हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान भारत आने वाले विदेशी यात्रियों ने | Foreign Travellers Who Visited India during Harshavardhana’s Reign.

1. हुएनसांग (Hwein Swang):

हर्ष के समय की सर्वप्रमुख घटना चीनी यात्री हुएनसांग (युवानच्वांग) के भारत आगमन की है । हुएनसांग का जन्म 600 ईस्वी के लगभग चीन के होनन प्रान्त के चीन-लिउ नामक स्थान में हुआ था । उसके पिता का नाम चेन-हुई था । उसके चार पुत्रों में हुएनसांग सबसे छोटा था । उसका पिता एक अध्ययनशील व्यक्ति था जिसका प्रभाव हुएनसांग के जीवन पर पड़ा ।

वह बचपन में गंभीर मनोवृत्ति का था । उसे धार्मिक पुस्तकें बड़ी प्रिय थीं । तेरह वर्ष की आयु में वह अपने बड़े भाई के साथ लोयंग के बौद्ध मठ में रहने लगा । इसी समय सुई वश का पतन हुआ तथा चीनी समाज में अराजकता व्याप्त हो गयी । लोगों की नैतिकता का तेजी से हास होने लगा ।

फलस्वरूप हुएनसांग अपने भाई के साथ शान्त वातावरण की खोज में पहले उत्तरी चीन में स्थित चंगन गया । यहाँ से वह हन-चुंग तथा अन्ततोगत्वा चांग-तु व्याख्यान शुवह प्रसिद्ध भिक्षु बन गया । यहाँ से वह चीन के विभिन्न स्थानों में बौद्ध सन्तों तथा विद्वानों के पास गया तथा धर्म के गूढ़ प्रश्नों पर उसने वार्तालाप किया ।

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उसने अनुभव किया कि चीन में बौद्ध धर्म का पूर्ण अध्ययन संभव नहीं था । उसकी उत्कट अभिलाषा महात्मा बुद्ध के चरण-चिह्नों द्वारा पवित्र किये गये स्थानों को देखने तथा पवित्र बौद्ध ग्रन्थों का उनके मूल भाषा में अध्ययन करने की थी जो उन दिनों भारत में सुलभ थे ।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये 629 ईस्वी में उसने सांग शासकों की राजधानी चंगन से भारतवर्ष के लिये प्रस्थान किया । उत्तरी मध्यएशिया के मार्ग का अनुकरण करता हुआ वह ताशकन्द, समरकन्द, काबुल तथा पेशावर के मार्ग से भारत आया । हिन्दूकुश की पहाड़ियों को पार करने के पश्चात् सर्वप्रथम वह भारतीय राज्य कपिशा पहुँचा ।

भारत तक पहुँचने में उसे लगभग एक वर्ष का समय लगा । यहाँ से गन्धार, कर्श्मार, जालंधर, कुलूट तथा मथुरा होता हुआ वह थानेश्वर पहुंचा । थानेश्वर में कुछ दिनों तक रुक कर जयगुप्त नामक बौद्ध विद्वान् से उसने शिक्षा ग्रहण की । थानेश्वर से मतिपुर, अहिच्छत्र एवं सांकाश्य होते हुए 636 ईस्वी के मध्य उसने हर्ष की राजधानी कन्नौज में प्रवेश किया ।

कन्नौज से हुएनसांग ने अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, कपिलवस्तु, कुशीनगरू, वाराणसी, वैशाली, पाटलिपुत्र आदि स्थानों का भी भ्रमण किया । पाटलिपुत्र में प्रसिद्ध विहारों एवं स्तुपों के उसने दर्शन किये थे । पाटलिपुत्र से चलकर वह बोधगया पहुँचा जहाँ उसने बोधिवृक्ष की पूजा की । 637 ईस्वी में हुएनसांग नालन्दा विश्वविद्यालय गया ।

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यहाँ के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे । नालन्दा में लगभग डेढ वर्षों तक निवास कर उसने योगशास्त्र का अध्ययन किया । इसके बाद वह वंगाल, उड़ीसा, धान्यकटक (कृष्णानदी के तट पर) होता हुआ पल्लवों की राजधानी कांची गया । कांची से वह आगे नहीं जा सका तथा उत्तर की ओर लौट पड़ा ।

यहाँ से चलकर वह चालुक्य शासक द्वितीय के राज्य मो-हो-ल-च-अ (महाराष्ट्र) में आया । हुएनसांग पुलकेशिन् की शक्ति की प्रशंसा करता । उसके अनुसार उसने हर्ष की अधीनता नहीं मानी । महाराष्ट्र से वह भड़ौच (गुर्जर-राज्य) मालवा तथा बलभी आया । बलभी के शासक ध्रुवसेन को वह हर्ष का दामाद कहता है ।

तत्पश्चात् आनन्दपुर, सुराष्ट्र, माहेश्वरपुर आदि नगरों से होकर वह सिन्ध पहुँचा । वह लिखता है कि सिन्ध देश का राजा शूद्र था तथा बौद्ध धर्म में उसकी आस्था थी । सिन्ध देश के वाद हुएनसांग मूलस्थानपुर पहुंचा जहाँ उसने प्रसिद्ध सूर्य-मन्दिर देखे । अपनी यात्रा के दूसरे दौर में हुएनसांग पुन नालन्दा आया जहाँ उसने व्याख्यान दिये । अब उसकी ख्याति चारों ओर फैल गयी थी ।

हुएनसांग की ख्याति को सुनकर कामरूप के शासक भास्करवर्मा ने उसे आमंत्रित किया । कामरूप जाते हुए उसने हर्ष को बंगाल के कजगल नामक स्थान में सैनिक शिविर डालकर पड़ा हुआ देखा । कामरूप में उसका खुब अतिथि-सत्कार हुआ । वहाँ से हर्ष के आग्रह पर वह पुन उसकी राजधानी वापस लौट आया ।

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हुएनसांग ने कन्नौज की धर्मसभा तथा प्रयाग के छठे महामोक्षपरिषद् में भाग लिया । इन दोनों समारोहों का उसने अत्यन्त रोचक वर्णन किया गया है । प्रयाग में ही उसने हर्ष से विदाई ली । वापसी में भी उसने मध्य एशिया के ही मार्ग का अनुसरण किया । प्रयाग से चलकर वह जालधर पहुँचा जहाँ करीब एक माह तक रहा ।

यहाँ से नये रक्षक-दल के साथ नमक के पहाड़ी दर्रे तथा सिन्ध नदी को कठिनाई से पार करता हुआ पामीर और खोतान के मार्ग से होता हुआ वह 645 ईस्वी तक विभिन्न बौद्ध ग्रन्थों के चीनी भाषा के अनुवाद में व्यस्त रहा । इसके चार वर्षों बाद 665 ईस्वी के लगभग हुएनसांग की मृत्यु हो गयी ।

हुएनसांग ने अपनी यात्रा विवरण के ऊपर एक ग्रन्थ लिखा जिसे ‘सि-यू-की’ कहा जाता है । उसके एक सहयोगी ह्वी-ली ने ‘हुएनसांग की जीवनी’ नामक एक ग्रन्थ की रचना की है । हर्षकालीन भारत की राजनैतिक और सांस्कृतिक दशा के अध्ययन के लिये हुएनसांग के विवरण से पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो जाती है ।

उसने हर्ष की राजधानी कन्नौज का वर्णन किया है । उसके अनुसार यह नगर तीन मील लम्बा तथा डेढ़ मील चौड़ा था । यहाँ के लोग सभ्य, समृद्ध एवं नैतिक दृष्टि से उन्नत थे । हुएनसांग हर्ष के शासन की प्रशंसा करता है । वह लिखता है कि हर्ष का शासन उदार था । वह व्यक्तिगत रूप से शासन की विविध समस्याओं में रुचि लेता था । प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी । बहुत कम कर लगे थे ।

बेगार नहीं लिया जाता था । दण्डविधान साधारण था । सामाजिक नैतिकता एवं सदाचार के विरुद्ध आचरण करने वालों को कड़ी सजा दी जाती थी । आवागमन के मार्ग पूर्णतया सुरक्षित नहीं थे । वह कई बार चोर-डाकुओं के चंगुल में फँस चुका था । फिर भी लोग नैतिक दृष्टि से उठते थे ।

वे पारलौकिक जीवन के दुखों से डरते थे और इस कारण पाप बहुत कम होते थे । हुएनसांग हर्ष के परिश्रम और दानशीलता की प्रशंसा करता है । हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि हर्षकालीन समाज में चार वर्णो-ज्ञाह्मण, क्षत्रिय, वेश्य, शूद्र-के अतिरिक्त कई जातियाँ एवं उपजातियाँ थीं ।

वह अनेक मिश्रित जातियों का भी उल्लेख करता है । उसके अनुसार कसाई, मछुए भंगी, नट, जल्लाद आदि अछूत समझे जाते थे । वे गाँवों और नगरों के बाहर निवास करते थे । उनके मकानों पर पहचान-चिह्न लगे हुए थे । विभिन्न वर्णों तथा जातियों का अन्तर बढ़ता जा रहा था । हुएनसांग ब्राह्मणों की प्रशंसा करता है तथा उन्हें ‘सर्वाधिक पवित्र और सम्मानित जाति’ बताता है ।

हुएनसांग ने क्षत्रियों की वीरता की प्रशंसा की है तथा उन्हें ‘राजाओं की जाति’ कहा है । वैश्यों के हाथ में देश की अर्थशक्ति थी । हर्ष स्वयं वैश्य फीशे जाति का था । इस जाति के लोग औषधालयों एवं विश्रामगृहों के निर्माण में धन दान करते थे । वैश्यों में अहिंसा का विशेष प्रचार था और वे मांसाहार नहीं करते थे ।

ऐसा लगता है कि इस समय तक शूद्रों को भी कुछ राजनीतिक शक्ति मिल गयी थी । हुएनसांग के अनुसार सिन्ध का राजा शूद्र था । हुएनसांग लिखता है कि भारतीय अधिकतर सफेद वस्त्र धारण करते थे । समाज में अन्तर्जातीय विवाह होते थे । लोग मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे ।

हुएनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में अनेक धर्म एवं सम्प्रदाय प्रचलित थे । शिव, सूर्य, विष्णु, दुर्गा आदि देवी-देवताओं की उपासना का व्यापक प्रचलन था । वह हमें बताता है कि गबन जल को लोग पुण्यजल समझते थे । लोगों की ऐसी धारणा थी कि जो लोग इस नदी के जल में डूब कर मर जाते हैं उनका स्वर्ग में सुखपूर्वक जन्म होता है ।

अत: अनेक लोग प्रतिवर्ष प्रयाग के संगम के जल में डूबकर मरने के लिये आते थे । हुएनसांग कन्नौज तथा प्रयाग के छठे समारोहों में सम्मिलित हुआ था । कन्नौज की धर्मसभा का तो वह अध्यक्ष था जिसका उद्देश्य महायान बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करना था। प्रयाग समारोह में हर्ष की उदारता एवं दानशीलता का वह उच्च शब्दों में वर्णन करता है ।

हुएनसांग ने नालन्दा विश्वविद्यालय में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी । वह यहाँ के ज्ञान-विज्ञान तथा अध्ययन के उच्च स्तर की प्रशंसा करता है । वह हमें बताता है कि यह एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का विश्वविद्यालय था जहाँ प्रवेश के लिये बड़ी कठिन परीक्षा देनी पड़ती थी । इस परीक्षा में दस में से केवल तीन या चार विद्यार्थी बड़ी कठिनाई से उत्तीर्ण हो पाते थे ।

इस प्रकार हुएनसांग के विवरण से हर्षकालीन समाज एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो जाता है । अपने प्रबन्ध में उसने अनेक स्थानों के नाम दिये हैं जिससे सातवाँ शताब्दी ईस्वी के भारतीय भूगोल को समझने में भी सहायता मिलती है । हुएनसांग का विवरण नि:सन्देह बड़ा ही उपयोगी है ।

2. इत्सिंग (I – tsing):

हुएनसांग के समान इत्सिंग भी चीनी बौद्ध यात्री था जो उसके वापस लौट जाने के बाद भारत की यात्रा पर आया । 671 या 672 ईस्वी में, जब वह युवक था, अपने 37 बौद्ध सहयोगियों के साथ बौद्ध धर्म के अवशेषों को देखने की इच्छा से उसने पाश्चात्य विश्व का भ्रमण करने का निश्चय किया ।

बाद में उसके साथियों ने उसका साथ छोड़ दिया तथा वह अकेले कैप्टन नगर से जहाज में बैठकर भारत की यात्रा पर चल पड़ा। वह दक्षिण के समुद्रों मार्ग से होकर भारत आया । सुमात्रा तथा लंका होते हुए वह ताम्रलिप्ति पहुँचा जहाँ तीन वर्षों तक रहकर उसने संस्कृत का अध्ययन किया । यहाँ से उसने विभिन्न स्थानों की यात्रा की ।

अपनी यात्रा समाप्त कर 693-94 ईस्वी के लगभग सुमात्रा होता हुआ वह चीन वापस लौट गया । वह अपने साथ सूत, विनय एवं अभिधम्म ग्राम्यों की लगभग 400 प्रतियाँ ले गया । 700-712 ईस्वी के मध्य उसने लगभग 56 ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया । इत्सिंग का मूलग्रन्थ चीनी भाषा में लिखा गया ।

उसका अनुवाद अंग्रेजी भाषा में प्रसिद्ध जापानी विद्वान् तक्कुसु ने ‘ए रेकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट रेलिजन’ नाम से प्रस्तुत किया । इसके अध्ययन से हम सातवीं शती के उत्तरी भारत के समाज एवं संस्कृति का गान प्राप्त करते है । अपने यात्रा विवरण के प्रारम्भ में इत्सिंग चीन से भारत तथा उसके पडोसी देशों की यात्रा पर आने वाले 56 बौद्ध यात्रियों का विवरण देता है ।

सुमात्रा का वर्णन करते हुये वह हमें बताता है कि इसके किनारे पर एक समृद्ध व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा धार्मिक विहार था। यहाँ से व्यापारी माल लेकर कैमन को जाते थे । वह मार्ग की कठिनाइयों का भी वर्णन करता है । वह भारतीयों की धार्मिक परम्पराओं का भी वर्णन करता है ।

उसके अनुसार वौद्ध धर्म के अनुयायी चार सम्प्रदायों- आर्यमहासंधिति, आर्यस्थविर, आर्यशनसर्वास्तवादिन् तथा आर्यसम्मातिय- में विभाजित थे । मगध में प्रत्येक सम्प्रदाय उन्नत दशा में था । नालन्दा का वर्णन करते हुये इत्सिंग लिखता है कि इसके पूर्व की ओर 40 स्टेज पर गला नदी के किनारे श्रीगुप्त नामक राजा द्वारा चीनी यात्रियों के लिये बनवाया गया मन्दिर स्थित था ।

वह नालन्दा तथा विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों का भी वर्णन करता है तथा हर्ष की दानशीलता एवं विद्या-प्रेम की प्रशंसा करता है । इत्सिंग के विवरण से भी हम हर्षकालीन भारतीय धर्म एवं समाज के विषय में कुछ ज्ञान प्राप्त करते हैं किन्तु वह हुएनसांग के विवरण की भाँति उपयोगी नहीं कहा जा सकता ।

गौड़नरेश शशांक:

हर्ष का समकालीन गौड़नरेश शशांक हमारे सामने एक उल्का की भाँति चमक कर तिरोहित हो जाता है । उसके वश अथवा परिवार के विषय में हमें निश्चित रूप से कुछ भी पता नहीं है । इतना स्पष्ट है कि वह गौड़ (बंगाल) का राजा था । बाण तथा हुएनसांग दोनों ने इसका उल्लेख किया है । हर्षचरित की एक पाण्डुलिपि में शशांक का नाम नरेन्द्रगुप्त मिलता है ।

इसे खोज निकालने का श्रेय इतिहासकार बुलर को है । इस नाम के आधार पर आर॰डी॰ वनर्जी जैसे कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सम्भवत शशांक चक्रवर्ती गुप्तवंश अथवा परवर्ती गुप्तवंश से सम्बन्धित था । किन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते ।

सर्वप्रथम शशांक इतिहास में एक क्रूर हत्यारे के रूप में उपस्थित होता है । हर्षचरित से पता चलता है कि उसने राज्यवर्द्धन को अपने झूठे शिष्टाचारों में फँसाकर मार डाला । इस कायरतापूर्ण कृत्य ने उसके राजनैतिक जीवन का लगभग अन्त कर दिया । रोहतासगढ़ से प्राप्त मुहर पर उत्कीर्ण लेख से शशांक के प्रारम्भिक जीवन के विषय से कुछ सूचनायें मिल जाती है ।

ऐसा ज्ञात होता है कि पहले वह ‘महासामन्त’ था (श्रीमहासामन्तशशांकदेवस्य) । ऐसा प्रतीत होता है कि वह मौखरि नरेश अवन्तिवर्मन् का महासामन्त रहा होगा-जो उसका समकालीन था । अवन्तिवर्मन का मगध के बड़े भाग पर अधिकार था जैसा कि देवबर्नाक (शाहाबाद जिला, बिहार) के लेख से स्पष्ट होता है ।

गृह-वनों की मृत्यु तथा कब्रौज पर देवगुप्त का अधिकार हो जाने के फलस्वरूप मौखरिराज्य में जो अव्यवस्था फैली उसने शशांक को उसकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु सुनहला अवसर प्रदान कर दिया । सम्भवत वह कब्रौंज को देवगुप्त से छीन कर उस पर अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से वहाँ आया था ।

परन्तु राज्यवर्द्धन द्वारा देवगुप्त के वध से उसकी आशाओं पर पानी फिर गया । राज्यवर्द्धन की सफलता शशांक के लिये एक खुली चेतावनी थी । अत: उसने किसी न किसी प्रकार से वर्द्धन राजा को समाप्त करना उचित समझा । इसी उद्देश्य से शशांक ने राज्यवर्द्धन को अपने शिविर में आमन्त्रित किया तथा धोखे से उसकी हत्या कर डाली ।

परन्तु इस अपकृत्य से उसकी परेशानी और बढ़ गयी । जब हर्ष ने अपनी विशाल सेना के साथ उसके विरुद्ध प्रस्थान किया तब वह भयभीत हुआ तथा भाग खड़ा हुआ । ऐसा प्रतीत होता है कि अपने जीवन के अन्त में वह सामन्त-स्थिति से सम्राट स्थिति पर पहुंच गया था । संभव है अवन्तिवर्मन् की मृत्यु के बाद (602 ईस्वी के बाद) उसने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी हो ।

उसने बंगाल तथा उड़ीसा पर अपना अधिकार कर लिया तथा दक्षिण में गोदावरी नदी तक शायद उसका राज्य विस्तृत हो गया । मगध पर उसका सामन्त-काल से ही शासन था । उड़ीसा के गंजाम से 619 ईस्वी का उसके सामन्त माधवराज द्वितीय का ताम्रलेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि इस समय तक वह एक सार्वभौम शासक था तथा उसकी उपाधि ‘महाराजाधिराज’ की थी ।

उसकी स्वर्ण मुद्रायें भी उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं जो अधिकतर बंगाल से मिली है । मिदनापुर (बंगाल) से प्राप्त दो ताम्रपत्र भी बंगाल के ऊपर उसके आधिपत्य की सूचना देते है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि शशांक पूर्वी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा बन बैठा ।

हमें यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि हर्ष तथा शशांक के बीच कोई सीधा मुकाबला हुआ अथवा नहीं आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के एक श्लोक से पता चलता है कि हर्ष ने सोम (शशांक) की राजधानी पुण्ड़ पर आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा उसे उसके राज्य में ही रहने के लिए बाध्य किया । परन्तु इस मध्यकालीन वीद्धरुन्ध के विवरण की ऐतिहासिकता में सन्देह है ।

हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि शशांक की मृत्यु 637 ईस्वी के कुछ पूर्व हुई थी । उसका अन्त किन परिस्थितियों में हुआ, यह हमें ज्ञात नहीं है । परन्तु इतना स्पष्ट है कि उसके जीवन-काल में हर्ष उसके राज्य को जीत नहीं पाया था ।

शशांक एक कट्टर शैव था । उसके सिक्कों के ऊपर शिव तथा नन्दी की आकृतियाँ मिलती है । हुएनसांग हमें बताता है कि उसने बोधगया के बोधिवृक्ष को कटवाकर गड्डा में फिकवा दिया तथा समीप के एक मन्दिर से बुद्ध की मूर्ति को हटवा कर उसके स्थान पर शिव की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवायी ।

इसी प्रकार पाटलिपुत्र के मन्दिर में रखे हुए एक पाषाण-स्तम्भ, जिस पर बुद्ध के बरण-चिढ़ उत्कीर्ण थे, को भी उसने गबन नदी में फिकवा दिया । कुशीनारा के एक विहार के बौद्धों को भी उसने वहीं से निष्कासित करवा दिया ।

आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में भी उसका चित्रण बौद्धद्रोही के रूप में किया गया है जिसने पवित्र वौद्ध अवशेषों को जलाया तथा विहारों एवं समाधियों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । आर॰डी॰ बनर्जी तथा आर॰पी॰ चन्दा जैसे कुछ विद्वान् इस मत के है कि शशांक वस्तुत: राजनैतिक कारणों से बौद्धद्रोही हुआ था अन्यथा उसमें धर्मान्धता नहीं थी । शशांक को वौद्धद्रोही सिद्ध करने वाले सभी साक्ष्य इसी धर्म से सम्बन्धित है ।

अत: उनका विवरण निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता । प्राचीन भारत के इतिहास में शशांक पूर्णतया असम्बद्ध एवं उपेक्षित शासक रहा है जिसके विषय में हमारी जानकारी अत्यल्प है । उसके साथ ही उसका वश तथा राज्य दोनों ही जाते रहे और उसके राज्य को हर्ष ने अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया । निश्चय ही वह एक महान् कूटनीतिज्ञ तथा साहसी योद्धा था ।

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