Read this article in Hindi to learn about:- 1. वृहत्पाषाणिक संस्कृतियाँ का अर्थ (Meaning of Megalithic Cultures) 2. वृहत्पाषाणिक संस्कृतियाँ के समाधियों  (Samples of Megalithic Cultures) 3. उत्तर भारत की वृहत्पाषाणिक समाधियां (Macroeconomic Settlements of Northern India) 4. तिथिक्रम (Date).

वृहत्पाषाणिक संस्कृतियाँ का अर्थ (Meaning of Megalithic Cultures):

नव पाषाण युग की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण में जिस संस्कृति का उदय हुआ, उसे वृहत् अथवा महापाषाण संस्कृति कहा जाता है । इस संस्कृति के लोग अपने मृतकों के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिये बड़े-बड़े पत्थरों का प्रयोग करते थे । वृहत्पाषाण को अंग्रेजी में मेगालिथ (Megalith) कहा जाता है ।

यह यूनानी भाषा के दो शब्दों ‘मेगास’ (Megas) तथा लिथॉस’ (Lithos) से मिलकर बना है । ‘मेगास’ का वृहत् या बड़ा तथा ‘लिथॉस’ का अर्थ पत्थर होता है । इस प्रकार हिन्दी में इसे वृहत्पाषाण अथवा महापाषाण कहा जाता है ।

दक्षिण के आन्ध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल के विभिन्न पुरास्थलों जैसे- ब्रह्मागिरि, मास्की, पुदुकोट्टै, चिंगलपुत्त, शानूर आदि से वृहत्पाषाणिक समाधियों के अवशेष मिले है । इनका विस्तार तमिलनाडु के तिरुनेल्वेलि जिले में स्थित आदिचनल्लूर से लेकर उत्तर में महाराष्ट्र के नागपुर तक मिलता है । महाराष्ट्र में पाये जाने वाले महापाषाण अधिक प्राचीन लगते है ।

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कर्नाटक, आन्ध्र की ग्रेनाइट चट्टानों वाले प्रदेश में पाये जाने वाले वृहत्याषाण लौहयुगीन है । यद्यपि इस संस्कृति के लोग प्रायद्वीप के समूचे ऊँचे क्षेत्रों में पाये जाते है तथापि पूर्वी आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु में इनका जमाव अधिक दिखाई देता है । आवास तथा शवों को दफनाने के लिये वे अधिकांशत पहाड़ियों की ढलानों पर आश्रित थे । महापाषाणिक संस्कृति हमें दक्षिण भारत के ऐतिहासिक युग में प्रवेश कराती है ।

वृहत्पाषाणिक संस्कृतियाँ के समाधियों  (Samples of Megalithic Cultures):

आकार-प्रकार तथा बनावट में भिन्नता के आधार पर विद्वानों ने महासमाधियों को 40 विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है ।

इनमें कुछ प्रमुख है:

i. डाल्मेन ताबूत:

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‘डाल्मेन’ का अर्थ होता है पत्थर की मेज (Stone Table) । इन्हें समतल जमीन पर सीधे अनपढ़े शिला फलकों की सहायता में तैयार किया जाता था । एक या आधेक सीधी शिला फलकों, जिन्हें आर्थोस्टेट कहा जाता था, की सहायता से आयताकार कक्ष का निर्माण होता था जो पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बाई में रखे जाते थे ।

समाधि की फर्श पर पत्थर की एक बड़ी पटिया बिछा दी जाती थी तथा ऊपर से एक या दो पटयिाओं से ढका जाता था । समाधि को कक्षों में विभाजित करने के लिये कभी-कभी अन्य पटियाओं का उपयोग किया जाता था । शिला फलकों से निर्मित इस प्रकार के कक्षों का अधिकांश भाग जमीन में गड़ा होता था तथा केवल कुछ भाग ही ऊपर होता था ।

डाल्मेन जमीन के ऊपर रहता था जबति ताबूत नीचे बनता था। समाधि की पूर्वी पटिया में एक प्रकार का छिद्र होता था जिससे सामग्री डाली जाती रही होगी। समाधियों में मिट्टी की सपाद शव मंजूषा (ताबूत) जमीन की सतह पर रखी हुई मिलती है । साथ-साथ काले-काले मृद्‌भाण्ड एवं लौह उपकरण भी मिलते है । डाल्मेन ताबूत ब्रह्मगिरि तथा चिंगलपुत्त से मिलती है ।

ii. स्तूपाकार ढेर या वृत्त (संगोर):

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इन्हें तमिल भाषा में निडईकलतेड्डि कहा जाता है । इस प्रकार की समाधियों के निर्माण के लिये पहले जमीन में एक गड्‌ढा खोदा जाता था । उसकी फर्श पर अस्थि-अवशेष उपकरण एवं मृद्‌भाण्ड आदि रखकर उसे भर दिया जाता था । तत्पश्चात उसके चारों ओर पत्थर के टुकड़ों (रबल्स) से ऊँचाई तक इस प्रकार ढका जाता था कि उसका आकार समाधि का, हो जाता था । कुछ समाधियों में मिट्टी की सपाद शव मंजूषा (ताबूत) भी मिलती है । इस प्रकार के स्मारक तमिलनाडु के चिंगलपुत्त जिले में मिलते है ।

iii. छाता प्रस्तर तथा शीर्ष प्रस्तर:

इस प्रकार की महापाषाणिक समाधियों के शीर्ष भाग खुले हुए छाते तथा सर्प के फन की भांति दिखाई देते हैं । दक्षिण के लोग इन्हें क्रमशः टोपीकल्लू तथा कुदईकल्लू (कुदकल्लु) कहते थे । केरल राज्य के कोचीन क्षेत्र से शीर्ष प्रस्तर स्मारक पाये गये हैं ।

इस क्षेत्र के एक अन्य स्मारक को ‘नडुकल’ अथवा मेन्हीर (Menhir) कहा जाता है । ये ग्रेनाइट पत्थर के है जिन्हें एक ही पत्थर से  तैयार किया गया है । इनकी लम्बाई डेढ से ढाई मीटर तक है जिन्हें समाधियों के समीप उत्तर दक्षिण दिशा में लम्बवत् गाड़ा गया है ।

लैटराइट (Laterite) मैदानों में कई स्थानों पर इनके नीचे मृतक भाण्ड भी मिले है । कोमलपरथल नामक स्थान पर नडुकलों का एक पंक्ति मिलती है जिसमें कई प्रकार के नडुकल है । सबसे बड़ा पीने तेरह फुट लम्बे, साढे सात फुट चौड़े आधार पर तथा एक फुट शीर्ष पर चौड़े पत्थर का बना है ।

केरल के कोचीन जिले के कट्टकम्पल तथा त्रिपुर के पोर्कलम् से गुफा समाधियां (तडि गुफा) मिलती है जिनमें लौह उपकरण एवं मृद्‌भाण्ड पाये गये हैं । इस कारण इन स्मारकों की गणना भी महापाषाण में की जाती है । इन्हें बनाने के लिये पहले चट्टान में सीढ़ीदार एक आयताकार गड्‌ढा खोदा जाता था ।

खड़ी दीवार में एक प्रवेशद्वार खोदा जाता था तथा इसी मार्ग से पूरी गुफा का स्वरूप तैयार होता था । अधिकांशतः गुफा की फर्श गोलाकार तथा छत गुम्बदाकार मिलती है । बीच में आयताकार, गोलाकार अथवा वर्गाकार खम्भा भी गड़ा हुआ मिलता है । कुछ गुफाओं में कई कक्ष भी बनाये जाते थे ।

चिंगलपुत्त से एक अन्य प्रकार का स्मारक भी पाया जाता है जिसे ‘अन्त्येष्ठि कलश’ (Urn Burial) कहा जाता है । भूमि के ऊपर मिट्टी के टीले (Burrow) के नीचे लम्बा अण्डाकार मृतक भाण्ड (Urn) अथवा पकी मिट्टी का सपाद ताबूत (Legged Sarcophagus) गड़ा हुआ मिलता है ।

कहीं-कहीं इनमें लौह उपकरण एवं मिट्टी के बर्तन भी पाये जाते हैं । इस प्रकार दक्षिण भारत के विभिन्न पुरास्थलों से भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के वृहत्पाषाणिक स्मारक प्राप्त होते हैं । इन स्मारकों के निर्माताओं के विषय में कुछ भी निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है।

उत्तर भारत की वृहत्पाषाणिक समाधियां (Macroeconomic Settlements of Northern India):

वीसवीं शती के छठे दशक (1960 ईस्वी) तक विद्वानों की धारणा थी कि वृहत्पाषाणिक संस्कृति का प्रसार गोदावरी घाटी के दक्षिण में ही था । इसके पूर्व यद्यपि विश्व क्षेत्र के मिर्जापुर जिले में कनिंघम एवं मसूरिया ने कुछ वृहत्पाषाणिक समाधियों की खोज की थी किन्तु उनकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया ।

1962-63 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष जी० आर० शर्मा के नेतृत्व में विन्धय क्षेत्र के पहाड़ी इलाके में प्रारम्भ किये गये व्यापक अनुसंधान के परिणामस्वरूप ही वाराणसी, मिर्जापुर, इलाहावाद तथा बांदा जिलों के विभिन्न क्षेत्रों से इन समाधियों को खोज निकाला गया ।

वाराणसी मण्डल के चकिया में स्थित चन्द्रप्रभा नदी घाटी के हथिनिया पहाड़ी क्षेत्र में सगोरा प्रकार की समाधियाँ प्राप्त हुई है । इनका प्रसार मिर्जापुर, सोनभद्र, इलाहाबाद, चित्रकूट, बाँदा आदि में मिलता है । ककोरिया, कोटिया, कील्डीहवा, खजुरी, मघा आदि प्रमुख पुरास्थल हैं जहाँ खुदाई करके इन समाधियों को प्रकाशित किया गया है ।

ककोरिया पुरास्थल चन्दौली (पहले वाराणसी) के चकिया तहसील में स्थित है । यहाँ 1962 से 1964 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के तत्वावधान में खुदाई करवायी गयी । यहाँ से सगोरा प्रकार की आठ तथा सिस्ट प्रकार की तीन समाधियाँ मिलती है ।

एक सिस्ट समाधि संगोरा समाधि के अन्दर बनाई गयी थी । संगोरा समाधियों की खुदाई में मानव अस्थियों के साथ-साथ काले-लाल मृद्‌भाण्ड, लघुपाषाणोपकरण, पशुओं की हड्डियां आदि मिलती है । ऐसा प्रतीत होता है कि शवों को अन्यत्र विसर्जित करने के बाद अवशिष्ट अस्थियों को ही यहाँ दफनाया जाता था । इसी कारण इन समाधियों से प्राप्त कंकाल सुरक्षित दशा में नहीं मिले हैं ।

सिस्ट समाधियों का निर्माण लघु पाषाण खण्डों से किया गया है । यहाँ दक्षिण की समाधियों की भाँति चार शिलाओं को चारों ओर नहीं खड़ा किया जाता था । ताबूत (Cist) का कुछ भाग जमीन के ऊपर निकला हुआ रहता था । ककोरिया की समाधियों से लौह उपकरण नहीं मिलते । इस आधार पर विद्वान् इन्हें ताम्रपाषाणकाल से संबंधित करते है ।

इस क्षेत्र का दूसरा पुरास्थल कोटिया चकिया तहसील में ही बेलन नदी के किनारे स्थित है । यहाँ के उत्खनन में सगोरा तथा सिस्ट प्रकार की समाधियाँ मिलती है । इनकी एक खास विशेषता यह है कि इनमें काले-लाल भाण्डों के साथ-साथ लौह उपकरण भी मिले है ।

इनमें दराँती, वसुला, बाणाग्र आदि सम्मिलित हैं । मानव अस्थियों नहीं मिलतीं किन्तु गाय, बैल आदि पशुओं की अस्थियों मिलती है । शर्मा के अनुसार इन स्थलों से जो भौतिक संस्कृति दिखाई देती है वह ताम्रपाषाणिक लोगों की ही है । एक शवाधान की रेडियो कार्बन तिथि ईसा पूर्व तीसरी शती की प्राप्त होती है ।

बृहत्माषाणिक संस्कृतियां ककोरिया कोटिया समेत विन्ध्य क्षेत्र के एक बडे भूभाग में फैली हुई थीं । ककोरिया समाधियों से एन॰ बी॰ पी॰ मृद्‌भाण्ड के ठीकरे नहीं मिलते । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में एन॰ बी॰ पी॰ स्तर के प्रारम्भ होने तक (लगभग ईसा पूर्व छठीं शताब्दी) वृहत्पाषाणिक संस्कृति का अन्त हो गया था ।

वृहत्याषाणिक संस्कृतियों का विस्तार महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में भी मिलता है । नागपुर विश्वविद्यालय तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से किये गये उत्खनन एवं अन्वेषण के परिणामस्वरूप विदर्भ के पूर्वी क्षेत्र से अनेक पुरास्थलों कीन्डिन्यपुर, कापाणि, ताकलघाट, महुर्झरी, पीनार आदि से संगोरा तथा सिस्ट प्रकार की समाधियों मिली है । इनमें शवों के साथ-साथ पशुओं की हड़ियों, काले-लाल भाण्ड तथा लौह उपकरण आदि रखे गये है ।

इस प्रकार भारत में वृहत्पाषाणिक संस्कृतियों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था और यह नहीं कहा जा सकता कि ये मात्र विष्णु पर्वत के दक्षिण में ही सीमित थी । इन रचनाओं के उद्देश्य अथवा उपयोग के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना कठिन है । गार्डन चाइल्ड का अनुमान है कि बृहत्पाषाण किसी अन्धविश्वास सबंधि अनुष्ठानिक अथवा धार्मिक उद्देश्य से बनाये जाते थे ।

वृहत्पाषाणिक संस्कृतियों की सामान्य विशेषतायें (General Features of Megalithic Cultures):

वृहत्पाषाणिक संस्कृतियों की कुछ सामान्य विशेषतायें दिखाई देती है जो इस प्रकार हैं:

1. प्राय: सभी का निर्माण ऊँचे पहाडी स्थलों पैर किया गया है ।

2. इनके नीचे एक या अधिक तालाब निर्मित पाये गये है । इसका कारण संभवत निर्माण सामग्रियों की सुलभता एवं कृषि के लिये सिचाई की सुविधा रहा होगा । इससे यह भी सूचित होता है कि ये स्मारक रहने की बस्ती के समीप ही बनाये जाते थे ।

3. इन स्मारकों के निर्माता कृषि-कर्म से भली-भाँति परिचित थे । उनके द्वारा उत्पादित प्रमुख अनाज चावल जौ बना रागी (मडुआ) अदि थे । गाय बैल, भेद बकरी, घोड़े आदि उनके पालतू पशु थे ।

4. वे लोहे के उपकरणों का प्रयोग करते थे । समाधियों की खुदाई में विविध प्रकार के लौह उपकरण जैसे तलवार, कटार, त्रिशूल, चपटी कुल्हाडियां फावड़े, छेनी, बसूली, हसिया, चाकू माला अदि पाये गये है । ये कृषि तथा युद्ध दोनों से संबंधित है ।

5. सभी समाधियों से एक विशिष्ट प्रकार के मृदभाण्ड, जिन्हें कृष्ण-लोहित अथवा काले और लाल भाण्ड (Black and Red Ware) कहा जाता है, प्राप्त होते हैं । ये चाक पर बनाये गये हैं । इनके भीतरी तथा मुँह के पास वाला भाग काला तथा शेष लाल है । इन्हें औंधे मुँह आंवों में पकाया गया है । घड़े, मटके, कटोरे, थाली, अदि प्रमुख बर्तन हैं ।

6. मिट्टी के अतिरिक्त ताम्र तथा कांस्य निर्मित बर्तनों का भी प्रयोग प्रचलित था ।

7. प्राय: सभी समाधियों से आंशिक समाधीकरण के उदाहरण मिलते हैं । शवों को जगंली जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था । तत्पश्चात् बची हुई अस्थियों को चुनकर समाधि में गाड़ने की प्रथा थी ।

वृहत्पाषाणिक संस्कृति की तिथिक्रम (Date of Megalithic Cultures):

वृहत्पाषाणिक संस्कृति की निश्चित तिथि के विषय में मतभेद है । ह्वीलर ने ब्रह्मगिरि के उत्खनन में तीन संस्कृतियों को उद्‌घाटित किया जिसमें दूसरी संस्कृति वृहत्पाषाणकाल की है । यहाँ संगोरा तथा डाल्मेन प्रकार की समाधियाँ मिलती है ।

ह्वीलर ने इस संस्कृति की तिथि ईसा पूर्व 200-50 ईस्वी के बीच निर्धारित किये जाने का सुझाव दिया है । कोयम्बटूर जिले के सुलर नामक स्थल से एक समाधि में ईसा पूर्व तीसरी अथवा दूसरी शती की एक मुद्रा मिली है । इसी जिले के पाण्डुकुल्ली से रोमन शासक आगस्टस की एक रजत मुद्रा (ई॰ पू॰ 27-14) मिली है ।

इनसे सूचित होता है कि ईसा पूर्व तीसरी शती से लेकर ईस्वी सन की पहली शती तक इन स्मारकों का निर्माण किया गया। कुछ पुरास्थलों रुलर, पैव्यमपल्ली आदि से उपलब्ध शहरों कार्बन तिथियाँ वृहत्पाषाणिक सस्कृति के प्रारम्भ की तिथि ईसा पूर्व 1000 तक ले जाती है । संकालिया तथा, के॰ आर॰ श्रीनिवास तैसे पुरातत्वविदों की धारणा है कि संगम साहित्य में समाधीकरण का जो विवरण मिलता है वह वृहत्पाषाणिक संस्कृति में प्रचलित प्रथा का ही उल्लेख करता है ।

संगम साहित्य की तिथि ईस्वी सन् की प्रथम दो शताब्दियों में निर्धारित की जाती है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक वृहत्पाषाणिक समाधियों का निर्माण हो रहा था । इस प्रकार विविध स्रोतों के आधार पर हम इस संस्कृति का कालक्रम ईसा पूर्व एक हजार से लेकर पहली शताब्दी ईस्वी तक निर्धारित कर सकते हैं । सुदूर दक्षिण में यह संस्कृति दूसरी तीसरी शती ईस्वी तक प्रचलित थी ।

वृहत्पाषाण समाधियों के निर्माताओं की निश्चित पहचान के विषय में मतभेद है । दक्षिण भारत तथा भूमध्य सागर की वृहत्पाषाणिक संस्कृतियों में घनिष्ठ समानताओं को देखते हुए कतिपय विद्वान यह प्रस्तावित करते है कि दक्षिण भारत में यह संस्कृति पश्चिमी एशिया से ही आई थी ।

इस प्रथम सम्पर्क ने वाद में घनिष्ठ संबंध का रूप धारण कर लिया जो काफी समय तक चलता रहा । भूमध्य सागरीय क्षेत्र में इसकी प्रारम्भ तिथि ईसा पूर्व द्वितीय सहस्त्राब्दि मानी जाती है । इसके विपरीत हेमनडार्फ, झुकरमैन अदि कुछ विद्वान् आदिचन्नल्लूर से प्राप्त नर कंकालों के आधार पर दक्षिण की इस संस्कृति का निर्माता द्रविड जाति को मानते है । ह्वीलर का विचार है कि ब्रह्मगिरि में महापाषाणिक संस्कृतियों के निर्माता बाहर से आये थे । वे द्रविड भाषा-भाषी लोग थे ।

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