जैव विविधता विलुप्त होने पर निबंध | Jaiv Vividhata Vilupt Hone Par Nibandh | Essay on Biodiversity Extinction in Hindi!

गाँधीजी कहा था- “प्रकृति में प्रत्येक की जरूरत पूरी करने की क्षमता है लेकिन किसी एक के लालच के लिए नहीं ।”

जैव विविधता विलोपन के भविष्य के सारे अनुमान इस गणित पर आधारित है कि यदि किसी वन्य जीव के प्राकृतिक वास को 70 प्रतिशत कम कर दिया जाये तो वही निवास करने वाली 50 प्रतिशत प्रजातियों विलोपन की स्थिति में पहुंच जायेगी ।

विलोपन के इसी भूगोल से ज्ञात होता है कि यदि विनाश की गति यथावत रही तो आने वाले 25 वर्षों में 10 प्रतिशत प्रजातियाँ पृथ्वी पर विलुप्त हो जायेंगी । विश्व संसाधन संस्थान, वाशिंगटन के एक प्रतिवेदन के आधार पर अगली आधी सदी के दौरान प्रजाति विलोपन का सबसे बडा अकेला कारण कटिबन्धी वनों का विनाश होगा ।

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स्मरणीय है कि पृथ्वी पर कटिबन्धी वनों का प्रतिशत क्षेत्रफल केवल 7 ही है, और उसमें सम्पूर्ण की 50 प्रतिशत से भी अधिक वनस्पति प्रजातियाँ पायी जाती हैं । ये वन वनस्पति ही नहीं अपितु वन्य प्रजातियों के सन्दर्भ में और अधिक समृद्ध हैं ।

एक आकलन के आधार पर विश्व की कुल वन्य प्रजाति के विलोपन से प्रकृति के सन्तुलन में व्यापक प्रभाव पडता है । प्रकृति की व्यवस्था में मानव नगण्य है । कहने का आशय यह है कि यदि पृथ्वी पर मानव विलुप्त हो जायें पो प्राकृतिक व्यवस्था में कहीं भी किसी भी प्रकार का असन्तुलन नहीं होगा ।

मानव के लिये यह कितनी बडी विडम्बना है । प्रकृति में वनस्पति प्रजाति व वन्य प्राणी प्रजातियों के इस अति-संवेदनशील सन्तुलन को बहुत सोच-विचारकर छेडछाड करनी चाहिए अन्यथा इसके घातक प्रभाव से मानव का बच पाना सम्भव न होगा ।

वन्य जीव:

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प्राकृतिक आवासों में अर्थात वनों में पाये जाने वाले जंगली (अपालित) जन्तुओं को वन्य जीव कहा जाता है । वन्य प्राणियों के दैनिक क्रियाकलापों से वनों को उगने व पनपने में सहायता मिलती है । भारतीय उपमहाद्वीप में वन्य जीवों की कुछ ऐसी दुर्लभ प्रजातियाँ हैं, जो विश्व में अन्यत्र नहीं पायी जाती है ।

उदाहरणार्थ- अनूप भृंग (स्वैम्पडीपर), चौसिंगा (फोरहोर्नड एन्टीकोप), कश्मीरी महामृग, नीलगाय, चीतल, कृष्णमृग, एक सींग वाला गैंडा, मणिपुरा हिरन, संभार, गोर, जंगली सूअर इत्यादि । पर्यावरण सन्तुलन में वन्य जीवों की भूमिका अति महत्वपूर्ण है ।

भारत वर्ष जैव सम्पदा की दृष्टि से समृद्धतम देशों में से एक है । विश्व में पायी जाने वाली विभिन्न प्रजातियों लगभग 40 प्रतिशत जीव-जन्तु भारत में है । उक्त प्रजातियों में बडी तेजी से गिरावट आने लगी और कालान्तर कुछ प्रजातियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया यद्यपि विलोपन एक जैविक प्रक्रिया है परन्तु असमय समाप्ति सोचने विवश करती है ।

कोई भी जीव को इस धरा पर जन्म लेना निश्चित रूप से मृत्यु को प्रान्त होगा यह एक जैविक सत्य है परन्तु किसी भी जीव का असमय मृत्युग्रस्त होना सर्वथा विचारणीय एवं चिन्ताजनक है । पृथ्वी से ‘विलोपन’ जैविक सत्यता है असमय विलोपन का कारण पर्यावरणीय परिस्थितियों में अवांछनीय परिवर्तन, वन्य जीवों के प्राकृतिक वासों का विनाश, वनों का निर्दयतापूर्वक विदोहन, अवैज्ञानिक पशुचारण तथा तीव्र गति से बढता औद्योगिकीकरण है ।

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प्रकृति ने भारत को उन्मुक्त हस्त से दान दिया है । सम्पूर्ण विश्व की लगभग 2 प्रतिशत भूमि हमारे पास है और इस भूमि पर विश्व के 5 प्रतिशत प्रजातियों के जीव-जन्तु निवास करते हैं तथा वनस्पतियों की 45000 प्रजातियाँ भारत में पायी जाती हैं ।

प्राकृतिक कारणों से वन्य प्रजातियों का समाप्त होना एक धीमी प्रक्रिया थी परन्तु आधुनिक युग में जब से बंदूक का आविष्कार हुआ वन्य जीवन को असहनीय क्षति पहुँचाई जा रही है । कहीं पर कृषि विकास के नाम पर, तो कहीं औद्योगिक विकास के नाम पर । हद तो तब से हो गई जब इन्हें शिकार व मनोरंजन के लिये मारा जाने लगा ।

‘राष्ट्रीय प्राकृतिक संग्रहालय’, प्रकाशित पुस्तिका ‘वर्लड ऑफ एनिमल्स’ के आंकड़े चौकाने वाले हैं । इस पुस्तिका के अनुसार भारत में स्तनपायी वन्य जीवों की 81 प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं । कश्मीरी हिरणों की संख्या घटकर 350 रह गई है । भारतीय गैंडों का डीलडौल और विशालकाय शरीर देखते ही बनता है, इनकी संख्या 8000 से भी कम रह गई है । सम्पूर्ण विश्व में शेरों की कुल सात नस्लें पायी जाती हैं ।

हमारे देश में इस शताब्दी के पूर्वार्द्ध में 10000 शेर थे जो घटकर आज 2000 रह गये हैं । बन्दर प्रजाति के वन्य प्राणी लुप्तप्राय जीवों की सूची में अकथित किये जा चुके हैं । काले एवं सफेद तेंदुओं के अस्तित्व पर संकट ज्यादा गहराया है ।

वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि पृथ्वी पर लगभग 300 लाख प्रजातियों के जीव-जन्तुओं तथा पेड-पौधे हैं । अभी तक इनमें से केवल 15 लाख का ही पता लगाकर उनका विवरण तैयार किया जा सका है । इनमें से 724 प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और 22530 प्रजातियाँ विलुप्त होने की स्थिति में है । आज का मानव यह भूल गया है कि पृथ्वी पर अन्य जीव जन्तुओं को भी रहने का उतना ही अधिकार है, जितना मनुष्य को वनस्पति, जीव-जन्तु तथा मानव एक दूसरे के अस्तित्व के पूरक हैं ।

वन्य जीवों को मारने का मानव का जन्मजात स्वभाव है क्योंकि उसने सर्वप्रथम इन्हीं को भोजन के रूप में देखा था । आदिकाल में शिकार, जोखिम व बहादुरी का प्रतीक था, तो मध्य काल में शान-शौकत व मनोरंजन का काम समझा जाने लगा और आधुनिक युग में तो यह अत्यधिक लाभप्रद व्यवसाय के रूप में परिवर्तित हो गया है ।

वन एवं वन्य-जीव का जीवन साहचर्य:

मारीशस में एक पक्षी डोडो पाया जाता था जिसे स्वादिष्ट होने के कारण मांसाहारी खा गये । इस पक्षी की कमजोरी थी कि यह अपने 15-20 किलो वजन के कारण उड नहीं पाता था अब यह सदा के लिये विलुप्त हो गया है ।

डोडो के समाप्त होने का परिणाम यह हुआ कि ‘काल्वेरिया मेजर’ नामक वृक्ष भी समाज होने की स्थिति में आ गये क्योंकि उल्लिखित पेड के बीजों का मोटा छिलका अपने पेट में पचाकर डोडो पक्षी बीज बाहर निकाल देता था तभी यह बीज उग पाते थे डोडो खत्म तो काल्वेरिया पौधा समाप्त होने के कगार पर इस समय 300 साल पुराने मात्र 13 पेड बचे है ।

आंकडे दर्शाते हैं कि प्रति बीस वर्ष में प्रत्येक दस में से एक पार्थिव प्रजाति विलुप्त होने जा रही है पेड-पौधो की लगभग 25000 प्रजातियाँ और रीढदार जानवरो, रेंगने वाले प्राणियों, पक्षी तथा स्तनपायी जीवों की लगभग 9000 प्रजातियाँ निकट भविष्य में विलुप्त होने की स्थिति में हैं ।

1973 में वाशिंगटन में अस्सी देशों के प्रतिनिधि एकत्र हुए और जीवों के संरक्षण के लिये एक आचार संहिता बनाई गई जिसे ‘कनवेंशन ज्ञान इण्टरनेशनल ट्रेड एण्ड एडेंजर्ड स्पीशीज ऑफ वाइल्ड फॉना एण्ड फ्लोरा’ नाम दिया गया ।

इसमें कहा गया है कि संकटग्रस्त जीवजन्तुओं और वनस्पतियों को बचाने का उत्तरदायित्व समूची दुनिया का है । यदि पर्यावरण ह्रास के कारण किसी भी प्रकार की वनस्पति या प्राणि प्रजाति संकटापन्न होती है तो इसका प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव मानव के अस्तित्व पर पडता है । खाद्य शृंखला के रूप में सभी का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है ।

इतिहास साक्षी है कि अशोक महान ने अपने सभी शिलालेखों पर जीवों पर दया करने की बात लिखवाई थी । धार्मिक सुरक्षा के कवच ने ही वन्य जीवों को लम्बे अन्तराल तक बचाये रखा बन्दूक का आविष्कार होते ही वन्य जीवों को अपना अस्तित्व बनाये रखना भी कठिन हो गया ।

ब्रिटिश सरकार ने वन्य जीवों की सुरक्षा के लिये प्रथम कानून वर्ष 1879 में ‘वाइल्ड एलीफेन्ट प्रोटेक्शन एक्ट’ नाम से पारित किया गया उल्लेखित अधिनियमों का व्यापक प्रभाव पडा परन्तु वनों की सुरक्षा के लिये कोई प्रभावी प्रयास न होने के कारण अपेक्षित सफलता नहीं मिली ।

इस हेतु 1927 में वनों की सुरक्षा, वैज्ञानिक प्रबन्ध एवं विदोहन तथा वन्य जीवों के हितार्थ ‘भारतीय वन अधिनियम’ के रूप में एक विस्तृत अधिनियम पारित किया गया । इसके अन्तर्गत बन एवं वन्य जीवों सम्बन्धी अपराधों को रोकने के लिये आर्थिक व शारीरिक दण्ड की व्यवस्था सुनिश्चित की गई थी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय व्यापक रूप से बेतहाशा वनों की कटाई हुई शिकारियों ने भी अवसर का लाभ उठाते हुए बडे पैमाने पर पशु संहार प्रारम्भ कर दिया । वन्य जीव प्रेमी संगठनों के आह्वान पर भारत सरकार ने ‘इण्डियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ’ की स्थापना की ।

‘भारतीय वन अधिनियम, 1956’ में वन एवं वन्य जीव दोनों की ही सुरक्षा का प्रावधान था परन्तु वन विभाग के शस्त्र-विहीन कर्मचारियों के लिये राइफलों से लैस शिकारियों को रोक पाना सम्भव न हो सका । वन्य जीवों की सुरक्षा को लेकर वन विभाग के अन्तर्गत ही पृथक रूप से वन्य जीव परिरक्षण संगठन की स्थापना की गई रक्षकों को शस्त्रों से लैस किया गया तथा वाहन भी प्रदान किये गये ।

इस व्यवस्था से पर्याप्त नियंत्रण किया जा सका । इन प्रयासों के बावजूद वन्य जीवों की अधिकांश प्रजातियाँ विलुप्त होती गई । अतः ऐसा अनुभव किया गया कि वन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा हेतु कडा दण्ड प्रावधान तथा वन्य जीवों के वास स्थलों की व्यापक सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाये ।

इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारत सरकार ने वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 पारित किया और अपराधी को 7 वर्ष तक का कारावास तथा पर्याप्त अर्थदण्ड की व्यवस्था की गई । वन्य जीवों के वास स्थलों को सम्पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने के लिये राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्य जीव विहार तथा अभ्यारण्य बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ की गई ।

2 अक्टूबर, 1991 से अधिनियम को संशोधित करके इसकी धाराओं को और अधिक कडा कर दिया गया है । इस अधिनियम से आशातीत सफलता मिली और दूसरी तरफ वन्य जीवों के संरक्षण के लिये उनके वास स्थल के रूप में राष्ट्रीय उद्यानों, वन्य जीव विहार एवं अभ्यारण्यों की स्थापना को बल मिला । इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप ‘भारतीय वन्य जीव परिषद’ ने वन्य प्रजातियों को तुरन्त संरक्षण प्रदान करने का सुझाव दिया है ।

वन्य जीव संरक्षितियाँ विस्तृत रूप से दो भागो में विभक्त की गई है:

1. राष्ट्रीय उद्यान

2. वन्य जीव विहार

वन्य जीव संरक्षिति का विशेष उद्देश्य जानवरों व पक्षियों को सुरक्षा प्रदान करना है जबकि राष्ट्रीय उद्यान सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षा प्रदान करते हैं । कुछ विशेष प्रकार की वन्य जीव संरक्षितियाँ भी हैं जैसे बाघ परियोजना ।

इसमें से प्रमुख है- सुन्दरवन बाघ परियोजना । इस परियोजना में रॉयल बंगाल टाइगर को सुरक्षा प्रदान की गई है । यहाँ बाघों की बढती जनसंख्या ने एक नई समस्या को जन्म दिया है । यह तथ्य इस परियोजना की सफलता का सबसे बडा प्रमाण है ।

इस समय भारत में 54 राष्ट्रीय वन्य उद्यान हैं जिनके अन्तर्गत सागरतटीय वन्योद्यान, उच्च अक्षाशीय सट तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह में स्थित वन्य अभ्यारण्य हैं । इनमें से 26 बडे वन्य अभ्यारण्य नगरीय क्षेत्रों में तथा 160 वन्य जीव संरक्षितियाँ देश के शेष भागों में केन्द्रित हैं सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत वन्य जीवों की दृष्टि से धनी है ।

दक्षिण भारत में केवल केरल राज्य ही वन्य जीव संरक्षण पर सर्वाधिक ध्यान देता है, पारिस्थितिकी तंत्र व जीवों की सुरक्षा के लिये ‘मैन एण्ड बायोरफेयर प्रोग्राम’ की रूपरेखा भारत सरकार ने तैयार की है । पृथ्वी में ही जैवमडल तथा प्राकृतिक पर्यावरण का पारिस्थितिक तंत्र मौजूद है । जल, जमीन और वायु जहाँ मिलते है । वहीं जैवमडल स्थित होता है, और यहीं जीवन संभव है, जहाँ वायु, जल भोजन, उपयुक्त तापमान व प्रकाश विद्यमान है । जैवमडल के भौतिक एवं रासायनिक पर्यावरण जैविक क्रियाओं को प्रभावित करते है ।

अतः सभी एक-दूसरे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते है, कोई भी पर्यावरण घटक पूर्णरूप से आत्म-निर्भर नहीं है । पर्यावरण जगत का आधार है और प्राकृतिक पर्यावरण के सभी घटक या अवयव एकाकी रूप से प्रभावशाली होकर परस्पर प्रभावित करते है । यही पारिस्थितिक तत्पर है ।

प्रकृति ने मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कई सहायक व जरूरी संसाधनों को उत्पन्न किया है ताकि पारिस्थितिकीय संतुलन कायम रहे । मानव की प्रकृति पर विजय पाने की लालसा ने संसाधनों को तेजी से नुकसान पहुंचाकर पारिस्थितिक तंत्र को असंतुलित कर दिया, जिससे पृथ्वी पर जीवधारियों का जीवन खतरे में पड गया है ।

वनों की कटाई, जल-धाराओं, नदियों आदि पर बांध और औद्योगिकिकरण आदि कारणों से पिछले 40 वर्षों में वनों के जीवधारियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है, फलस्वरूप पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों की प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर है, साथ ही इससे पर्यावरण पर भी गंभीर प्रभाव पड रहा है ।

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