गर्सचेकॉन की आर्थिक विकास की सिद्धांत – पिछड़ापन मॉडल | Read this article in Hindi to learn about:- 1. गरशेनक्रौन की छह संकल्पनाएँ (Grenschenkron’s Six Proportions) 2. गरशेनक्रौन की व्याख्या-औद्योगीकरण की अवस्थाएँ (Explanation of Gershenkron – Stages of Industrialisation) 3. की भूमिका (Role of State) 4. परीक्षण (Test).

गरशेनक्रौन की छह संकल्पनाएँ (Grenschenkron’s Six Proportions):

गरशेनक्रौन ने आर्थिक विकास की प्रतिकृति से सम्बन्धित विश्लेषण में इस महत्वपूर्ण पक्ष की ओर ध्यान आकर्षित किया कि विभिन्न देशों के वृद्धि अनुभव कुछ न कुछ भिन्नताएँ रखते है व एक समान प्रवृति से हटकर क्रमिक विचलनों का प्रदर्शन करते हैं ।

उनके द्वारा प्रस्तुत परिकल्पना यह है कि एक देश में होने वाली वृद्धि सामान्य दिशा से हटकर कुछ भिन्न दिशाओं के अधीन संचालित होती है और यह निर्भर करता है देश के आर्थिक पिछड़ेपन के अंश पर ।

यूरोपीय देशों के आर्थिक इतिहास के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर गरशेनक्रौन ने पाया कि उनका औद्योगीकरण आर्थिक पिछडेपन के भिन्न-भिन्न स्तरों से प्रारम्भ हुआ ।

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पहली संकल्पना:

एक देश में औद्योगीकरण का आरम्भ झटके के साथ अनियमित रूप से होना सम्भव है । जब विनिर्माण उत्पादन सापेक्षिक रूप से उच्च वृद्धि की दरें प्रदर्शित करें । यह प्रवृति तब देखी जाती है जब देश में आर्थिक पिछड़ेपन का अंश सापेक्षिक रूप से उच्च हो ।

दूसरी संकल्पना:

औद्योगीकरण का झुकाव बड़े पैमाने के प्लाण्ट व बड़े उपक्रमों के प्रमि समर्थन का हो जब देश में उद्योग काफी पिछडी दशा में ही ।

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तीसरी संकल्पना:

उपभोक्ता वस्तुओं के सापेक्ष उत्पादक वस्तुओं को अधिक वरीयता दी जाये । एक देश अपने औद्योगीकरण के आरम्भ में जितना अधिक पिछड़ा होगा उत्पादक वस्तुओं के उत्पादन की वरीयता भी उतनी ही अधिक होगी ।

चौथी संकल्पना:

औद्योगीकरण की प्रक्रिया में उपभोग के स्तरों पर दबाव बनते है तथा जनसंख्या को विविध आर्थिक संकटों के रहते त्याग करने पडते हैं । यह दबाव एवं त्याग जीतने अधिक होते हैं उतना ही अधिक पिछड़ेपन का अंश उस अर्थव्यवस्था के विकास के आरम्भिक चरणों में होता है ।

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पाँचवीं संकल्पना:

नवीन रूप से सृजित होते उद्योगों में लगने वाली संस्थागत पूँजी की जितनी अधिक महत्ता होती है तथा जितना अधिक केन्द्रीयकरण का अंश होता है, वह देश औद्योगीकरण के प्रारम्भ में उतना ही अधिक पिछडा होता है ।

छठी संकल्पना:

औद्योगीकरण की प्रक्रिया में कृषि का योगदान औद्योगिक वस्तुओं को एक विस्तृत बाजार प्रदान करने की दृष्टि से काफी अल्प होता है । कृषि का अंश जितना न्यून होता है देश की सापेक्षिक आर्थिक पिछडेपन की दशा उतनी ही गम्भीर होती है ?

गरशेनक्रौन की व्याख्या-औद्योगीकरण की अवस्थाएँ (Explanation of Gershenkron – Stages of Industrialisation):

पिछड़ेपन के बढ़ते हुए अंश के मापक द्वारा गरशेनक्रौन ने यूरोपीय देशों को तीन वर्गों में विभाजित किया:

(1) उन्नत देश (2) पिछड़े देश एवं (3) अति पिछड़े देश । उन्होंने बताया कि औद्योगीकरण की प्रक्रिया सतत् एवं नियमित प्रकृति की न होकर असतत् प्रकृति की होती है और इसे विभिन्न अवस्थाओं के द्वारा प्रकट किया जा सकता है ।

अनुभव सिद्ध अवलोकन के द्वारा उन्होंने ‘आवश्यक पूर्वदशाओं’ की धारणा प्रस्तुत की जिसके दो पक्ष महत्वपूर्ण हैं:

1. इंग्लैण्ड के औद्योगीकरण में जो घटक जो पूर्वदशाओं के रूप में देखे गये वह अन्य कम विकसित यूरोपीय देशों में या तो अनुपस्थित थे या काफी अल्प अंश में ही उपस्थित थे ।

2. जहां ऐसी पूर्व दशाएँ उपस्थित नहीं थीं, वहाँ औद्योगिक विकास अचानक व तेजी के साथ प्रस्फुटित हुआ ।

गरशेनक्रौन का मत था कि विभिन्न दशाओं के अधीन हो रहे औद्योगीकरण के लिए आवश्यक पूर्व दशाओं की उपस्थिति आवश्यक नहीं । यदि यह पूर्व दशाएँ आवश्यक हों पर उपलब्ध न हों तब इनका प्रतिस्थापन अन्य के द्वारा किया जा सकता है ।

उदाहरण के लिए उन्नत देशों में औद्योगीकरण हेतु प्रारम्भ में जो फैक्ट्रियाँ स्थापित की गई उन्हें पहले से संचालित सम्पत्ति या सतत् रूप से प्राप्त होने वाले लाभों से पूंजी प्रदान की गई । कम विकसित देशों में सरकार एवं बैंकों द्वारा सम्पन्न क्रियायें औद्योगीकरण की दशाएँ उत्पन्न करने हेतु सफल प्रयास के रूप में सामने आई, जबकि इन्हें पूर्व-औद्योगिक समयों में इसलिए उत्पन्न नहीं किया जा सका, क्योंकि यह देश आर्थिक रूप से पिछडे थे ।

इस तर्क के आधार पर यह सुझाव दिया गया कि ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि औद्योगीकरण सम्भावित रूप से कुछ आवश्यक पूर्व दशाओं के उत्पन्न होने पर निर्भर हो । किसी भी पूर्व दशा में ऐसी कोई समानता या अनुरूपता नहीं होती । वास्तव में एक पूर्व दशा को उचित उपायों के द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है ।

उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड में उभर रहे नये उद्योगों के लिए पूंजी का प्रवाह में संचित सम्पत्ति या लाभ प्राप्त होने की नियमित प्रक्रिया के द्वारा सम्भव हुआ । परन्तु ऐसे देश जहाँ औद्योगीकरण हेतु ऐसी दशा विद्यमान न थी, ने वित्तीय संस्थाओं के सक्रिय योगदान से प्रक्रिया को आरम्भ किया ।

इस उदाहरण से यह स्पष्ट किया जा सकता है कि एक अप्राप्य पूर्व दशा को अन्य उचित उपायों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है । प्रश्न यह है कि यह प्रतिस्थापन कैसे हो तथा किस प्रकार का हो ? उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि देश में औद्योगीकरण आरम्भ होने के समय पिछड़ेपन का अंश क्या था ।

गरशेनक्रौन ने एक अन्य सामान्य संकल्पना को भी ध्यान में रखा । एक देश अपने औद्योगीकरण के प्रारम्भ में जितना अधिक पिछड़ा होगा, देश में औद्योगीकरण की प्रक्रिया उतनी ही अधिक समृद्ध एवं जटिल होगी ।

देश के सापेक्षिक पिछड़ेपन के अंश पर औद्योगीकरण की पूँजी गहनता की निर्भरता (Dependence of the Capital Intensity of Industrialisation on the Countries Degree of Relative Backwardness):

गरशेनक्रौन की संकल्पना इस भावना से प्रभावित है कि औद्योगीकरण का मुख्य निर्धारक सापेक्षिक पिछडेपन का वह अंश है जो औद्योगीकरण की प्रक्रिया के आरम्भ होते समय उस देश में विद्यमान होता है । यदि पिछड़ेपन का अंश सापेक्षिक रूप से अधिक है तब प्रक्रिया अधिक अनियमितताओं को प्रदर्शित करेगी ।

सापेक्षिक पिछड़ेपन का अधिक होना तकनीकी अंतरालों को भी अधिक करेगा । यह तकनीकी अन्तराल उस देश के सापेक्ष विकसित देशों की उत्पादन तकनीकों के मध्य विद्यमान होंगे । गरशेनक्रौन का मत था कि एक देश जो तीव्र औद्योगिक विकास चाहता है वह विकसित देशों द्वारा परखी गई उन्नत तकनीक को अपनाना चाहेगा ।

इसके दो कारण है:

1. विदेशी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना । विदेशी आयातों को प्रतिस्थापित करने का प्रभावी उपाय यही है कि देश घरेलू क्षमता में वृद्धि करें । वस्तु कम लागत पर उत्पादित की जा सकें व वस्तु की गुणवत्ता वस्तु के सापेक्ष कम न हो । इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्नत तकनीकों को अपनाना एक मात्र उपाय है ।

2. पिछडे देशों में कुशल प्रशिक्षित व फैक्ट्री अनुशासित श्रमिक का अभाव होता है अतः ऐसे देश पूँजी-गहन व श्रम बचत उपायों को अपनाते हैं । गरशेनक्रौन की यह सोच आर्थर लेविस के अतिरेक श्रम मॉडल की मान्यता के विपरीत है जहाँ औद्योगीकरण की प्रक्रिया में अकुशल श्रम को मुख्य सहारा माना गया है ।

यह देखा जाता है कि एक देश में सापेक्षिक पिछडेपन का अधिक विस्तार उस देश के औद्योगीकरण की प्रक्रिया के आरम्भ में कठिनाई उत्पन्न करता है परन्तु एक बार जब यह शुरू हो जाती है तो तीव्रता से बढती है तथा उन देशों को पीछे छोड देती है जिनकी दशा प्रारम्भिक अवस्था में सापेक्षिक रूप से बेहतर थी ।

इस प्रकार अन्य देशों की तुलना में अधिक अनियमितताओं का प्रदर्शन करती हैं । सार रूप में गरशेनक्रौन के मॉडल में औद्योगीकरण की पूंजी गहनता का अंश देश के सापेक्षिक पिछडेपन के अंश पर निर्भर करता है ।

गरशेनक्रौन की व्याख्या में राज्य की भूमिका (Role of State in Gershenkron’s Explanation):

गरशेनक्रौन के अनुसार औद्योगीकरण की प्रक्रिया में देश के सापेक्षिक पिछड़ापन का अंश जितना अधिक होगा, औद्योगिक विकास को प्रभावित करने में राज्य की भूमिका उतनी ही अधिक महत्वपूर्ण व प्रभावी होगी ।

इसके दो मुख्य कारण है:

1. औद्योगिक विकास के आरम्भिक स्तर पर घरेलू आय का स्तर अत्यन्त कम होता है । उपभोक्ता वस्तुओं की माँग कम होती है जिससे पूंजी वस्तुओं की व्युत्पन्न माँग भी कम रहती है । अतः औद्योगिक विकास को गति प्रदान करने में लाभ का उद्देश्य महत्वपूर्ण नहीं रह जाता । ऐसे में औद्योगीकरण की गति को स्फुरण प्रदान करने में राज्य ही प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर सकता है ।

2. औद्योगिक विकास हेतु पूंजी के सामान्य स्रोत अपर्याप्त होते है । तब सरकार का दायित्व हो जाता है कि वह संसाधनों के एकत्रण, आवंटन एवम गतिशीलता के उद्देश्य से पूंजी का प्रबन्ध कर विकास को गति प्रदान करें ।

गरसेनक्रौन की संकल्पना का परीक्षण (A Test of the Gerschenkron’s Hypothesis):

गरसेनक्रौन की संकल्पना का अनुभव सिद्ध अवलोकन प्रो॰ बार्सबाइ द्वारा किया गया ।

उन्होंने गरसेनक्रौन की छह में से तीन संकल्पनाओं को प्रमाणित किया:

1. सापेक्षिक पिछडेपन के माप एवं इसके तदन्तर होने वाली औद्योगिक वृद्धि के मध्य धनात्मक सहसम्बन्ध का कुछ अंश पाया गया ।

2. सापेक्षिक पिछडेपन के माप एवं उत्पादक वस्तु उद्योगों के शेयर के मध्य अचानक प्रस्फुटित होने वाली वृद्धि के समय एक महत्वपूर्ण सम्बन्ध विद्यमान होता है । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उत्पादक वस्तु उद्योगों को विनिर्माण उत्पादन के अंश के रूप में अभिव्यक्त किया गया है न कि इन उद्योगों की वृद्धि दर के सन्दर्भ में । तभी गरसेनक्रौन के निष्कर्ष मान्य होंगे ।

3. पिछड़ेपन के अंश एवं कृषि उत्पादकता में वृद्धि के सम्बन्ध संकल्पना परीक्षण में पुष्ट हुए ।

बार्सबाइ के परीक्षण गरसेनक्रौन की संकल्पनाओं हेतु आधार प्रदान करते हैं परन्तु कोई सुदृढ़ प्रमाण नहीं देते । इसका कारण इन परीक्षणों की कुछ सीमाएँ हैं । बार्सबाइ ने केवल तीन सकल्पनाओं का परीक्षण किया वह भी केवल 6 देशों के सवेंक्षण द्वारा निष्कर्ष प्रदान किए । बार्सबाइ द्वारा प्रयोग किए गए समक भी विश्वसनीय नहीं थे ।

रोसोवस्की ने गरसेनक्रौन की संकल्पनाओं को जापान की अर्थव्यवस्था के सापेक्ष अन्य यूरोपीय देशों के दशा अध्ययन द्वारा परीक्षित किया । इस अध्ययन में उन्होंने निष्कर्ष दिया कि जापान ने सापेक्षिक रूप से एक पिछडी अवस्था से गरसेनक्रौन की संकल्पना दिशाओं के अनुरूप तेजी से वृद्धि की दशाओं को प्राप्त किया ।

जापान में समूची वृद्धि की दरें बढी, आयातित तकनीक का प्रयोग किया गया और राज्य की भूमिका विकास के लिए उत्प्रेरक सिद्ध हुई । लेकिन गरसेनक्रौन की दिशा से असंगति तब हुई जब 1880 के उपरान्त औद्योगीकरण भारी से हल्के उद्योगों की ओर विवर्तित हुआ । वृद्धि पथ में यह परिवर्तन इस अवधि में जापान की अर्थव्यवस्था में होने वाले अभिनव परिवर्तनों से सम्बन्धित रहा ।

साथ ही जापान की प्रशिक्षित व अनुशासित श्रम शक्ति का गुणवत्ता युक्त योगदान विकास हेतु प्रेरणायें उत्पन्न कर गया । सामाजिक दृष्टिकोण एवं मूल्यों से युक्त जापान ने परम्परागत शिल्प एवं घरेलू कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का भी पूर्ण उपयोग सम्भव बनाया, जबकि रूस की अर्थव्यवस्था में ठीक विपरीत स्थिति देखी गई ।

मूल्यांकन (Appraisal):

गरसेनक्रौन का विश्लेषण पिछडे हुए देशों में विकास की दशाओं का सन्तुष्ट विवेचन करता है । औद्योगीकरण की अनुपस्थिति पूर्व आवश्यकताओं के प्रतिस्थापन एवं सापेक्षिक निर्धनता के विद्यमान अंश को प्राथमिकता उन परिस्थितियों के अधीन विश्लोहृत की गई जो आज भी कम विकसित देशों में विद्यमान हैं ।