फसल चक्रिकरण सिद्धांत और महत्व | Read this article in Hindi to learn about:- 1. फसल-चक्रीकरण का प्रारम्भ (Introduction to Crop Rotation) 2. फसल चक्र की आधुनिक धारणा (Modern Concept of Crop Rotation) 3. सिद्धांत (Principle) 4. चयन (Selection) 5. महत्व या लाभ (Significance).

Contents:

  1. फसल-चक्रीकरण का प्रारम्भ (Introduction to Crop Rotation)
  2. फसल चक्र की आधुनिक धारणा (Modern Concept of Crop Rotation)
  3. फसल चक्रीकरण के सिद्धांत (Principle of Crop Rotation)
  4. फसल चक्र का चयन (Selection of Crop Rotation)
  5. फसल चक्रण के महत्व या लाभ (Significance of Crop Rotation)

1. फसल-चक्रीकरण  का प्रारम्भ (Introduction to Crop Rotation):

फसलों (Crop) की खेती करने में भूमि विकार (Soil Sickness) एक मुख्य समस्या रही है । जब एक खेत में निरन्तर एक ही फसल ली जाती है, तो उस फसल (Crop) के रोगजनक (Soil Borne Pathogens) भूमि में सुगमता से चिरकालिक बने रहते हैं और उनकी संख्या में अधिक वृद्धि (Growth) होती रहती है ।

कुछ समय पश्चात् भूमि इतनी अधिक रोग ग्रस्त या बाधित हो जाती है कि उसमें उस विशेष फसल की खेती करना कठिन हो जाता है । दूसरी ओर जब खेत में एक रोग ग्राही फसल लेने के बाद एक निश्चित अवधि के लिए असंक्राम्य (Immune) प्रतिरोधी बाद (Resistant) अथवा अपरपोषी फसलों को उगाया जाता है, तो इससे यह आशा की जाती है कि रोग जनक भूखा रहकर दुर्बल हो जाएगा और मर जाएगा ।

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यह भी संभावना है कि विभिन्न फसलें (Crop) रोगजनक (Pathogens) के विरूद्ध मृदा (Soil) के रासायनिक (Chemicals) एवं जैविक पर्यावरण (Biological Environment) को रूपांतरित कर देती है । सस्यावर्तन या Crop Rotation, मृदा विकार एवं मूल रोगों से लड़ने की एक सबसे प्राचीन विधि है ।

यह विधि उन Pathogens के विरूद्ध अधिक प्रभावी होती है, जो सीमित परपोषी परिसर एवं मृदा (Soil) में नियंत्रित उत्तर जीविता योग्यता रखते है । Crop Rotation उन Pathogens के विरूद्ध प्रभावी नहीं होता है जो स्पर्धी उत्तरजीविता योग्यता की उच्च मात्रा रखते हैं और परपोषी की अनुपस्थिति में भी मृदा (Soil) में लंबे समय तक दीर्घ स्थायी बने रहते हैं तथा एक दीर्घ परपोषी परिसर (Host Range) रखते हैं ।

आजकल टिकाऊ योग्य कृषि में गहन कृषि या सघन खेती के लिए Crop Rotation की संतुति साधारणतः नहीं की जाती है और इसको अन्य जैविक (Biological) एवं रासायनिक (Chemical) विधियों से बदला या प्रति स्थापित किया गया है ।


2. फसल चक्र की आधुनिक धारणा (Modern Concept of Crop Rotation):

फसल चक्र (Crop Rotation) का प्रमुख सिद्धान्त मृदा (Soil) की उर्वराशाक्ति (Fertility) के स्थिर रखते हुए फसलों की पैदावार (Yield) में वृद्धि करना है । पहले कृषक भूमि का कुछ भाग छोड़ देते हैं तथा अनाज (Cereals) की फसलों के साथ फसल चक्र के साथ दाल वाली फसलों को चुनता है ।

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मृदा में जीवांश पदार्थ उपस्थित रहें । अत: कृषक हरी खाद (Green Manure) को उगाकर उसे खेत में डालते थे । फसल चक्र के सिद्धान्तों के अनुसार कृषकों को गहराई में जाने वाली (Deep Rooting) फसलों के पश्चात उथली जड़ (Shallow Roots) वाली फसलों को बोना चाहिए ।

इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जिन फसलों को अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है । उसके बाद ही कम पोषक तत्वों में उगने वाली फसलों की खेती करनी चाहिए, जिससे मृदा जल तथा पोषक तत्वों की उपस्थिति से सन्तुलित रहती है तथा उर्वराशक्ति में कमी नहीं आने पाती ।

आधुनिक युग में संतुलित एवं समुचित पोषक तत्व प्रबन्ध (Integrated Nutrient Management and System-INMS) को प्रयोग में लाने से मृदा (Soil) की उर्वर शक्ति एवं जीवांश पदार्थों को नष्ट होने से बचाया जा सकता है । फसलों को सुरक्षित रखने के लिए कीटनाशी (Insecticides) कवकनाशी (Fungicides) का प्रयोग किया जाता है ।

भारत के विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित फसल चक्र निम्न प्रकार से है:

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पश्चिमी प्रदेश:

एक वर्षीय- (a) धान, गेहूँ (b) मक्का, आलू

द्विवर्षीय- (a) ज्वार, मक्का, गन्ना (b) मक्का, आलू, गन्ना

मध्य क्षेत्र- (a) एक वर्षीय-मक्का गेहूँ (b) द्विवर्षीय-गेहूँ, कपास

बचाव (Protection):

मृदा अपरदन (Soil Erosion) को नियन्त्रण करने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जाते हैं । अत: आधुनिक कृषि में सभी आवश्यक सिद्धान्त अपनाए जाते हैं और इनकी जानकारी अधिकतर कृषकों को है, जिसके फलस्वरूप फसलों की पैदावार में बहुत अधिक वृद्धि हुई है ।

फसल चक्र (Crop Rotation) में कुछ रोगजनक (Pathogens) पोषक पौधों की अनुपस्थिति में खेतों की मिट्टी में बहुत अधिक समय तक उपस्थित नहीं रह सकते है । अत: फसलों के फसल चक्र (Crop Rotation) द्वारा विभिन्न प्रकार के रोगजनकों द्वारा होने वाले रोगों पर नियन्त्रण किया जा सकता है ।

Ophiobolus Graminis द्वारा गेहूँ में Take All नामक रोग को गेहूँ (Wheat) की फसल का जई (Oat) की फसल के साथ चक्रीयकरण करके नियन्त्रित किया जाता है । इसी प्रकार Root Rot of Bean रोग जो Fusarium तथा Rhizoctonia द्वारा होता है, जो सोयाबीन तथा आलू के फसल चक्रण (Crop Rotation) द्वारा नियन्त्रित किया जाता है ।


3. फसल चक्रीकरण के सिद्धांत (Principle of Crop Rotation):

फसल चक्र में विभिन्न प्रकार के पौधों का चयन करते समय निम्न सिद्धान्तों पर ध्यान देना चाहिए:

(1) जिन फसलों (Crops) को अधिक खाद देनी पड़ती है । उनके बाद कम खाद लेने वाली फसलों को बोना चाहिए, क्योंकि पहली फसल की बची हुई (Residue) खाद दूसरी फसल के काम आ जाती है । उदाहरण आलू की फसल के बाद प्याज अथवा आलू की फसल के बाद मूंग की खेती करना चाहिए ।

(2) दाल वाली फसल (Pulse Crop) के बाद बिना दाल वाली (Non-Pulses) फसल को बोना चाहिए । दाल वाली फसलों की जडों में नाइट्रोजन (N2) की प्रचुर मात्रा होती है । जिससे मृदा (Soil) की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है । उदाहरण अरहर, मूँग, चना, उर्द के बाद ज्वार (Sorghum) की फसल तथा मटर (Pea) की फसल के बाद धान (Paddy) की खेती करनी चाहिए ।

(3) गहरी जड़ों (Deep Rooted) वाली फसलों के बाद उथली जड़ों (Shallow Roots) वाली फसलों को बोना चाहिए, जिससे Soil की उर्वरा शक्ति स्थिर रहती है । जैसे- अरहर के बाद गेहूँ, सरसों के बाद मूँगफली तथा कपास के बाद पुन: गेहूँ की फसलों को बोना चाहिए ।

(4) ऐसी फसलें जिन्हें पानी की अधिक आवश्यकता होती है, उसके बाद कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों (Crops) को बोना चाहिए । जैसे धान (Paddy) की फसल के बाद चना (Gram) की फसल को बोना लाभदायक होता है ।

(5) फसलों का चक्रीकरण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि दोनों फसलों को हानि पहुँचाने वाले कीट (Pest) तथा रोग (Diseases) एक ही प्रकार के हों अर्थात् एक ही फसल को लगातार नहीं बोना चाहिए ।

(6) मृदा (Soil) तथा जलवायु के अनुसार ही फसल चक्र बोना चाहिए ।

(7) जिन फसलों में अधिक गुड़ाई व निराई की आवश्यकता होती है । उनके बाद कम निदाई-गुड़ाई वाली फसलों को बोना चाहिए जैसे कपास के बाद मैथी की खेती करना ।

(8) Crop-Rotation इस प्रकार का बनाना चाहिए कि किसानों के पास श्रम, सिंचाई, उर्वरक तथा बीज आदि की उचित व्यवस्था हो और उन्हें आवश्यकतानुसार अनाज, दाल, सब्जी, रेशे वाले पौधे तथा पशुओं के लिए चारा आदि प्राप्त होता रहे ।


4. फसल चक्र का चयन (Selection of Crop Rotation):

फसल चक्र के लिए फसलों का चयन करते समय अग्र बातों को ध्यान में रखना चाहिए:

(1) जलवायु (Climate):

फसल चक्र के फसलों का चयन जलवायु के अनुकूल ही होना चाहिए ।

(2) मृदा (Soil):

Crop Rotation के फसलों का चयन मृदा (Soil) की किस्म (Type) तथा उसके संगठन (Composition) के अनुसार करना चाहिए । कपास, चना, धान की फसलों को उगाने के लिए Heavy Soil आवश्यक होती है ।

जबकि मक्का, मूँगफली, गेहूँ तथा ज्वार के लिए हल्की मृदा (Light Soil) लाभकारी होती है । जई, मक्का तथा गेहूँ की फसलों (Crop) के लिए हल्की व अम्लीय (Acidic) मृदा अधिक उपयुक्त होती है ।

 

(3) प्रबन्धन (Management):

कृषकों को फसल का चयन करने से पूर्व अपने संसाधन, पूँजी, श्रम, उर्वरक (Fertilizer), बीज (Seed), कीटनाशी (Insecticides) तथा अपतृणनाशी की आवश्यकताओं को ध्यान रखना चाहिए । उदाहरण टमाटर, आलू तथा गन्ना की फसलों को तैयार करने के लिए अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है ।

(4) आर्थिक कारण (Economic Causes):

फसल के उत्पादों को बेचने के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिए । फसल के भण्डारण का प्रबन्ध होना चाहिए । शहरों के पास ग्रामों में शाक-सब्जियों की खेती करनी चाहिए ।


5. फसल चक्रण के महत्व या लाभ (Significance of Crop Rotation):

फसल चक्रण के निम्न महत्व है:

(1) इससे भूमि में उर्वरा शक्ति बनी रहती है ।

(2) कीटों, रोगों तथा खरपतवारों (Weeds) को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है ।

(3) फसल चक्रण से विभिन्न फसलों से अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है ।

(4) दाल वाली फसलों द्वारा मृदा (Soil) की भौतिक दशा में सुधार आता है तथा मृदा में जैव पदार्थों की प्रचुरता बनी रहती है ।

(5) सिंचाई एवं उर्वरक आदि सीमित साधनों द्वारा भी फसलों को उगाया जा सकता है ।

(6) फसल उत्पादकों की माँग को बाजार (Market) में पूरा किया जा सकता है ।

(7) मृदा (Soil) को वायु तथा जल क्षारण (Leaching) से बचाया जा सकता है ।

(8) फसल चक्र को प्रयोग में लाने से उनके उत्पादन में बहुत कम खर्च होता है ।

(9) किसानों की अधिकतर घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है ।

(10) मनुष्यों तथा पशुओं के श्रम (Labour) का सही-सही प्रयोग होता है ।

(11) फसल चक्र द्वारा विभिन्न फसलों से अधिक उपज (Yield) प्राप्त होती है ।

(12) फसल चक्र के द्वारा मृदा (Soil) की उर्वरता बनाए रखने में सहायता मिलती है ।

मृदा अपरदन में कमी:

फसल चक्रीकरण जल द्वारा अपरदन से हुई मृदा की हानि की मात्रा को प्रभावित कर सकता हैं । उन क्षेत्रों में जहाँ अपरदन आसानी से हो सकता है वहाँ विशिष्ट फसल चक्रीकरण विधियों के साथ खेत प्रबंधन प्रक्रिया (Farm Management Practices), जैसे शून्य और कम जुताई (Zero and Reduced Tillage) की आपूर्ति करके Raindrop Impact, Sediment Detachment, Sediment Transport, Surface Runoff तथा Soil Loss को कम किया जा सकता है ।

चक्रीकरण विधियाँ, जिसमें फसल का काफी भाग मृदा के ऊपरी सतह पर खूंटी के रूप में शेष रह जाता है, के द्वारा मृदा अपरदन के विरूद्धसुरक्षा में वृद्धि होती है । Stubble Cover मृदा के साथ संपर्क में रहकर Overland Flow Velocity, Stream Power में कमी करके जल द्वारा अपरदन में कमी करता है और इसी प्रकार Sediment Detached एवं Transport करने की जल की क्षमता में कमी आती है ।

मृदा अपरदन एवं सिल, मृदा के कणों का विनाश तथा डिटैचमेन्ट को रोकती है, जिससे माइक्रोस्पोर ब्लॉक हो जाते हैं । इनफिल्ट्रेशन में कमी आती है तथा स्ट्रेस की दशाओं में मृदा के प्रतिस्कंदन में सुधार आता है ।

मृदा अपरदन के नियंत्रण पर फसल चक्रीकरण का प्रभाव जलवायु के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है । अपेक्षाकृत अपरिवर्तनीय जलवायु की दशाओं में, जहाँ वार्षिक वर्षा तथा तापमान के स्तरों की अपेक्षा की जाती है, वहाँ Rigid Crop Rotations पर्याप्त पादप वृद्धि तथा Soil Cover प्रदान कर सकता है ।

उन क्षेत्रों में जहाँ जलवायु की दशाओं का पूर्वानुमान अपेक्षाकृत कम लगाया जा सकता है तथा वर्षा के बाद अप्रत्याशित समय पर होती है, वहाँ फसल चक्रीकरण द्वारा मृदा अपरदन की अधिक Flexible Approach की आवश्यकता होती है । अवसर फसल प्रणाली (Opportunity Cropping System) अनियमित जलवायु की हालत में पर्याप्त मृदा आवरण को प्रोत्साहित करती है ।