भारत में सूखी खेती | Read this article in Hindi to learn about dry farming in India along with strategy for its sustainable development.

भारत के कम वर्षा के जिन प्रदेशों में सिंचाई के बिना कृषि की जाती है वे शुष्क कृषि के क्षेत्र कहे जाते हैं । शुष्क कृषि में गोबर की खाद, बार-बार खेत की जुताई फसलों की निराई-गुडाई तथा खरपतवार को खेत से निकालने पर विशेष बल दिया जाता है । भारत में शुष्क कृषि ऐसे प्रदेशों में की जाती है जहां वार्षिक वर्षा 40-70 से.मी. से कम रहती है । शुष्क कृषि प्रदेशों में वर्षा फसलें उगाने के लिये तो काफी होती परन्तु वर्षा अस्थिर अथवा चंचल होती है ।

वर्षा किसी वर्ष सामान्य से बहुत कम और कभी सामान्य से बहुत अधिक होती है । शुष्क कृषि प्रदेशों में प्रायः सामान्य से कम होती है, जिसके कारण सूखा पड़ता रहता है और किसी वर्ष अत्यधिक हो जाती है जिससे बाढ़ आ जाती है । लगभग 80 प्रतिशत वार्षिक वर्षा 10-15 दिन में हो जाती है ।

ADVERTISEMENTS:

भारत में 62 प्रतिशत कृषि क्षेत्र वर्षा पर निर्भर करते हैं, जिनसे अनाज के कुल उत्पादन का 40 प्रतिशत उत्पादित किया जाता है । शुष्क कृषि की प्रमुख विशेषताएं तालिका 10.26 में दी गई हैं ।

भारत में सिंचित कृषि एवं वर्षा आधारित कृषि क्षेत्रफल तालिका 10.27 में दिखाया गया है ।

शुष्क कृषि प्रदेशों की निम्न समस्यायें हैं जिनके कारण फसलें प्राय: फेल हो जाती हैं:

ADVERTISEMENTS:

1. थोडी वर्षा तथा वर्षा का असमान वितरण (Inadequate and Uneven Distribution of Rainfall):

शुष्क कृषि प्रदेशों में औसत वार्षिक वर्षा कम होती है तथा वर्षा में भारी उतार-बढ़ाव होता रहता है जिसका फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

2. फसलों के उगाने के दौरान लम्बे समय तक वर्षा का न होना (Prolonged Dry Spells during the Crop Period):

मानसून की एक विशेषता यह है कि वर्षा ऋतु के दौरान लम्बे समय तक वर्षा न होने से सूखे जैसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

ADVERTISEMENTS:

3. मानसून का देर से आना तथा जल्द वापस होना शाह (Late Onset and Early Cessation of Rains):

मानसून जब देरी से आता है तो फसलों की रोपाई तथा बिजाई (Sowing) कम क्षेत्रफल पर होती है । यदि वर्षा समय से पहले समाप्त हो जाये तो फसलें आशिक अथवा पूर्ण रूप से नष्ट हो सकती हैं ।

4. मृदा की नमी ग्रहण करने की क्षमता में कमी आ जाती है (Low Moisture Retention of Soil):

रेतीली मृदा के क्षेत्रों से वाष्पीकरण के कारण उसकी नमी ग्रहण करने की क्षमता कम हो जाती है ।

5. मृदा की उर्वकता कम हो जाती (Low Fertility of Soil):

मानसून के विफल होने पर मिट्‌टी की उर्वरकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

शुष्क कृषि को टिकाऊ बनाने के उपाय (Strategy for Sustainable Development):

शुष्क कृषि क्षेत्रों में फसलों का प्रति एकड़ उत्पादन प्रायः कम होता है । फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिये उपयुक्त फसलों का चयन करना, खेतों की बार-बार जुताई करके उनमें नमी को बनाये रखना, खरपतवार को निराइ-गुडाई के द्वारा मिट्‌टी की नमी का सदुपयोग करना, फसलों के खलियान सुरक्षित रखना तथा अनाज को सुरक्षित ढंग से संचित करना ।

निम्न उपायों से शुष्क कृषि को अधिक उपजाऊ एवं टिकाऊ बनाया जा सकता है:

1. खेतों में आर्दता / नमी का संरक्षण करना (Moisture Conservation):

शुष्क कृषि का उत्पादन बढ़ाने के लिये खेतों में नमी बनाए रखने से भारी लाभ होता है । बार-बार खेत की जुताई करने से आर्द्रता बनाई रखी जा सकती है ।

2. उपयुक्त फसलों का चयन करना (Choice of Crops):

शुष्क कृषि प्रदेशों में थोडे समय में तैयार होने वाली फसलों को उगाया जाना चाहिये । बाजरा, दलहन आदि की खेती उपयुक्त है । गेहूँ के मुकाबले में जी की फसल अधिक उपयोगी फसल मानी जाती है ।

3. फसलों को जल्द बोना चाहिये (Earthly Sowing):

शुष्क कृषि प्रदेशों में फसलों को जल्द अथवा पहली वर्षा के साथ बो देने से उत्पादन में वृद्धि होती है । इससे फसलों को वर्षा का पूरा लाभ प्राप्त होता है तथा फसलों को बीमारी भी कम लगती है ।

4. फसलों की सघनता उपयुक्त होनी चाहिये (Optimum Plant Protection):

खेत में न तो अत्यधिक बीज बोना चाहिये और न ही बहुत कम ।

5. मिश्रितकृषि (Intercropping):

फसलों को मिश्रित रूप से उगाने से भी फसलों का उत्पन्न बढ़ जाता है । मूंगफली के साथ अरहर, ज्वार के साथ अरहर ज्वार के साथ उड़द, बाजरे के साथ मूंग मिश्रित फसलें हैं ।

6. पोषण प्रबन्धन (Nutrient Management):

शुष्क कृषि प्रदेशों की मृदा की तुलना में सिंचित कृषि प्रदेशों की मिट्‌टी अधिक उपजाऊ होती है । सिंचित प्रदेशों की कृषि में रसायनिक खादों का अधिक उपयोग किया जाता है, जिससे उर्वरकता बढ़ाने की कोशिश की जाती है ।

7. खरपतवार प्रबन्धन (Weed Management):

संचित कृषि की तुलना में शुष्क कृषि प्रदेशों में खरपतवार की मात्रा कम होती है । शुष्क प्रदेशों में वर्षा कम होती है, इसलिये खरपतवारों की मात्रा भी कम होती है । खरपतवार मृदा की 30 प्रतिशत नमी को चूस लेता है, जिसको फसलों से निराई (Hoeing) करके समाप्त करना अनिवार्य है ।

8. कीटाणु प्रबन्धन (Pest Management):

शुष्क कृषि प्रदेशों में कीटाणु नाशिक औषधियों का उपयोग करके उन पर नियंत्रण पाया जा सकता है । समय से फसलें बोने से भी कीटाणुओं पर नियन्त्रण पाया जा सकता है ।

9. जल एकत्र करना (Water Harvesting):

वर्षा के जल को एकत्रित करना तथा उनका संचय करने से भी शुष्क कृषि प्रदेशों के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है ।

10. शुष्क कृषि में नई उपयुक्त प्रौद्योगिकी का उपयोग (Integrated Dry Land Technology):

शुष्क कृषि प्रदेशों में चौमुखी प्रौद्योगिकी का उपयोग करना अनिवार्य है ताकि फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सके और कृषि पर सह-क्रियाशील (Synergetic) प्रभाव पड़े ।

11. खेतों को फसल काटने के पश्चात घासपात अथवा पतवार से फेंकना (Mulching):

शुष्क प्रदेशों के खेतों से 60 से 70 प्रतिशत आर्द्रता एवं वर्षा जल वाष्पीकरण के कारण समाप्त हो जाता है । वाष्पीकरण प्रक्रिया को मलचिंग (Mulching) के द्वारा बहुत हद तक कम किया जा सकता है । इस प्रकार मलचिंग से मृदा को संरक्षण मिलता तथा मिट्‌टी में नमी भी बनी रहती है ।

मलचिंग शुष्क कृषि प्रदेशों में कई प्रकार से की जा सकती है, जैसे:

(i) मृदा-मल्व, भूल-मल्व,

(ii) स्टबल (Stubble) मलचिंग,

(iii) घास-पात मलचिंग, इत्यादि ।

12. शुष्क कृषि के लिये उपयुक्त बीजों का इस्तेमाल करना (Selection of Proper Crop Varieties for Dry Farming Land):

शुष्क कृषि के लिये ऐसे बीजों का चयन करना चाहिये जो कम वर्षा होने पर भी अच्छा उत्पादन दे सकें और फसल कम समय में तैयार हो सके । कृषि विशेषज्ञों के लिये निम्न प्रकार के बीचज उपयुक्त हैं ।