भारत की संसद पर निबंध | Essay on the Parliament of India in Hindi.

Essay Contents:

  1. संसद की शक्तियाँ तथा कार्य (Powers and Functions of Parliament)
  2. संसद के सत्र (Sessions of Parliament)
  3. संसदीय समितियाँ (Parliamentary Committees)
  4. संसद के कानून बनाने की प्रक्रिया (Law Making Process of Parliament)
  5. संसद सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकारों का वर्णन (Privilege Received by Members of Parliament)

Essay # 1. संसद की शक्तियाँ तथा कार्य (Powers and Functions of Parliament):

भारत ने संसदीय प्रणाली का अनुसरण किया है जोकि बहुत कुछ ब्रिटेन की शासन प्रणाली के नमूने पर आधारित है । भारतीय संसद समस्त देश के शासन संचालन हेतु कानूनों का निर्माण करती है । भारतीय संसद का निर्माण मुख्यतः राष्ट्रपति और दो सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) से मिलकर होता है ।

हालांकि राष्ट्रपति किसी सदन का सदस्य नहीं होता, फिर भी वह भारतीय संसद का एक आवश्यक अंग है । लोकसभा को निम्न सदन कहा जाता है जोकि जनता का प्रतिनिधित्व करता है जबकि राज्यसभा उपरी सदन होता है जोकि देश के राज्यों की प्रतिनिधि संस्था है ।

ADVERTISEMENTS:

यहां पर संसद के दोनों सदनों के गठन, उनके कार्यों व शक्तियों का वर्णन किया गया है ।

जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है कि भारतीय संसद के प्रमुख दो सदन लोकसभा और राज्यसभा है । भारतीय संसद के द्वारा ही संपूर्ण देश के लिए कानूनों और नीतियों का निर्माण किया जाता है लेकिन इन कार्यों में लोकसभा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संसद की भूमिका तथा कार्य मूलतः लोकसभा की भूमिका व कार्य होते है ।

कानून-निर्माण के संबंध में संसद को महत्वपूर्ण एवं विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त हैं । भारत में संघीय शासन की स्थापना होने के कारण कानूनों का निर्माण दो स्थानों पर होता है । केन्द्र में संसद संपूर्ण देश के लिए कानून बनाती है और विभिन्न राज्यों के विधानमंडल अपने-अपने राज्यों के लिए कानून बनाते है ।

इस प्रकार कानून-निर्माण के संबंध में शक्तियों का केन्द्र एवं राज्यों में विभाजन किया गया है । संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियों की व्यवस्था की गई है जिसमें शक्तियों का बँटवारा किया गया है ।

ADVERTISEMENTS:

ये सूचियां तीन प्रकार की हैं:

1. संघ (केन्द्रीय) सूची

2. राज्य सूची और

3. समवर्ती सूची ।

ADVERTISEMENTS:

(i) साधारण अवस्था में:

संसद साधारण अवस्था में केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची पर कानून बनाती है । केन्द्रीय सूची पर उसे पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है और संसद के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था को इस सूची पर कानून-निर्माण का अधिकार प्राप्त नहीं है । केन्द्र सूची के अतिरिक्त संसद को समवर्ती सूची पर भी कानून बनाने का अधिकार है ।

यद्यपि इस सूची पर राज्यों के विधानमंडलों को भी कानून बनाने का अधिकार है किंतु यदि समवर्ती सूची में दिए गए किसी विषय पर केन्द्र कानून बनाता है और उसी विषय पर राज्य भी कोई कानून बना लेता है तो केन्द्र का कानून लागू होता है और राज्यों का कानून उस सीमा तक लागू नहीं होता, जिस सीमा तक वह केन्द्र द्वारा पारित कानून के विरूद्ध है । इस प्रकार समवर्ती सूजी पर संसद को वरीयता प्राप्त है ।

(ii) असाधारण अवस्था में:

राज्य सूची पर संसद को केवल असाधारण अवस्था में ही कानून बनाने का अधिकार है । यह अवस्था दो प्रकार से उपस्थित हो सकती है । प्रथम, राज्यसभा यदि 2/3 के बहुमत से इस प्रकार का प्रस्ताव पारित कर देती है कि राज्य सूची का कोई विषय राष्ट्रीय महत्व का बन गया है तब संसद को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है । दूसरे, आपातकालीन घोषणा के पश्चात राज्य सूची पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है ।

(iii) अवशिष्ट विषय:

उपरोक्त तीनों सूचियों के अतिरिक्त कुछ ऐसे विषय होते हैं जिनका वर्णन उपरोक्त सूचियों में नहीं होता । ऐसे विषयों पर केन्द्र का अधिकार माना जाता है तथा वही इससे संबंधित कानून एवं नीतियों का निर्माण करता है ।

संसदीय कार्य की योजना:

प्रश्नकाल:

संसद का पहला घटा प्रश्नकाल के लिए होता है । इस दौरान सदस्य प्रश्न पूछते हैं और सामान्यतः मंत्री जवाब देते हैं । प्रश्न तीन तरह के होते हैं- मौखिक, लिखित एवं अल्पसूचना वाले ।

मौखिक प्रश्न का मौखिक जवाब जरूरी होता है और एक पूरक प्रश्न इसका अनुसरण करता है । दूसरी तरह के प्रश्न पर लिखित उत्तर जरूरी होता है और अल्प सूचना (कम से कम 10 दिन) प्रश्नों के लिए आवश्यक है ।

शून्यकाल:

शून्यकाल का कार्यवाही के नियमों में उल्लेख नहीं है । इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम मीडिया द्वारा किया गया । इस तरह यह अनौपचारिक योजना है जो संसद सदस्यों को बिना पूर्व सूचना के उपलब्ध है । शून्यकाल प्रश्नकाल के तुरंत बाद शुरू होता है और इसमें दिनभर का कार्यक्रम तय किया जाता है । दूसरे शब्दों में, प्रश्नकाल और कार्यक्रम तय करने के मध्य के समय को शून्यकाल कहते हैं ।

प्रस्ताव:

सार्वजनिक महत्व के किसी मामले पर बिना कार्यवाही अधिकारी की स्वीकृति के बहस नहीं की जा सकती । सदन अपना मत या निर्णय विभिन्न तरीकों से देता है ।

इसकी तीन प्रमुख श्रेणियाँ हैं:

1. महत्वपूर्ण प्रस्ताव:

यह एक स्वयं निर्णित स्वतंत्र प्रस्ताव है जिसके तहत बहुत महत्वपूर्ण मामले जैसे राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग, मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटाना, आदि शामिल हैं ।

2. स्थानापन्न प्रस्ताव:

यह वह प्रस्ताव है जो मूल प्रस्ताव का स्थान लेता है ।

3. पूरक प्रस्ताव:

यह ऐसा प्रस्ताव है जिसका स्वयं कोई अर्थ नहीं होता । इसे सदन में तब तक पारित नहीं किया जा सकता जब तक इसके मूल प्रस्ताव का संदर्भ न हो ।

इसकी तीन श्रेणियां होती है:

(i) सहायक प्रस्ताव

(ii) स्थान लेने वाला प्रस्ताव

(iii) संशोधन ।

अविश्वास प्रस्ताव:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-75 में कहा गया है कि मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है । इसका मतलब है कि मंत्रिपरिषद तभी तक है जब तक कि उसे सदन में बहुमत प्राप्त है । दूसरे शब्दों में, लोकसभा मंत्रिमंडल का अविश्वास प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है । प्रस्ताव के समर्थन में 50 सदस्यों की सहमति आवश्यक है ।

निंदा प्रस्ताव:

निंदा प्रस्ताव अविश्वास प्रस्ताव से अलग होता है क्योंकि लोकसभा को इसे स्वीकारने का कारण बताना पड़ता है । यह मंत्रिपरिषद की कुछ नीतियों या कार्य के खिलाफ लाया जाता है । यह किसी एक मंत्री या मंत्रियों के समूह या पूरे मंत्रिपरिषद के विरुद्ध लाया जा सकता है और यदि यह लोकसभा में पारित हो भी जाए तब भी मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना आवश्यक नहीं है ।

धन्यवाद प्रस्ताव:

प्रत्येक आम चुनाव के पहले सत्र एवं बजट वर्ष के पहले सत्र में राष्ट्रपति सदन को संबोधित करता है । अपने संबोधन में राष्ट्रपति सरकार की नीतियों एवं योजनाओं का खाका खींचता है । राष्ट्रपति के इस संबोधन को ‘ब्रिटेन के राजा के भाषण’ से लिया गया है, जिस पर दोनों सदनों में विचार होता है । इसी को धन्यवाद प्रस्ताव कहा जाता है । बहस के बाद प्रस्ताव को मत विभाजन के लिए रखा जाता है । इस प्रस्ताव का सदन में पारित होना आवश्यक है, नहीं तो इसका तात्पर्य सरकार का पराजित होना है ।

प्याइंट ऑफ आर्डर:

जब सदन संचालन के सामान्य नियमों का पालन नहीं करता तो एक सदस्य प्याइट ऑफ आर्डर के माध्यम से सदन का ध्यान आकर्षित कर सकता है । यह आर्डर सामान्यतया विपक्षी सदस्य द्वारा सरकार पर नियंत्रण के लिए उठाया जाता है । यह सदन का ध्यान आकर्षित करने की एक असाधारण युक्ति है । प्याइंट ऑफ आर्डर में यद्यपि किसी तरह की बहस की अनुमति नहीं होती ।

आधे घंटे की बहस (चर्चा):

इसका मतलब है कि पर्याप्त सार्वजनिक महत्व के मामलों पर चर्चा हो । अध्यक्ष ऐसी चर्चा के लिए सप्ताह में तीन दिन निर्धारित करता है । इसके लिए सदन के बाहर कोई औपचारिक प्रस्ताव के लिए मतदान नहीं होता ।

अल्पकालिक चर्चा:

इसे दो घंटे की चर्चा भी कहते हैं क्योंकि इस तरह की चर्चा के लिए दो घंटे से अधिक का समय नहीं लगता । संसद सदस्य किसी जरूरी सार्वजनिक महत्व के मामले को बहस के लिए रख सकते हैं । अध्यक्ष इस पर बहस के लिए एक सप्ताह में दो दिन उपलब्ध करा सकता है ।


Essay # 2. संसद के सत्र (Sessions of Parliament):

संसद के प्रत्येक सदन को राष्ट्रपति समय-समय पर समन जारी करता है, लेकिन संसद के दोनों सत्रों के बीच अधिकतम अंतराल 6 माह से ज्यादा नहीं होना चाहिए । दूसरे शब्दों में, संसद को कम-से-कम वर्ष में दो बार मिलना चाहिए ।

सामान्यतः वर्ष में तीन सत्र होते हैं:

1. बजट सत्र,

2. मानसून सत्र,

3. शीतकालीन सत्र ।

 


Essay # 3. संसदीय समितियाँ (Parliamentary Committees):

संसद की सामान्य बैठकों के अतिरिक्त संसद का अधिकांश कार्य संसदीय समितियों द्वारा किया जाता है । संसदीय समितियों का गठन सभा का सभापति या अध्यक्ष करता है तथा सदस्यों की नियुक्ति यथास्थिति प्रस्तावित किए जाने पर सभा द्वारा नियुक्त अथवा निर्वाचित अध्यक्ष द्वारा नाम-निर्देशित किए जाते हैं । समिति का कोई भी सदस्य सभा के अध्यक्ष को लिखित में त्याग-पत्र दे सकता है ।

समिति में गणपूर्ति:

समिति की बैठक करने के लिए गणपूर्ति समिति के सदस्यों की समस्त संख्या की यथासंभव एक तिहाई होनी चाहिए ।

यदि कोई सदस्य समिति की लगातार दो या अधिक बैठकों से सभापति की अनुज्ञा के बिना अनुपस्थित रहता है तो ऐसे सदस्य को समिति से हटाने के लिए सभा में प्रस्ताव प्रस्तुत किया जा सकता है परंतु, यदि समिति के सदस्य अध्यक्ष द्वारा नाम निर्देशित किए जाते हैं तो उन्हें अध्यक्ष द्वारा हटाया जा सकता है ।

समिति में निर्णय:

समिति की किसी बैठक में निर्णय उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से निर्धारित किए जाते हैं । किसी विषय पर समान मत होने पर सभापतित्व कर रहे व्यक्ति का मत निर्णायक होता है ।

संसदीय समितियों प्रमुख रूप से दो प्रकार की होती है:

1. स्थायी समिति

2. तदर्थ समिति ।

तदर्थ समितियों किसी विशेष कार्य के लिए बनाई जाती हैं और जब ये अपना कार्य पूरा कर लेती हैं, तब इनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है । इनके अतिरिक्त संसद की प्रत्येक सभा की स्थायी समितियाँ होती है जोकि लगातार कार्य करती रहती हैं । जैसे कार्यमंत्रणा समिति, याचिका समिति, विशेषाधिकार समिति, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति, नियम समिति, आदि ।

इसके अतिरिक्त कुछ विशेष महत्व की समितियाँ भी होती है जोकि कार्यपालिका के ऊपर संसद के प्रहरी का कार्य करती हैं । प्राक्कलन समिति, लोक लेखा समिति, सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति तथा सार्वजनिक उपक्रम समिति इस श्रेणी में आती है । इनमें प्राक्कलन समिति, लोक-लेखा समिति और सार्वजनिक संस्थानों की समिति सरकारी व्यय पर नियंत्रण रखती है ।

समितियों का गठन तथा उनके कार्य:

1. प्राक्कलन समिति:

यह संसद की एक महत्वपूर्ण समिति है । इसके अंतर्गत 30 सदस्य होते हैं । ये सभी सदस्य लोकसभा द्वारा प्रतिवर्ष आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमण पद्धति द्वारा इसके सदस्यों में से ही निर्वाचित होते हैं । समिति का अध्यक्ष इन चुने हुए सदस्यों में से लोकसभा अध्यक्ष द्वारा नियुक्त किया जाता है लेकिन यदि लोकसभा का उपाध्यक्ष प्राक्कलन समिति का सदस्य है तो वह स्वतः ही समिति का अध्यक्ष नियुक्त हो जाता है ।

इस समिति के कार्य निम्नलिखित हैं:

(i) यह इस विषय पर अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है कि संगठनात्मक सुधारों, प्रशासनिक दक्षता अथवा सुधारों से नीतिगत आकलन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है ।

(ii) यह समिति यह परीक्षण भी करती है कि नीतिगत प्राक्कलन की सीमाओं के अंतर्गत ही धन निकाला गया है ।

(iii) यह सुझाव देती है कि संसद में किस रूप में प्राक्कलन प्रस्तुत किए जाएं ।

(iv) प्रशासनिक दक्षता एवं मितव्ययिता बढाने के सबध में वैकल्पिक नीतियों का सुझाव देती है ।

2. लोक-लेखा समिति:

यह संसद की महत्वपूर्ण समिति है । इस समिति में कुल 22 सदस्य होते हैं जिसमें से 15 सदस्य लोकसभा से तथा 7 सदस्य राज्यसभा से निर्वाचित होते हैं । राज्यसभा से निर्वाचित सदस्य सहसदस्य के रूप होते हैं तथा इन्हें मताधिकार प्राप्त नहीं होता ।

कोई भी मंत्री इस समिति की सदस्यता के लिए निर्वाचित नहीं हो सकता । इसका कार्यकाल केवल एक वर्ष होता है । 1967 से चली आ रही परम्परा के अनुसार विपक्ष के किसी सदस्य को इसका सभापति नियुक्त किया जाता है ।

लोक-लेखा समिति के निम्नलिखित कार्य होते हैं:

(i) यह भारत सरकार के लोक-लेखे तथा नियंत्रक एवं महालेखाकार के प्रतिवेदन का निरीक्षण करती है ।

(ii) यह सुनिश्चित करती है कि लोकधन संसद के निर्णयों के अनुसार ही विभिन्न मदों में खर्च किया जाए तथा व्यर्थ अपव्यय को रोका जाए ।

(iii) समिति का कार्य नीति-निर्धारण नहीं है अपितु संसद द्वारा बनाई गई नीतियों के अनुसार कार्यान्वयन के सुनिश्चित करना है ।

3. सरकारी उपक्रम समिति:

यह समिति, कृष्ण मेनन समिति के सुझाव पर 1964 में बनाई गई । प्रारंभ में इसमें 15 सदस्य होते थे, जिसमें से 10 लोकसभा से और 5 राज्यसभा से होते थे । 1974 में इनकी संख्या 22 (15 लोकसभा से और 7 राज्य सभा से) कर दी गई । किसी भी मंत्री को इसका सदस्य नहीं बनाया जा सकता । इस समिति का अध्यक्ष लोकसभाध्यक्ष द्वारा मनोनीत किया जाता है ।

इस समिति के कार्य निम्नलिखित हैं:

(i) सार्वजनिक उपक्रमों के लेखा एवं रिपोर्ट का परीक्षण ।

(ii) सार्वजनिक उपक्रमों पर कैग की रिपोर्ट का परीक्षण ।

(iii) सार्वजनिक उपक्रमों का व्यवसाय के सिद्धांतों एवं वाणिज्य प्रयोग के तहत काम का परीक्षण ।

(iv) सार्वजनिक लेखा समिति से संबंधित अन्य कार्य जिसे लोकसभा अध्यक्ष द्वारा समय-समय पर उन्हें उपलब्ध कराया जाए ।

4. सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति:

प्रत्येक सदन के सरकारी आश्वासनों के लिए पृथक समिति होती है । राज्यसभा में इस समिति के 10 सदस्य होते हैं और लोकसभा की समिति में 15 सदस्य होते हैं, जिन्हें क्रमशः सभापति और अध्यक्ष मनोनीत करते हैं । इस समिति के लिए किसी मंत्री को मनोनीत नहीं किया जाता ।

सदन में प्रश्नों के उत्तर देते समय अथवा विधेयकों व प्रस्तावों आदि पर के समय मंत्रीगण कई बार आश्वासन अथवा वचन देते हैं । यह समिति मंत्रियों द्वारा समय-समय पर दिए गए आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं, वचनों आदि की जांच करती है और निश्चित करती है कि उन आश्वासनों आदि को कहां तक पूरा किया गया है ।

5. कार्यमंत्रणा समिति:

कार्यमंत्रणा समिति का गठन जन-निर्वाचन के बाद लोकसभा के गठन के पश्चात किया जाता है । अन्य समितियों की भांति यह समिति उस समय तक कार्य करती है जब तक कि नई समिति गठित नहीं की जाती । अध्यक्ष कार्यमंत्रणा समिति का गठन करता है । इसमें 15 से अधिक सदस्य नहीं हो सकते, इसके सदस्य अध्यक्ष द्वारा नाम निर्देशित होते हैं ।

6. विधेयकों पर प्रवर समितियाँ:

किसी विधेयक पर प्रवर समिति की नियुक्ति तब की जाती है जब यह प्रस्ताव किया जाए कि विधेयक एक प्रवर समिति को सौंपा जाए । यह प्रवर समिति एक तदर्थ समिति होती है जिसका गठन उसे सौंपे गए विशेष विधेयक पर विचार करने के उद्देश्य से की जाती है ।

प्रवर समिति सभा द्वारा निश्चित किए गए समय में शीघ्रातिशीघ्र अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है । यदि सभा ने समय निश्चित नहीं किया है तो प्रतिवेदन उस तिथि से तीन मास की समाप्ति होने से पूर्व प्रस्तुत कर दिया जाएगा जिस तिथि को सभा ने प्रवर समिति को विधेयक सौंपे जाने का प्रस्ताव स्वीकार किया था ।

7. याचिका समिति:

प्रत्येक सदन की एक याचिका समिति होती है । लोकसभा का अध्यक्ष याचिका समिति का नाम निर्देशन करता है । इस समिति का कार्यकाल एक वर्ष का होता है । इसमें 15 से अधिक सदस्य नहीं होते हैं । इस समिति में किसी भी मंत्री को सदस्य नियुक्त नहीं किया जाता ।

यदि कोई सदस्य मंत्री बन जाता है तो वह उस तिथि से समिति का सदस्य नहीं रह जाता । यह समिति प्रस्तुत की गई याचिकाओं का अध्ययन करती हे । उससे संबंधित साक्ष्य तथा सूचनाएँ एकत्रित करती है ।

8. विशेषाधिकार समिति:

संसद सदस्यों को कुछ विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं । इन विशेषाधिकार तथा उत्युक्तियों से संबंधित सभी मामले विशेषाधिकार समिति को सौंप दिए जाते हैं । विशेषाधिकार समिति का गठन लोकसभा के प्रारंभ पर अथवा समय-समय पर लोकसभा अध्यक्ष द्वारा किया जाता है जिसमें 15 सदस्य होते हैं ।

विशेषाधिकार समिति उसे सौंपे गए प्रत्येक कार्य अथवा प्रश्न की जांच करेगी तथा तथ्यों के आधार पर यह निश्चित करेगी कि किसी विशेषाधिकार का भंग या उल्लंघन हुआ है या नहीं और यदि हुआ है तो उसका स्वरूप क्या है और किन परिस्थितियों में हुआ है ।

9. अधीनस्थ विधान संबंधी समिति:

संसद किसी कानून आदि में मुख्य सिद्धांत निर्धारित कर देती है तथा कार्यपालिका इन सिद्धांतों के आधार पर औपचारिक एवं प्रक्रिया संबंधी, विस्तृत नियम एवं विनियम तैयार करती है । इसे अधीनस्थ विधान कहा जाता है । लोकसभा और राज्यसभा अपने अधीनस्थ विधान समिति के माध्यम से इस पर नियंत्रण रखते है ।

यह समिति इस बात की छानबीन करती है कि क्या संविधान द्वारा प्रदत्त अथवा संसद द्वारा सौंपे गए विनियम, नियम, उपनियम आदि बनाने की शक्तियों का प्रयोग ऐसे प्रत्यायोजन के अंतर्गत उचित रूप से किया जा रहा है । समिति के सदस्यों की संख्या 15 है तथा ये अध्यक्ष द्वारा एक वर्ष के लिए नाम निर्देशित किए जाते हैं । कोई भी मंत्री इस समिति का सदस्य नहीं होता है ।

10. नियम समिति:

यह कार्यवादी मामले पर विचार करती है और जरूरी संशोधन एवं सिफारिशों को सदन के नियम के लिए प्रस्तुत करती है । लोकसभा समिति में अध्यक्ष सहित 15 सदस्य होते हैं जबकि राज्यसभा में सभापति सहित 16 सदस्य ।

11. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति:

इस समिति में दोनों सदनों के सदस्य होते हैं । इसमें 30 सदस्य होते हैं, जिसमें 20 लोकसभा से और 10 राज्य सभा से लिये जाते हैं । ये सदस्य संसद के अलग-अलग सदनों द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित किए जाते हैं ।

12. विभागीय स्थायी समितियाँ:

लोकसभा के नियमों के बारे में विभिन्न विभागों से संबंधित 17 समितियों का गठन अप्रैल 1993 में किया गया । इन समितियों के न्यायक्षेत्र में सभी मंत्रालय एवं विभाग आते हैं । प्रत्येक स्थायी समिति में 45 सदस्य (30 लोकसभा एवं 15 राज्यसभा) होते हैं । लोकसभा के सदस्यों को अध्यक्ष एवं राज्यसभा के सदस्यों को सभापति मनोनीत करते हैं ।

मंत्री को समिति का सदस्य नहीं चुना जा सकता । इनका कार्यकाल 1 वर्ष का होता है । गौरतलब है कि जुलाई 2004 में नियमों में संशोधन किया गया ताकि ऐसी ही 7 और समितियाँ गठित की जा सके । इस प्रकार अब इन समितियों की संख्या 24 हो गई हैं ।


Essay # 4. संसद के कानून बनाने की प्रक्रिया (Law Making Process of Parliament):

संसद देश की सर्वोच्च व्यवस्थापिका है । इसका प्रमुख कार्य विधि-निर्माण करना है । कानून बनाने के लिए जो प्रारूप संसद में उपस्थित किया जाता है, उसे विधेयक कहा जाता है । संविधान की 107 से 122 धाराएँ संसद में भिन्न-भिन्न प्रकार के विधेयक पास करने से संबंध रखती हैं ।

संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाने व राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात विधेयक अधिनियम का रूप धारण कर लेता है । यहां पर विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया जा रहा है, जिनमें से होकर किसी विधेयक को कानून का रूप धारण करने के लिए गुजरना पड़ता है ।

विधयेक दो प्रकार के होते हैं:

1. सरकारी विधेयक:

सरकारी विधयेक जोकि मंत्रियों द्वारा अर्थात् सरकार द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं ।

2. गैर-सरकारी विधेयक:

गैर-सरकारी विधेयक जोकि मंत्रियों के अतिरिक्त अन्य सांसदों में से किसी के द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं ।

उपर्युक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त विधेयकों को निम्नलिखित रूप से भी वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. धन विधेयक

2. साधारण विधेयक ।

1. धन विधेयक:

धन विधेयक या बिल उन विधेयकों को कहा जाता है जो किसी कर के हटाने, घटाने अथवा बढाने के विषय में होते हैं । यह भारत की संचित निधि या आकस्मिक निधि से धन की निकासी वार्षिक बजट, आदि से संबंधित होता है । साधारण विधेयक धन विधेयक नहीं होते ।

कोई भी विधेयक धन विधेयक है या नहीं, इसका अंतिम निर्णय लोकसभा अध्यक्ष करता है तथा उसका निर्णय चुनौती योग्य नहीं होता । संविधान की धारा 110 में धन विधेयक को परिभाषित किया गया है ।

धन विधेयक को पारित करने संबंधी निम्न अवस्थाएं हैं:

1. धन विधेयक को प्रस्तुत करने से पहले राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक है ।

2. धन विधेयक को केवल लोकसभा में प्रस्तुत किया जाता है, राज्यसभा में नहीं ।

3. कोई भी धन विधेयक दोनों सदनों (लोकसभा तथा राज्यसभा) की किसी संयुक्त संसदीय समिति को नहीं सौंपे जाते ।

4. लोकसभा के द्वारा पास होने के पश्चात धन विधेयक को राज्यसभा में भेजा जाता है ।

5. राज्यसभा का इस विधेयक पर केवल इतना अधिकार है कि वह 14 दिनों के अंदर विधेयक को अपनी सिफारिशों के साथ लोकसभा को वापस भेज दे ।

6. यदि राज्यसभा द्वारा निश्चित अवधि के अंदर धन विधेयक को वापस नहीं भेजा जाता तो वह धन विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है ।

7. राज्यसभा धन विधेयक के बारे में सिफारिशे दे सकती है । उसमें किसी भी प्रकार का संशोधन या कटौती नहीं कर सकती ।

8. लोकसभा राज्यसभा की सिफारिशें मान भी सकती है और नहीं भी । यदि लोकसभा राज्यसभा की सिफारिशें मान लेती है तो वह धन विधेयक सिफारिशों सहित पारित समझा जाता है ।

9. धन विधेयक को राष्ट्रपति सामान्य विधेयक की भांति पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता । संसद द्वारा पारित होने के पश्चात राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर करके उसे प्रमाणित घोषित करता है ।

2. साधारण विधेयक:

जो विधेयक धन विधेयक नहीं होते, वे प्रायः सभी साधारण विधेयकों की श्रेणी में आते हैं । ये विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किए जा सकते हैं । ये विधेयक मंत्रियों द्वारा या किसी भी सांसद द्वारा प्रस्तुत किए जा सकते हैं ।

साधारण विधेयक को विधि बनाने के लिए निम्न स्तरों से गुजरना पड़ता है:

i. प्रथम वाचन:

जब साधारण विधेयक को संसद का कोई निजी सदस्य पेश करना चाहता है, तब उसे सदन के अध्यक्ष को कम से कम सात दिन पहले लिखित सूचना देनी पड़ती है । निश्चित तिथि को अध्यक्ष की अनुमति से वह सदस्य विधेयक को प्रस्तुत करने की अनुमति का प्रस्ताव सदन में रखता है ।

अध्यक्ष इस प्रस्ताव पर मतदान करवाता है । मतदान में अनुमति का प्रस्ताव पारित हो जाने के पश्चात ही विधेयक सदन में प्रस्तुत किया जाता है । साधारणतः अनुमति प्रस्ताव का विरोध नहीं होता है । महत्वपूर्ण विधेयकों पर इस समय उसकी मुख्य बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा सकता है ।

इसके पश्चात विधेयक को अध्यक्ष सरकारी गजट में प्रकाशित करवाता है । जबकि सरकारी विधेयक सीधे सरकारी गजट में छप जाते हैं । विधेयक का प्रथम बार अनुमति प्रस्ताव के पश्चात पुनर्स्थापन ही विधेयक का प्रथम वाचन कहलाता है ।

ii. द्वितीय वाचन:

विधेयक सदन में पुनर्स्थापित करने के पश्चात सदन में सदस्यों को विधेयक की प्रतियां बांटी जाती है तथा सामान्यतः दो दिन के पश्चात द्वितीय वाचन प्रारंभ होता है । यदि विधेयक अधिक महत्वपूर्ण है तो विधेयक का प्रस्तावक निम्नलिखित प्रस्तावों में से कोई एक प्रस्ताव सदन के सामने रखता है ।

a. विधेयक का शीघ्र ही वाचन किया जाना चाहिए,

b. विधेयक को प्रवर समिति को सौंप देना चाहिए,

c. विधेयक पर जनता की राय ली जानी चाहिए,

d. विधेयक को दूसरे सदन की सहमति से संयुक्त प्रवर संसदीय समिति को सौंप देना चाहिए ।

इस आशय के किसी भी प्रस्ताव की स्वीकृति के पश्चात अध्यक्ष उपयुक्त कार्यवाही कर सकता है ।

iii. समिति अवस्था:

भारत में केवल महत्वपूर्ण विधेयकों को ही प्रवर समिति को सौंपा जाता है, जबकि विवाद शून्य विधेयकों को प्रवर समिति को न भेजकर सदन में उनका द्वितीय वाचन प्रारंभ कर दिया जाता है । यदि विधेयक को प्रवर समिति को भेज दिया जाता है तो एक प्रवर समिति की नियुक्ति की जाती है, जिसमें प्रवर समिति में विधेयक पेश करने वाला सदस्य तथा अन्य कुछ सदस्य होते हैं ।

इस प्रवर समिति का अध्यक्ष सदन के अध्यक्ष द्वारा नियुक्त किया जाता है । इस प्रवर समिति में विधेयक के प्रत्येक खंड व धारा पर विस्तार से विचार किया जाता है और उसके उपबंधों में अवश्यकतानुसार संशोधन किया जाता है । प्रतिवेदन समिति के अध्यक्ष द्वारा हस्ताक्षर करने के पश्चात सदन के अध्यक्ष की अनुमति से प्रस्तुत किया जाता है ।

iv. रिपोर्ट अवस्था:

समिति अपना कार्य समाप्त करने के पश्चात अपनी रिपोर्ट सदन में प्रस्तुत करती हे । निश्चित तिथि को समिति की रिपोर्ट पर विचार किया जाता है । समिति की सिफारिशों पर भी विस्सारपूर्वक वाद-विवाद होता है । वाद-विवाद के पश्चात विधेयक की धाराओं पर अलग-अलग या फिर सामूहिक रूप से मतदान कराया जाता है ।

यदि बहुमत विधेयक के पक्ष में हो तो वह पास हो जाता है या फिर रह हो जाता है । यह अवस्था विधेयक की महत्वपूर्ण अवस्था मानी जाती है । यदि इस अवस्था में यह पास हो जाता है तो उसके बाद बिल पास ही समझा जाता है ।

v. तृतीय वाचन:

अंत में विधेयक का तृतीय वाचन प्रारंभ होता है जो विशेष रूप से महत्वपूर्ण नहीं होता । इस समय विधेयक के सिद्धांतों पर बहस होती है और विधेयक की भाषा को अधिक से अधिक स्पष्ट बनाने के प्रयत्न किए जाते हैं । तृतीय वाचन में पारित होने के पश्चात यह समझा जाता है कि सदन ने विधेयक पारित कर दिया ।

vi. द्वितीय सदन में विधेयक:

प्रथम सदन से पारित विधेयक को द्वितीय सदन में रखा जाता है । इस सदन में भी विधेयक को उन सभी स्तरों-प्रथम वाचन, द्वितीय वाचन, समिति स्तर, प्रतिवेदन स्तर, तृतीय वाचन से होकर गुजरना पड़ता है ।

vii. राष्ट्रपति की स्वीकृति:

विधेयक जब दोनों सदनों के द्वारा पास कर दिया जाता है तब उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है । राष्ट्रपति इस अनुमति दे देता है ।

संसद सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकार:

संसद सदस्यों को कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त है । संविधान के अनुच्छेद 105 में संसद के सदनों तथा उनके सदस्यों के विशेषाधिकारों एवं उन्मुक्तता का उल्लेख किया गया है । इस अनुच्छेद के खंड (3) में उपबंध किया गया है कि ”संसद के प्रत्येक सदन और उनके सदस्यों तथा समितियों की शक्तियां, विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियां वही होंगी जोकि संसद समय-समय पर कानून बनाकर परिभाषित करे…. ।”


Essay # 5. संसद सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकारों का वर्णन (Privilege Received by Members of Parliament):

1. प्रत्येक सदस्य सदन के विचार-विमर्श में स्वतंत्रतापूर्वक भाग लेता है । सदन में उसके द्वारा कही गई बात पर उसे न्यायालय में दोषी नहीं ठहराया जा सकता है । (वाक् स्वतंत्रता)

2. न्यायालयों को संसद की कार्यवाही की जांच करने का निषेध ।

3. जब संसद का सत्र चल रहा हो, तब सदन की अनुमति के बिना सदस्य को साध्य देने के लिए सम्मान नहीं दिया जा सकता ।

4. किसी भी सदस्य को संसद में किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी रिपोर्ट, पत्र, मतों या कार्यवाही के प्रकाशन के विषय में किसी न्यायालय की कार्यवाही से उन्मुक्ति ।

5. सभा के सत्र के दौरान तथा उसके 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक दीवानी मामलों में सदस्यों की गिरफ्तारी से उन्मुक्ति ।

6. संसद सदस्यों को जूरी के सदस्यों के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सका है ।

7. सदस्यों के साथ-साथ बाहरी व्यक्तियों द्वारा सदन के विशेषाधिकारों को भंग करने या इसका अपमान करने पर सदन द्वारा दण्ड देने का अधिकार ।

इस प्रकार संसद विधि द्वारा संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों को निश्चित किया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर विधि द्वारा संशोधित भी लिया जाता है ।

सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकारों के हनन पर प्रायः दंड का भी प्रावधान किया गया है । यदि कोई व्यक्ति या सदन का सदस्य विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है तो उसे दंड स्वरूप कारावास, चेतावनी या फिर सदन से निष्कासित किया जा सकता है ।

संसद सदस्यों को प्राप्त होने वाले वेतन व भत्ते:

संसद सदस्यों के वेतन-भत्ता तथा पेन्शन भत्ता संशोधन अधिनियम, 2001 के अनुसार संसद के प्रत्येक सदस्यों को 12 हजार रुपये मासिक वेतन, 10 हजार रुपये मासिक निर्वाचन-क्षेत्र भत्ता तथा 14 हजार रुपये मासिक कार्यालय खर्च प्राप्त होता है । इसके साथ अधिवेशन के दिनों, समितियों, आदि की बैठकों में भाग लेने और अन्य संबद्ध कार्यों के लिए पांच सौ रुपया प्रतिदिन के हिसाब से भत्ता मिलता है ।

इसके अलावा हर सांसद को दो टेलीफोन सेट मुफ्त मिलते हैं, जिस पर वह सालाना 1 लाख 20 हजार रुपए की मुफ्त कॉल कर सकता है । इसी तरह वर्षभर मिलने वाली मुफ्त बिजली यूनिट कर दिया गया है । हर सांसद को अपनी पत्नी अथवा किसी भी एक व्यक्ति के साथ देश में कहीं भी वातानुकूलित प्रथम श्रेणी की मुक्त रेलयात्रा करने की सुविधा प्राप्त है । उसे देश के भीतर मुक्त हवाई यात्रा की भी सुविधा प्राप्त है ।


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