पर्यावरण संरक्षण और विकास: | Environmental Protection and Development in Hindi.

पर्यावरण संरक्षण व विकास की दिशा में किए गए कुछ प्रमुख प्रयास:

स्टॉकहोम अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन (1972 ई.)

पर्यावरण पर यह पहला वैश्विक शिखर सम्मेलन था । इसमें कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए । सभी देशों को विशिष्ट जीव-जन्तु और पौधों से सम्बंधित संरक्षण कार्यक्रम प्रारंभ करने और इसके लिए पर्यावरण विभाग के गठन की सलाह दी गई । इसी के पश्चात भारत में भी प्रोजेक्ट टाइगर कार्यक्रम चलाने का निर्णय लिया गया एवं वायु प्रदूषण से सम्बंधित कानून बनाए गए ।

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इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) का गठन का निर्णय लिया गया । इसका उद्देश्य विकासशील देशों को पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक तकनीकी एवं पूँजी सम्बंधी सलाह देना था । इस सम्मेलन में 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाने का निर्णय भी लिया गया ।

रियो-डि-जेनेरियो सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन 1992):

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण एवं विकास की दिशा में यह अत्यधिक महत्वपूर्ण प्रयास था । इस सम्मेलन में 21वीं सदी के लिए पर्यावरणीय विकास हेतु कार्यक्रम निर्धारित किए गए एवं इसे ‘एजेंडा-21’ नाम दिया गया ।

यह चार प्रमुख भागों में बँटा हुआ था:

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a. विकासशील देशों से सम्बंधित कार्यक्रम के अंतर्गत गरीबी निवारण व जनसंख्या नियंत्रण को अनिवार्य माना गया क्योंकि इसके समाधान के बिना वहाँ पारिस्थितिकी विकास कार्यक्रम लगभग असंभव है ।

b. सबको खाद्य, स्वच्छ जल व सामाजिक सुरक्षा की उपलब्धता ।

c. पूँजी स्थानांतरण को उदार बनाने पर बल देना ।

d. जैविक विविधता का सर्वेक्षण और संकटग्रस्त जीवों के संरक्षण पर बल ।

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इस सम्मेलन में चार अन्य महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए गए जो क्रमशः तापमान नियंत्रण, वनीय संरक्षण, जैव विविधता (Bio-Diversity) एवं सतत् विकास सम्मेलन से संबंधित है ।

क्योटो सम्मेलन (पृथ्वी-5 सम्मेलन):

तापमान नियंत्रण के सम्बंध में दिसम्बर, 1997 में क्योटो में हुए पृथ्वी-5 सम्मेलन में महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए एवं यूरोप के प्रत्येक देश को 8% संयुक्त राज्य अमेरिका को 7%, जापान को 6%, ग्रीनहाउस गैसों का स्तर कम करने को कहा गया । चीन, रूस, भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया आदि देशों के लिए भी उत्सर्जन मानक निर्धारित किए गए ।

इन गैसों की मात्रा में औसतन 5.2% की कमी लाने का लक्ष्य रखा गया । यह निश्चित किया गया कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों का स्तर किसी भी स्थिति में 1990 ई. के दशक से ऊपर नहीं जाना चाहिए । इस हेतु उपलब्धि का वर्ष 2012 ई. निर्धारित किया गया ।

16 फरवरी, 2005 से क्योटो प्रोटोकॉल लागू हो गया है । क्योटो संधि के अनुपालन के क्रम में न्यूजीलैंड ने मई, 2005 में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाने हेतु अपने यहाँ कार्बन-टैक्स का प्रावधान किया है ।

इससे कोयला, पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्मी ऊर्जा स्रोत अन्य पर्यावरण-मित्र ऊर्जा स्रोतों जल, वायु एवं सौर आदि से महंगे हो जाएंगे, अतः विद्युत उत्पादकों का झुकाव इसकी ओर हो सकेगा । ग्लोबल वार्मिग पर नियंत्रण हेतु इस प्रकार का कर लगाने वाला न्यूजीलैंड विश्व का पहला देश है ।

1 जुलाई 2012 से ऑस्ट्रेलिया ने भी कार्बन टैक्स का प्रावधान कर दिया है । अमेरिका के कैलिफोर्निया के दक्षिण में स्थित मोहावे रेगिस्तान में सोलर पावर प्लांट लगाया गया है । ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य में दुनिया का सबसे बड़ा सोलर पावर प्लांट लगाया जा रहा है ।

स्वीडन विश्व का पहला देश है जहां बायोगैस के आधार पर रेलगाड़ी चलाई जा रही है । सयुक्त राज्य अमेरिका ने ‘ई-कोली बैक्टेरिया’ से जैव ईंधन बनाने में सफलता हासिल की है । यह पेट्रोल के विकल्प के रूप में प्रयोग किया जा सकता है ।

जोहांसबर्ग शिखर सम्मेलन-2002:

यह शाश्वत विकास पर विशेष रूप से आयोजित वैश्विक शिखर सम्मेलन (World Summit on Sustainable Development) था । इसे पृथ्वी-10 सम्मेलन भी कहा गया है, क्योंकि रियो-डि-जेनेरियो में 1992 ई. में दिए गए एजेंडा-21 के कार्यान्वयन की यह दस वर्षीय समीक्षा भी थी ।

इसमें जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण हेतु क्योटो प्रोटोकॉल को अनिवार्य व समयबद्ध रूप से लागू करने पर बल दिया गया । जैव विविधता को बनाए रखने एवं प्रजातीय विनाश की स्थिति पर प्रभावी नियंत्रण हेतु वर्ष 2015 तक का लक्ष्य निर्धारित किया गया । गैर परम्परागत ऊर्जा के व्यापक प्रयोग हेतु भी 2015 ई. को लक्ष्य वर्ष रखा गया ।

 

नुसा दुआ सम्मेलन (बाली रोड मैप) – 2007:

इंडोनेशिया के बाली द्वीप में ‘नुसा दुआ’ में दिसम्बर, 2007 को सम्पन्न हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सम्मेलन (बाली रोड मैप) में 190 देशों के प्रतिनिधियों, वैज्ञानिकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया ।

सम्मेलन में वर्ष 2012 में समाप्त हो रहे क्योटो प्रोटोकॉल के स्थान नई संधि के बारे में विचार किया गया । इसमें क्योटो प्रोटोकॉल से आगे की रणनीति (पोस्ट-क्योटो प्रोटोकॉल) बनाने व ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के मामले में विश्वव्यापी सहमति कायम करने पर बल दिया गया ।

रियो + 20 सम्मेलन:

1992 में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन के दो दशक पूरे होने के उपलक्ष्य में 20-22 जून 2012 को ब्राजील के रियो-डि-जेनेरियो में संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास सम्मेलन (UN Conference of Sustainable Development – UNCSD) आयोजित किया गया, उसमें पृथ्वी सम्मेलन के बाद पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किये गए प्रयासों की समीक्षा की गई सम्मेलन में 191 देशों के प्रतिनिधियोंने भाग लिया ।

पृथ्वी-20 सम्मेलन में ‘The Future We Want’ नामक मसौदा प्रस्तुत किया गया, जिसमें सतत् विकास, जनसंख्या नियंत्रण, गरीबी उन्मूलन, सामाजिक समानता आदि पहलू पर विचार किया गया । भारत ने इस सम्मेलन में ‘हरित अर्थव्यवस्था’ (Green Economy) को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पर बल दिया ।

हरित अर्थव्यवस्था का तात्पर्य ऐसी अर्थव्यवस्था से है, जिसमें विश्व के सभी देशों द्वारा सार्वजनिक और निजी निवेश करते समय यह ध्यान रखा जायेगा कि कार्बन उत्सर्जन व उससे होने वाले प्रदूषण की मात्रा में कमी लाई जाए, यह तभी संभव है जब सभी देश एक ऐसी नव-अर्थव्यवस्था (New Economic Order) के सृजन का प्रयास करें, जिसमें पृथ्वी के सभी प्रणियों को संतोषजनक जीवन स्तर और सतत् विकास का व्यैक्तिक और वैश्विक अवसर की प्राप्ति सुनिश्चित हो सके ।

परंतु, इस हेतु औद्योगिक राष्ट्रों को उदार रवैया रखना जरूरी है जो कि फिलहाल नहीं हो रहा । इससे विकासशील देशों को पूंजी व तकनीक की कमी का सामना करना पड़ रहा है ।

रियो + 20 सम्मेलन में सतत् विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोई स्पष्ट रणनीति नहीं बनाई गई । साथ ही इसमें कानूनी बंधन का भी अभाव है, इसीलिए इसे अधिक सफल नहीं माना जा रहा है । सर्वाधिक असहमति चार क्षेत्रों को लेकर है ।

इसमें जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही, महासागरों के संरक्षण, खाद्य सुरक्षा एवं मतत् विकास के मुद्दों पर रही हैं जब तक औद्योगिक राष्ट्र पर्यावरण और विकास के मुद्दों की अनदेखी करते रहेंगे, तब तक मतत् विकास की दिशा में किया गया कोई भी प्रयास का सफल नहीं होना मुमकिन नहीं है । यही कारण है कि रियो + 20 सम्मेलन भी किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँचाया जा सका ।

जलवायु परिवर्तन पर आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट:

आई.पी.सी.सी. (इन्टरगवर्नमेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेन्ज) का गठन 1988 ई. में विश्व मौसम विज्ञान संगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने मिलकर किया था । विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन में दुनिया के शीर्षस्थ पर्यावरण वैज्ञानिकों के पैनेल ने ग्लोबल वार्मिंग पर चेतावनी भरी रिपोर्ट दी एवं कहा है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मानवीय गतिविधियां जिम्मेदार हैं ।

इसी कारण हिमनदों का पिघलना, समुद्री जलस्तरों में वृद्धि तथा वैश्विक जलवायु परिवर्तन देखे जा रहे हैं । बाढ़ और सूखे की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है । आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट के अनुसार, भूमंडलीय तापन के उत्तरदायी कारकों में कार्बन डाइऑक्साइड अति महत्वपूर्ण मानवजनित (एन्थ्रोपोजेनिक) ग्रीनहाउस गैस है । औद्योगिक क्रांति के बाद इसमें तेजी से वृद्धि हुई है ।

पिछले एक दशक में यह वृद्धि सर्वाधिक रही है । इसी प्रकार मीथेन की सान्द्रता में भी वृद्धि हो रही है जिसके लिए कृषि एवं जीवाश्म ईंधनों को जिम्मेदार ठहराया गया है ।

पृथ्वी के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से मानव समेत सभी जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के अस्तित्व पर आए संकट को टालने के लिए अगले 50 वर्षों में ग्रीनहाउस गैसों की उत्सर्जन में 85% तक की भारी कटौती करने पर बल दिया गया ।

सम्मेलन में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन दर अधिक ऊंची होने के कारण जलवायु परिवर्तन को मापने के लिए सूचकों में परिवर्तन लाने के प्रति सहमति व्यक्त की गई है । इसमें पृथ्वी के सतह के औसत तापमान मे वृद्धि, समुद्री जलस्तर का बढ़ना, समुद्री जल के अम्लीयकरण, हिमशैलों के टूटने की दर में वृद्धि तथा जलवायु से सम्बंधित अतिवादी घटनाओं को सूचक बनाने पर बल दिया गया ।

सम्मेलन में यह भी कहा गया कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास की दिशा में त्वरित प्रयास करना जरूरी है अन्यथा लक्ष्य को समय पर प्राप्त करना संभव नहीं होगा । इसमें निर्धन देशों व संवेदनशील जनसमूह को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने को भी समर्थन दिया गया है ताकि वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाव कर सकें ।

डिजटर्स एंड द फाइट अगेंस्ट डिजर्टीफिकेशन:

16 अगस्त, 2010 को ब्राजील के ‘फोर्तालेज’ शहर में आंशिक रूप से सूखे क्षेत्रों में जलवायु सतत्ता और विकास के बारे में द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया । इसमें संयुक्त राष्ट्र ने 2010-20 के दशक को डिजटर्स एंड द फाइट अगेंस्ट डिजर्टीफिकेशन के रूप में मनाए जाने की शुरुआत की गई ।

 

 

 

C – 40 शहर सम्मेलन:

यह विश्व के बड़े शहरों का एक समूह है, जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के चुनौतियों से निपटना है । वर्तमान समय में इसमें 40 शहर सदस्य बन चुके हैं, जिसमें भारत के दिल्ली और मुम्बई भी शामिल है । C – 40 शहरों की कुल जनसंख्या 300 मिलियन है ।

विश्व के 21% आर्थिक गतिविधियाँ इन्हीं शहरों में होती है तथा इन्हीं शहरों से पूरे विश्व में 12% ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है । साओपोलो में वर्ल्ड बैंक ने C – 40 समूह के शहरों के साथ समझौता किया है जिसके तहत् जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने वाली परियोजनाओं को तकनीकी वित्तीय सहायता प्रदान की जाएगी ।

पेरिस सम्मेलन (कॉप-21):

पेरिस में आयोजित कांफ्रेस ऑफ द पार्टीज 21 (CoP-12) ने 12 दिसंबर, 2015 को संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के तहत जलवायु परिवर्तन पर समझौते को स्वीकार किया, जिसमें 192 देशों ने भाग लिया ।

यह समझौता क्योटो प्रोटोकॉल के अतिरिक्त वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के उपायों के बारे में जानकारी प्रदान करता है । समझौते में विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों में इक्विटी के सिद्धांत एवं समान जिम्मेदारियों और क्षमताओं को ध्यान में रखा गया है ।

इस सम्मेलन का सबसे प्रमुख उद्देश्य विश्व के बढ़ते तापमान को 2 डिग्री से कम पर रोकना है । यह प्रयास किया जाएगा कि तापमान 1.5 डिग्री पर रोक लिया जाए ताकि जलवायु परिवर्तन के अन्य खतरों से निपटा जा सके । सदस्य देशों द्वारा वनों सहित जलाशयों एवं अन्य प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण के लिए कदम उठाए जाएँगे ।

बढ़ते वैश्विक तापमान को 2C पर रोकने एवं जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए सदस्य देश विभिन्न क्षेत्रों में विकास हेतु उन्हें गोद लेंगे । सदस्य देशों ने जलवायु परिवर्तन के नुकसानों में जलवायु में हो रहे परिवर्तन एवं उसके प्रतिकूल प्रभाव को स्वीकार किया ।

इसमें मौसम की अत्यधिक अतिवादी घटनाओं और हाल में आरंभ हुए बदलावों को भी स्वीकार किया गया । सदस्य देशों ने तकनीक द्वारा दीर्घावधि विकास एवं सकारात्मक बदलाव के महत्व को भी स्पष्ट किया ।

समझौते के अनुसार प्रयासों का निर्धारण राष्ट्रीय, उप-राष्ट्रीय एवं स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर होना चाहिए । विकसित देश वर्ष 2०20 तक 1०० बिलियन अमेरिकी डॉलर का फंड जुटाएंगे ताकि विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन रोकने के उचित प्रयास किए जा सकें ।

समझौते को लागू करने एवं इसके अनुपालन को बढ़ावा देने के लिए एक कार्यप्रणाली तैयार की गई । पेरिस समझौते में शामिल सदस्य वर्ष 2023 में इस विषय का पुनरीक्षण करेंगे तथा प्रत्येक पाँच वर्ष बाद इसका पुनरावलोकन किया जाएगा ।

जैव विविधता व उनका संरक्षण:

जैव विविधता शब्द एडवर्ड विल्सन द्वारा दिया गया है । यह जैविक संगठन के प्रत्येक स्तर पर उपस्थित विविधता को दर्शाती है । इनका अध्ययन अनुवांशिक विविधता, जातीय (Species) विविधता व पारिस्थितिकीय विविधता के रूप में किया जाता है व संकटग्रस्त प्रजातीयों की पहचान की जाती है तथा उसके संरक्षण व संवर्धन के प्रयास किए जाते हैं ।

IUCN इस संबंध में ‘रेड डाटा’ बुक प्रकाशित करता है । जैव-विविधता का संरक्षण स्वस्थाने (Insitu) एवं बाह्‌य स्थाने (Exsitu) दो तरीकों से किया जाता है । इन सीटू संरक्षण विधि के अन्तर्गत जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्रों को उनके प्राकृति स्वरूप में अपने स्थान पर बनाए रखने के प्रयास किए जाते हैं । विश्व में जैव-विविधता ‘हॉट स्पॉटों’ की भी पहचान की गई है ।

ये वैसे क्षेत्र हैं, जहाँ उच्च जातीय समृद्धि व उच्च स्थानिकता (एंडेमिज्म) होती है । विश्व में कुल 34 जैव-विविधता हॉट स्पॉट हैं । इनमें ‘भारत का पश्चिमी घाट व हिमालय का क्षेत्र’ भी शामिल है । भारत में 17 जीवमंडल आरक्षित क्षेत्र, 102 राष्ट्रीय उद्यान और 515 वन्य जीव अभ्यारण्य हैं, जो इन सीटू जैव विविधता संरक्षण के उदाहरण हैं ।

इसी प्रकार एक्स सीटू संरक्षण विधि के अन्तर्गत सकंटग्रस्त पादपों व जन्तुओं को उनके प्राकृतिक आवास से अलग विशेष स्थान पर सावधानी पूर्वक संरक्षित किया जाता है । जन्तु उद्यान, वनस्पति उद्यान एवं वन्य जीव सफारी पार्कों का यही उद्देश्य है ।

इससे ऐसे जीवों को इन विशेष स्थानों पर सुरक्षित रखा जा सका है जो कि वनों में विलुप्त हो गये थे । वर्तमान समय में संकटग्रस्त प्रजातियों के DNA को क्रायोजोनिक तकनीक द्वारा लम्बे समय तक परिरक्षित (Preserve) करने के प्रयास किए जा रहे हैं । इस हेतु विभिन्न जीन बैंकों व विभिन्न जीन पूल केन्द्रों का निर्माण किया जा रहा है ।

 

जैव विविधता सम्मेलन 2010:

जापान के नागोया में 18-29 अक्टूबर, 2010 को जैव-विविधता सम्मेलन आयोजित हुआ । संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2010 को ‘अन्तर्राष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष’ के रूप में मना रहा है ।

सम्मेलन की समाप्ति पर ऐतिहासिक नागोया जैव विविधता घोषणा-पत्र (नागोया प्रोटोकॉल) जारी किया गया, जिसमें क्लाइमेट चेंज से जैव विविधता में आने वाली कमी की चुनौतियों से निपटने के लिए सदस्य देशों ने अपना समर्थन व्यक्त किया । अप्रैल, 2002 में इस कन्वेंशन के पक्षकारों ने वर्ष 2010 तक जैव विविधता के नष्ट होते दर में व्यापक कमी लाने के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी ।

जैव विविधता सम्मेलन में जैव विविधता के संरक्षण से सम्बंधित उपर्युक्त अंतर्सबंधित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक 10 वर्षीय रणनीति बनाई गई, जिसे आईची लक्ष्य नाम दिया गया । वस्तुतः आईची जापान का परफैच्यूर (प्रांत के जैसा) है जिसकी राजधानी नागोया है, जहाँ जैव विविधता सम्मेलन आयोजित किया गया ।

आईची लक्ष्य के अन्तर्गत 20 लक्ष्य शामिल हैं जिसे पाँच रणनीति शीर्षकों में विभाजित किया गया है, जिसमें जैव विविधता ह्रास के कारणों, जैव विविधता संरक्षण, जैव विविधता से प्राप्त लाभों को बढ़ाना व क्षमता निर्माण की प्राप्ति शामिल है । ‘नागोया प्रोटोकॉल’ को लागू करने के लिए वर्ष 2012 लक्षित किया गया है ।

 

 

जैव विविधता दशक 2011-20:

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने जैव विविधता के लिए उत्पन्न खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए 2011-2020 की अवधि को संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता दशक घोषित किया, जिसे नागोया, जापान में हुई (CBD-Convention on Bio-Diversity) के तहत CoP-10 में मंजूरी दी गई थी ।

इसमें CBD और सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों (Millennium Development Goal) के तीनों उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता के 20 लक्ष्य शामिल हैं ।

जैव विविधता सम्मेलन 2011:

जैव विविधता अंतर्राष्ट्रीय संधि पर कॉन्फ्रेन्स ऑफ द् पार्टीज का 11वाँ सम्मेलन (CoP-11 on Convention on Biodiversity) और जैव सुरक्षा पर कार्टेजीना प्रोटोकॉल के मीटिंग ऑफ पार्टीज (MoP-6) का छठा सम्मेलन 1-19 अक्टूबर, 2012 के मध्य भारत की राजधानी नई दिल्ली में आयोजित किया गया ।

भारत में होने वाला CoP-11 जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र दशक में पहला CoP था । यह इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था कि यहाँ सम्मेलन की 20वीं वर्षगाँठ मनाई गई । CoP-11 सम्मेलन ने भारत को जैव विविधता पर विशेष पहलों और शक्ति को समेकित करने, मापने और प्रदर्शित करने का एक सुअवसर प्रदान किया ।

अन्तर्राष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष पर जैव विविधता को क्षय से बचाने में योगदान के लिए जर्मनी के चांसलर एंजेला मार्केल को विशेष ‘मिडोरी जैव विविधता पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया ।

जैव विविधता दिवस-22 मई:

22 मई, 2015 को ‘अतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस’ मनाया गया । इसे ‘विश्व जैव-विविधता संरक्षण दिवस’ भी कहते हैं । वर्ष 2015 के अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस का विषय ‘निरंतर विकास के लिए जैव विविधता’ (Bio-Diversity for Sustainable Development) रखा गया ।

‘अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस’ का उद्देश्य पारिस्थितिकीय तंत्र के संरक्षण एवं संवर्द्धन के प्रति जन-जागरूकता बढ़ाना है । अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता की बुनियादी भूमिका को पहचानने के साथ-साथ जैव विविधता के महत्व और खतरों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है ।

मानव व पर्यावरण सम्बंधी अवधारणाएँ:

1. नियतिवादी अवधारणा:

यह मानव को पर्यावरण का ही एक तत्व मानता है । हम्बोल्ट व रिटर जैसे नियतिवादी भूगोलवेत्ताओं ने मानव जीवन को प्रकृति पर पूर्णतः निर्भर माना है । उनके अनुसार मनुष्य अन्य जीवों की भांति ही प्रकृति के अनुसार अपनी नीतियाँ बनाता है व पर्यावरण के अनुरूप अपने रहन-सहन व कार्य-व्यवहारों को ढालता है ।

2. संभववादी अवधारणा:

विडाल-डि-ला-ब्लाश, ब्रूंज, डिमांजियाँ जैसे संभववादी भूगोलवेत्ता मानव को पर्यावरण का एक सक्रिय तत्व मानते हुए कहते हैं कि मानव प्रकृति पर विजय प्राप्त कर चुका है एवं उनमें हर प्रकार का परिवर्तन कर सकता है; आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि उसके पास जरूरी पूँजी, तकनीकी दक्षता व इच्छा शक्ति हो ।

3. नव-नियतिवादी अवधारणा:

यह उपरोक्त दोनों अतिवादी अवधारणाओं का खण्डन करती है । ग्रिफिथ टेलर एवं ओ.एच.के. स्पेट जैसे भूगोलवेत्ताओं ने प्रकृति की एकपक्षीय दोहन की आलोचना की और बताया कि प्रकृति का अत्यधिक दोहन विनाशकारी हो सकता है ।

उन्होंने प्रकृति के संदर्भ में रुको और जाओ (Stop & Go Determinism) की नीति अपनाने को कहा एवं बताया कि ‘प्रकृति की अपनी सुन्दरता है, अपनी सीमाएँ हैं । अतः हमें चाहिए कि पहले प्रकृति को समझने का प्रयास करें, उसके बाद अपने विकास नीतियों का निर्धारण करें ।’

वस्तुतः वर्तमान समय में प्रचलित टिकाऊ या शाश्वत विकास (Sustainable Development) का सम्बंध नव-नियतिवादी अवधारणा से ही है ।

 

सतत् विकास:

इसके लिए धारणीय, संपोषणीय, निर्वहनीय, टिकाऊ, शाश्वत या सतत् विकास आदि शब्द भी प्रयोग में लाए जाते है । इसका तात्पर्य विकास के उस अनुकूलतम स्तर से है जो पर्यावरण को क्षति पहुँचाए बिना संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग से प्राप्त होता है ।

इसके पश्चात् पूंजी, कुशल श्रम, तकनीक आदि के प्रयोग के बावजूद यदि अधिकतम विकास का प्रयास किया जाये तो पर्यावरण को स्थायी रूप से क्षति पहुँचने लगती है । इस प्रकार विकास का यह स्तर लंबे समय तक नहीं चल सकता । सतत् विकास की इस अवधारणा में पर्यावरण के अनुरूप विकास के साथ ही संसाधनों को भावी पीढ़ियों के लिए बचाए रखने पर ही ध्यान रखा जाता है ।

इस शब्द का प्रयोग पहली बार IUCN (International Union for Conservation of Nature and Natural Composition) ने अपनी रिपोर्ट ‘विश्व संरक्षण रणनीति’ (World Conservation Strategy) में किया ।

परन्तु विस्तृत रूप में 1987 ई. में WCED (World Commission on Environment and Development) ने ‘Our Common Future’ नामक रिपोर्ट में इस शब्द की परिभाषा और कार्य पद्धति की व्याख्या की । इस व्याख्या को U.N.O. ने भी स्वीकार कर लिया है ।

इस रिपोर्ट के अनुसार टिकाऊ विकास वह विकास है जिसके अंतर्गत भावी पीढ़ियों के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमताओं से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है । अतः पर्यावरण के सुरक्षा के बिना विकास को निर्वहनीय नहीं बनाया जा सकता ।

आर्थिक विकास और पर्यावरण सुरक्षा के मध्य एक वांछित संतुलन बनाए रखना ही निर्वहनीय या टिकाऊ विकास है । वर्तमान में यह विकास का एक भूमंडलीय दृष्टिकोण बन गया है । 1992 ई. के पृथ्वी सम्मेलन में घोषित एजेंडा-21 (रियो घोषणा) में इसके प्रति पूर्ण समर्थन व्यक्त किया गया । 2002 ई. के जोहांसबर्ग सम्मेलन का मूल मुद्दा ही शाश्वत विकास था ।

टिकाऊ विकास की दो अनिवार्य शर्तें हैं जो सूचनाओं की उपलब्धता से सम्बंधित है ।

 

ये हैं:

1. पर्यावरण से सम्बंधित सूचनाएँ:

इसके अंतर्गत चार प्रकार की सूचनाएँ आवश्यक है:

i. जैविक अधिवास से सम्बंधित सूचनाएँ ।

ii. प्राकृतिक संसाधनों के सम्बंध में सूचनाएँ ।

iii. पर्यावरण के आधारभूत कारकों के संदर्भ में सूचनाएँ जिसके अंतर्गत स्थलाकृति, जलवायु, मृदा एवं जल शामिल हैं ।

iv. वर्तमान पर्यावरण, जो मानवीय अंतः क्रिया से उत्पन्न हुई है । इसमें पर्यावरणीय निम्नीकरण के स्तर की जाँच की जाती है ।

 

 

2. मनुष्य और उसके क्रियाकलापों से सम्बंधित सूचनाएँ:

i. जनसंख्या वृद्धि दर, जनसंख्या का आकार व घनत्व ।

ii. जनसंख्या दबाव तथा जनसंख्या व कृषि भूमि का आनुपातिक सम्बंध ।

iii. विभिन्न संसाधन व खाद्य उपलब्धता ।

iv. गैर-अनिवार्य संरचनात्मक सुविधाएँ, जो नवीन जीवन स्तर के प्रतीक हैं ।

v. औसत-जीवन स्तर तथा प्रति व्यक्ति आय ।

vi. पर्यावरण के उपयोग हेतु मनुष्य का तकनीकी स्तर ।

 

शाश्वत विकास के निर्धारण हेतु इन सूचनाओं के प्राप्त करने हेतु चार तरीके हैं:

1. सुदूर-संवेदन तकनीक ।

2. भौगोलिक सूचना तंत्र एवं पर्यावरण सूचना तंत्र ।

3. अनुभवात्मक विधि ।

4. सांख्यिकी विधि द्वारा सूचना एकत्र करना ।

इन सभी आधारों पर संभावित अनुकूलतम स्तर का निर्धारण किया जाता है एवं विकास की योजनाएँ बनाई जाती हैं ।

विश्व के वन संसाधन:

मानव जीवन में वनों की महत्ता और जीवन व्यवस्था में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाने के उद्देश्य से 1971 ई. से विश्वभर में प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को विश्व वन दिवस का आयोजन किया जाता है ।

संयुक्त राष्ट्र ‘खाद्य एवं कृषि संगठन’ (FAO) द्वारा प्रस्तुत विश्व के वन संसाधनों के ‘वैश्विक वन संसाधन आकलन’ (Global Forest Resource Assessment-GFRA) 2010 के अनुसार विश्व का कुल वन क्षेत्र 4,033 मिलियन हेक्टेयर है, जो कि कुल भू-क्षेत्र का लगभग 31 प्रतिशत है ।

विश्व में वनों का औसत प्रति व्यक्ति आकलन 0.6 हेक्टेयर के स्तर पर है । दक्षिण एशियाई क्षेत्र में वनावरण यहाँ के कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 19 प्रतिशत है जबकि GFRA 2010 के अनुसार भारत में वनावरण 23 प्रतिशत है । दक्षिण एशियाई क्षेत्र के भूटान, श्रीलंका एवं नेपाल में वनावरण प्रतिशत भारत से अधिक है ।

GFRA-2010 के अनुसार विश्व में वन क्षेत्र की दृष्टि से रूस का प्रथम स्थान है, उसके बाद क्रमशः ब्राजील, कनाडा, सयुंक्त राज्य अमेरिका, चीन, कांगो रिपब्लिक, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, सूडान (अविभाजित) व भारत (10वाँ स्थान) आते हैं ।

पर्यावरणीय निस्पादन सूचकांक (EPI):

विश्व आर्थिक मंच की दाबोस (स्विट्‌जरलैण्ड) में सम्पन्न वार्षिक बैठक में 25 जनवरी, 2014 को ‘पर्यावरणीय निस्पादन सूचकांक रिपोर्ट-2014’ (Environmental Performance Index Report-2014) जारी की गई । इस रिपोर्ट में प्रस्तुत सूचकांक पर्यावरणीय स्वास्थ्य एवं पारिस्थितिक चेतना के आधार पर 178 देशों को रैंक प्रदान की गई है ।

पर्यावरणीय निस्पादन सूचकांक में भारत 31.23 अंकों के साथ 155वें स्थान पर है । EPI सूचकांक में कुछ अन्य प्रमुख देशों में रूस 73वें (अंक 53.48), ब्राजील 77वें (अंक 52.97), ब्रिटेन 12वें (अंक 77.35), जापान 26वें (अंक 72.35), फ्रांस 27वें (अंक 71.05) तथा संयुक्त राज्य अमेरिका 67.52 अंकों के साथ 33वें स्थान पर है ।

पर्यावरण लोकतंत्र सूचकांक (EDI):

21 मई, 2015 को विश्व के पहले पर्यावरणीय लोकतंत्र सूचकांक (Environmental Development Index Report) वाशिंगटन के ‘वर्ल्ड रिसोर्सेज इन्स्टीट्यूट एण्ड एम्सेस इनिशिएटिव’ ने जारी किया । इसमें कुल 70 देशों के बारे में जारी किया गया है ।

इसमें पर्यावरण से जुड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता जबावदेही और नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए नियमों को लागू करने में किसी देश की प्रगति का आकलन करना है । इस रिपोर्ट में यूरोप के लिथुआनिया को प्रथम स्थान दिया गया है । इसमें भारत का स्थान 24वाँ है ।

अर्थ ऑवर 2015:

ग्लोबल वार्मिग पर नियंत्रण, पर्यावरण संरक्षण व ऊर्जा की बचत के लिए वर्ल्ड वाइड फण्ड (WWF) फॉर नेचर की पहल पर शुरू किए गए ‘अर्थ ऑवर’ अभियान में भारत वर्ष 2015 में भी शामिल रहा ।

मार्च के अंतिम शनिवार (2015 में 28 मार्च) के दिन आयोजित इस अभियान के तहत् रात्रि 8:30 से 9:30 बजे तक सभी अनावश्यक बत्तियाँ बुझाकर इस अभियान के प्रति एकजुटता देश के सभी शहरों में व्यक्त की गई ।

यह अर्थ ऑवर का 9वाँ आयोजन था, जिसका थीम था- ‘चेन्ज द क्लाइमेट चेन्ज’ (Change the Climate Change) । भारत इस अभियान में पहली बार 2009 में शामिल हुआ था । टेनिस स्टार ‘सानिया मिर्जा’ को इस वर्ष का ब्रांड एम्बेस्डर बनाया गया था ।

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