बोएके की सामाजिक द्वैतवाद की सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about:- 1. बूके का सामाजिक द्वैतता विश्लेषण (Boeke’s Social Dualism) 2. द्वैत अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Dualistic Society) 3. आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation).

सामान्यत: अर्द्धविकसित देशों में द्वैत आर्थिक संरचना की प्रवृति विद्यमान होती है । इससे अभिप्राय है एक ओर परम्परागत प्राथमिक अर्थव्यवस्था एवं दूसरी ओर एक सापेक्षिक रूप से आधुनिक मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विद्यमान होना ।

अर्द्धविकसित देशों हेतु निर्दिष्ट की जाने वाली वृद्धि की व्यूह रचना को निर्धारित करते हुए अर्थव्यवस्था की द्वैत संरचना पर ध्यान देना आवश्यक बन जाता है । इस हेतु द्वैतता की आधारभूत प्रवृतियों, इसके कारण एवं प्रभावों का सम्यक विवेचन आवश्यक है ।

विश्व के कई भागों में अर्द्धविकास के उत्तरदायी घटकों का विवेचन करते हुए समाजविज्ञानियों ने सांस्कृतिक, सामाजिक एवं जलवायु दशाओं का उल्लेख किया है । एल्सवर्थ हंटिगटन की मान्यता थी कि आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्रियाओं की दृष्टि से उष्ण प्रदेश के निवासी समशीतोष्ण प्रदेश के निवासियों से निकृष्ट होते है ।

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जे.एच.बूके का मत था कि कम विकसित देशों में व्यक्ति कार्य के प्रति आर्थिक रूप से जुड़े नहीं होते तथा सामान्य मौद्रिक प्रेरणाओं का प्रत्युत्तर नहीं देते । इसके परिणामस्वरूप कई अर्द्धविकसित देशों में द्वैत अर्थव्यवस्था की प्रणाली के दर्शन होते है । जैसे कि एक लघु, कुशलतापूर्वक कार्य करने वाला आधुनिक क्षेत्र जो विदेशियों के द्वारा संचालित होता है । यह क्षेत्र परम्परागत अर्थव्यवस्था के साथ ही विद्यमान होता है पर उससे अर्न्तसम्बन्ध नहीं रखता ।

प्रो. एच. मिन्ट के अनुसार द्वैत अर्थव्यवस्थाएँ एवं विकास के अभाव का मुख्य कारण है विदेशी हस्तक्षेप एवं शोषण, न कि अर्थव्यवस्था के मूल निवासियों की अक्षमता । साम्राज्यवाद एवं औपनिवेशिक शोषण से तृस्त जनसंख्या अपनी परम्परागत जीवन पद्धति के अनुसार अपने खेत, अपनी कृषि एवं अपने रहन-सहन के तौर-तरीकों से सन्तुष्ट होते हैं ।

वह अधिक कार्य केवल उसी दशा में करते है जब उन्हें आकस्मिक रूप से अधिक धन की आवश्यकता पड़े (जैसे- दहेज के लिए या सरकारी लगान चुकाने के लिए इस परम्परागत क्षेत्र के निवासियों को काम देने वाले नियोक्ता यह बात भली-भाँति जानते हैं कि इन परिस्थितियों में मजदूरी की दर में कमी कार्य के घण्टों में वृद्धि करेगा, क्योंकि व्यक्ति एक निम्न मजदूरी की दर पर अधिक समय तक कार्य कर अपने इच्छित लक्ष्य की पूर्ति कर सकते हैं । कम मजदूरी देने का यह रिवाज दास जनसंख्या को हतोत्साहित करता है एवं उन्हें प्रशिक्षण एवं अपनी स्वयं की अर्थव्यवस्था के विकसित होने में कोई जोखिम लेने का सन्देश नहीं देता ।

संक्षेप में, अर्थव्यवस्था में दिखायी देने वाली द्वैतता आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है । द्वैतता के मुख्य दो स्वरूप हैं- सामाजिक द्वैतता एवं तकनीकी द्वैतता । सामाजिक द्वैतता के विश्लेषण को डच अर्थशास्त्री जे.एच.बूके ने अर्थव्यवस्था के दो भागों के मध्य सामाजिक संगठनों की भिन्नता एवं संस्कृतिक अन्तरालों के द्वारा स्पष्ट किया ।

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तकनीकी घटकों के आधार पर प्रो. बेंजामिन हिगिन्स ने तकनीकी द्वैतता की व्याख्या की । डब्ल्यू. आर्थर लेविस ने एक द्वैत अर्थव्यवस्था में अन्तर्क्षेत्रीय सम्बन्धों की व्याख्या प्रस्तुत की । लेविस ने मुख्य रूप से यह स्पष्ट किया कि अतिरेक श्रम के रूप में संसाधनों को किस प्रकार जीवन निर्वाह क्षेत्र में पूँजीवादी क्षेत्र की ओर प्रवाहित किया जाये । इनके अतिरिक्त एच. डब्ल्यू. सिंगर जोन सी. एच.फाई. एवं गुस्ताव रानीस के द्वारा द्वैतता सम्बन्धी विश्लेषण दिये गये ।

बूके का सामाजिक द्वैतता विश्लेषण (Boeke’s Social Dualism):

डच अर्थशास्त्री जे.एच.बूके ने 1953 में अपनी पुस्तक Economics and Economic Policy of Dual Societies एवं मई 1953 में प्रकाशित अपने लेख Western Influence on the Growth of Eastern Population में अर्द्धविकसित देशों की विकास समस्याओं एवं विकास प्रक्रिया में उनके प्रभाव का विश्लेषण करते हुए सामाजिक द्वैतता का विश्लेषण प्रस्तुत किया ।

बूके का विश्लेषण इण्डोनेशिया में विकासप्रयासों के अवलोकन पर आधारित था । बूके ने अर्द्धविकसित देशों में सामाजिक संगठनों एवं सामाजिक प्रवृतियों के अर्न्तविरोध को रेखांकित किया ।

बूके के अनुसार किसी भी समाज को आर्थिक सन्दर्भों में तीन विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है:

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(i) सामाजिक प्रवृति ।

(ii) संगठनात्मक स्वरूप ।

(iii) प्रभावी तकनीक ।

उपर्युक्त आधारभूत विशेषताओं के स्वरूप सीमा एवं इनके मध्य के अर्न्तसम्बन्ध द्वारा एक दी हुई सामाजिक प्रणाली की किस्म या रूप का निर्धारण होता है । एक समाज एक रूप तब कहलाता है जब उसमें एक जैसी सामाजिक व्यवस्था विद्यमान हो ।

वस्तुत: एक समाप्त में दो या दो से अधिक सामाजिक प्रणालियों का सह-अस्तित्व पाया जाता है । इनमें से प्रत्येक प्रणाली दूसरों के सापेक्ष चित्र होती है । इसे द्वैत समाज कहा जाता है । बूके के अनुसार द्वैतता विघटन का ऐसा स्वरूप है जो पूँजीवाद से पूर्व के देशों में पूँजीवाद के प्रवेश से अस्तित्व में आती है ।

बूके ने सामाजिक द्वैतता की निम्न परिभाषा दी- “सामाजिक द्वैतता एक आयातित सामाजिक प्रणाली के साथ निम्न प्रकार की घरेलू सामाजिक प्रणाली का संघर्ष है । अधिकांशत: आयातित सामाजिक प्रणाली ? पूंजीवाद है लेकिन यह समाजवाद या साम्यवाद या इन दोनों का मिश्रण भी हो सकता है ।”

घरेलू सामाजिक प्रणाली को बूके ने पूर्वी या पूर्व-पूँजीवादी क्षेत्र एवं आयातित प्रणाली के मध्य एक संघर्ष विद्यमान रहता है । बूके के अनुसार पूर्वी एवं द्वैतता शब्द समानार्थी हैं । इसका कारण यह है कि पूर्वी भूमि एक द्वैत समाज की सभी विशेषताओं को सूचित करता है ।

यह पूँजीवाद से पूर्व प्रवृतियाँ प्रदर्शित करने के साथ-साथ पश्चिम से भी सम्बन्ध रखता है । पश्चिम के द्वारा पूर्व की भूमि पर कब्जा भले ही कर लिया हो लेकिन सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से इनमें मेल-मिलाप नहीं हो पाता । इस प्रकार पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही भिन्न प्रकार की संस्कृति का प्रदर्शन करते है । इनका वैचारिक दर्शन एवं संस्कृति आपस में सम्मिश्रित न होकर द्वन्द्व की स्थितियों को उत्पन्न करता है ।

बूके का सिद्धान्त – नीतिगम विश्लेषण:

बूके का द्वैत विकास विश्लेषण एक निराशावादी दृष्टिकोण को सामने रखता है । उन्होंने पूर्व की अर्थव्यवस्थाओं के विकास की कोई आशा व्यक्त नहीं की बल्कि यह विचार अभिव्यक्त किया कि पश्चिमी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र को अकेला छोड़ दे । सामाजिक द्वैतता के कारण उन्होंने एक देश के लिए एक नीति की उपयुक्तता पर सन्देह व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया कि समाज के एक वर्ग के लिए जो नीति लाभप्रद हो सकती है वही दूसरे वर्ग के लिए हानिकारक भी हो सकती है ।

अत: द्वैतता के तथ्य को ध्यान में रखते हुए बूके ने दो नीतिगत निष्कर्ष दिए:

पहला यह कि एक नियम के अनुसार पूरे देश के लिए एक समान नीति सम्भव नहीं है तथा दूसरा यह कि समाज के एक वर्ग के लिए जो लाभप्रद है वह अन्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है ।

बूके ने स्पष्ट किया कि द्वैत अर्थव्यवस्थाओं में पूर्व पूँजीवादी कृषि का सुधार जब पश्चिमी तरीके से करने का प्रयास किया जाता है तब यह प्रतिरोध ही उत्पन्न करता है । जब तक कृषकों का मानसिक दृष्टिकोण मूलत: नहीं बदलता तब तक पूर्वी क्षेत्र की कृषि को पश्चिमी ढंग से परिष्कृत करना सम्भव नहीं बनता ।

बूके का यह अनुभव था कि पूर्वी समाज में ग्रामीण समुदाय की संस्कृति पूर्णत: उनके पर्यावरण एवं अपनायी जा रही कृषि विधियों के अनुरूप होती है । इसी कारण उनके परिवेश की दृष्टि से यह अनुकूल भी होता है । अत: वह पश्चिम की नयी कृषि तकनीकों को अपनाने की कुशलता नहीं रखते ।

यदि कृषि तकनीकों के आधुनिकीकरण से पूर्वी क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ भी जाती है तो इससे प्राप्त बड़ी हुई सम्पत्ति जनसंख्या में तेजी से वृद्धि करती है । यदि आधुनिक कृषि तकनीक असफल रही है तो इसके परिणामस्वरूप उनकी ऋणग्रस्तता बढ़ती है । निष्कर्ष रूप में बूके का कथन था कि इन देशों की विद्यमान कृषि प्रणाली के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए ।

पूर्वी एवं पश्चिमी समाज में कृषि खनन यातायात एवं साख का संगठन भिन्नता लिए हुए होता है । वस्तुत: पश्चिमी समाज में पाया जाने वाला उच्च पूँजीवादी स्वरूप पूर्वी समाज में इस कारण विकसित नहीं हो पाता कि पूर्वी क्षेत्र में मध्यवर्ग पूर्ण रूप से अनुपस्थित होता है ।

औद्योगिक क्षेत्र में भी पश्चिमी क्षेत्रों की तकनीकी प्रगति का अनुसरण कर पाना पूर्वी क्षेत्र हेतु सम्भव नहीं है । यदि पश्चिम में प्रचलित उत्पादन के तरीकों को अपनाया गया तो इसके परिणामस्वरूप पूर्वी एवं पश्चिमी क्षेत्र के मध्य प्रतिस्पर्द्धा तेजी से बढ़ जाएगी ।

बेरोजगारी की समस्याओं का विवेचन करते हुए भी बूके अपनी निराशाजनक मनोवृतियों का प्रदर्शन करते हैं । उन्होंने बेरोजगारी के पाँच प्रकार स्पष्ट किये-मौसमी बेकारी, श्रमिकों में पायी जाने वाली आकस्मिक बेकारी, नियमित श्रमिकों में पायी जाने वाली बेकारी, शहरी सफेदपोश श्रमिकों की बेकारी एवं यूरेशियनों के मध्य पायी जाने वाली बेकारी ।

बूके का यह विचार था कि बेरोजगारी सुलझाने में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती, क्योंकि बेरोजगारी दूर करने वाले कार्यक्रमों में उसे काफी अधिक वित्त व्यय करना पड़ता है तथा सरकार इस वित्तीय भार को वहन करने में असमर्थ होती है ।

बूके के नीति सम्मन्धी निष्कर्ष आशावादी प्रवृत्तियों को नहीं करते । वह एक छोटे स्तर पर धीमी गति से होने वाले औद्योगीकरण का समर्थन करते है जो अर्थव्यवस्था के अपनाने योग्य हों । बूके के अनुसार द्वैत अर्थव्यवस्था में कृषि विकास भी नियमित व धीमी गति से होता है । उनका यह भी मत था कि विकास प्रक्रिया की सारी जिम्मेदारी उस राष्ट्र के निवासियों की होती है । नए नेताओं के विश्वास, कार्य सक्षमता एवं कुशलता द्वारा ही आर्थिक प्रगति का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन परिवर्तन की गति अति मन्द होती है ।

द्वैत अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Dualistic Society):

बूके के अनुसार पूर्वी या पश्चिमी या दो भिन्न सामाजिक प्रणालियों में मूलभूत विभिन्नताएँ होती हैं ।

इन विभिन्नताओं के द्वारा द्वैत अर्थव्यवस्था की विशिष्टताएँ निम्न प्रकार स्पष्ट की जा सकती हैं:

(i) सीमित आवश्यकताएँ:

द्वैत अर्थव्यवस्था पूर्वी अथवा पूँजीवाद से पूर्व के घरेलू क्षेत्र की सीमित आवश्यकताओं की दशा को सूचित करता है । इसके साथ ही विनिमय प्रणाली का सीमित विकास होता है । अधिकांश व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर लेते हैं । विभिन्न परिवार अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं से सन्तुष्ट हो जाते हैं ।

अत: आवश्यकताएँ मात्रा एवं गुण की दृष्टि से अत्यन्त सीमित होती हैं । सीमित मानवीय आवश्यकताओं के कारण पूर्वी समाज में अधिक उत्पादन के प्रति प्रेरणाओं का या तो अभाव दिखायी देता है अथवा यह अत्यन्त सीमित व दुर्बल होती हैं । अत: आर्थिक क्रियाओं का एक न्यून स्तर विद्यमान होता है । व्यक्तियों पर कीमत एवं बाजार गतिविधियों का प्रभाव नहीं पड़ता तथा उनकी मौद्रिक आवश्यकताएँ अत्यन्त न्यून होती हैं ।

दूसरी ओर अर्थव्यवस्था के पश्चिमी या पूँजीवादी क्षेत्र में व्यक्तियों की आवश्यकताएँ असीमित होती है । आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के उपरान्त भी उनकी इच्छाएँ समाप्त नहीं होतीं । इच्छाएँ लगातार बढ़ती रहती हैं तथा प्रदर्शन प्रभाव से प्रेरित होती रहती है ।

(ii) सामाजिक आवश्यकताओं की महत्ता:

बूके के अनुसार पश्चिमी क्षेत्र की तुलना में द्वैत अर्थव्यवस्था सामाजिक आवश्यकताओं की सापेक्षिक रूप से अधिक महत्ता को प्रदर्शित करता है । पूर्वी समाज आर्थिक आवश्यकताओं की तुलना में सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि को अधिक महत्व देता है । पूर्वी क्षेत्र में वस्तुओं को उनके उपयोग के मूल्य के आधार पर नहीं वरन् प्रतिष्ठा मूल्य के आधार पर आका जाता है । इस कारण वह आर्थिक आवश्यकताओं की तुलना में सामाजिक आवश्यकताओं से अधिक प्रभावित होती है ।

(iii) प्रयास एवं जोखिम क्षमता:

आवश्यकताओं की सीमितता के कारण पूर्वी क्षेत्र में प्रयास एवं जोखिम क्षमता के अधोगामी ढ़ाल वाले पूर्ति वक्र दिखायी देते है । व्यक्ति अपनी अधारभूत आवश्यकताओं के पूर्ण हो जाने के पश्चात् अतिरिक्त प्रयास नहीं करना चाहते । एक बार जब वह अपनी आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लायक क्या होते हैं तो इसके पश्चात् और कुछ करने की उनकी स्वाभाविक इच्छा नहीं होती ।

पश्चिमी क्षेत्र में प्रयास एवं जोखिम क्षमता का सामान्य ऊधर्वमुखी ढाल वाला पूर्ति वक्र पाया जाता है । इसका कारण यह है कि वह अपने जीवन-स्तर में लगातार सुधार करना चाहते है । उन्हें अपनी बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अतिरिक्त आय प्राप्त करने की इच्छा रहती है ।

(iv) आत्मनिर्भरता:

पूर्वी समाज में परिवार एक इकाई है तथा व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता मुख्य विचार है । व्यक्ति आसानी के साथ उत्पादन को संगठित करने या सामूहिक विनियोग के लिए प्रेरित नहीं होते । उत्पादन का मुख्य लक्ष्य प्राथमिक रूप से व्यक्तिगत आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना है न कि लाभ प्राप्त करना ।

(v) लाभ उद्देश्य की अनुपस्थिति:

पूर्वी क्षेत्र में लाभ उद्देश्य की अनुपस्थिति दिखायी देती है । सट्‌टे से प्राप्त होने वाले लाभ इस क्षेत्र को अवश्य आकर्षित करते है परन्तु यह लाभ उस नियमितता व निरन्तरता के अभाव को सूचित करता है जो आय के विचार में समाहित है ।

(vi) असंगठित एवं अकुशल श्रम:

पूर्वी क्षेत्र में श्रम असंगठित एवं अकुशल होता है । उनमें कुशलता प्राप्त करने की ललक विद्यमान नहीं होती । श्रम में गतिशीलता का अभाव होता है । व्यक्ति अपने ग्रामीण परिवेश से बाहर नहीं जाना चाहते । प्रवास अनुपस्थित होता है श्रम की अगतिशीलता के कारण मजदूरी की दरों में भारी विभिन्नता देखी जाती है ।

(vii) कृषि क्षेत्र की प्रधानता:

पूर्वी समाज में कृषि जीवन का आधार है । कृषि अनुत्पादक, कम पारिश्रमिक प्रदान करने वाली, परम्परागत तकनीक तक आधारित एव पूँजी का न्यून प्रयोग करने वाली होती है ।

(viii) निर्यातों पर निर्भरता:

पूर्वी क्षेत्र के विदेश व्यापार में निर्यात एक मुख्य उद्देश्य होता है, जबकि पश्चिमी क्षेत्र में निर्यात इस कारण किए जाते है कि इनकी सहायता से आयात सम्भव हो सकते हैं ।

उपर्युक्त घटकों के अतिरिक्त पूर्वी क्षेत्र में विनियोग की प्रवृतियों का अभाव होता है । यह क्षेत्र प्रेरणा, अनुशासन एवं संगठनात्मक क्षमताओं की कमी को सूचित करता है । यह क्षेत्र असंगठित एवं अकुशल होता है । बूके के अनुसार द्वैत अर्थव्यवस्था में शहरी विकास ग्रामीण जीवन की कीमत पर फलता-फूलता है । जैसे-जैसे शहरीकरण होता जाता है, ग्रामीण जनसंख्या एवं आय में कमी होती जाती है । पूर्वी समाज भाग्यवाद एवं त्याग की भावना पर आधारित होता है, जबकि पश्चिमी समाज विवेकशीलता एवं सामान्य ज्ञान का आश्रय लेता है ।

स्पष्ट है कि बूके के अनुसार पूर्वी क्षेत्र एवं पश्चिमी क्षेत्र के मध्य भारी विभिन्नताएं विद्यमान होती है जिनके कारक पश्चिमी आर्थिक विश्लेषण पूर्व की अल्प विकसित अर्थव्यवस्था में क्रियान्वित नहीं होते । बूके ने निष्कर्ष दिया कि- “हमें यह प्रयास नहीं करना होगा कि हम पश्चिमी सिद्धान्त के कोमल पौधों को उष्ण कटिबन्धीय भूमि में लगाएँ, क्योंकि वहाँ मृत्यु उनकी प्रतीक्षा कर रही है” ।

द्वैत अर्थव्यवस्था की आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of Dualistic Society):

बूके का सामाजिक द्वैतता सिद्धान्त अर्द्धविकसित देशों की संरचनात्मक दुर्बलताओं को रेखांकित करता है । इन देशों में पिछड़ा घरेलू क्षेत्र एक उन्नत विनिमय क्षेत्र के साथ विद्यमान होता है । बूके ने समाज की प्रकृति पर सबसे अधिक ध्यान दिया और उनके विश्लेषण की दुर्बलताएँ इसी पक्ष से सम्बन्धित है । इसका कारण यह है कि उन्होंने अर्द्धविकसित देशों की समाजिक, आर्थिक एवं तकनीकी प्रवृतियों को कुछ विशिष्ट परिस्थितियों के ही सन्दर्भ में देखा ।

वर्ष 1900 से 1930 की अवधि में नीदरलैण्ड सरकार द्वारा इण्डोनेशिया के निवासियों का जीवन-स्तर सुधारने हेतु एक विशेष कार्यक्रम Ethical Policy चलाया गया था । खे को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गयी जो प्रशासनिक सेवा के कुशल अधिकारी थे । यह कार्यक्रम हर दृष्टि से असफल रहा जिसके परिणामस्वरूप बूके का चिन्तन निराशावादी हो गया ।

प्रो. बेंजामिन हिगिन्स ने अपनी पुस्तक Economic Development, Principles Problems and Policies (1961) में बूके के सामाजिक द्वैतता सिद्धान्त की आलोचना निम्न आधारों पर की:

(i) इच्छाएं सीमित नहीं:

हीगिन्स के अनुसार यह तर्क गलत है कि अर्द्धविकसित देशों में स्थिर या स्थैतिक इच्छाएँ होती हैं । प्रो. हिगिन्स के अनुसार अर्द्धविकसित देशों में उपभोग की सीमान्त प्रकृति एवं आयात अधिक होते हैं । वस्तुत: व्यक्ति भले ही शहरी क्षेत्र में निवास कर रहे ही या ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी आवश्यकता विविध एवं काफी होती है । इन देशों में निर्यात के फलस्वरूप जैसे ही अधिक आय प्राप्त होती है वह इन्हें आयातित अर्द्धविलासिता की वस्तुओं पर व्यय कर देते है । यह प्रवृति इण्डोनेशिया में भी पायी गयी जहाँ सरकार ने आयातों पर रोक लगाने के लिए आयात नियन्त्रण की नीति लाग की ।

(ii) पूर्वी श्रमिक असंगठित एवं गतिहीन नहीं:

बूके पूर्वी श्रमिक को असंगठित, निष्क्रिय, शान्त व आकस्मिक मानकर चलते हैं जो व्यावहारिक नहीं । अनुभव सिद्ध अवलोकन से स्पष्ट होता है कि अर्द्धविकसित देशों में भी श्रम संघों की क्रियाएँ अधिकाधिक बढ़ती गयी हैं, विशेष रूप से व्यापक स्तरीय प्राथमिक उत्पादन जैसे रबर व चाय बागानों में श्रमिक संघ अधिक सुदृढ़ बने हैं ।

इसी प्रकार बूके का यह मानना कि पूर्वी क्षेत्र के निवासियों में पैतृक रूप से अगतिशील रहने की प्रवृति होती है सत्य नहीं । वस्तुत: शहरी क्षेत्र में सिनेमा, दुकान, पुस्तकालय एवं अन्य सुविधाओं से ग्रामीण क्षेत्र के निवासी आकृष्ट होते है । ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाओं की कमी व बढ़ती हुई बेरोजगारी के कारण गांवों से शहरों की ओर ग्रामीण जनता का प्रवास क्रम भी जारी रहता है ।

(iii) द्वैतता विकसित अर्थव्यवस्था में भी:

बूके के अनुसार- पूर्वी अर्थव्यवस्था के साथ अफ्रीका व लेटिन अमेरिकी देशों में सामाजिक द्वैतता विद्यमान होती है, लेकिन यह सत्य नहीं है । कनाडा, इटली व संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों के भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ सामाजिक द्वैतता पायी जाती है एवं जहाँ आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण का स्तर अत्यन्त अल्प है ।

(iv) द्वैत अर्थव्यवस्था विकसित समाज में भी लागू:

बूके द्वारा पूर्वी समाज की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया गया वह बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार पश्चिमी समाज में भी लागू होती हैं । बूके के अनुसार पूर्वी समाज में उत्पादक उपक्रमों में दीर्घकालीन विनियोग की अपेक्षा सहाजनित लाभों को प्राप्त करने की ललक पायी गयी । ठीक इसी प्रकार पूँजी का विनियोग न करने एवं जोखिम न उठाने की प्रवृति अर्द्धविकसित देशों में ही नहीं बल्कि पश्चिम के विकसित समाज में भी देखी गई ।

बूके ने यह भी कहा कि पूर्वी क्षेत्र वस्तुओं के प्रयोग मूल्य की अपेक्षा उनसे प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा के कारण उपभोग करते हैं पर यही बात विकसित देशों में भी सत्य पायी जाती है । इसी प्रकार प्रयास एवं जोखिम का अधोगामी पूर्ति वक्र केवल पूर्वी क्षेत्र के लिए ही नहीं बल्कि आस्ट्रेलिया में प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध की अवधि एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में 1950 के दशक में देखा गया था । बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार यह अधोगामी हाल वाला पूर्ति वक्र ऐसे किसी भी समाव में पाया जा सकता है जो लम्बे समय तक जड़ रहा हो या जहाँ विकास की गति मन्द पड़ गयी हो ।

बूके का कथन कि पूर्वी क्षेत्र में निर्यात एक महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है, विकसित पश्चिमी क्षेत्र हेतु भी प्रासंगिक है जहाँ यह आयातों को सम्भव करने वाला एकमात्र उपाय है । इसका कारण यह है कि विकसित देश संरक्षण की नीतियों को अधिक अपना रहे है ।

(v) एक सिद्धान्त नहीं बल्कि विवरण मात्र:

चूके अर्द्धविकसित देशों के लिए एक भिन्न सिद्धान्त प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे । उनका द्वैतता पर आधारित विश्लेषण पूर्वी समाज का विवरण मात्र है । बूके का यह सोचना कि पश्चिमी आर्थिक विश्लेषण पूर्व के समाज में लागू नहीं होता मुख्यत: नवप्रतिष्ठित सिद्धान्त से प्रभावित है जो पश्चिमी समाज हेतु भी व्यावहारिक बन नहीं पाया है ।

(vi) पश्चिमी आर्थिक विश्लेषण के उपकरणों का प्रयोग पूर्वी समाज में:

पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त के कई उपकरण पूर्वी समाज की समस्याओं के समाधान हेतु उपयोगी बनते है, जैसे कि भुगतान सन्तुलन की समस्याओं को मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों के द्वारा सुलझाया जाना । प्रोत बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार यदि उचित संस्थागत मान्यताओं के आधार पर विश्लेषण के प्रचलित उपकरण अर्द्धविकास की समस्याओं का हल निकाल सकते हैं ।

(vii) बेरोजगारी की समस्या के समाधान में सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण:

बूके ने बेरोजगारी के समाधान हेतु सरकार की भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं माना । वास्तविकता तो यह कि बेरोजगारी को दूर करने के लिए सरकार द्वारा विविध कार्यक्रम प्रत्येक अर्द्धविकसित देश में अपनाए गए है ।

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि बूके ने द्वैतता विश्लेषण में आर्थिक पक्षों के सापेक्ष सामाजिक सांस्कृतिक पक्षों को अधिक महत्व दिया । उन्होंने मुख्यत: द्वैतता के सामाजिक पक्ष को ध्यान में रखा, जबकि इसका अधिक स्पष्ट विवेचन आर्थिक एवं तकनीकी सन्दर्भों में सम्भव है ।