मौलिक अधिकार: अर्थ व उनकी आवश्यकता | Fundamental Rights: Meaning and Need in Hindi!

मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित संविधान का तृतीय भाग भारतीय जनता की अनिवार्य स्वतन्त्रताओं का अधिकार प्रपत्र (Magna Carta) माना जाता है । इस तथ्य के बावजूद कि राज्य द्वारा उन पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं तथा राष्ट्रीय संकट के समय राष्ट्रपति उनके क्रियान्वयन को स्थगित कर सकता है, मौलिक अधिकारों की सूची पर्याप्त रूप में न्याय की कसौटी पर कसी जा सकती है ।

अत: अध्ययन के प्रारम्भ में ही यह ध्यान में रखना चाहिए कि संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार न कि उन पर लगाये जाने वाले सम्बन्धित प्रतिबन्ध नेहरू के शब्दों में : ‘संविधान की अन्तरात्मा’ (Consciene of the Constitution) की रचना करते है ।

मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री ने गोपालन के मामले (1951) में यह कहा :  ”अधिकारों पर विधायी हस्तक्षेप के विरुद्ध व्यक्त प्रतिबन्ध (अनुच्छेद 13) तथा न्यायिक पुनर्विचार (अनुच्छेद 32 व 226) द्वारा उपरोक्त प्रतिबन्धों पर संवैधानिक संस्तुति की व्यवस्था-सहित संविधान के अग्रभाग में मौलिक अधिकारों के उल्लेख से यह स्पष्ट तथा प्रभावी संकेत मिलता है कि मौलिक अधिकार राज्य द्वारा निर्मित साधारण कानूनों से ऊपर हैं ।”

मौलिक अधिकार: अर्थ व उनकी आवश्यकता :

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देश के उच्च कानूनों द्वारा संरक्षित हित के रूप में मौलिक अधिकारों को परिभाषित किया जा सकता है । मौलिक अधिकार संविधान के उन उपबन्धों से मान्यता पाते हैं, जिनके अन्तर्गत हमारे प्रजातान्त्रिक राज्य में सीमित पुलिस शक्तियों के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है ।

देश के मूल कानूनों में मौलिक अधिकारों त्रा पवित्र स्थान है तथा यह राज्य के अनुचित हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध भी लगाते हैं । राज्य को राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए मौलिक अधिकारों पर उपयुक्त न्म्पूवन्य लगाने का अधिकार है, परन्तु यह प्रतिबन्ध उचित है या नहीं यह निर्णय  करने का अधिकार न्यायपालिका को दिया गया है ।

इस प्रकार, जनता की संरक्षित स्वतन्त्रता के क्षेत्र में न्यायिक पुनरावलोकन (judicial review) एक अपरिहार्य अंग बन गया है । दुर्गादास बसु के शब्दों में : ”हम अपनी न्यायपालिकाओं पर भरोसा कर सकते हैं, जो हमारी स्वतन्त्रताओं का संरक्षण करने के साथ केवल न के हित में अपनी सत्ता का प्रयोग करती है ।”

संविधान उन लिखित व अलिखित नियमों का संग्रह है, जिनसे किसी राज्य में शासन का गठन व संचालन होता है, अत: उसमें मौलिक अधिकारों को शामिल करना आवश्यक नहीं है । सन् 1787 में अमरीका सन् 1867 में कनाडा व सन् 1900 में अस्ट्रेलिया के संविधान बने जिनमें मौलिक अधिकारों की रचना नहीं की गयी ।

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यह अलग बात है कि कुछ समय बाद इन संविधानों में संशोधन करके मौलिक अधिकारों को शामिल किया गया । सबसे पहले सन् 1936 मैं बने सोवितय रूस के संविधान में मौलिक अधिकारों एवं कर्तव्यों का वर्णन किया गया है, तभी से यह परम्परा शुरू हो गयी ।

यही कारण है कि सन् 1949 में बने हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों को स्थान दिया गया तथा सन् 1976 के 42वें संविधान संशोधन ने उसमें नागरिकों के मौलिक कर्तव्य भी जोड़े हैं । हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों का समावेश कोई अभूतपूर्व घटना नहीं है ।

राष्ट्रीय आन्दोलन के दिनों में ऐसे विषय पर ध्यान दिया गया । सन् 1928 में मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने 14-सूत्र प्रस्तुत किये जिनमें इसी प्रकार के मौलिक अधिकारों का समर्थन किया गया था । मार्च 1931 में कराची में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सत्र हुआ, जिसमें नेहरू द्वारा प्रस्तुत मौलिक अधिकारों व आर्थिक नीति का प्रस्ताव पारित किया गया ।

यही कारण है कि हमारी संविधान सभा ने संविधान में मौलिक अधिकारों का अध्याय शामिल करना अनिवार्य समझा । यह प्रश्न उठता है कि संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को क्यों शामिल किया जाता है ? इस बारे में निम्न सार्थक कारणों का उल्लेख किया जा सकता है :

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1. अधिकारों के बिना मनुष्य सभ्य जीवन व्यतीत नहीं कर सकता । अधिकारहीन मानव की स्थिति किसी बन्द पशु या पक्षी की तरह है, अत: सभ्य जीवन का मापन अधिकारों की व्यवस्था से किया जा सकता  है । राज्य में लोगों को जितने अधिक अधिकार प्राप्त होंगे वे उतना ही अधिक विकसित होते हैं तथा वे अपने अधिकारों की व्यवस्था को हर कीमत पर सुरक्षित रखते हैं ।

2. सभी अधिकार समान रूप में महत्वपूर्ण नहीं होते । कुछ बहुत अधिक कुछ अधिक, तो कुछ कम महत्तपर्ण होते हैं । मात्र कुछ अधिकारों को ही मौलिक अधिकारों की कोटि में रखा जा सकता है । जैसे-जीवन का अधिकार विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार स्वेच्छकारी नजरबन्दी से मुक्ति का अधिकार अन्त करण की स्वतन्त्रता का अधिकार आदि ।

किन्तु यह संविधान-निर्माताओं के सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक दर्शन पर निर्भर करता है कि वे किन-किन अधिकारों को इस सूची में रखें । समाजवादी देशों में रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार माना जाता है, जबकि उदारवादी देशों में ऐसा नहीं होता ।

3. यह आवश्यक है कि इन महत्त्वपूर्ण अधिकारों को कानूनी संरक्षण प्राप्त हो इस नाते उन्हें संविधान में लिख दिया जाये । लेकिन यदि लोग जागरूक हैं, तो संविधान में न लिखे होने पर भी उनका महत्त्व कम नहीं होता ।

सदैव सावधान रहना स्वतन्त्रता की कीमत चुकाना है । इंग्लैण्ड में लिखित संविधान नहीं है, फिर भी वहां के लोग अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग करते हैं । इसके विपरीत, साम्यवादी देशों (जैसे-चीन, उत्तरी कोरिया व क्यूबा) के संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन होता है, किन्तु सर्वसत्तावादी शासन उनकी स्वतन्त्रताओं को कुचल देता है ।

4. केवल यह पर्याप्त नहीं है कि देश के संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लिख दिया जाये, यह भी उतना ही आवश्यक है कि देश में स्वतन्त्र प्रेस व स्वतन्त्र न्यायपालिका हो ताकि लोग अपने अधिकारों की सुरक्षा कर सके ।

इसलिए न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखा जाता है, जो यथाआवश्यकता संविधान के प्रावधानों की व्याख्या या पुनर्व्याख्या करती है । समाचार-पत्र, पत्रिकाएं, दूरदर्शन अधिकारियों के अनुचित कार्यों का पर्दाफाश करते       हैं । इससे स्वतन्त्र जनमत का निर्माण होता है ।

5. भारत-जैसे पिछड़े देश के संविधान में इन अधिकारों का समावेश अपना विशेष महत्त्व रखता है । संविधान बनाने वालों को यह भय था कि कहीं सरकार स्वेच्छाचारी न बन जाये । राष्ट्रीय नेताओं ने ब्रिटिश शासकों के स्वेच्छाचारी शासन का विरोध किया था । वे जानते थे कि देश में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था के बिना सबल व सफल लोकतन्त्र स्थापित नहीं हो सकता ।

इन्हीं तत्त्वों को ध्यान में रखते हुए संविधान-निर्माताओं ने उसके तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों को शामिल किया । उन्होंने समाजवादी देशों (जैसे-तत्कालीन मोवियत संघ) के संविधानों से प्रेरणा नहीं ली जहां सर्वसत्तावादी शासन लोगों की त्रेंत्निक स्वतन्त्रताओं को कुचल कर मौलिक अधिकारों के वास्तविक महत्त्व को नष्ट कर देता है ।

उन्होंने उदारवादी देशों (जैसे-अमेरिका व कनाडा) से प्रेरणा ली, लेकिन देश की दुर्बल अर्थिक स्थिति तथा सामाजिक न्याय के आदेशों को न में रखते हुए उन्होंने सारी व्यवस्था को लोकतान्त्रिक समाजवाद की संस्थाओं से जोड़ दिया ।

मौलिक अधिकारों के प्रकार (Categories of Fundamental Rights) :

संविधान के तृतीय भाग में छह प्रकार के मौलिक अधिकारों का वर्णन है, जो कुछ मर्यादित प्रतिबन्धों से घिरे हैं । ससद को इन अधिकारों के प्रयोग पर उचित प्रतिबन्ध लगाने के लिए संविधान के संशोधन हेतु विस्तृत अधिकार दिये गये हैं ।

संविधान के इस भाग में प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों के राजनीतिक चरित्र के साथ ये राजनीतिक प्रजातन्त्र की संहिता भी है । अब सम्पत्ति के अधिकार के केवल कानूनी अधिकारी रह जाने के कारण भारतीय नागरिकों को निम्नलिखत छह मौलिक अधिकार प्राप्त हैं :

समानता का अधिकार :

1. कानून के समक्ष समानता तथा भारत की सीमा क्षेत्र में सभी को कानून का समान संरक्षण ।

2 सार्वजनिक वस्तुओं के उपयोग में धर्म जाति प्रजाति लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव वर्जित है, लेकिन राज्य महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों व अन्य पिछड़े वर्गों के हितार्थ अलग नीति बना सकता है ।

3. सार्वजनिक नौकरियों में अवसर की समानता की प्रत्याभूति लेकिन अनुसूचित जातियों अनुसूचित जन-जातियों व अन्य पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने हेतु पर्याप्त आरक्षण की व्यवस्था ।

4. अस्पृश्यता का उन्मूलन तथा किसी भी रूप में उसके प्रचार का निषेध ।

5. सैनिक व शैक्षणिक महत्त्व की उपाधियों के अलावा अन्य उपाधियों का उन्मूलन ।

स्वतन्त्रता का अधिकार :

1. छह स्वतन्त्रताओं की प्रत्याभूति- भाषण व अभिव्यक्ति की बिना शस्त्रों के शान्तिपूर्ण सभाएं करने की संस्थाएं व संघ बनाने की देश में मुक्त विचरण की भारत के किसी भाग में निवास या आवास की और कोई उद्योग व्यवसाय या काम करने की ।

2. अपराध करने पर उस समय लागू कानून के तहत कार्रवाई, एक अपराध के लिए एक दण्ड की व्यवस्था, बलपूर्वक आत्मारोपण की मनाही ।

3. कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार दोषी व्यक्ति को शारीरिक या आर्थिक दण्ड की व्यवस्था ।

4. कानून द्वारा 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों की नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था ।

5. मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध सुरक्षा व निवारक नजरबन्दी ।

शोषण के विरुद्ध अधिकार :

1. मानवों के यातायात व बलात् श्रम या बेगार का निषेध ।

2. 14 वर्ष से छोटी आयु के किशारों को संकटमय नौकरी की मनाही ।

धर्म का अधिकार :

1. अन्त: करण की स्वतन्त्रता किसी धर्म का पालन तथा शान्तिपूर्ण साधनों से उसका प्रचार करना ।

2. धार्मिक मामलों के प्रबन्धन की स्वतन्त्रता ।

3. किसी धर्म के लाभ के लिए कराधान की मनाही ।

4. किसी राजकीय या मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षण या उपासना में अनिवार्य उपस्थिति की मनाही ।

संस्कृति व शिक्षा की अधिकार :

1. अल्पसंख्यकों को अपनी विशिष्ट भाषा लिपि तथा संस्कृति सम्बन्धी हितों के संरक्षण का अधिकार ।

2. अल्पसंख्यकों को अपनी पसन्द की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना तथा उनके प्रशासन का अधिकार ।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार :

न्यायालय द्वारा उपरोक्त अधिकारों की सुरक्षा हेतु उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय को रिट याचिका सुनकर विशेष लेख व आदेश जारी करने का अधिकार ।

(क) बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख

(ख) परमादेश लेख

(ग) प्रतिबन्ध लेख

(घ) अधिकारपृच्छा लेख

(ङ) उत्प्रेषण लेख

जैसा पहले कहा जा चुका है, संविधान में वर्णित उपबन्धों के कारण मौलिक अधिकार निर्बाध नहीं हैं । अत: समानता के अधिकार पर लगे प्रतिबन्धों का वर्णन करना आवश्यक है । कानून की दृष्टि में समानता का आशय यह है कि राज्य सभी लोगों के लिए किसी भेदभाव के बिना एक-जैसे कानून बनायेगा तथा उन्हें लागू करेगा । सभी लोगों को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा ।

इस प्रकार भारत में ‘कानून के शासन’ (Rule of Law) की स्थापना की गयी है, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं है कि राज्य नागरिकों में उचित व तर्कसंगत भेद नहीं कर सकेगा । राज्य स्त्रियों और बच्चों के कल्याण के लिए कुछ विशेष उपबन्ध कर सकता है ।

सन् 2006 के पुत्रमें संविधान संशोधन के अनुसार राज्य अनुसूचित जातियों अनुसूचित जन-जातियों तथा सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े अन्य वर्गों की निजी गैर-सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थाओं (अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाओं को छोड़कर) में आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है ।

i. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights): 

मौलिक अधिकार का हालिया संशोधनों के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाना चाहिए । सन् 1995 के 77वें संविधान संशोधन में कहा गया है कि लोक सेवाओं में पदोन्नत्ति के समय अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन-जातियों के लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है ।

सन् 2000 के 85वें संविधान संशोधन में कहा गया है कि उन्हें ऐसी पदोन्नत्ति देते समय उनकी वरिष्ठता को भी मान्यता दी जायेगी । सन् 2000 के 81वें संविधान संशोधन में कहा गया है कि अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन-जातियों के लोगों के लिए आरक्षित एक वर्ष से रिक्त पड़े पदों की संख्या को नयी रिक्तियों की संख्या में शामिल नहीं किया जायेगा ।

संसद किन्हीं राज्यगत नियुक्तियों के लिए निवास सम्बन्धी योग्यताएं निर्धारित कर सकती है । यदि पिछड़ी परिगणित जातियों का राज्याधीन नौकरियों में यथोचित प्रतिनिधित्व न हो तो उनके लिए पर्याप्त स्थान आरक्षित किये जा सकते हैं ।

किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्था के अन्तर्गत किसी पद का अधिकारी उसी धर्म या सम्प्रदाय का सदस्य हो सकता है । ऐसे प्रावधान कानून के समक्ष समानता के सूत्र का हनन करते हैं, लेकिन सामाजिक न्याय की खातिर उन्हें स्थान दिया गया है । इसे सुरक्षात्मक भेदभाव (Protective Dicrimination) कहते हैं ।

ii. स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to freedom):

द्वितीय स्थान स्वतन्त्रता के अधिकार को दिया गया है । इसके अन्तर्गत नागरिकों को दी जाने वाली विभिन्न स्वतन्त्रताओं को उल्लेख है :

(i) 19वां अनुच्छेद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, जिसमें नागरिकों की छह स्वतन्त्रताओं का वर्णन है । ये हैं: (क) भाषण व अभिव्यक्ति, (ख) शान्तिपूर्ण व निशस्त्र रूप में सभा करना (ग) समुदाय तथा संघ बनाना, (घ) देश में स्वतन्त्र विचरण, (ड) देश में निवास या आवास और (च) कोई काम, व्यवसाय या व्यापार करना ।

(ii) नागरिकों को अपराध की दोषसिद्धि के विषय में संरक्षण प्रदान किया गया है । इसके अन्तर्गत: (क) किसी व्यक्ति को उसी कानून के तहत पकड़ा जा सकता है, जो उसके द्वारा किये गये अपराध के समय लागू है, (ख) किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार दण्डित नहीं किया जायेगा और (ग) किसी अपराध में अभियुक्त को स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा ।

(iii) किसी व्यक्ति को उसके जीवन तथा वैयक्तिक स्वतन्त्रता से ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure Established by Law) से वंचित नहीं किया जा सकेगा ।

(iv) सन् 2002 के वे संविधान संशोधन में कहा गया है कि राज्य अपने कानून द्वारा 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों की मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेगा ।

(v) संविधान नजरबन्द किये गये या बन्दी बनाये गये व्यक्ति को कुछ अधिकार देता है और ‘निवारक निरोध’ (Preventive Detention) के सम्बन्ध में किसी कानून का प्रावधान करता है ।

बन्दी व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि उसे जितना शीघ्र हो सके, उसके बन्दी बनाये जाने के कारण बताये जायें और यात्रा का आवश्यक समय निकालकर उसे 24 कार्य घण्टों के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाये । ऐसे व्यक्ति को अपनी पसन्द के वकील से परामर्श करने और अपने पक्ष को प्रस्तुत करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकेगा ।

उपर्युक्त स्वतन्त्रताओं को प्रतिबंधित करने हेतु राज्य को देश की सुरक्षा, देश की प्रभुसत्ता व अखण्डता विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, लोक व्यवस्था नैतिकता न्यायालय के अपमान अथवा अपराध को प्रोत्साहन देने से रोकने के उद्देश्य से भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के उपभाग पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध गाने के अधिकार दिये गये हैं, लेकिन ये प्रतिबन्ध उन व्यक्तियों पर लागू नहीं हते ।

जो उस समय शत्रु विदेशी हों या जिन्हें निवारक निरोध से सम्बन्धित किसी कानून के अन्तर्गत नजरबन्द किया गया हो । किसी व्यक्ति को 3 माह से अधिक नजरबन्द नहीं रखा जा सकता जब तक कि सलाहकार मण्डल (Advisory Board) द्वारा अवधि बढ़ाने की सिफारिश न की गयी हो । गिरफ्तार व्यक्ति को शीघ्रतिशीघ्र उसके निरोध का कारण बता देने का उपबन्ध किया गया है ।

iii. शोषण के विरुद्ध अधिकार (Rights Against Explotitation):

स्थान शोषण के विरुद्ध अधिकार का है । यह अधिकार दो उपबन्धों में रखा गया है ।

(1) अनैतिक कार्य हेतु मानवों का क्रय-विक्रय बेगार या बलात् श्रम वर्जित है, जिसका उल्लघन करने पर दण्ड दिया जा सकता है ।

(2) 14 वर्ष से कम उम्र वाले बालका/बालिका को कारखाने में किसी संकटमय नौकरी में नहीं लगाया जा सकता ।

iv. धर्म का अधिकार (Rights to Religion): 

धर्म सम्बन्धी मौलिक अधिकार हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य का आधार स्तम्भ है । राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं ।

(1) सभी लोगों को चाहे वे नागरिक हों या विदेशी अन्त करण की स्वतन्त्रता तथा किसी धर्म को अपनाने उसका पालन करने और शान्तिपूर्ण तरीके से उसका प्रचार करने का अधिकार है ।

(2) विभिन्न धर्मावलम्बियों को धार्मिक संस्थाएं स्थापित करने धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने, चल व अचल सम्पत्ति के सृजन व स्वामित्व तथा कानून से उसका प्रचार करने का अधिकार है ।

(3) किसी व्यक्ति पर कोई ऐसा भुगतान करने के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता जिसका उपयोग किसी धर्म अथवा धार्मिक कार्य को सम्पन्न करने के लिए किया जाता हो ।

(4) जो शिक्षण संस्थाएं राज्य द्वारा मान्य हैं या जिन्हें राज्य द्वारा वित्तीय सहायता दी जाती है, उनमें धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है, परन्तु उनमें उपस्थिति अनिवार्य नहीं की जा सकती ।

इन धार्मिक स्वतन्त्रताओं पर सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और लोक स्वास्थ्य के हित में राज्य उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है । राज्य अपने समाज सुधार सम्बन्धी कार्यों के लिए धार्मिक स्वतन्त्रता को सीमित कर सकता है ।

v. संस्कृति तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (Cultural and Educational Rights): 

संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार प्रदान किये गये हैं ।

(i) भारत या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के ऐसे प्रत्येक वर्ग को अपनी विशिष्ट भाषा लिपि या संस्कृति बनाये रखने का अधिकार होगा । राज्य द्वारा घोषित या राजकीय सहायता से संचालित किसी शिक्षण संस्था में प्रवेश के सम्बन्ध में किसी आधार पर वंचित नहीं किया जायेगा ।

(ii) धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गो को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना व उनका प्रशासन करने का अधिकार होगा । शिक्षण संस्थाओं को सहायता देने में राज्य भाषा या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा ।

vi. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutioal Remedies):

संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख निरर्थक होता, यदि उनको लागू करने की व्यवस्था नहीं की गयी होती । भारत में मौलिक अधिकारों की रक्षा को एक अधिकार माना गया है । ऊपर वर्णित किये गये मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनुच्छेद 32 में उल्लिखित संवैधानिक उपचारों का अधिकार उपबन्धित किया गया है ।

भारतीय संघ का राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा करके अनुच्छे 359 के अन्तर्गत संवैधानिक उपचारों के मूल अधिकारों के क्रियान्वयन को (अनुच्छे 20 व 21 को छोडकर) स्थगित कर सकता है । यदि इन अधिकारों का हनन होता है, तो नागरिक अपने मौलिक अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में आवश्यक उपचार के लिए याचनापत्र दे सकता है ।

इस सम्बन्ध में न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्राप्त है । अस्तु न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए निम्नलिखित विशेष लेख (Writs) और आदेश (Orders) जारी कर सकती है :

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) : 

इस लेख द्वारा नजरबन्द व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित करके यह निश्चित किया जाता है कि उस व्यक्ति की नजरबन्दी न्यायसंगत है अथवा नहीं । यदि नजरबन्दी अवैध है, तो न्यायायल उसे तुरन्त रिहा करने का आदेश देता है ।

2. परमादेश लेख (Writ of Mandamus):

 परमोदश उस समय जारी किया जाता है, जब न्यायालय किसी सम्बन्धित संस्था या पदाधिकारी को तुरन्त अपना कानूनी काम करने का आदेश देता है ।

3. प्रतिबन्ध लेख (Writ of Prohibition):

 यह लेख या आदेश किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायाधिकरण को दिया जाता है, ताकि उसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य करने से रोका जा सके ।

4. उत्प्रेषण लेख (Writ of Certiorari): 

यह लेख या ओदश न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायाधिकरण या प्रशासनिक निकाय को दिया जाता है कि वह अपने द्वारा की जाने वाली कार्रवाई को किसी अन्य अधिकारों को हस्तान्तरित कर दे ।

5. अधिकारपृच्छा लेख (Writ of Quo Warranto):

इस लेख या आदेश द्वारा किसी व्यक्ति को ऐसे पद पर कार्य करने से रोका जाता है, जिसके लिए वह कानूनी तौर से योग्य नहीं है । न्यायालय किसी नियुक्ति या पदोन्नत्ति को रोक सकता है या उसे अवैध करार दे सकता है, यदि वह कानून के अनुसार नहीं है ।

कुछ महत्त्वपूर्ण वक्तव्य :

(i) दुर्गादास बसु:

मौलिक अधिकार वह है, जो राज्य के लिखित संविधान द्वारा सुरक्षित व कार्यान्वित होता है । इसे निर्धारित संशोधन विधि द्वारा बदला जा सकता है, इसे किसी निर्धारित प्रक्रिया के अलावा किसी अन्य तरीके से घटाया या निलम्बित नहीं किया जा सकता तथा राज्य का कोई अंग इन अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकता ।

(ii) एच॰जे॰ लास्की:

अधिकारों के बिना कोई स्वतन्त्रता नहीं हो सकती तथा हर राज्य की पहचान उसके द्वारा सुरक्षित अधिकारों से होती है ।

(iii) सर एडवर्ड कोक:

आप चाहें कितने ऊंचे क्यों न हों, लेकिन कानून आपके ऊपर है ।

(iv) थॉमस हॉक्त:

 जिन अनुबन्धों के पीछे तलवार (कानून) की शक्ति नहीं है, वे केवल शब्दों की तरह हैं, जिनके पास मनुष्य की सुरक्षा करने हेतु कोई बल नहीं है ।

आलोचना :

संविधान के तृतीय भाग में वर्णित मौलिक अधिकार भारतीय प्रजातन्त्र की आधारशिला माने गये हैं । दूसरी और यह आलोचना भी की गयी है कि वे अधिकार एक हाथ से दिये गये हैं और दूसरे हाथ से ले लिये गये हैं; क्योंकि उन पर प्रतिबन्धों की कड़ी घेराबन्दी की गयी है ।

इसके अतिरिक्त यह उपबन्ध कि आपातकाल के समय मौलिक अधिकारों का क्रियान्वयन स्थगित किया जा सकता है तथा संसद संशोधन के नाम पर उनकी कटौती कर सकती है, ने इन्हें गैर-मौलिक सा बना दिया है । आलोचना के निम्नलिखित बिन्दु प्रस्तुत किये जा सकते हैं :

1. हमारे मौलिक अधिकारों का स्वरूप मुख्यत: राजनीतिक है । यहां काम का अधिकार विश्राम का अधिकार सामाजिक सुरक्षा या जीवन बीमा या शारीरिक अपंगता की स्थिति में राजकीय मदद आदि के अधिकारों का उल्लेख नहीं किया गया है । आर्थिक प्रजातन्त्र के अभाव में राजनीतिक प्रजातन्त्र एक भ्रम है ।

2. मौलिक अधिकारों की आलोचना का एक आधार यह भी है कि इन अधिकारों पर अत्यधिक प्रतिबन्ध लगाये गये हैं । अनुच्छेद 20 वे 21 में वर्णित जीवन व वैयक्तिक स्वतन्त्रताओं को छोड़कर अन्य मौलिक अधिकारों को राष्ट्रीय संकट के दौरान स्थगित किया जा सकता है । निवारक निरोध कानून इस अधिकार पर सबसे बड़ा प्रतिबन्ध है, जो शान्तिकाल में भी नागरिकों की स्वतन्त्रता पर एक तानाशाही राज्य की स्थापना कर सकता है ।

3. यद्यपि मौलिक अधिकारों वाला अध्याय काफी विस्तृत है, फिर भी उसमें महत्त्वपूर्ण शब्दों व वाक्यों को व्याख्यारहित रूप में छोड़कर संसद को उसके अर्थ व क्षेत्र को स्पष्ट करने के लिए विधायन प्रस्तुत करने पर मजबूर कर दिया गया है । संविधान में ‘लोकहित’ मानवों का क्रय-विक्रय ‘संकटमय रोजगार’ ‘अल्प- सख्यक’ आदि शब्दों की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गयी है ।

4. हम यह भी देख सकते हैं कि जब राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्तों को लागू करने हेतु कोई कानून बनाता है, तो उसका उस समय किसी मौलिक अधिकार मे टकराव हो जाता है, जब वह मामला न्यायालय के समक्ष आता है । इससे मुकद्दमेबाजी को बढ़ावा मिलता है । इसी समस्या के कारण सन् 1978 के 44वें शोधन में सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार वाले भाग से हटकार उसे माधारण अधिकार में बदल दिया गया ।

5. भारत सरकार ने समय-समय पर संविधान में संशोधन करके मौलिक अधिकारों के स्वरूप को विकृत किया है । इन्हीं संशोधनों ने सामाजिक न्याय के आदर्श की दुहाई देकर मौलिक अधिकारों के परास को काफी संकुचित कर दिया है, जिन्हें देखकर प्रसिद्ध विधिविद पालकीवाला ने टिप्पणी की है कि उन्होंने दंपधान के आमूल रूप को ही विकृत कर दिया है ।

न्यायपालिका ने इस बिगड़ती  हुई स्थिति को रोकने हेतु ऐसे निर्णय दिये हैं कि संविधान में ऐसा संशोधन नहीं हो सकता, जो उसके आमूल ढांचे को बदले या बिगाड़े । अपितु, आलोचना के ऐसे बिन्दु मौलिक अधिकारों के वास्तविक महत्त्व को मिटा नहीं सकते ।

इस तथ्य के बावुजूद कि संवैधानिक संशोधनों के फलस्वरूप कुछ मौलिक अधिकारों के परास में काफी कटौती की गयी है, कुल मिलकार मौलिक अधिकारों वाला अध्याय  व्यक्ति की स्वतन्त्रता की सबल प्राचीर है, लोक आचार की संहिता है तथा भारतीय लोकतन्त्र का सुदृढ़ व पोषणीय आधार है ।

सम्मपत्ति के अधिकार का मामला :

विधान सभा में इस मुद्दे पर काफी चर्चा हुई कि सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की कोटि में रखा जाये या नहीं । यदि एक और सरदार पटेल व मुंशी इसके प्रबल समर्थक थे, तो दूसरी और नेहरू व के॰टी॰ शाह समाजवादी सिद्धान्त का आह्वान करके इसके अनियन्त्रित रूप का विरोध कर रहे थे ।

समझौते के रूप में इस अधिकार को संविधान के भाग तीन के मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया किन्तु उसके प्रयोग पर कठोर नियन्त्रण लगा दिये गये । अनुच्छेद 19 में सात प्रकार की मौलिक स्वतन्त्रताओं को समाहित किया गया जिनमें सम्पत्ति का रखना खरीदना बेचना शामिल किया गया किन्तु सम्पत्ति के अधिकार को एक शीर्षक बनाते हुए अनुच्छेद 31 में इसकी व्यापक व्यवस्था की गयी ।

उदारवादी विचारधारा का आह्वान करते हुए लोगों को अपनी सम्पत्ति बनाने रखने खरीदने बेचने या किसी रूप में उसका हस्तान्तरण करने का अधिकार दिया गया । यह व्यवस्था भी की गयी कि राज्य जनहित को देखते हुए निजी सम्पत्ति का कानून द्वारा उन्मूलन या राष्ट्रीयकरण कर सकता है, किन्तु बदले में उस व्यक्ति को उपयुक्त एवं उचित मुआवजा दिया जायेगा ।

इसी अनुच्छेद के तहत बिहार व उत्तर प्रदेश में राज्य ने जमींदारी व्यवस्था का उमृल्‌न किया । बदले में उचित मुआवजा न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने कामेश्वर सिंह केस (1951) में उन्हें उपयुक्त मुआवजा दिलाया । इसने नेहरू की सरकार के सामने एक बड़ी बाधा खड़ी की । अब संविधान में पहला संशोधन हुआ, जिसने अनुच्छे 31 जोड़ा और उसकी खातिर नवीं अनुसूची (Ninth Schedule) जोड़ी गयी ।

यह व्याख्या की गयी कि यदि राज्य के किसी कानून आदेश या विनियमन को इस अनुसूची में शामिल किया गया तो वह न्यायिक समीक्षा से मुक्त हो जायेगा । बेला बनर्जी केस (1955) में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि मुआवजे का उपयुक्त होना उस समय के बाजार भाव द्वारा निश्चित किया जाये ।

इसने नेहरू की सरकार के सामने एक अन्य बड़ी बाधा खड़ी की । अत: इसी वर्ष संविधान में चौथा संशोधन हुआ जिसने मुआवजे के उपयुक्त या उचित होने के प्रावधान को हटा दिया । सन् 1967 के गोलकनाथ केस में सर्वोच्च न्यायालय ने इन संशोधनों को अवैध माना किन्तु यह कहा कि अब उन्हें लागू रहने दिया जाये, किन्तु भविष्य में ऐसा न किया जाये ।

मौलिक अधिकारों में कोई कटौती नहीं हो सकती । सन् 1971 में संविधान में 24वां संशोधन हुआ जिसमें कहा गया कि संसद संविधान के किसी भाग में कोई संशोधन कर सकती है । इसने गोलकनाथ केस की बाधा हटा दी ।

साथ ही इसी वर्ष 25वां संशोधन हुआ जिसने अनुच्छेद 31 में वर्णित ‘मुआवजे’ (Compensation) शब्द को हटाकर ‘राशि’ (Amount) शब्द को स्थान दिया, लेकिन केशवानन्द भारती केस (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि यदि किसी व्यक्ति की सम्पत्ति का उन्मूलन किया जाता है, तो उसी उपयुक्त रूप में क्षतिपूर्ति होनी चाहिए ।

अत: दोनों के भावार्थ में कोई अन्तर नहीं है । इस प्रकार सम्पत्ति का अधिकार सरकार व न्यायपालिका के बीच खुले संघर्ष का कारण बन गया । सन् 1976 के 42वें संविधान संशोधन में कहा गया कि संसद के बनाये हुए संविधान संशोधन अधिनियम को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती तथा संशोधन के बारे में इसकी शक्ति असीम है ।

मिनर्वा कपड़ा मिल्स केस (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने इन प्रावधानों को रह कर दिया । 1978 में संविधान में वौ संशोधन हुआ जिसमें सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से अलग कर दिया गया ।  अब अनुच्छेद 300 जोड़ गया, जिसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति को कानून की सत्ता के प्रयोग द्वारा उसकी सम्पत्ति से वंचित किया जा सकता है ।

अत: अब सम्पत्ति का अधिकार नागरिकों का मौलिक अधिकार नहीं है, किन्तु उसे संविधान द्वारा प्रत्याभूत साधारण अधिकार का दर्जा प्राप्त है । यह प्रश्न उठता है कि सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय में से क्यों निकाला गया ? इसका यही उत्तर है कि यह अधिकार सरकार व न्यायपालिका के बीच टकराव का कारण बन गया ।

भारत सरकार अपने समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करना चाहती थी, इसलिए निजी सम्पत्ति व्यवस्था पर राज्य का कठोर नियन्त्रण होना स्वाभाविक था, लेकिन न्यायालय के निर्णय सम्पत्तिवानों के हितों की रक्षा कर रहे थे । सन् 1955 में चौथा संविधान संशोधन पर्याप्त सिद्ध न हो सका ।

सम्पत्ति सम्बन्धी विवादों की संख्या बढ़ती चली गयी । यह मौलिक अधिकार मुकद्दमेबाजी का बड़ा कारण बन गया । इसीलिए यह उपयुक्त माना गया कि इस अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय में से निकाल दिया जाये ।

1978 के 44वें संविधान संशोधन के फलस्वरूप सम्पत्ति का अधिकार कानूनी अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है । अत: संसद उसमें साधारण विधि बनाकर संशोधन कर सकती है । यदि ऐसा होता है, तो उस कानून को अनुच्छे 368 के तहत संवैधानिक नहीं माना जायेगा । अब इस अधिकार को न्यायालय का त्रह विशेष संरक्षण प्राप्त नहीं है, जो सभी मौलिक अधिकारों को प्राप्त है ।

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