आर्थिक योजना के प्रकार: 5 प्रकार | Read this article in Hindi to learn about the types of economic planning.

मोटे तौर पर, आयोजन की व्यवस्था समय, क्षेत्र भौगोलिक स्थिति और आर्थिक क्षेत्रों आदि के अनुसार निम्नलिखित रूप में की जा सकती है:

1. भौतिक एवं वित्तीय आयोजन ।

2. संरचनात्मक और कार्यात्मक आयोजना ।

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3. केन्द्रीकृत और विकेन्द्रीकृत आयोजन ।

4. समाजवादी और पूँजीवादी आयोजन ।

5. निदेशन और प्रेरक आयोजन ।

1. भौतिक एवं वित्तीय आयोजन (Physical and Financial Planning):

भौतिक आयोजन, साधनों जैसे मानवशक्ति, सामग्री और मशीनरी आदि के आवंटन की तकनीक के संदर्भ में होता है । इसका अर्थ है कि विकास योजनाओं का आकार समाज की बचतों पर आधारित न होकर सम्भावित भौतिक साधनों जैसे मानव शक्ति और सामग्री पर आधारित होना चाहिये ।

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भौतिक सन्तुलन में निवेश एवं उत्पादन के बीच सम्बन्धों का उचित मूल्यांकन सम्मिलित है । निवेश गुणांकों का आगणन किया जाता है । यह गुणांक निवेश की राशि की ओर संकेत करते हैं और विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के सन्दर्भ में उस निवेश की संरचना की ओर संकेत करते हैं जिनकी आवश्यकता किसी उत्पाद के उत्पादन में एक दी हुई राशि से वृद्धि प्राप्त करने के लिये होती है ।

उदाहरण के रूप में एक टन अतिरिक्त इस्पात के उत्पादन के लिये कितने लोहे, कितने कोयले कितनी विद्युत शक्ति की आवश्यकता है । इस आधार पर, विभिन्न उत्पादों के उत्पादन में आयोजित वृद्धि का सन्तुलन निवेश की राशियों और किस्मों द्वारा किया जाता है ।

अर्थव्यवस्था के विभिन्न भागो का सन्तुलन करना भी आवश्यक होगा । क्योंकि अर्थव्यवस्था की एक शाखा का उत्पादन किसी अन्य शाखा के उत्पादन के लिये आगतों का कार्य करता है । इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये वित्तीय आयोजन का आश्रय लिया जाता है ।

भौतिक आयोजन में, समग्र अनुमान उपलब्ध वास्तविक साधनों के आधार पर लगाया जाता है । जैसे कच्चा माल, श्रम शक्ति आदि को कैसे प्राप्त करना है ताकि योजना के कार्यान्वयन के दौरान अड़चने न आयें ।

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इसके लिये उत्पादन के भौतिक लक्ष्यों के निर्धारण जैसे कृषि और उद्योग, व्यापार, यातायात और सामाजिक-आर्थिक सेवाएं उपभोग स्तर और रोजगार, आय और अर्थव्यवस्था के निवेश स्तरों के भौतिक लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता होती है ।

तथापि, समग्र उपलब्ध वास्तविक साधनों का भी अनुमान लगता है और फिर विकास के विभिन्न कार्यक्रमों के बीच उनका आबंटन करता है । अल्पविकसित देशों में भौतिक आयोजन के मार्ग में कुछ अड़चनें होती हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया ।

वह हैं:

i. विश्वसनीय तथा पर्याप्त सांख्यिकीय आंकड़ों और सूचना का अभाव एक भौतिक योजना के निर्माण में बड़ी बाधा हो सकती है । यदि भौतिक लक्ष्यों का निर्धारण अशुद्ध आंकड़ों के आधार पर किया जाता है तो आयोजन निश्चय ही असफल होगा ।

ii. अर्थव्यवस्था के विभिन्न खण्डों का सन्तुलन कुछ समस्याएं खड़ी करता है और इसमें अप्रबन्धनीय गणनाएं सम्मिलित हो सकती हैं । फलत: एक पिछड़े हुये एवं अल्पविकसित देश में उच्च स्तर की आन्तरिक स्थिरता प्राप्त करना सम्भव नहीं ।

iii. कीमतों की वृद्धि के कारण यह स्फीतिकारी दबावों की ओर ले जाता है । पिछड़े हुये और अल्पविकसित देशों के लिये एक स्फीतिकारी प्रक्रिया बहुत हानिकारक होती है क्योंकि आय और बचत का स्तर अविश्वसनीय रुप से बहुत नीचा होता है ।

iv. अल्पविकसित देशों में वित्तीय आयोजन के बिना भौतिक आयोजन असम्भव है । उदाहरणार्थ भारत में दूसरी योजना के आकार में योजना के अन्तिम वर्ष में 290 करोड़ रुपयों की कांट-छांट कर दी गई थी जोकि वित्तीय साधनों के अभाव के कारण थी ।

वित्तीय आयोजन (Financial Planning):

यह आयोजन की उस तकनीक से सम्बन्धित है जिस में साधनों का आवंटन मुद्रा के रूप में किया जाता है । वित्तीय आयोजन का अर्थ है योजना के विकास व्यय को पूरा करने के लिये वित्तीय साधनों की व्यवस्था करना ।

अत: भौतिक एवं वित्तीय आयोजन एक दूसरे से सम्बन्धित हैं तथा इसके बिना वांछित परिणाम किसी भी हालत में प्राप्त नहीं किये जा सकते । अत: लागतों और लाभों की गणना के लिये पूर्ति और मांग के बीच कुसमायोजन को दूर करना आवश्यक है ।

भारतीय योजना आयोग ने ठीक ही कहा है- ”वित्तीय आयोजन का सार यह सुनिश्चित करना है कि माँग और पूर्तियां इस ढंग से बराबर की जायें जो भौतिक क्षमताओं से इतना अधिक काम ले जितना सम्भव हो तथा कीमत संरचना में महत्वपूर्ण और अनियोजित परिर्वतन न हों ।”

संक्षेप में, वित्तीय आयोजन माँगों और पूर्तियों के बीच सन्तुलन लाता है, स्फीति को रोकता है तथा आर्थिक स्थायित्व लाता है । इन सहायताओं को प्राप्त करने के लिये इसे पहले तो वित्त स्रोत तथा वित्त की कुल मात्रा की आवश्यकता है । अर्थव्यवस्था में कोई भी वित्तीय अव्यवस्था और असन्तुलन नहीं होना चाहिये ।

इसके अतिरिक्त, इसे मौद्रिक अर्न्तप्रवाह का इस प्रकार संशोधन और समन्वय करना आवश्यक है कि वस्तुओं की पूर्ति और क्रय शक्ति तथा प्राप्तियों और भुगतानों के बीच सन्तुलन ठीक प्रकार से बना रहे ।

तथापि, अल्पविकसित देशों में वित्तीय नियोजन को कुछ अड़चनों का सामना करना पड़ता है:

i. कराधान द्वारा साधनों की गतिशीलता बचत की प्रवृत्ति पर विपरीत प्रभाव डाल सकती है ।

ii. किसी अल्प विकसित देश में, विस्तृत निर्वाह स्तरीय गैर-मौद्रिक क्षेत्र तथा बहुत छोटा व्यवस्थित मौद्रिक क्षेत्र होता है । इन दो क्षेत्रों में असन्तुलन की सम्भावना रहती है । इससे पूर्तियों का अभाव होगा और कीमतों में स्फीतिकारी वृद्धि होगी ।

iii. पूर्ति को आयातों द्वारा बढ़ाया जा सकता है परन्तु इससे भुगतानों के सन्तुलन में कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं । जिससे अल्पविकसित देशों की वर्तमान स्थिति बिगड़ सकती है ।

iv. भौतिक आयोजन की सफलता के लिये आवश्यक है कि यह सभी अवरोधों से मुक्त हो । इस आयोजन का प्रयोग किसी विशेष क्षेत्र में हो सकता है न कि पूरी अर्थव्यवस्था में ।

v. इस प्रकार का आयोजन पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिये बिल्कुल उचित नहीं है जहां यह केवल सम्भावित आय की हानि ही नहीं वरन् सन्तुलित सामाजिक विकास के स्वरूप को भी खतरा है क्योंकि इसके परिणाम स्वरूप औसत वेतनों पर जनसंख्या वृद्धि की तुलना में रोजगार की अपर्याप्त व्यवस्था होती है और इस प्रकार, जो रोजगार प्राप्त करने का सौभाग्य रखते हैं और जिनकी काम और आय दोनों के लिये आवश्यकताएं अधूरी रहती हैं के बीच असमानता बढ़ती है ।

भौतिक एवं वित्तीय योजनाएं एक योजना के दो पहलू हैं, दोनों एक दूसरे के विरोधी न हो कर एक दूसरे के पूरक हैं । डॉ. बालकृष्ण के शब्दों में- “भौतिक एवं वित्तीय आयोजन एक ही यथार्थ के भिन्न पहलू हैं ।” (Physical and Financial Planning are Different Aspects of the Same Reality)

वास्तव में यह कहना कठिन है कि दोनों में कौन सा अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के लिये अधिक महत्व रखता है । कोई भी देश स्पष्ट रूप में दोनों में से किसी एक पर निर्भर नहीं रह सकता, दोनों आवश्यक हैं । परन्तु यह याद रखना आवश्यक है कि इस प्रश्न का अन्तरिक उत्तर देश की राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है । सोवियत यूनियन जैसे समाजवादी देशों में भौतिक आयोजन रहता है ।

निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि विकास आयोजन के लिये दोनों तकनीकों की सुबद्धता की आवश्यकता है । भौतिक लक्ष्यों को उपलब्ध वित्तीय साधनों के सन्दर्भ में सन्तुलित करने की आवश्यकता होती है जब कि भौतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिये व्यापक वित्तीय साधनों को गतिशील करने की आवश्यकता होती है ताकि आर्थिक विकास की गति को तीव्र किया जा सके ।

भारतीय योजना आयोग ने ठीक ही लिखा है- ”चाहे कोई भौतिक आयोजन के सन्दर्भ में सोचे अथवा वित्तीय आयोजन के संदर्भ में दोनों पूरक हैं उद्देश्य अर्थव्यवस्था में निरन्तर उच्च स्तरों पर विभिन्न सन्तुलनों को प्राप्त करना है ।”

2. संरचनात्मक एवं कार्यात्मक आयोजन (Structural and Functional Planning):

 

आयोजन को संरचनात्मक तथा फलनात्मक कहा जा सकता है । संरचनात्मक आयोजन का अर्थ है कि आर्थिक विकास एवं सुधारों के साथ समाज के ढांचे को परिवर्तित करने का उद्देश्य । इसमें ऐसी नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के निर्माण का लक्ष्य सम्मिलित होता है जो तीव्र आर्थिक प्रगति के लिये उचित है ।

अल्पविकसित देशों में, असामान्य संरचनात्मक कठोरता होती है जो आर्थिक विकास के लिये बिल्कुल अनुकूल नहीं होती । इसलिये, ऐसे अल्पविकसित देशों में, संरचनात्मक आयोजन को महत्व दिया जाना चाहिये । इस प्रकार का आयोजन विद्यमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को परिवर्तित करने में सहायक होता है जिसमें प्राय: निजी उद्यमियों का प्रभुत्व होता है ।

इसके अतिरिक्त यह नया क्रम स्थापित करता है जहां सार्वजनिक क्षेत्र के लिये धनात्मक भूमिका होती है । संरचनात्मक आयोजन में पूँजीगत वस्तुओं के उद्योगों में निवेश किया जाता है । यह तुलनात्मक रूप ने दीर्घकालिक आयोजन होता है । सोवियत आयोजन और अन्य समाजवादी देशों में आयोजन को संरचनात्मक आयोजन कहा जा सकता है । दूसरी ओर कार्यात्मक आयोजन वर्तमान सामाजिक आर्थिक ढांचे के संदर्भ में होता है जिसे जैसा है वैसा ही रखा जाता है ।

यह केवल उसे ही दृढ़ करने अथवा ठीक करने का लक्ष्य रखता है । तथापि, इस प्रकार का आयोजन आवश्यक रूप में एक नये, क्रम का निर्माण नहीं करता वरन् केवल विद्यमान संरचना को कार्य प्रणाली को ठीक करने और सुधारने का कार्य करता है ।

कार्यात्मक नियोजन को आवश्यक रूप सें प्रभावी नहीं कहा जा सकता । अत: पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्थाओं को इसका सुझाव नहीं दिया जा सकता । कार्यात्मक आयोजन के सम्बन्ध में अर्थशास्त्र के विचारकों में तीव्र मतभेद हैं ।

आयोजन और पूंजीवाद परस्पर विरोधी हैं । आयोजन स्वतन्त्र उद्यम, निजी पहल, उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व बाजार अर्थव्यवस्था और कीमत प्रणाली के विरुद्ध है । -लुडविंग वॉन माइसिस परन्तु उसी समय यह भी कहा जाता है कि संरचनात्मक आयोजन अकेले ही आर्थिक विकास का तीव्र वांछित और प्रभावी दर प्राप्त कर सकता है अत: इसलिये इसका भविष्य उज्जवल है ।

कार्यात्मक आयोजन केवल मरम्मत ही करेगा, नया नहीं बनायेगा, यह वर्तमान व्यवस्था की कार्य प्रणाली को सुधारेगा, परन्तु उसका स्थान नहीं लेगा । यह एक रूढ़िवादी अथवा एक विकासवादी आयोजन है जो वर्तमान संरचना को उलटता नहीं है और केवल इसकी संकीर्ण सीमाओं के बीच चलता है । -एफ. ज्वेग

वर्तमान भारतीय प्रणाली दोनों प्रकारों का मिश्रण है । सार्वजनिक क्षेत्र के प्रारम्भ से अर्थव्यवस्था के ढांचे को परिवर्तित करने के लिये कड़े प्रयत्न किये जाते हैं । इससे एक बड़ी सीमा तक वर्तमान संरचना सुधर गयी, परन्तु निजी क्षेत्र का विलोपन नहीं होता ।

संरचनात्मक आयोजन और कार्यात्मक आयोजन में केवल श्रेणी का अन्तर है । जहां तक कि कुछ समय के पश्चात संरचनात्मक आयोजन कार्यात्मक बन जाता है । अत: संरचनात्मक आयोजन को इस भाव से कार्यात्मक कहा जा सकता है कि एक दिये गये समय के भीतर दिये गये ढांचे के अधीन परिवर्तन होते हैं ।

इसी प्रकार कार्यात्मक आयोजन को संरचनात्मक आयोजन कहा जा सकता है क्योंकि कुछ समय के पश्चात सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था स्वयं परिवर्तित हो जाती है । दोनों साथ-साथ रह सकते हैं ।

3. केन्द्रीकृत और विकेन्द्रीकृत आयोजन (Centralised and Decentralised Planning):

योजनाओं के कार्यान्वयन के आधार पर इन्हें केन्द्रीकृत और विकेन्द्रीकृत आयोजन में वर्गीकृत किया जा सकता है:

i. केन्द्रीकृत आयोजन (Centralised Planning):

केन्द्रीकृत आयोजन के अन्तर्गत सम्पूर्ण आयोजन प्रक्रिया केन्द्रीय योजना प्राधिकरण के अधीन होती है । इस प्रकार के आयोजन को ‘ऊपर से आयोजन’ कहा जाता है । योजना प्राधिकरण योजना बनाता है, उद्देश्य निर्धारित करता है, अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र के लिये लक्ष्य और प्राथमिकताएं निश्चित करता है ।

इसलिये, यह केन्द्रीय प्राधिकरण का कर्तव्य है कि केन्द्रीकृत आयोजन की प्रक्रिया में उचित सम्बद्धता, समरूपता तथा सम्बन्दता सुनिश्चित करें । भारत में केन्द्रीय प्राधिकरण, योजना आयोग को आयोजना से सम्बन्धित सभी कार्य सौंपे गये हैं ।

ऑस्कार लॉग ने केन्द्रीकृत आयोजन को इसके अप्रजातांत्रिक स्वरूप के कारण अस्वीकार कर दिया है । पहले तो सम्पूर्ण आयोजन प्रक्रिया अफसरशाही के नियन्त्रण और नियमन पर आधारित है, इस प्रकार यह कठोर बन जाती है ।

दूसरे इसमें आर्थिक स्वतन्त्रता का अभाव है और आर्थिक गतिविधियों का निर्देशन ऊपर से होता है जो अशुद्ध गणना और दुर्लभताओं की समस्या को जन्म देती है । तीसरे, यह आर्थिक शक्ति का एक हाथ अथवा एक वर्ग में अत्यधिक और कठोर केन्द्रीयकरण कर सकती है ।

ii. विकेन्द्रीकृत आयोजन (Decentralised Planning):

यह योजना के आरम्भिक स्तर से कार्यान्वयन से सम्बन्धित है । इसलिये इसे नीचे से आयोजन कहा जाता है । विकेन्द्रीकृत आयोजन के अधीन योजना का निर्माण केन्द्रीय आयोजन प्राधिकरण द्वारा देश की विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों के परामर्श से किया जाता है ।

विकेन्द्रीकृत आयोजन, केन्द्रीय प्राधिकरण और सार्वजनिक उद्यमों द्वारा सामूहिक रूप में लिये गये निर्णयों के परिणाम स्वरुप होता है । केन्द्रीय योजना संघीय व्यवस्था के अन्तर्गत योजनाओं को समाविष्ट करती है ।

आर्थिक योजनाएं केन्द्रीय प्राधिकरण द्वारा बनाई जाती हैं, कार्यान्वित की जाती हैं और उनका निरीक्षण किया जाता है, परन्तु राज्य योजना जिला, ब्लॉक और ग्रामीण योजनाओं को भी समाविष्ट करती है ।

इसी प्रकार विभिन्न उद्योगों के लिये उद्योगों के प्रतिनिधियों के परामर्श से योजनाएं तैयार की जाती हैं । विकेन्द्रीकृत आयोजन के अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों का निर्धारण सरकारी नियन्त्रण और नियमों के बावजूद बाजार तन्त्र द्वारा किया जाता है ।

परन्तु विकेन्द्रीकृत आयोजन के अन्तर्गत समरूपता, सम्बद्धता, और समन्वय का अभाव होता है । सोवियत आयोजन और भारतीय आयोजन दोनों, ‘ऊपर से आयोजन’ और ‘नीचे से आयोजन’ का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

विकेन्द्रीकृत आयोजन केन्द्रीकृत आयोजन से बेहत्तर है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था को अधिक स्वतन्त्रता और लोच उपलब्ध करता है । उसी समय, दोनों में से, केन्द्रीकृत आयोजन अर्थव्यवस्था के लिये सम्बद्धता लाने वाला होता है जबकि विकेन्द्रीकृत आयोजन अधिक आर्थिक स्वतन्त्रता और प्रोत्साहन प्रदान करता है ।

4. समाजवादी और पूँजीवादी आयोजन (Socialist and Capitalistic Planning):

समाजवादी आयोजन में अर्थव्यवस्था आर्थिक आयोजन पर निर्भर करती है अर्थात एक निश्चित प्राधिकरण द्वारा समग्र आर्थिक प्रणाली के व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर लिये गये मुख्य आर्थिक निर्णयों पर निर्भर करती है । केन्द्रीय प्राधिकरण समग्र अर्थव्यवस्था के लिये योजना तैयार करता है ।

यह प्राथमिकताएं, उद्देश्य और लक्ष्य निश्चित करता है । यह योजना में दिये गये उद्देश्यों और लक्ष्यों की विशेष समय के भीतर निश्चित रूप में प्राप्ति के लिये अर्थव्यवस्था के सभी साधनों को जानबूझ कर दिये गये निर्देश और नियन्त्रण द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित करता है ।

अन्य शब्दों में, समाजवाद के अधीन, अर्थव्यवस्था केन्द्रीय रूप में नियोजित तथा सामाजिक रूप में वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर निर्दिष्ट होती है । समाजवाद में आयोजन का कार्य सरल हो जाता है ।

इस प्रकार का आयोजन अधिक प्रभावी है क्योंकि देश की समस्त उत्पादक सम्पत्ति सम्पूर्ण समाज के स्वामित्व के अधीन होती है तथा सरकार ही अकेला व्यापारिक उद्यम होता है जो व्यवहारिक रूप में आर्थिक गतिविधि के सभी पहलुओं का संचालन करता है ।

समाजवादी आयोजन के उद्देश्य कुल माँग पूर्ण रोजगार, सामुदायिक माँग की सन्तुष्टि, उत्पादन के कारकों का आबंटन, राष्ट्रीय आय का वितरण, पूंजी संचय की राशि, आर्थिक विकास आदि से सम्बन्धित हो सकते हैं ।

समाजवादी आयोजन के मुख्य लक्षण (Main Features of Socialist Planning):

1. समाजवाद के अधीन आयोजन पूँजीवाद के विरुद्ध अधिक विशेष और व्यापक होता है । सभी महत्वपूर्ण निर्णय योजना प्राधिकरण द्वारा किये जाते हैं जो अर्थव्यवस्था में साधनों के विवेकपूर्ण निर्धारण के लिये उत्तरदायी हैं ।

2. समाजवादी आयोजन इस ढंग से किया जाता है कि खण्डों में आयोजन को कोई स्थान नहीं मिलता ।

3. आयोजन एक समाजवादी समाज का स्थायी लक्षण है । पूँजीवाद की भान्ति एक समाजवादी समाज केवल संकट काल में ही योजना नहीं बनाता बल्कि सदैव योजना बनाता है । यह ऐसी अर्थव्यवस्था का स्थायी भाग होता है और इसके दक्ष संचलन के लिये आवश्यक तन्त्र उपलब्ध कराता है ।

4. समाजवाद के अन्तर्गत आयोजन निर्देशन द्वारा होता है न कि कीमत तन्त्र द्वारा । समाजवादी प्रणाली में बाजार यन्त्रवाद केवल द्वितीयक भूमिका निभाता है । एक समाजवादी व्यवस्था में योजना आयोग राज्य द्वारा प्रवर्तित संस्था होती है जिसे योजनाओं के निर्माण और कार्यान्वयन का पूरा अधिकार होता है ।

पूंजीवादी आयोजन (Capitalistic Planning):

पूंजीवादी आयोजन एक मिथ्या नाम प्रतीत होता है क्योंकि पूंजीवादी प्रणाली अस्तित्व में नहीं है । इसलिये यह एक प्रकार से अनियोजित आर्थिक क्रम है जो बाजार की कुछ अदृश्य शक्तियों से गति प्राप्त करता है । पूँजीवाद का मुख्य लक्षण केन्द्रीय आर्थिक योजना की अनुपस्थिति है ।

लुडविंग वान माइसिज (Ludwing Von Mises) ने अवलोकन किया कि ‘आयोजन और पूँजीवाद पूर्णतया असंगत है’, आयोजन स्वतन्त्र उद्यम, उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व, बाजार अर्थव्यवस्था और कीमत प्रणाली के विपरीत है ।

पूँजीवाद के अधीन उत्पादन के सभी साधन निजी स्वामित्व में होते है । उत्पादन का नियोजन सरकार द्वारा नहीं किया जाता बल्कि निजी उद्यम स्वतन्त्रतापूर्वक इसका संचालन करते हैं । बाजार कीमतें बाजार शक्तियों द्वारा निर्धारित की जाती हैं ।

अत: पूंजीवादी आयोजन के अन्तर्गत, निजी स्वामित्व की संस्थायें, निजी उद्यम और कीमत तन्त्र अर्थव्यवस्था में सक्रिय रहता है । दूसरी ओर, राज्य सीमित स्तर पर, समग्र समाज की सेवा के स्वार्थ से आयोजन करता है, राज्य कीमत व्यवस्था की सहायता के लिये और यह सुनिश्चित करने के लिये कि यह कुशलता-पूर्वक कार्य करें, आयोजन करता है ।

यहां यह याद रखना आवश्यक है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था केवल संकट काल में ही आयोजन करती है तथा निजी पहल की सहायता करती है । इस प्रकार सामान्य कालों के दौरान, पूँजीवादी अर्थव्यस्था एक अनियोजित प्रणाली रहती है परन्तु जब संकट उत्पन्न होते हैं तो समस्याओं की प्राथमिकता के आधार पर समाधान के लिये आयोजन को अपनाया जाता है ।

अधिकांश पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान किसी न किसी प्रकार के आयोजन को अपनाया । यू. एस. ए. का मन्दी से निपटने के लिये ‘न्यू डील पॉलसी’ पूँजीवाद के अन्तर्गत ऐसा ही प्रयास था । जापान द्वारा आयोजन का आरम्भ बाजार हथियाने के प्रयोजन से किया गया ।

पूँजीवाद के अंतर्गत आयोजन केवल खण्डों में होता है जिसका लक्ष्य अर्थव्यवस्था की कुछ समस्याओं का समाधान होता है परन्तु इस व्यवस्था के अधीन सम्पूर्ण आर्थिक आयोजन असम्भव है । पूंजीवादी प्रणाली के अधीन आयोजन या तो सुधारक आयोजन अथवा विकास आयोजन हो सकता है ।

पूँजीवाद के अधीन आयोजन के निम्नलिखित गुण हैं:

(i) कुल माँग को बनाये रखने के लिये उचित उपाय ताकि किसी प्रकार की मन्दी अथवा स्फीति को रोका जा सके । यह मुख्यत: अच्छे मौद्रिक राजकोषीय उपायों द्वारा किया जा सकता है ।

(ii) एकाधिकारिक शक्तियों के नियन्त्रण के लिये, सरकार समाज कल्याण के लिये एकाधिकार विरोधी उपाय अपनाती है ।

(iii) रेल मार्ग, सड़कें, संचार, सार्वजनिक उपयोगी सेवाएं नहरें, पार्क, शिक्षा आदि के लिये संरचना तैयार करने के लिये ।

(iv) निवेश का दर बढ़ाने के लिये यह निवेश नीति का निर्माण करता है । लुइस का कहना है कि न तो ब्याज की दर बढ़ाना और न ही निवेश पर कर लगाना हानि रहित है तथा आवश्यकता दोनों के कुछ मिश्रण की है । इनमें से कोई भी परियोजना के लाइसेन्स से बेहतर है । इसलिये सरकार निवेश कोषों के विवेकपूर्ण उपयोग की नीति का अनुकरण करती है ।

(v) यह उस सीमा शुल्क नीति को अपनाती है जो विदेशी प्रतियोगियों को प्रतिबन्धित करके घरेलू उद्योगों के विकास के उपकरण का कार्य करती हैं ।

(vi) उत्पादन के कारकों की अधिकतम गतिशीलता की प्राप्ति के लिये ऐसी ही नीति का निर्माण किया जाता है ।

5. निर्देशन और प्रेरक आयोजन (Direction and Inducement Planning):

साधनों की गतिशीलता के आधार पर निर्देशन द्वारा आयोजन और प्रेरणा द्वारा आयोजन में अन्तर किया जा सकता है ।

निर्देशन द्वारा आयोजन (Planning by Direction):

निर्देश द्वारा आयोजन समाजवादी समाज का अभिन्न भाग है । यह स्वतन्त्र व्यापार की पूर्ण अनुपस्थिति की कल्पना करता है । इसलिये इसका अर्थ है पूर्णतया केन्द्रीकृत आयोजन जिसमें निजी अर्थव्यवस्था के कोई लक्षण नहीं हैं ।

निर्देशन द्वारा आयोजन के अन्तर्गत आयोजन प्राधिकरण उत्पादक साधनों का नियन्त्रण अपने हाथों में ले लेता है तथा सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुसार उनका प्रयोग करता है ।

अन्य शब्दों में, एक केन्द्रीय प्राधिकरण होता है जो योजना बनाता है, योजना का निर्देशन करता है तथा कार्यान्वयन का आदेश देता है । बाजार शक्तियों को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य नहीं करने दिया जाता । बचत और निवेश पर योजना प्राधिकरण का कड़ा नियन्त्रण होता है ।

निर्देशन द्वारा आयोजन व्यापक है तथा देश के सम्पूर्ण आर्थिक जीवन को समाविष्ट करता है । सोवियत संघ, निर्देशन द्वारा आयोजन की सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है ।

ऐसे आयोजन के अन्तर्गत अनुकूलतम आयोजन के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है । पूर्ण रोजगार सुनिश्चित किया जा सकता है । अल्पाधिकारी एवं एकाधिकारी प्रवृत्तियों को सरलता से समाप्त किया जा सकता है । दूसरी ओर निर्देशन द्वारा पूर्ण आयोजन सम्भव नहीं है ।

लुइस के अनुसार निर्देशन द्वारा आयोजन की निम्नलिखित त्रुटियां हैं:

I. यह कार्यों का कोई परिणाम उपलब्ध नहीं करता (It Provides No Consequence of Actions):

आधुनिक आर्थिक व्यवस्था इतनी जटिल है कि कोई आयोजन प्राधिकरण पुरानी समस्याओं के समाधान के लिये ठीक निर्णय नहीं ले सकता । वह कहते हैं कि निर्देशन द्वारा आयोजन में, परिणाम सदा किसी वस्तु के अभाव और किसी दूसरी वस्तु के अतिरेक में होता है ।

II. अपूर्ण परिणाम (Imperfect Result):

यह भी देखा गया है कि निर्माण के समय निर्देशन द्वारा आयोजन परिशुद्ध और सही प्रतीत होता है परन्तु कुछ विपरीत परिस्थितियों के कारण कार्य सम्पादन बिगड़ जाता है अत: यह अशुद्ध एवं गलत परिणाम देता है ।

III. लोचहीन (Inflexible):

निर्देश द्वारा आयोजन में सभी योजनाएं एक बार ही तय कर ली जाती हैं तथा उनके पुनर्विचार और संशोधन की कोई सम्भावना नहीं होती । अत: यह कठोर बन जाता है । ल्युस ने ठीक ही कहा है- ”कीमत तन्त्र अपना समन्वय दैनिक आधार पर कर सकता है, धन का बहाव बदलता है और कीमतें तथा उत्पादन प्रतिक्रिया करते है, परन्तु निर्देशन द्वारा आयोजित अर्थव्यवस्था लोचहीन होती है ।”

IV. महंगा कार्य (Costly Affair):

निर्देशन द्वारा आयोजन के कार्यान्वयन के लिये हजारों अर्थशास्त्रियों तथा बहुसंख्या में लिपिकों की आवश्यकता होती है । अत: बहुत बड़ी मात्रा में जन-शक्ति को ऐसे कार्य में व्यस्त करना बहुत महंगा है जो सरलता से कीमत तन्त्र द्वारा किया जा सकता है ।

V. उच्च मानकीकरण के लिये मात्र आकर्षण (Only Temptation for Higher Standardisation):

नि:सन्देह मानकीकरण को विकास का इंजन माना जाता है परन्तु वास्तव में यह प्रसन्नता का एक शत्रु है । विदेशी व्यापार के सन्दर्भ में यह घातक सिद्ध हो सकता है क्योंकि कोई देश विदेशी व्यापार को तभी कायम रख सकता है यदि यह नये विचारों को जन्म देता है, नई वस्तुओं की खोज करता है तथा उत्पादन को उपभोक्ता की प्रतिक्रिया के अनुकूल बनाता है ।

VI. उपभोक्ता के प्रभुत्व के लिये कोई स्थान नहीं (No Place for Consumer’s Sovereignty):

निर्देशन आयोजन में उपभोक्ता के प्रभुत्व के लिये कोई स्थान नहीं है । उपभोक्ता और श्रम बाजार दोनों का निर्धारण आयोजन प्राधिकरण द्वारा किया जाता है । हेक के अनुसार- ”आर्थिक आयोजन लगभग हमारे सम्पूर्ण आर्थिक जीवन के निर्देशों को सम्मिलित करेगा । हमारे जीवन का कोई ऐसा पहलू नहीं होगा जिस पर योजनाकर्ता का सचेत नियन्त्रण न हो । हमारी प्राथमिक आवश्यकताओं से लेकर हमारे परिवार और मित्रों के साथ सम्बन्ध, काम के स्वरूप से लेकर फुर्सत के समय के प्रयोग तक सभी कार्य नियन्त्रित होंगे ।”

प्रेरणा द्वारा आयोजन (Planning by Inducement):

प्रेरणा द्वारा आयोजन प्रजातान्त्रिक आयोजन के अनुकूल है । यह बाजार के परिचलन द्वारा आयोजन है । जहां कोई अनिवार्यता और निर्देशन नहीं है केवल लोगों को प्रेरित करना है । इसलिये प्रेरणा द्वारा आयोजन में राज्य बाजार व्यवस्था का आदेश द्वारा परिचालन नहीं करता बल्कि उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रेरणा देकर करता है ।

आयोजन प्राधिकरण लोगों को मौद्रिक और राजकोषीय उपायों द्वारा और उचित कीमत नीतियों द्वारा किसी वांछित ढंग से कार्य करने के लिये प्रेरित करता है । यदि आयोजन प्राधिकरण उत्पादन के स्तर को बढ़ाना चाहता है तो यह वित्तीय सहायता देकर ऐसा कर सकता है ।

इसी प्रकार दुर्लभता की स्थिति में कीमत नियन्त्रण और राशनिंग को अपनाया जा सकता है । इसके अतिरिक्त पूंजी निर्माण की दर को बढ़ाने के लिये, योजना प्राधिकरण सार्वजानिक निवेश आरम्भ कर सकता है अथवा निजी निवेश को प्रोत्साहित न कर सकता है ।

वास्तव में, साख नियन्त्रण की मात्रात्मक विधियां कीमत स्तर को कायम रखने में सहायक हो सकती हैं जबकि साख नियन्त्रण की गुणात्मक विधियां निवेश को वांछित मार्गों की ओर मोड़ने में सहायक हो सकती हैं ।

लुइस ने प्रेरणा द्वारा आयोजन में निम्नलिखित कठिनाइयों का वर्णन किया है:

1. माँग और पूर्ति के समन्वय कठिन (Difficult to adjust Demand and Supply):

अभाव अथवा अतिरेक किसी अर्थव्यवस्था में एक सामान्य परिदृश्य है । बढ़ी हुई माँग से निपटने के लिये जब तक पूर्ति में वृद्धि नहीं की जाती कीमत नियन्त्रण और राशनिंग आवश्यक हो सकता है । इन परिस्थितियों में, आयोजन की दक्षता का निर्णय राशनिंग की प्रणाली और कीमत नियन्त्रण की विशिष्टता द्वारा नहीं लिया जाता ।

अभाव को कीमत नियन्त्रण द्वारा दूर किया जा सकता है । तथापि यदि प्रेरणा द्वारा आयोजन का ठीक संचालन नहीं होता तो यह निर्देशन द्वारा आयोजन में समाविष्ट हो जाती है ।

2. अल्पविकसित देशों की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं (Not Suitable to the Requirement of Underdeveloped Countries):

प्रेरणा द्वारा आयोजन की एक अन्य कठिनाई यह है कि यह कम विकसित देशों की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं है । वास्तव में, इन देशों को निवेश वृद्धि की तीव्र दर की आवश्यकता होती है तथा यह निवेश आवश्यक रूप में वांछित दिशाओं में जाना चाहिये । इसलिये राज्य को चाहिये कि वह सक्रियतापूर्वक निवेश को ऐसी गतिविधियों की ओर निर्दिष्ट करें जहां सामाजिक लाभ निजी लाभ से अधिक हो ।

3. मौद्रिक एवं राजकोषीय नियन्त्रण की विधियां अति मन्द (Methods of Monetary and Fiscal Control are Too Mild):

मौद्रिक एवं राजकोषीय नियन्त्रण के उपकरण इतने दुर्बल हैं कि अर्थव्यवस्था में वांछित परिवर्तन नहीं ला पाते विशेषतया पिछड़े देशों में जहां उनकी समस्याएं सुविकसित देशों की समस्याओं से पूर्णतया भिन्न होती हैं ।

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