नैनो टेक्नोलॉजी पर निबंध | Essay on Nanotechnology in Hindi!

Essay # 1. नैनो टेक्नोलॉजी का परिचय:

सपने तो हम सभी देखते हैं हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि बडे सपने देखो । लेकिन अगर हम बडे की जगह छोटे सपने नहीं बल्कि ‘छोटे’ के सपने की बात करें तो ! आइए, ऐसे भविष्य की कल्पना करें जब कम्प्यूटर अधिक तेजी से काम करेंगे, स्टील से हल्के मगर उससे सौ गुना मजबूत पदार्थ तैयार होंगे और पार्किसन्स और एड्‌स जैसी बीमारियों का इलाज खास चिकित्सीय युक्तियों की मदद से हो सकेगा ।

यह कोई सपना या किसी विज्ञान गल्प की कोरी कल्पना नहीं बल्कि अणुओं और परमाणुओं के स्तर पर काम करने वाली नैनो टेक्नोलॉजी या नैनो तकनीक से ये सभी संभावनाएं भविष्य में वास्तविकता में बदलने वाली है ।

दरअसल, अति सूक्ष्म आकार के कणों के विज्ञान को ही नैनो विज्ञान की संज्ञा दी जाती है । चूंकि प्रौद्योगिकी यानि टेक्नोलीजी विज्ञान को उपयोगी बनाने का ही एक साधन है, नैनो टेक्नोलॉजी वास्तव में नैनो विज्ञान का ही व्यावहारिक रूप है वैज्ञानिकों का कहना है कि नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा युक्तियाँ, उपकरण आदि सूक्ष्म, कम स्थान घेरने वाले तथा वर्तमान युक्तियों की तुलना में कहीं अधिक दक्ष हो जाएंगे ।

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ऐसे में इस संसार के कारोबार को संभालना और आसान हो जाएगा । अधिक ऊर्जा दक्षता प्राप्त करना तथा पर्यावरण अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न करना भी सहज हो जाएगा आइए, यह जानने की कोशिश करें कि नैनो असल में है क्या ?

Essay # 2. नैनो टेक्नोलॉजी का अर्थ:

नैनो शब्द ग्रीक भाषा के ‘नैनोज’ से निकला है जिसका अर्थ है बौना । अतः नैनो टेक्नोलॉजी को हम बौनी टेक्नोलॉजी भी कह सकते हैं । सूक्ष्म प्रौद्योगिकी माइक्रो टेक्नोलॉजी) का इस्तेमाल हम सूक्ष्म एवं उन्नत कम्प्यूटरों के विनिर्माण के लिए करते हैं । लेकिन सूक्ष्म प्रौद्योगिकी से कहीं अधिक सूक्ष्म स्तर पर काम करती है नैनो टेक्नोलॉजी ।

वैज्ञानिक नैनो रोबोटों को बनाने में जुटे हैं जो मानव शरीर में प्रवेश कर अति सूक्ष्म शल्य क्रियाओं को अंजाम दे सकेंगे । इसके लिये जैव वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अणुओं का निर्माण भी नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से किया जा सकना संभव होगा । ऐसे जैव अणुओं का इस्तेमाल औद्योगिक एवं चिकित्सीय अनुप्रयोगों में किया जा सकेगा ।

आइए, अब देखें कि नैनो कितना सूक्ष्म होता है । मापन के संदर्भ में नैनो एक अरबवें हिस्से को निरूपित करता है, जैसे एक नैनोमीटर का अर्थ है एक मीटर का एक अरबवां हिस्सा । नैनोमीटर कितना सूक्ष्म है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह महज एक ऑलपिन के घुंडी के दस लाखवें हिस्से के बराबर होता है ।

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सटाकर रखे दस हाइड्रोजन परमाणुओं या छह कार्बन परमाणुओं से बनने वाली लंबाई भी एक नैनोमीटर होगी । इसी तरह मनुष्य के बाल से करीब 90,000 गुना पतली किसी चीज की हम कल्पना करें तो वह एक नैनोमीटर के बराबर होगी; यानि हमारे बाल के मोटाई करीब 90,000 नैनोमीटर होती है ।

छोटी-सी चींटी का आकार करीब 50 लाख नैनोमीटर होता है । मानव कोशिका का व्यास 30000-50000 नैनोमीटर जबकि कोशिका केंद्रक का व्यास नैनोमीटर होता है । इसके विपरीत डीएनए की मोटाई केवल 2 नैनोमीटर जबकि प्रोटीन का आकार 1-10 नैनोमीटर होता है ।

लेकिन नैनोमीटर को सूक्ष्मता की अंतिम सीढी समझाना भूल होगा । उदाहरण के लिए, प्रकाश के तरंगदैर्ध्य के मापन के लिये पहले एंग्स्ट्रॉम इकाई का इस्तेमाल होता था जो एक मीटर के दस-अरबवें हिस्से के बराबर होता है, यानी एक एंग्स्ट्रॉम 0.1 नैनोमीटर के बराबर होता है ।

आइए, एक मीटर से शुरू करते हुए सूक्ष्मता की सीढिया उतरते हुए नैनोमीटर तक पहुंचे । हमारे इस सफर में सबसे पहले मिलीमीटर आएगा जो एक मीटर का एक हजारवां हिस्सा है । इसके बाद माइक्रोमीटर आएगा जो एक मीटर का दस लाखवां हिस्सा है और उसके बाद आएगा नैनोमीटर जो एक मीटर का अरबवां हिस्सा है ।

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गौर करने की बात यह है कि एक मीटर से तीन सीढिया उतरने पर हम नैनोमीटर तक पहुंचते हैं । इनमें से हर सीढी से उतरने पर सूक्ष्मता का मान घटकर एक हजार गुना कम हो जाता है तुलनात्मक रूप से देखें तो पिन की घुंडी एक मिलीमीटर, एक प्रारंभिक जीवाणु का आकार एक माइक्रोमीटर तथा दस हाइड्रोजन परमाणुओं या छह कार्बन परमाणुओं की लंबाई एक नैनोमीटर के बराबर होती है । इस सफर को अगर नैनोमीटर से भी आगे हम जारी रखें तो एक और सीढी उतरने पर पहले पिकोमीटर (10-12 मीटर) आएगा, फिर फेम्टोमीटर (10-15 मीटर) और उसके बाद एटोमीटर (10-18 मीटर) आएगा ।

Essay # 3. नैनो टेक्नोलॉजी का इतिहास:

हालांकि पिछले करीब डेढ दशक से ही नैनो विज्ञान और नैनो प्रौद्योगिकी का उल्लेख विशेष रूप से हो रहा है लेकिन चाहे अनजाने ही सही नैनो प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बहुत प्राचीन काल से होता आया है । इसका एक सबसे ज्वलंत उदाहरण 5वीं सदी के लाइकरगस नामक कुछ रोमन कपों में देखने को मिलता है ।

वैज्ञानिकों ने इन रोमन कपों पर अनुसंधान कर यह पता लगाया है कि कांच में स्वर्ण के नैनो कणों की मौजूदगी के चलते ही को मिलता है । लेकिन रोमन काल के केवल कुछ ही कप इस तरह गुण को प्रदर्शित करते पाए गए हैं इससे स्पष्ट होता है कि अनजाने ही लाइकरगस कपों का निर्माण हुआ होगा । उन्हें इस तरह के कपों को बनाने का कोई प्रत्यक्ष ज्ञान या कौशल नहीं था, प्रविधि से ही उनको कोई परिचय था ।

लाइकरगस कप को ब्रिटिश म्यूजियम जाकर देखा जा सकता है जहां उन्हें संभाल कर रखा गया है । अनजाने में ही नैनो प्रौद्योगिकी के हुए इस्तेमाल का एक और नमूना जापानी समुराई तलवार में देखने को मिलता है । यह तलवार इतनी मजबूत एवं धारदार होती है कि साधरण लोहे या स्टील के चाकुओं के दो टुकडे कर डालती है ।

इसे बनाने के लिये स्टील को रक्त तप्त (रेड हॉट) कर उसे पीटा जाता है और फिर मोडकर उसे दोबारा पीटकर पहले वाले आकार में लाया जाता है । इस तरह बार-बार पीटकर और मोडकर समुराई तलवार को बनाया जाता है जिसकी धार की मोटाई महज कुछ नैनोमीटर के बराबर होती है । लेकिन जापानी कारीगर जांच और भूल विधि (ट्रायल एंड एरर मैथड) द्वारा ही इस तलवार को बनाते थे । इसे बनाने की क्रमबद्ध विधि का उन्हें कोई ज्ञान नहीं था ।

चीन के मिंग वंश से प्राप्त भांडों-बर्तनों तथा मध्यकालीन गिरजाघरों की खिडकियों पर लगे चित्रकारी युक्त रंगीन शीशों में भी नैनो कणों के इस्तेमाल किए जाने के साक्ष्य प्राप्त होते है हालांकि इनके शिल्पकारों को इस बारे में कोई ज्ञान नहीं था और न ही इसकी प्रविधि उन्हें मालूम थी । कार्बन नैनो-ट्यूबों के बारे में आज हम जानते हैं ।

जापान की निप्पो इलेक्ट्रिक कंपनी (एनईसी) के फंडामेंटल रिसर्च लेबोरेटरी से संबद्ध सुमियो ईजीमा ने ही सबसे पहले 1991 में कार्बन की इन खोखली नलिकाओं की खोज की थी जिनका व्यास करीब 1 नैनोमीटर होता है । लेकिन अपनी गुफाओं को गरम रखने के लिये निएडरथल मानव जो आग जलाते थे उसमें अति सूक्ष्म मात्रा में इन नैनोट्‌यूबों की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से ही होती होगा ।

आज अनुसंधान द्वारा यह बात सामने आ रही है कि नैनो संरचनाओं की उत्पत्ति तथा नैनो स्तर पर पदार्थों के निर्माण में अति सूक्ष्म कणों का प्रयोग बेशक अनजाने में ही सही, परन्तु बहुत प्राचीन काल से होता आया है और प्रकृति तो नैनो तकनीक का इस्तेमाल करोडों वर्षों से ही करती आ रही है ।

प्रकृति के निराले खेलों के बारे में जानकर कि जिस नैनो टेक्नोलॉजी को विकसित करने के लिये आज कई बार तो हमें दांतों तले अंगुली दबानी पडती है । आश्चर्य होता है यह जानकर वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीविद जी जान से जुटे हैं, प्रकृति उसका करोडों वर्षो से इस्तेमाल करती आ रही है मानव कोशिका नैनो तकनीक का ही एक जीता जागता नमूना है ।

इसके केंद्रक में स्थित गुणसूत्र (क्रोमोजोम) में समाए डीएनए की मोटाई करीब 2 नैनोमीटर होती है । डीएनए की द्विकुंडली पर चार अक्षरों की मदद से लिखी कूट भाषा प्रोटीन का निर्माण संभव बनाती है । लेकिन डीएनए स्वयं प्रोटीन बनाने में सक्षम नहीं होता । यह कार्य आरएनए की मदद से संपन्न होता है । प्रोटीन, जो कोशिकाओं के समस्त कार्यों को अंजाम देते हैं, का आकार 1-10 नैनोमीटर होता है ।

प्रकृति द्वारा नैनो तकनीक का इस्तेमाल करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं । आइए, इनमें से कुछ की यहां चर्चा करें । समुद्र की सतह पर करोडों वर्षों से तैरते फाइटोप्लैंक्टन के शरीर की कोशिकाएं नैनो आकार के क्रिस्टलों से बनी होती हैं । लेकिन इन्हें अति शक्तिशाली स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप द्वारा ही देखा जा सकता है ।

एक विशेष किस्म की घास, जो चूहों से लेकर डाइनोसॉरों तक को प्रिय थी, के करीब सात करोड वर्ष पुराने पुराजीवाश्म मिले हैं । उनसे यह पता चलता है कि यह घास सिलिका के नैनो आकार के फाइटोलिथ्स से बनी थी ।

चूहों के मजबूत दांतों से हम सब अच्छी तरह से परिचित हैं । पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अशोक साहनी चूहे आदि जीवों के दाँतो के पुरा जीवाश्मों में पाए जाने वाले इनेमल का पिछले करीब तीस वर्षों से अध्ययन कर रहे हैं । उनके अध्ययन से यह पता चलता है कि चूहे एवं भेडियों के दांतों का इनेमल एपैटाइट नामक खनिज के नैनो आकार के असंख्य क्रिस्टलों से बना होता है ।

ये क्रिस्टल इन जीवों के दांतों को कठोरता प्रदान करने हेतु विशेष आकार के प्रिज्मों के रूप में जडे होते है । प्रोफेसर साहनी का कहना है कि ये प्रिज्य की शक्ल वाले क्रिस्टल इन जीवों में अलग-अलग क्रम से लगे होते हैं । इन जीवों की भोजन करने की आदत एवं उसकी उपलब्धता के आधार पर ही ये कम निर्धारित होते हे ।

यह जानना भी अपने आपमें रोचक होगा कि ‘नैनो’ शब्द की उत्पत्ति या उसके औपचारिक चलन के बहुत पहले से ही वैज्ञानिकों का वास्ता नैनो के साथ पडता रहा है । सन् 1905 में अल्वर्ट आइंस्टाइन ने अपने पीएच.डी. के शोध-प्रबंध में जिस कार्य का उल्लेख किया था उसमें उन्होंने जल में शर्करा अणु (शुगर मॉलिक्यूल) की विसरण प्रक्रिया से प्राप्त प्रायोगिक आंकड़ों के आधार पर शर्करा अणु के व्यास का परिकलन किया था ।

इस व्यास को उन्होंने एक मीटर के अरबवें हिस्से (यानी एक नैनोमीटर) के बराबर पाया था । लेकिन जब आइस्टाइन ने यह आंकडा प्राप्त किया था तब ‘नैनो’ शब्द औपचारिक रूप से प्रचलन में ही नहीं आया था । निस्संदेह आज अगर कोई इस आंकडे को प्राप्त करता तो उसे तुरंत नैनो के साथ जोड दिया जाता ।

आज हम जानते हैं कि परमाणु का व्यास करीब 0.1 नैनोमीटर होता है जबकि डीएनए की मोटाई करीब 2 नैनामीटर होती है । लोकन डेमोक्रिट्‌स जो 400 ईसा पूर्व में हुए थे, ने कहा कि पदार्थ सूक्ष्म कणों से बने होते हैं जिसका और विभाजन नहीं किया जा सकता । इन कणों को उन्होंने ‘एटम’ (परमाणु) नाम दिया । (यूनानी भाषा में ‘एटम’ का अर्थ है ‘अविभाजित’) ।

सन् 1808 में जॉन डाल्टन ने अपने परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसे परमाणुवाद का सिद्धांत भी कहते हैं । इस सिद्धांत द्वारा उन्होंने पहली बार बताया कि प्रत्येक तत्व में अपनी तरह का अलग परमाणु होता है जो किसी अन्य तत्व में नहीं पाया जाता । इसी तथ्य को और स्पष्ट करते हुए इतालवी भौतिकविद एमिदियो एवोगेद्रो ने 1811 में कहा कि जल हाइड्रोजन के दो परमाणुओं तथा ऑक्सीजन के एक परमाणु के संयोग से बनता है ।

एवोगेद्रो ने ही दो या अधिक परमाणुओं के संयोजन को ‘मॉलिक्यूल’ (अणु) नाम दिया । आज हमें परमाणु की आंतरिक संरचना का भी पता चल चुका है । हम जानते हैं कि परमाणु के अंदर एक धनावेशित नाभिक होता है जिसके चारों ओर इलेक्ट्रॉन विभिन्न कक्षाओं में चक्कर काटते हैं ।

इलेक्ट्रॉन की खोज जोसेफ थॉमसन ने 1897 मी की थी । सन 1911 में लॉंर्ड रेदरफोर्ड ने नाभिक की खोज की । नाभिक के अंदर धनावेशित प्रोटॉन तथा उदासीन हन नामक कण मौजूद होते हैं । रदरफोर्ड ने ही बाद में प्रोटीन की खोज की । जेम्स चैडविक, जो रदरफोर्ड के ही शिष्य थे, ने 1932 में न्यूट्रान की खोज की । आज हम जानते हैं कि प्रोटॉन और न्यूट्रान भी क्वार्क नामक और भी सूक्ष्म कणों से बने होते हैं ।

विशेष सूक्ष्मदर्शियों, जैसे स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप, एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप आदि की मदद से आज हम न केवल परमाणुओं को देख सकते हैं बल्कि इनकी मदद से अणुओं और परमाणुओं को एक स्थान से उठाकर निर्धारित स्थान पर रख भी सकते हैं । इसे पोजिशनल एसेम्बली का नाम दिया जाता है तथा इसकी मदद से (जिसे ”बॉटम अप” विधि कहते हैं) नैनो संरचनाओं का सृजन भी किया जा सकता है ।

हम जानते हैं कि मानव कोशिकाओं के केंद्रक में गुणसूत्र (क्रोमोजोम) होते हैं जिनके 23 जोडे मौजूद होते है । इन गुणसूत्रों के अंदर दोहरी कुंडली वाला डीएनए (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एडिड) होता है । इसे आनुवंशिक पदार्थ या जीवन का अणु (मॉलिक्यूल ऑफ लाइफ) भी कहते हैं क्योंकि डीएनए में ही समस्त आनुवंशिक जानकारी समाई होती है ।

डीएनए के अंदर जीन होते हैं और इन जीनों के समूह को ही जीनोम कहते हैं । जीनोम जिसे ‘जीवन की पुस्तक’ (बुक ऑफ लाइफ) कहते हैं, को अब पढ लिया गया है । माना जाता है कि इंसान में करीब 1 लाख जीन मौजूद होते हैं । लेकिन अभी तक कोई 30-40 हजार जीनों को ही पढा जा सका है यानी उनके बारे में जानकारी हासिल की जा सकी है ।

हालांकि डीएनए के बारे में अध्ययन कोलंबिया विश्वविद्यालय से जुडे आस्ट्रेलियाई मूल के वैज्ञानिक इर्विन शारगॉफ ने 1935 के आसपास किया था लेकिन डीएनए के आनुवंशिक पदार्थ, जिसके द्वारा ही एक पीढी से अगली पीढी को आनुवंशिक गुण स्थानांतरित होते हैं, होने की जानकारी 1944 में ही हासिल हो सकी जब ओस्वाल्ड एवेरी, मैक्कार्थी तथा कॉलिन मैक्लॉंयड ने इस संबंध में खोज की ।

सन् 1951 में रोजलिंड फ्रेंकलिन को डीएनए के एक्स-रे विवर्तन चित्र को लेने में सफलता मिली । इसके बाद 1953 में जेम्स वॉटसन तथा फ्रांसिस क्रिक ने डीएनए की दोहरी कुंडली युक्त संरचना का पता लगाया जिसके लिये उन्हें मॉरिस बिल्किंस के साथ 1982 का नोबेल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ ।

डीएनए सचमुच कुदरत का एक करिश्मा हे । इसमें अंकित चार अक्षरों (जो एडीनिन, थाइमिन, साइटोसिन तथा जुआनिन नामक क्षार यानी बेस हैं) की (कूट) भाषा में ही हमारे रंग-रूप समेत समस्त आनुवंशिक जानकारी समाई होती है । डीएनए में अंकित जानकारी यानी सूचना को आरएनए (राइबो न्यूक्लिक एसिड) ही प्रोटीन तक पहुंचाता है ।

इस तरह अणु-परमाणु एवं डीएनए के रूप में भौतिकविदों एवं जैव वेज्ञानिकों का वास्ता ”नैनो” के साथ बहुत पहले से ही पडता रहा है । यह अलग बात है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की अलग शाखा के रूप में ‘नैनो’ की पहचान तब उभर कर सामने नहीं आ पाई थी ।

यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि 1867 में जेम्स क्लार्क मैक्सवेल ने भी अति सूक्ष्म आकार के मिथकीय राक्षस (डीमॅन) की कल्पना कर नैनो के बारे में ही सोचा था । ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम के अनुसार हम जानते हैं कि अव्यवस्था से व्यवस्था की सृष्टि नहीं की जा सकती ।

ऊष्मागतिकी के इसी नियम को ही गलत सिद्ध करने के लिये मैक्सवेल ने मिथकीय डीमॅन की कल्पना की थी । मैक्सवेल ने अति सूक्ष्म छिद्रयुक्त एक दीवार द्वारा दो खंडों में विभाजित एक कक्ष की कल्पना की थी । इस कक्ष के एक खंड में कोई गैस भरी थी जबकि दूसरा खंड बिलकुल खाली था ।

मैक्सवेल ने गैस भरे कक्ष की दीवार के पास एक डीमॅन के खडे होने की कल्पना की । यह डीमॅन सभी तीव्रगामी अणुओं को तो छिद्र से होकर खाली कक्षा की ओर जाने की अनुमति देता जबकि मदगामी अणुओं को यह रोक लेता । इस तरह यह डीमॅन अव्यवस्था से व्यवस्था को उत्पन्न करता ।

ऊष्मागतिकी के सिद्धांतों के अनुसार ऐसे डीमॅन का अस्तित्व संभव ही नहीं है । ऐसा डीमॅन केवल मैक्सवेल की कल्पना की ही उपज लगता है । लेकिन इस रोचक तथ्य का यहां उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि क्वांटम नामक विशिष्ट नैनो कणों की खोज ने मैक्सवेल के डीमॅन के अस्तित्व को अब वास्तविकता में बदल दिया लगता है ।

अगर मानव के प्रौद्योगिकीय विकास के सफर की शुरूआत हम प्रस्तर युग यानी 10,000 ईसा पूर्व से मानें तो कार युग और लौह युग से होते हुए हम जैव प्रौद्योगिकी युग (जिसकी शुरूआत 1980 के दशक में मानी जाती है) उसके बाद सूचना प्रौद्योगिकी युग (जिसकी शुरुआत 1980 के दशक में मनी जाती है) तथा अब नैनो प्रौद्योगिकी युग में आ पहुंचा हैं ।

दरअसल, अति सूक्ष्म आकार की मशीनों और युक्तियों पर आधारित प्रौद्योगिकी को ही हम नैनो प्रौद्योगिकी कह सकते है । ऐसी सूक्ष्म मशीनों एवं युक्तियों के बारे में सोचने की पहले-पहल कहां से मिली ? असल में प्रकृति से ही ही वैज्ञानिकों को इस दिशा में सोचने की प्रेरणा मिली ।

उदाहरण के लिये, जब तो उसके मस्तिष्क और पंखों के बीच कुछ सूचना का है जो इसे उडने में मदद करता है । सिद्धांत के रूप में मशीनें और युक्त्तियाँ भी कार्य कर सकती हैं । मानव शरीर के अंदर कोशिकाएं भी अति सूक्ष्म होने के बावजूद अपनी कारीगरी की मिसाल प्रस्तुत करती है । नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकविद रिचर्ड फाइनमैन ने ही सबसे पहले इस दिशा में सोचा ।

फाइनमैन का ऐतिहासिक व्याख्यान:

अमेरिकन फिजिकल सोसाइटी की वार्षिक बैठक में 29 दिसंबर 1959 को फाइनमैन ने एक अनोखा व्याख्यान दिया । अनोखा इसलिए क्योंकि अधिकतर वैज्ञानिकों को यह व्याख्यान ठोस वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित न होकर फाइनमैन की कल्पना की उडान ही लगा । गौरतलब है कि उन दिनों एक कम्प्यूटर के लिये भी एक भरे-पूरे कमरे की आवश्यकता होती थी । ऐसे में एक अति सूक्ष्म मशीनी संसार की कल्पना भला वेज्ञानिकों के गले कैसे उतरती ।

अपने व्याख्यान में फाइनमैन ने कहा, ”सैद्धांतिक रूप से बेहद सूक्ष्म स्तर पर पदार्थों को मनचाहे ढंग से नियंत्रित और व्यवस्थित कर पाना अपने व्याख्यान में फाइनमैन ने कहा- ”सैद्धांतिक रूप से बेहद सूक्ष्म स्तर पर पदार्थों को मनचाहे ढंग से नियंत्रित और व्यवस्थित कर पाना संभव है । मेरे विचार में नीचे की तरफ काफी जगह है (देयर इज प्लेंटी ऑफ स्पेस एट द बॉटम) ……” ।

अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए फाइनमैन ने कहा- ”लोग मुझे ऐसी बिजली की मोटरों के बारे में बताते है जिन्हें अंगुलियों के नाखून पर रखा जा सकता हे लेकिन ये सब बातें बहुत पुरानी हैं ।”

अपने व्याख्यान द्वारा उन्होंने बताया कि भौतिकी के नियमों के उल्लंघन के बगैर भी किसी मशीन, जैसे कि बिजली के मोटर के आकार को बेहद कम किया जा सकता है यहां तक कि ‘एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ के सभी 24 खंडों को ऑलपिन की घुंडी पर दर्ज किया जा सकता है उन्होंने ऐसे व्यक्ति के लिए 1000 डॉलर के पुरस्कार की घोषण की जो किसी पुस्तक के पृष्ठ को अपने मूल आकार से 25,000 गुना छोटे आकार तक इस तरह से ला सके कि उसे इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप की मदद से पढा जा सके ।

उन्होंने 0.064 घन मिलीमीटर आकार की एक विद्युत मोटर बनाने वाले के लिये भी 1000 डॉलर के पुरस्कार की घोषणा की । आगे बढने से पहले यह जानना रोचक होगा कि फाइनमैन द्वारा घोषित इन दोनों पुरस्कारों का क्या हुआ ? खैर, ऐसी विद्युत मोटर बनाकर (जिसकी विद्युत शक्ति एक हॉर्स पावर यानी 746 वाट के दस लाखवें हिस्से के बराबर थी) 1000 डॉलर के पुरस्कार को तो एक वर्ष के अंदर जीत लिया गया लेकिन दूसरे पुरस्कार पर दावा ठीकने में करीब सोलह वर्षों का लंबा समय लग गया ।

इसे 1985 में (फाइनमैन की मृत्यु के तीन वर्ष पूर्व) स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के टॉम न्यूमैन नामक एक स्नातक छात्र ने जीता । एक इलेक्ट्रॉन पुंज का इस्तेमाल कर न्यूमैन को चार्ल्स डिकेंस रचित ‘ए टेल ऑफ टू सिटिज’ के पहले पृष्ठ को 25,000 गुना छोटा कर ऑलपिन की घुंडी पर दर्ज करने में कामयाबी मिली ।

दरअसल, फाइनमैन का यह ऐतिहासिक व्याख्यान कोशिकाओं के सूक्ष्म संसार और उनकी कारीगरी के कमाल से प्रेरित था । उन्होंने कहा, अधिकतर कोशिकाएं बेहद सूक्ष्म होती हैं लेकिन वे बेहद सक्रिय होती हैं । वे कई पदार्थों का निर्माण करती हैं, इधर-उधर घूमने में समर्थ होती हैं, अन्य कोशिकाओं के आकार की पहचान करती हैं एवं कई चमत्कारिक काम निबटाती हैं । वे न केवल सूचनाओं का संग्रह करती हैं बल्कि अनुक्रिया का प्रदर्शन करती हैं तथा निर्णय लेने में भी सक्षम होती हैं ।

अपने व्याख्यान में फाइनमैन ने बेहद २स्म कंप्यूटरों के निर्माण की संभावना को लेकर भी आशा व्यक्त की थी । लेकिन इतने सूक्ष्म स्तर पर पदार्थों के गुणधर्म में अंतर आ जाता है । इसका उल्लेख करते हुए फाइनमैन ने अपने व्याख्यान में कहा, ”बेहद सूक्ष्म पैमाने पर इलेक्ट्रॉनिक पदार्थों को बनाया जा सकना सैद्धांतिक रूप से संभव है । लेकिन कुछ समस्याएं इससे आडे आ सकती हैं । इनमें से मेरे विचार में प्रतिरोध (रेजिस्टेंस) की समस्या काफी पेचीदी हो सकती है ।”

फाइनमैन ने यह संभावना भी व्यक्त की कि एक दिन हम परमाणुओं को मनचाहे ढंग से व्यवस्थित कर सकेंगे । उन्होंने कहा, ”अगर हम इसमें सफल हुए तो पदार्थ के गुणधर्म भी बदल जायेंगे । सैद्धांतिक रूप से इस पर विचार करना बेहद दिलचस्प होगा इस सूक्ष्म नियंत्रण के माध्यम से हम पदार्थों के गुणधर्मा को मनचाहे ढंग से बदल सकेंगे, उनका मनचाहा उपयोग कर सकेंगे ।”

लेकिन अत्यधिक सूक्ष्म स्तर पर न केवल पदार्थों के गुणधर्म बदल सकते हैं बल्कि नए प्रभाव भी देखने को मिल सकते हैं । इसी का सकेत करते हुए फाइनमैन ने कहा, “परमाण्विक स्तर पर सब कुछ बदल जाता है नए बल, नई सभावनाए और नए प्रभाव दिखने लगते हैं । जरूरत है सिर्फ इनके समुचित उपयोग की…।”

हालांकि फाइनमैन ने अपनी व्याख्या में नैनो टेक्नोलॉजी शब्द का कहीं प्रयोग नहीं किया था लेकिन बेहद सूक्ष्म स्तर पर पदार्थों पर अनुसंधान करने की काफी गुंजाइश है, इसका उन्होंने स्पष्ट रूप से सकेत दिया था । लगभग 7000 शब्दों का फाइनमैन का यह ऐतिहासिक व्याख्यान कैलिफोर्निया इंस्टीट्‌यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (कैलटेक) की ‘इजीनियरिंग एंड साइंस’ नामक पत्रिका के जनवरी 1960 अंक में प्रकाशित हुआ था ।

आज जब भी नैनो टेक्नोलॉजी की बात होती है तो फाइनमैन के इस व्याख्यान का उल्लेख अवश्य किया जाता है । यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि फाइनमैन ने ही पहले पहल नैनो टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में वैज्ञानिकों को सोचने और अनुसंधान करने की प्रेरणा दी ।

Essay # 3. नैनो टेक्नोलॉजी एवं मिस्टर नैनो:

यह जानना अपने आप में रोचक होगा कि नैनो टेक्नोलॉजी शब्द का इस्तेमाल पहले-पहल किसने किया था । टोक्यो साइंस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर नोरियो तानिगुची ने ही 1974 में सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग किया था ।

दरअसल, प्रोफेसर तानिगुची ऐसे पदार्थों के विनिर्माण को लेकर अनुसंधान कर रहे थे जिनमें नैनोमीटर स्तर की सहयता टॉलेरेंस) मौजूद हो । उनका मानना था कि नैनो स्तर पर गुरुत्व बल की समस्या उतनी नहीं रह जाती है लेकिन पदार्थों के सामर्थ्य या मजबूती सहता की समस्या कहीं गंभीर बनकर सामने आती है ।

लेकिन तानिगुची या उनके कार्य के बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । उनके अनुसंधान कार्य से संबंधित केवल दो लेखों का संदर्भ ही उपलब्ध है । इन लेखों के शीर्षक हैं- ‘नैनो टेक्नोलॉजी : इंटिग्रेटेड प्रॉसेसिंग सिस्टम्स फॉर अल्ट्रा-प्रीसिशन एंड अल्ट्रा-फाइन प्रोडक्ट्स तथा ‘ऑन द बेसिक कॉन्सेप्ट ऑफ नैनो टेक्नोलॉजी’ ।

उल्लेखनीय है कि नैनो टेक्नोलॉजी को लोकप्रिय बनाने में के एरिक ड्रेक्सलर ने सचमुच बडी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उनके इस दिशा में किए गए योगदान ने ड्रेक्सलर को ‘मिटर नैनो’ का खिताब दिलाया । ड्रेक्सलर, जो मेसाचुसेट्‌स इरटीट्‌यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) में एक युवा छात्र थे, ने 1981 में ‘मॉलिक्यूलर टेक्नोलॉजी’ शीर्षक से अपना तकनीकी लेख प्रकाशित किया ।

सन 1982 में रोहटर और बिनिंग ने स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप का आविष्कार किया था । इसकी मदद से परमाणुओं को अवलोकित करना संभव हो पाया था । संभवतया इस आविष्कार ने ही ड्रेक्सलर को कुछ और नया सोचने के लिये प्रेरित किया ।

सन् 1983 में ‘आण्विक इलेक्ट्रॉनिक युक्तियां’ विषय पर हुए द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में ड्रेक्सलर ने पूर्ण विवरण सहित एक आण्विक कंप्यूटर का वर्णन प्रस्तुत किया इसके बाद 1986 में उन्होंने ‘इंजन्स ऑफ क्रिएशन : द कमींग एरा ऑफ नैनो टेक्नोलॉजी, शीर्षक पुस्तक प्रकाशित की ।

छपने पर ड्रेक्सलर की पुस्तक ने तहलका मचा दिया । इसमें उन्होंने प्रोटीन के आकार की ऐसी बेहद सूक्ष्म मशीनों की कल्पना की थी जिनका अधिप्रभाव औद्योगिक क्रांति, एंटीबायोटिक दवाओं की खोज तथा परमाणु हथियारों के निर्माण में सम्मिलित अधिप्रभाव के तुल्य था । इसी पुस्तक में ड्रेक्सलर ने उन बेहद सूक्ष्म मशीनों का जिक्र भी किया था जो मानव शरीर में घूम-फिर कर क्षतिग्रस्त प्रोटीनों की मरम्मत कर सकेंगी ।

हालांकि ड्रेक्सलर की इन कल्पनाओं की वैज्ञानिकों द्वारा जमकर आलोचना हुई, मगर ड्रेक्रालर इससे विचलित नहीं हुए । सन् 1992 में उन्होंने एक और पुस्तक प्रकाशित की जिसका शीर्षक था नैनो सिस्टम्स मॉलिक्यूलर मशिनरी, मैनुफैक्चरिंग एंड कंप्युटेशन’ ।

इससे एक साल पहले 1991 में ड्रेक्सलर ने मेसाचुसेट्‌स इंस्टीट्‌यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से आण्विक नैनो टेक्नोलॉजी विषय पर पीएच. डी. की उपाधि भी हासिल की थी । अपनी पत्नी के सहयोग से ड्रेक्सलर ने ‘फोरजाइट इंस्टीट्‌यूट’ की स्थापना भी की है जिसके वह अध्यक्ष हैं । ड्रेक्सलर ने इंस्टीट्‌यूट फार मॉलिक्यूलर मैनुफेक्चरिंग नामक संस्थान की स्थापना भी की है ।

नैनो टेक्नोलॉजी संबंधी अनुसंधान एवं उसके प्रचार-प्रसार में जुटे ड्रेक्सलर ने किताबों के अलावा इस विषय पर अनेक लोकप्रिय एवं तकनीकी लेख भी लिखे हैं । इसके अलावा कई विश्वविद्यालयों में उन्होंने नैनो टेक्नोलॉजी पर अनेक व्याख्यान भी दिए हैं ।

ड्रेक्सलर की अवधारणा के आधार पर ही नैनो टेक्नोलॉंजी को मॉलिक्यूलर नैनो टेक्नोलॉजी’ या ‘मॉलिक्यूलर मैनुफैक्चरिंग’ भी कहा जाता है । सचमुच, नैनो प्रौद्योगिकी एक ऐसी क्रांतिकारी प्रौद्योगिकी है जिसके माध्यम से मानव इंजीनियर के सबसे आखिरी छोर पर पहुंच जाएगा ।

‘मेम्स’ से ‘नेम्स’ तक:

नैनो के संदर्भ में हो रहे एक और विकास पर भी यहां चर्चा करना आवश्यक होगा आजकल वैज्ञानिक ‘नेम्स’ (नैनो इलेक्ट्रोमैकेनिकल सिस्टम्स) के क्षेत्र में भी अनुसंधान कर रहे है दरअसल, नैनो स्तर पर बेहद सूक्ष्म मशीनों के विज्ञान को ही ‘नेम्स’ कहते हैं । यह माइक्रो यानी सूक्ष्म स्तर पर काम करने वाली मशीनों के विज्ञान यानी ‘मेम्स’ (माइक्रो इलेक्ट्रोमैकेनिकल सिस्टम्स) का ही उन्नत रूप है ।

‘मेम्स’ के अंतर्गत इस्तेमाल होने वाली सूक्ष्म मशीनों का विनिर्माण आमतौर पर सिलिकॉन से होता है । लेकिन इनके विनिर्माण में सिरेमिक, पॉलिमर तथा सूक्ष्म चुंबकों आदि का इस्तेमाल भी किया जाता है । इन सूक्ष्म मशीनों का इस्तेमाल खासतौर पर संवेदकों (सेंसर्स) के रूप में बखूबी किया जा सकता है ।

‘नेम्स’ यानी नैनो विद्युत-यांत्रिकीय प्रणाली के क्षेत्र में माइकेल एक्स जैसे चोटी के अमेरिकी वैज्ञानिकों के अलावा विश्व भर के कई अन्य वैज्ञानिक भी सक्रिय हैं । इन वैज्ञानिकों का मानना है कि ‘नेम्स’ द्वारा नैनो सतर की ऐसी युक्तियों का विकास किया जा सकता है जिनके जरिए अलग-अलग परमाणुओं एवं अणुओं में निहित द्रव्य राशि का मापन भी संभव होगा । यह नैनो विद्युत-यांत्रिकीय अनुनादी संसूचकों (नैनो इलेक्ट्रोमैकेनिकल रेजोनेंट डिटेक्टर्स) के विकास द्वारा संभव होगा ।

लेकिन इन अति सूक्ष्म युक्तियों का सबसे अहम उपयोग तो स्मार्ट सेंसरों के निर्माण में होगा जो अस्पतालों संसाधन संयंत्रों तथा वायुयानों आदि सभी महत्वपूर्ण कार्यविधियों का मॉनिटरन करेंगे । इन सेंसरों में होने वाली ऊर्जा की खपत भी नाममात्र की होगी ।

जैव प्रौद्योगिकी एवं ‘नेम्स’ के अभिसरण (कवर्जेन्स) ने एक नई प्रौद्योगिकी की संभावना का मार्ग प्रशस्त किया है जिसे ‘बायो-नेम्स’ कहते हैं । इसकी मदद से ऐसी अति सूक्ष्म जैव मशीनों और जैव युक्तियों का निर्माण संभव हो सकेगा जो शरीर में घूम-फिर कर बीमारियों का पता लगाएंगे तथा उनका इलाज भी संभव बनाएंगे । नैनो रोबोट तथा नैनो केंटिलीवर ऐसी ही जैव युक्तियों के कुछ उदाहरण हैं ।

लेकिन नैनो स्तर पर सूक्ष्म मशीनों या सेंसरों के निर्माण में बहुत सी कठिनाइयां आती है । सबसे बडी समस्या तो इतने सूक्ष्म स्तर पर परिशुद्ध मापन की है क्योंकि ये मशीनें क्वांटम सिद्धांतों द्वारा संनियमित होती हैं । फिर भी वैज्ञानिक आशावान हैं कि ‘मेम्स’ की तरह ‘नेम्स’ तथा ‘बायो-नेम्स’ प्रौद्योगिकियां भी मानव जीवन को उन्नत और खुशहाल बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाएगी ।

Essay # 4. नैनो टेक्नोलॉजी तथा मूर का नियम:

स्वास्थ्य तथा अन्य विविध क्षेत्रों में अनुप्रयोगों के अलावा नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा नैनो कंप्यूटरों का विनिर्माण भी संभव हो सकेगा । लेकिन इसके लिये इलेक्ट्रॉनिक चिप पर लगने वाली युक्तियों यानी ट्रांजिस्टरों के आकार को नैनो आकार तक लाना होगा । इस संदर्भ में मूर के नियम का उल्लेख प्रासंगिक होगा ।

इंटेल कारपोरेशन के सह-संस्थापक गॉर्डन मूर ने 1965 में अपना यह पूर्वानुमान प्रस्तुत किया था कि एकीकृत परिपथ (इंटिग्रेटेड सर्किट) पर लगने वाली युक्तियों (ट्रांजिस्टरों) की संख्या हर वर्ष दोगुनी होती जाएगी । उल्लेखनीय है कि मूर ने जब अपना यह पूर्वानुमान प्रस्तुत किया था उस समय एकीकृत परिपथ यानी चिप पर लगने वाले ट्रांजिस्टरों की संख्या मात्र 30 थी ।

मूर के सहकर्मी प्रो. कार्वर मीड ने मूर के पूर्वानुमान को ‘मूर के नियम’ की संज्ञा दी । अर्धचालक प्रौद्योगिकी में दिनों दिन होने वाली उन्नति को देखते हुए मूर ने बाद में इलेक्ट्रॉनिक युक्तियों के द्विगुणित होने की अवधि को बदल कर 18 महीने कर दिया । ध्यान रहे कि हालांकि मूर के पूर्वानुमान को आज नियम का दर्जा दे दिया गया है लेकिन यह यथार्थ में कोई वैज्ञानिक नियम नहीं है ।

समय के साथ चिप के निरंतर घटते आकार के साथ उसमें समाहित होने वाले ट्रांजिस्टरों की संख्या में भी वृद्धि होती रही । उदाहरण के लिए, 1971 में इंटेल कारपोरेशन द्वारा बनाए गए 4004 नामक प्रथम माइक्रोप्रोसेसर में 2250 ट्रांजिस्टर थे ।

बाद में इंटेल द्वारा 8008, 8080 तथा 8086 नाम से माइक्रोप्रोसेसर बनाए गए इनमें से आखिरी यानी 8086 माइक्रोप्रोसेसर, जिसे इंटेल ने 1977 में बाजार में उतारा था, में 65,000 ट्रांजिस्टर थे । आगे चलाकर इंटेल ने 286, 386 तथा 486 नामों से भी माइक्रोप्रोसेसर बनाए । इनमें से 488 प्रोसेसर 1986 में निकला जिसमें दस लाख ट्रांजिस्टर थे ।

इसके बाद इंटेल का पेंटियम प्रोसेसर 1993 में आया जिसमें एक करोड ट्रांजिस्टर थे । चिपों की संख्या में समय के साथ वृद्धि मूर के नियम के साथ संगतता ही प्रदर्शित करती है । सन् 2007 तक इंटेल को एक अरब ट्रांजिस्टरों वाले चिप के विकास किए जाने की आशा थी जो लगभग पूरी हुई ।

गौरतलब है जब चिप पर ट्रांजिस्टरों की संख्या बढती है तो चिप के अंदर बडी सघनता से उनका एकीकरण करना होता है । इस तकनीक में प्रच्छादन (मांस्क्रिग), उत्कीर्णन (इचिंग) तथा लिथोमुद्रण (लिथोग्राफी) जैसी प्रक्रियाएं काम करती है ।

साधारणतया, इचिंग और लिथोग्राफी में फोटो लिथोग्राफी नामक प्रकाशीय प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है । फोटोलिथोग्राफी द्वारा सबसे सूक्ष्म जो चीज मुद्रित की जा सकती है वह प्रकाश के तरंग दैर्ध्य पर निर्भर करती है और यह अर्ध तरंगदैर्ध्य तक सीमित होती है ।

अत: जैसे-जैसे बढते युक्ति घनत्व के साथ युक्ति का आकार घटता जाता है वैसे-वैसे सूक्ष्म सूक्ष्मतर तरंगदैध्र्य प्रकाश का इस्तेमाल करना पडता है । आजकल बडे पैमाने पर चिपों के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली फोटोलिथोग्राफी को 130-नैनो मीटर प्रक्रिया कहते हैं ।

सन 2002 में इंटेल ने 90-नैनो मीटर प्रक्रिया प्रस्तुत की जिसमें विषाणु (वायरस) से भी सूक्ष्म आकार में अलग-अलग पंक्तियों का मुद्रण संभव है । अगर चरम पराबैंगनी प्रकाश (एक्स्ट्रीम अस्ट्रावॉयलेट लाइट) का इस्तेमाल किया जाए तो चिप पर पंक्तियां 50-नैनो मीटर आकार से भी सूक्ष्म हो सकती हैं । सन् 2016 तक इसके 9-नैनो मीटर आकार तक आ जाने की संभावना है । ऐसे में क्वांटम यांत्रिकीय प्रभावों से दो-चार होना पड सकता है ।

मूर के नियम का संगतता को बनाए रखने के लिए हमें तब निश्चित रूप से नैनो प्रौद्योगिकी का ही सहारा लेना होगा । इलेक्ट्रॉनिकी और जीव विज्ञान के क्षेत्रों में ही नैनो प्रौद्योगिकी के प्रधान अनुप्रयोग होने की संभावना है । वैसे कृषि, खाद्य उद्योग, ऊर्जा, अंतरिक्ष आदि अन्य क्षेत्रों में भी नैनो प्रौद्योगिकी से हम लाभान्वित हो सकते हैं ।

नैनो टेक्नोलॉजी को अगली ओद्योगिक क्रांति की संज्ञा भी दी जा रही है कुछ भी हो 21वीं सदी में नैनो टेक्नोलॉजी के पूरी तरह से छाए रहने की पुरजोर संभावना दिखाई देती है । सचमुच नैनो में ही हमारा भविष्य है नैनो के आने की आहट हमें मिल रही है । सचमुच हमारे समस्त सपनों को वास्तविकता में बदल देगा नैनो ।

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