बीआर अम्बेडकर पर निबंध | Essay on BR Ambedkar Hindi language.

गीता में कहा गया हैं- “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत: अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्” अर्थात् ‘जब-जब पृथ्वी पर अधर्म का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, तब-तब अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करने के लिए ईश्वर अवतार लेते है ।’

अंग्रेजों के शासनकाल में जब भारतमाता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी कराह रही थी, तब उस घड़ी में भी दकियानूसी एवं गलत विचारधारा के लोग मातृभूमि को विदेशियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करने के बजाय मानव-मानव में जाति के आधार पर विभेद करने से नहीं हिचकते थे ।

ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में कट्टरपन्थियों का विरोध कर दलितों का उद्धार करने एवं भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को सही दिशा देने के लिए जिस महामानव का जन्म हुआ, उन्हें ही दुनिया डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नाम से जानती है । वे अपने कर्मों के कारण आज भी दलितों के बीच ईश्वर के रूप में पूजे जाते हैं । भीमराव अम्बेडकर का जन्म 16 अप्रैल, 1891 को केन्द्रीय प्रान्त (अब मध्य प्रदेश) के म्हो में हुआ था ।

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उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल सेना में सूबेदार मेजर थे तथा उस समय म्हो छावनी में तैनात थे ।  उनकी माता का नाम भीमाबाई मुरबादकर था । भीमराव का परिवार हिन्दू, धर्म की महार जाति से सम्बन्धित था, उस समय कुछ कट्‌टरपन्थी सवर्ण इस जाति के लोगों को अस्पृश्य समझकर उनके साथ भेदभाव एवं बुरा व्यवहार करते थे ।

यही कारण है कि भीमराव को भी बचपन में सवर्णों के बुरे व्यवहार एवं भेदभाव का शिकार होना पड़ा । स्कूल में उन्हें अस्पृश्य जानकर अन्य बच्चों से अलग एवं कक्षा से बाहर बैठाया जाता था । अध्यापक उन पर ध्यान भी नहीं देते थे । 

भेदभाव एवं बुरे व्यवहार का प्रभाव उन पर ऐसा पड़ा कि दलितों एवं अस्पृश्य माने जाने वाले लोगों के उत्थान के लिए उन्होंने उनका नेतृत्व करने का निर्णय लिया तथा उनके कल्याण हेतु एवं उन्हें उनके वास्तविक अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए दकियानूसी तथा कट्टरपन्थी लोगों के विरुद्ध वे जीवनभर संघर्ष करते रहे ।

वर्ष 1905 में उनका विवाह रमाबाई नामक एक कन्या से हो गया और उसी वर्ष उनके पिता उन्हें लेकर बम्बई चले गए, जहाँ उनका नामांकन एलफिंसटन स्कूल में करवा दिया गया ।  वर्ष 1907 में जब उन्होंने अच्छे अंकों के साथ मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो बड़ौदा के महाराजा सयाजी राव गायकवाड़ ने प्रसन्न होकर उन्हें 25 रुपये मासिक छात्रवृति देना प्रारम्भ किया ।

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वर्ष 1912 में राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में बी ए करने के बाद बड़ौदा महाराज ने उन्हें अपनी फौज में उच्च पद पर नियुक्त कर लिया । वर्ष 1913 में अपने पिता कीं मृत्यु के बाद उन्होंने इस नौकरी से त्यागपत्र देकर उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने का फैसला किया ।

बड़ौदा के महाराज ने उनके इस फैसले का स्वागत किया एवं उनके त्यागपत्र को स्वीकार कर उन्हें उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति भी प्रदान की । इसके बाद भीमराव अमेरिका चले गए, जहाँ न्यूयॉर्क के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से उन्होंने वर्ष 1915 में एम ए तथा वर्ष 1916 में पी एच डी की उपाधि प्राप्त की ।

वर्ष 1917 में वे कोल्हापुर के शासक शाहजी महाराज के सम्पर्क में आए तथा उनकी आर्थिक सहायता से मूक नायक नामक पाक्षिक पत्र निकालना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था- दलितोद्धार करना । पी एच डी की डिग्री प्राप्त करने के बाद भी उच्च शिक्षा की उनकी भूख शान्त नहीं हुई थी, इसलिए वर्ष 1923 में वे इंग्लैण्ड चले गए, जहाँ लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से उन्होंने डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्री प्राप्त की ।

इसके बाद कानून में कैरियर बनाने के दृष्टिकोण से उन्होंने बार एट लॉ की डिग्री भी प्राप्त की । कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 1923 में अम्बेडकर स्वदेश लौटे तथा बम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करना प्रारम्भ किया । यहाँ भी उन्हें अपनी जाति के प्रति समाज की गलत धारणा एवं भेदभाव के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ।

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उन्हें कोर्ट में कुर्सी नहीं दी जाती थी तथा कोई मुवक्किल उनके पास नहीं आता था । संयोगवश उन्हें एक हत्या का मुकदमा मिला, जिसे किसी भी बैरिस्टर ने स्वीकार नहीं किया था, किन्तु उन्होंने इतनी कुशलता से इस मामले की पैरवी की कि जज ने उनके मुवक्किल के पक्ष में निर्णय दिया ।

इस घटना से अम्बेडकर को खूब ख्याति मिली । अम्बेडकर ने बचपन से ही अपने प्रति समाज के भेदभाव रूपी अपमान को सहा था, इसलिए उन्होंने इसके खिलाफ संघर्ष की शुरूआत की ।  इस उद्देश्य हेतु उन्होंने वर्ष 1927 में ‘बहिष्कृत भारत’ नामक मराठी पाक्षिक समाचार-पत्र निकालना प्रारम्भ किया, इस पत्र ने शोषित समाज को जगाने का अभूतपूर्व कार्य किया ।

वर्ष 1927 में उन्हें बम्बई के गवर्नर ने विधानपरिषद् के लिए मनोनीत किया तथा वे वर्ष 1937 तक बम्बई विधानसभा के सदस्य बने रहे ।  उस समय दलितों को अछूत समझकर मन्दिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था । उन्होंने मन्दिरों में अछूतों के प्रवेश की माँग की और वर्ष 1930 में 30 हजार दलितों को साथ लेकर नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया ।

इस अवसर पर उच्च वर्णों के लोगों की लाठियों की मार से अनेक लोग घायल हो गए, किन्तु उन्होंने सबको मन्दिर में प्रवेश कराकर ही दम लिया । इस घटना के बाद लोग उन्हें ‘बाबा साहब’ कहने लगे । उन्होंने वर्ष 1935 में ‘इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी’ की स्थापना की, जिसके द्वारा उन्होंने दलित एवं अछूत समझे जाने वाले लोगों की भलाई के लिए कट्टरपंथियों के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ किया ।

वर्ष 1935 में उन्हें गवर्नमेण्ट लॉ कॉलेज के प्रधानाचार्य का गरिमामयी पद प्रदान किया गया ।  वर्ष 1937 में बम्बई के चुनावों में इनकी पार्टी को पन्द्रह में से तेरह स्थानों पर जीत हासिल हुई, हालांकि अम्बेडकर गाँधीजी के दलितोद्धार के तरीकों से सहमत नहीं थे, लेकिन अपनी विचारधारा के कारण उन्होंने काँग्रेस के जवाहरलाल नेहरू एवं सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे बड़े नेताओं को अपनी ओर आकर्षित किया ।

वर्ष 1941 में उन्हें वायसराय की रक्षा परामर्श समिति का सदस्य नियुक्त किया गया । वर्ष 1944 में वायसराय ने पुन: एक्जीक्यूटिव काउंसिल गठित की तथा डॉ. अम्बेडकर को ‘श्रम सदस्य’ के रूप में मनोनीत कर सम्मानित किया । जब 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ, तो उन्हें स्वतन्त्र भारत का प्रथम कानून मन्त्री बनाया गया, इसके बाद उन्हें भारत की संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया ।

भारत के संविधान को बनाने में अम्बेडकर ने मुख्य भूमिका निभाई, इसलिए उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता भी कहा जाता है । अपने जीवनकाल में अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्होंने कई पुस्तकों की रचना भी की, जिनमें से कुछ उल्लेखनीय पुस्तकें हैं- ‘अनटचेबल्स हू आर दे’, ‘स्टेट्स एण्ड माइनॉरिटीज’, ‘हू वर दी शूद्राज’, ‘ब्रुद्धा एण्ड हिज धम्मा’, ‘पाकिस्तान एण्ड पार्टीशन ऑफ इण्डिया’, ‘थॉट्स ऑफ लिग्युस्टिक स्टेट्स’, ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी’, ‘द इवोल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फाइनैन्स इन ब्रिटिश इण्डिया’, ‘द राइज एण्ड फॉल ऑफ हिन्दू वूमेन’, ‘इमैनसिपेशन ऑफ द अनटचेबल्स’ ।

अम्बेडकर सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे । वे हिन्दू, धर्म के खिलाफ नहीं थे तथा इस धर्म की बुराइयों एवं इसमें निहित भेदभाव को दूर करना चाहते थे ।  उन्हें जब लगने लगा कि कट्टरपन्थी एवं दकियानूसी विचारधारा के लोगों के रहते हुए पिछड़े एवं दलितों का भला नहीं हो सकता, तो उन्होंने धर्म-परिवर्तन का निर्णय लिया ।

14 अक्टूबर, 1956 को उन्होंने दशहरे के दिन नागपुर मे एक विशाल समारोह में लगभग दो लाख लोगों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक महान् विधिवेत्ता, समाज सुधारक, शिक्षाविद् एवं राजनेता थे ।  उन्होंने अन्याय, असमानता, छुआछूत, शोषण तथा ऊँच-नीच के खिलाफ जीवनभर संघर्ष किया ।

6 दिसम्बर, 1966 को भारत के इस महान् सपूत एवं दलितों के उद्धार व मसीहा का निधन हो गया ।  उनकी उपलब्धियों एवं मानवता के लिए उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने वर्ष 1990 में उन्हें मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया ।

अम्बेडकर आज हमारे बीच भले न हो, किन्तु यदि आज दलितों को बहुत हद तक उनका सम्मान मिला है तथा समाज में छुआछूत की भावना कम हुई है, तो इसका सर्वाधिक श्रेय डॉ. भीमराव अम्बेडकर को ही जाता है । अम्बेडकर की विचारधारा पूरी मानवता का कल्याण करती रहेगी, उनका जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है ।

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