनसे आग्रह है कि वे सभी परमाणु अस्त्रों के अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण में उत्तरोत्तर त्याग के अपने मनसूबों की घोषणा करें । मित्रो ! संक्षेप में बात यह है कि दोनों ही पक्षों में विकास ही इसका एकमात्र समाधान है । हमें अप्रसार व निरस्त्रीकरण एक साथ और फौरन करना चाहिए ।

हम तब तक इसमें कामयाब नहीं होंगे जब तक कि हम आतंकवाद के खतरे तथा कुछ विशिष्ट राष्ट्रों के वास्तविक व काल्पनिक खतरों से उनको बरी न कर दें जिनके कारण वे सुरक्षित अनुभव करने के लिए परमाणु अस्त्रों का निर्माण या उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं ।

यह एक जटिल व उत्साहहीन करने वाला कार्य है । इसके लिए भरोसा उत्पन्न करने, बातचीत व समझौता करने में निपुण नेतृत्व की जरूरत है, परन्तु इससे पहले हमें इस पर नये सिरे से बातचीत करने की जरूरत है । इसमें अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को शामिल किया जाना चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए ।

इसके लिए वुडरो विल्सन के बहुप क्षीय दृष्टिकोण को अपनाना जरूरी है, जो अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों सन्धियों नियमों व परम्पराओं को आधार मानकर अपनाया गया हो । मैं अपने भाषण की समाप्ति सर्वत्र युवाओं से अपील के साथ करता हूं क्योंकि उनमें से बहुत से यहां भी उपस्थित हैं ।

मेरे युवा मित्रो ! आप सब पहले से ही विश्व की प्रगति मानव अधिकार व पर्यावरण संरक्षण के कार्य में लगे हुए हैं । अपनी ऊर्जा व कल्पनाशक्ति का प्रयोग इस चर्चा में भी करें । जिस वंचक विमान पर हम सवार हैं, उस पर नियन्त्रण पाने में हमारी मदद करें ताकि इससे पहले कि बहुत देर हो जाये हम उसे सुरक्षित उतार सकें ।

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