दक्षिण भारत के छोटे राजवंशों / साम्राज्यों की सूची | List of Small Dynasties / Empires of South India in Hindi.

कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों के शामन के पश्चात् दक्षिणापथ में कई सामन्तों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी । इनमें देवगिरि (उत्तरी-महाराष्ट्र) के यादव, द्वारसमुद्र के होयसल, कुन्तल के कदम्ब, मैसूर के गद्दा आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

अग्रलिखित पंक्तियों में हम उपर्युक्त राजवंशों का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत करेगें:

1. देवगिरि के यादव:

चालुक्य नरेश सोमेश्वर चतुर्थ के निर्बल शासन-काल में उसका यादव सामन्त भिल्लम (1187-1191 ई॰) अपनी स्वतन्त्रता स्थापित करने वाला प्रथम महत्वाकांक्षी व्यक्ति था । उसने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसके उत्तरी जिलों पर अधिकार कर लिया ।

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उसके दबाव के फलस्वरूप सोमेश्वर चतुर्थ को अपनी राजधानी कल्याणी छोड़कर वनवासी में शरण लेनी पड़ी । कल्याणी पर यादवों का अधिकार हो गया । परन्तु होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय ने 1191 ई॰ के लगभग सोरल तथा लट्टन्डी के युद्धों में भिल्लम को पराजित कर दिया ।

भिल्लम लड़ता हुआ मारा गया तथा वल्लाल उसके राज्य की उत्तरी सीमा (कृष्णा नदी) तक चढ़ गया । भिल्लम ने देवगिरि नामक नगर की स्थापना की तथा उसे अपनी राजधानी बनाया था । भिल्लम के पश्चात् उसका पुत्र जैतुगी राजा बना ।

उसने वारंगल के काकतीय शासक रुद्र के ऊपर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी तथा उसके भतीजे गणपति को बन्दी बना लिया । रुद्र के भाई महादेव के काल में संभवत: पुन: यादवों तथा काकतीयों में युद्ध हुआ । 1199 ई॰ में महादेव की मृत्यु के बाद जैतुगी ने उसके पुत्र गणपति को मुक्त कर दिया तथा उसे वारगल की गद्दी पर बैठाया ।

जैतुगी का पुत्र तथा उत्तराधिकारी सिंधन (1210-1247 ई॰) हुआ । वह यादव वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था । उसने होयसल नरेश बल्लाल के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारम्भ किया । वल्लाल कई युद्धों में परास्त हुआ तथा सिंघन ने पुन: उससे उन सभी प्रदेशों को जीत लिया जिन्हें भिल्लम को हराकर बल्लाल ने जीता था ।

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उसने गुजरात पर भी आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार स्थापित कर लिया । दक्षिणी कोंकण के शिलाहार शासक भोज द्वितीय ने अपनी स्वाधीनता घोषित की जिसे परास्त कर सिंघन ने दक्षिणी कोंकण को अपने राज्य में मिला लिया । इस प्रकार उसके राज्य में समस्त पश्चिमी तथा मध्य दक्षिण के प्रदेश सम्मिलित हो गये ।

यादववंश का अन्तिम स्वतन्त्र शासक रामचन्द्र हुआ । 1309 ई॰ में उसके राज्य पर अलाउदीन खिलजी के आक्रमण हुये । यादव पराजित किये गये तथा रामचन्द ने अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर के सम्मुख आत्म-समर्पण कर दिया ।

2. द्वारसमुद्र के होयसल:

होयसल यादवों की एक शाखा थे जो अपने को चन्द्रवंशी मानते थे । वे गंगवाडि के पश्चिम में चालुक्य नरेशों के सामन्त के रूप में शासन करते थे । उनका राज्य चालुक्य तथा चोल साम्राज्यों के बीच एक मध्यस्थ राज्य था । चालुक्य नरेश सोमेश्वर तृतीय के समय में इस वंश के विष्णुवर्द्धन ने अपने को स्वतन्त्र कर दिया ।

वह एक महत्वाकांक्षी शासक था और उसने चालुक्य राज्यों को जीत कर अपनी शाक्ति का विस्तार प्रारम्भ कर दिया । 1149 ई॰ तक उसने धरवार के यंकापू में अपने को सुदृढ़ कर लिया तथा अपनी राजधानी द्वारसमुद्र को अपने पुत्र की अधीनता में छोड़ दिया ।

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प्रारम्भ में वह मतानुयायी था परन्तु बाद में रामानुज के प्रभाव से वैष्णव हो गया । उसके बाद उसका पुत्र नरसिंह राजा बना । उसके समय में कलचुरि सरदार बिज्जल ने उस पर आक्रमण किया तथा बनवासी को उससे छीनकर अपने अधिकार में कर लिया । नरसिंह ने 1173 ई॰ तक शासन किया ।

नरसिंह के पश्चात् उसका पुत्र वीर बल्लाल द्वितीय (1173-1211 ई॰) राजा बना । उसने होयसल राज्य का आगे विस्तार किया । उसका चालुक्य शासकों से भी युद्ध हुआ । वस्तुत: उसी के काल में होयसल चालुक्यों की अधीनता से अपने को पूर्णतया मुक्त कर सके ।

1190 ई॰ में बल्लाल ने चालुक्य नरेश सोमेश्वर चतुर्थ तथा उसके सेनापति ब्रह्म को अन्तिम रूप से परास्त किया जिससे चालुक्यशक्ति का विनाश हो गया । तत्पश्चात् बल्लाल के यादव भिल्लम के साथ कई युद्ध हुये । अन्तत: 1191 ई॰ में उसने गडम के निकट भिल्लम को पराजित किया तथा कृष्णा नदी तक के भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया ।

परन्तु 1210 ई॰ में यादव वंश के सिंघन ने पुन: बल्लाल को पराजित कर उन प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । बल्लाल द्वितीय के बाद नरसिंह द्वितीय, सोमेश्वर तथा नरसिंह तृतीय ने 1211 ई॰ से 1286 ई॰ तक बारी-बारी से शासन किया । उनका मदुरा के पाण्ड्यवंश के साथ युद्ध होता रहा ।

होयसल कुल का अन्तिम शासक नरसिंह तृतीय का पुत्र वीर बल्लाल तृतीय (1310 -1339 ई॰) था । उसके शासन-काल (1310-11 ई॰) में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने होयसल राज्य पर आक्रमण किया । वीर बल्लाल पराजित हुआ तथा उसने अलाउद्दीन को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया ।

उसने मलिक काफूर को अतुल सम्पत्ति उपहार में दिया । वीर बल्लाल 1339 ई॰ तक अलाउद्दीन के करद के रूप में शासन करता रहा । इसके वाद होयसलों की स्वतन्त्रता का अन्त हो गया । होयसल राजाओं का काल कला एवं स्थापत्य की उप्रति के लिए विख्यात है ।

उनके काल में मन्दिर निर्माण की एक नई शैली का विकास हुआ । इन मन्दिरों का निर्माण भवन के समान ऊँचे ठोस चबूतरे पर किया जाता था । चबूतरों तथा दीवारों पर हाथियों, अश्वारोहियों, हंसों, राक्षसों तथा पौराणिक कथाओं से सवन्धित अनेक मूर्तियाँ बनाई गयी हैं ।

उनके द्वारा बनवाये गये सुन्दर मन्दिरों के कई उदाहरण आज भी हलेविड, बेलूर तथा श्रवणबेलगोला में प्राप्त होते है । होयसलों की राजधानी द्वारसमुद्र का आधुनिक नाम हलेबिड है जो इस समय कर्नाटक राज्य में स्थित है । वहाँ के वर्तमान मन्दिरों में होयसलेश्वर का प्राचीन मन्दिर सवाधिक प्रसिद्ध है जिसका निर्माण विष्णुवर्द्धन के शासन-काल में हुआ ।

यह 160 फुट लम्बा तथा 122 फुट चौड़ा है । इसमें शिखर नहीं मिलता । इसकी दीवारों पर अद्‌भुत मूर्तियाँ बनी हुई हैं जिनमे देवताओं, मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों आदि सबकी मूर्तियों हैं । विष्णुवर्द्धन ने 1117 ई॰ में बेलूर में ‘चेन्नाकेशव मन्दिर’ का भी निर्माण करवाया था । वह 178 फुट लम्बा तथा 156 फुट चौड़ा है ।

मन्दिर के चारों ओर वेष्टिनी है जिसमें तीन तोरण बने है । तोरण-द्वारों पर रामायण तथा महाभारत से लिये गये अनेक सुन्दर दृश्यों का अंकन हुआ है । मन्दिर के भीतर भी कई मूर्तियाँ बनी हुई है । इनमें सरस्वती देवी का नृत्य मुद्रा में बना मूर्ति-चित्र सर्वाधिक सुन्दर एवं चित्ताकर्षक है । होयसल मन्दिर अपनी निर्माण-शैली, आकार-प्रकार एवं सुदृढ़ता के लिए प्रसिद्ध है ।

3. कदम्ब राजवंश:

चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के मध्य से कदम्बों का दक्षिणापथ के दक्षिण-पश्चिम में उत्कर्ष हुआ । इस समय समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ-अभियान के परिणामस्वरूप कांची के पल्लवों की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो चुकी थी । कदम्ब लोग मानव्यगोत्रीय ब्राह्मण थे जो अपने को हारीति-पुत्र कहते थे । उनका मुख्य कार्य वेदों का अध्ययन तथा वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करना था ।

पहले वे पल्लवों की अधीनता स्वीकार करते थे । इस वंश के मयूरशर्मन् ने पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह किया तथा अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया । वह कदम्ब वश का संस्थापक था । मयूरशर्मन् ने पल्लवों के सीमान्त अधिकारियों को परास्त कर श्रीपर्वत के आस-पास के घने वनों पर अधिकार कर लिया ।

कालान्तर में पल्लव राजाओं ने उससे मैत्री-सम्बन्ध स्थापित किया तथा उसे स्वतन्त्र शासक स्वीकार कर लिया तथा पश्चिमी समुद्र एवं प्रेहरा (संभवत: तुंगभंद्रा अथवा मलप्रभ नदी) के बीच के भूभाग पर उसका प्रभत्व मान लिया । बाद की कथाओं में मयूरशर्मन् को अठारह अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला कहा गया है । वनवासी (वैजयन्ती) उसकी मुख्य राजधानी तथा पालासिका उप-राजधानी थी । मयूरशर्मन् ने लगभग 345 ई॰ से 360 ई॰ तक शासन किया ।

कदम्बवंशी शासकों की वंशावली हमें एकमात्र तालगुण्ड स्तम्भलेख से ज्ञात होती है । मयूरशर्मन के पश्चात् काकुत्सवर्मन् इस कुल का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुआ । उसके पूर्व तीन राजाओं के नाम हमें ज्ञात होते हैं- कंगवर्मन, भगीरथ तथा रघु । उन्होंने 425 ई॰ तक शासन किया । परन्तु उनके शासनकाल की प्रमुख घटनाओं के विषय में हमें बहुत कम ज्ञात है ।

कंगवर्मन् के विषय में यह बताया गया है कि उसने बासीम शाखा के वाकाटक नरेश विंध्यसेन के कुन्तल राज्य पर आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था । संभवत: भगीरथ (385-410 ई॰) के काल में ही गुप्तशासक चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने कालिदास के नेतृत्व में अपना एक दूत-मण्डल कुन्तल नरेश के दरबार में भेजा था ।

भगीरथ के बड़े पुत्र रघु को अनेक शत्रुओं का विजेता कहा गया हे । उसके शासन के अन्त में उसका छोटा भाई काकुत्सवर्मन् 425 ई॰ में राजा बना । तालगुण्ड प्रशस्ति में काकुत्सवर्मन् की शक्ति की बड़ी प्रशंसा की गयी है । उसका शासन-काल अत्यन्त समृद्धिशाली था तथा उसने अपनी कन्याओं का विवाह वाकाटक तथा गुप्त राजवशों में किया था । उसने तालगुण्ड में एक विशाल तालाब खुदवाया था । काकुत्सवर्मन् ने 450 ई॰ तक शासन किया ।

काकुत्सवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र शान्तिवर्मन् (450-475 ई॰) हुआ । उसे अत्यन्त यशस्वी शासक बताया गया है जो तीन ताज (पट्टत्रय) धारण करता था । उसके पुत्र मृगेश के एक लेख से पता चलता है कि उसने अपने शत्रुओं की लक्ष्मी को उनके महलों से बलपूर्वक खींच निकाला था ।

शान्तिवर्मन् के काल में कदम्ब राज्य को पल्लवों से खतरा बना हुआ था । अतः उसने अपने राज्य के दक्षिणी भाग को अपने छोटे भाई कृष्णवर्मन् की अधीनता में कर दिया । यह स्पष्टतः राज्य का विभाजन था । कृष्णवर्मन् ने अश्वमेध यज्ञ किया था । वह पल्लवों के साथ युद्ध में मार डाला गया । उसका पुत्र विष्णुवर्मा पल्लवों द्वारा अभिषिक्त किया गया ।

शान्तिवर्मन् के बाद उसका पुत्र मृगेशवर्मन् (470-488 ई॰) शासक बना । उसका वनवासी तथा पलाशिका दोनों पर अधिकार था । गंग तथा पल्लव शासकों के विरुद्ध उसे सफलता प्राप्त हुयी । वह अपनी विद्वता तथा बुद्धिमत्ता के लिये प्रसिद्ध था ।

वह एक कुशल सैनिक भी था जिसे घोड़े तथा हाथियों की सवारी का बड़ा शौक था । उसने अपने पिता की स्मृति में पलाशिका में एक जैन-मन्दिर का निर्माण करवाया था तथा उसे उदारतापूर्वक दान दिया था ।

मृगेश के वाद रविवर्मा (500-538 ई॰) एक महत्वपूर्ण शासक हुआ । हल्सी लेख से पता चलता है कि उसने विष्णुवर्धन तथा अन्य राजाओं को युद्ध में मार डाला एवं पलाशिका से पल्लवों को निकाल कर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया । उसकी विजयों के फलस्वरूप यमस्त प्राचीन कदम्ब राज्य पर उसका अधिकार पुन: स्थापित हो गया ।

रविवर्मा का उत्तराधिकारी हरिवर्मा (538-550 ई॰) बना । वह शान्त प्रकृति का शासक था । उसके राज्यकाल में 545 ई॰ के लगभग चालुक्य नरेश पुलकेशिन् प्रथम ने कदम्ब राज्य के उत्तरी भाग को जीत लिया तथा बादामी में अपनी राजधानी बनाई ।

कदम्बों में पारिवारिक कलह के कारण एकता नहीं थी । उनकी छोटी शाखा (जिसकी स्थापना दक्षिण में कृष्णवर्मा प्रथम ने की थी) के कृष्णवर्मा द्वितीय ५५०३-५५६ ई०) ने वैजयन्ती पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया और इस प्रकार बड़ी शाखा के अन्तिम शासक हरिवर्मा का अन्त हुआ ।

कृष्णवर्मा द्वितीय अथवा उसके पुत्र अजवर्मा के समय में पुलकेशिन् प्रथम के पुत्र कीर्त्तिवर्मा ने वनवासी को अन्तिम रूप से जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार कदम्ब-राज्य की स्वाधीनता का अन्त हुआ ।

4. गंग राजवंश:

कदम्बों तथा पल्लवों के राज्यों के बीच आधुनिक मैसूर के दक्षिण में गंगों का राज्य स्थित था । इस स्थान को गंगवंश के साथ लम्बे समय तक सम्बद्ध रहने के कारण ‘गंगवाडि’ कहा गया । गंगवंश का प्रारम्भिक इतिहास अन्धकारपूर्ण है ।

अभिलेखों में इस वश का प्रथम शासक कोंकणिवर्मा वताया गया है । उसे जाहवेय कुल (गबन का वश) तथा काण्वायन गोत्र का कहा गया है । उसने कई युद्धों में ख्याति प्राप्त की तथा अपने लिये एक समृद्धिशाली राज्य का निर्माण कर लिया । वह ‘धर्ममहाराजाधिराज’ की उपाधि धारण करता था जो उसकी स्वतन्त्र स्थिति का सूचक है ।

काकुत्सवर्मन का समय 400 ई॰ के आस-पास माना जा सकता है । गच्चों की प्रारम्भिक राजधानी कुवलाल (कोलर) थी जो बाद में तलकाड हो गयी । कोंकणिवर्मा का पुत्र तथा उत्तराधिकारी महाराजाधिराज माधव प्रथम (लगभग 425 ई॰) हुआ । वह एक विद्वान् राजा था जिसे दत्तकसूत्र पर टीका लिखने का श्रेय दिया गया है । वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता था । इसके बाद अय्यवर्मा (लगभग 450 ई॰) शासक बना ।

वह योद्धा होने के साथ-साथ शास्त्र, इतिहास एवं पुराणों का भी ज्ञाता था । उसके तथा उसके छोटे भाई कृष्णवर्मा के बीच राजसिंहासन के लिये युद्ध हुआ । अरयवर्मा को पल्लव नरेश से सहायता मिली । इस संघर्ष के फलस्वरूप गंग राज्य दोनों भाइयों के बीच आधा-आधा बाँट दिया गया ।

दोनों ने अपने-अपने पुत्र का नाम सिंहवर्मा रखा । उनके काल में भी गंग राज्य का विभाजन कायम रहा । अटयवर्मा के पुत्र सिंहवर्मा को पल्लव नरेश स्कन्दवर्मा ने राजा बनाया था । उसका विवाह कदम्ब नरेश कृष्णवर्मा प्रथम की बहन से हुआ ।

परवर्ती लेखों के अनुसार इस विवाह से अविनीत नामक पुत्र हुआ । वह बचपन में ही राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया गया । गंगनरेश दुर्विनीत (लगभग 540-600 ई॰) ने अपने वश को पल्लवों की अधीनता से मुक्त किया । उसने पुब्राड (दक्षिणी मैसूर) तथा कोंगूदेश की विजय किया । उसका चालुक्यों के साथ मैत्री-सम्बन्ध था । वह संस्कृत का महान् विद्वान् था । इसके बाद श्रीपुरुष (728-788 ई॰) इस वंश का एक महत्वपूर्ण शासक हुआ ।

इसके समय में कोंगूप्रदेश के ऊपर पाएको का अधिकार हो गया तथा वह पाण्ड्यों की अधीनता में शासन करने लगा । उसने अपनी राजधानी मान्यपुर में स्थानान्तरित कर दिया । श्रीपुरुष का शासन समृद्धि का काल था । नोलम्बवाडि (चित्तलदुर्ग जिला) के लोग उसकी अधीनता मानते थे ।

श्रीपुरुष के बाद गंग राज्य की अवनति प्रारम्भ हुयी । उसके उत्तराधिकारी शिवमार द्वितीय को राष्ट्रकूट ध्रुव तथा गोविन्द तृतीय ने पराजित किया और बन्दी बनाया । अमोघवर्ष के काल में नीतिमार्ग (837-870 ई॰) के नेतृत्व में गंगो ने पुन: अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया ।

कृष्ण तृतीय (839-967 ई॰) ने पुन: गंग-राज्य की विजय की तथा वहाँ अपने साले भुतुग द्वितीय को शासक बना दिया । इसके वाद गंगवंशी शासक पाण्ड्यों तथा चोलों मैं लड़ते रहे । चोल शासक राजराज प्रथम ने 1004 ई॰ में गंगो को जीता तथा उन्होंने चोलों की अधीनता में रहना स्वीकार कर लिया । इस प्रकार क्रमश: गंग-राज्य की समाप्ति हो गयी ।

5. वारंगल का काकतीय वंश:

काकतीय लोग अपने को चोल करिकाल का वंशज मानते थे । इस वंश का पहला ज्ञात शासक बेत प्रथम था जिसने राजेन्द्र चोल के आक्रमण से उत्पन्न अध्यवस्था का लाभ उठाकर नलगोन्ड (हैदराबाद) में अपने लिये एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर दिया ।

उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी प्रोल प्रथम वातापी के पश्चिमी चालुक्यों का सामन्त था । उसने चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम की ओर से युद्धों में भाग लिया तथा पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली । उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर सोमेश्वर ने अंमकोण्ड विषय (वारंगल में हनुमकुण्ड) का उसे स्थायी सामन्त बना दिया ।

उसके उत्तराधिकारी बेत द्वितीय (1079-1090 ई॰) ने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य से कुछ और प्रदेश प्राप्त किया तथा अपनी राजधानी प्रेमको में स्थापित किया । चालुक्य साम्राज्य के विघटन काल में काकतीय वंशी प्रोल द्वितीय ने अपने का चालुक्य का अधीनता से मुक्त कर लिया तथा उसने गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच के प्रदेश पर अपना एकछत्र शासन स्थापित कर लिया ।

उसने चालुक्य नरेश तैल तृतीय को पराजित कर बन्दी बना लिया परन्तु बाद में उसे स्वतन्त्र कर दिया । उसका पुत्र रुद्रदेव एक कुशल योद्धा था । उसने भी तैल को परास्त किया । परन्तु यादव नरेश जैतुगी ने युद्ध में रुद्रदेव की हत्या कर दी तथा उसके भतीजे गणपति को 1196 ई॰ के लगभग बन्दी बना लिया । रुद्रदेव का छोटा भाई महादेव उसके बाद राजा बना तथा उसने केवल तीन वर्षों तक ही शासन किया ।

1199 ई॰ में जैतुगी ने गणपति को स्वतन्त्र कर दिया और वह काकतीय वश का राजा बना । गणपति अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुआ । उसने आन्ध्र, नेल्लोर, कांची, कर्नूल आदि को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया तथा 60 वर्षों तक शासन करता रहा । 1363 ई॰ में स्रुन्दरपाण्ड्य ने उसे हराकर कांची तथा नेल्लोर को छीन लिया । गणपति ने अपनी राजधानी वारंगल में स्थानान्तरित कर दी ।

गणपति के बाद उसकी पुत्री रुद्राम्बा काकतीय राज्य की शासिका बनी । यादव वंशी महादेव ने उसे पराजित किया । इसके बाद प्रतापरुद्र शासक हुआ उसने काकतीय वश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा का पुनरुद्धार किया । उसने अम्बदेव को पराजित कर कर्नूल तथा कुड्डपह को पुन: जीता तथा नेल्लोर पर आक्रमण किया । परन्तु 1309-10 ई॰ के लगभग मलिक काफूर ने वारंगल पर चढ़ाई की तथा राजधानी का घेरा डाला ।

प्रतापरुद्र वीरतापूर्वकै लड़ता रहा परन्तु अन्तत: उसने मलिक काफूर को हाथी, घोड़े तथा अमूल्य रत्न दिये । संभवतः उन्हीं रत्नों में कोहिपूर नामक हीरा भी था । मुसलमानों के वापस चले जाने के बाद प्रतापरुद्र ने अपना दक्षिणी अभियान प्रारम्भ किया तथा नेल्लोर और काञ्चि की विजय करता हुआ त्रिचनापल्ली तक जा पहुँचा ।

परन्तु उसकी सफलतायें क्षणिक ही रहीं । 1323 ई॰ में मुहम्मद तुगलक ने उसके राज्य पर आक्रमण किया । प्रतापरुद्र पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया । इसके साथ ही वारंगल का काकतीय राज्य दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया गया ।

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