फणीशवर नाथ रेणु । Biography of Phanishwar Nath ‘Renu’ in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

ADVERTISEMENTS:

फणीश्वर नाथ रेणुजी का देश के आंचलिक कथाकारों में सर्वश्रेष्ठ स्थान है । नन्ददुलारे बाजपेयी ने उनकी प्रतिभा से चकित होकर लिखा था कि ”इतना प्रभावशाली लेखक बहुत दिनों बाद पैदा हुआ है ।” रेणुजी ने हिन्दी कहानी में सर्वथा एक नयी शैली का सूत्रपात किया है, जिसे आंचलिक शैली के नाम से जाना जाता है ।

इस अंचल विशेष में वहां की संस्कृति, पेड़-पौधे, भाषा, रहन-सहन, आचार-विचार, पर्व, त्योहार, परम्पराएं, रीति-रिवाज कहानी के विषयवस्तु होते हैं । रेणुजी का आंचलिक परिवेश स्थानीय न होकर सार्वदेशीय है । इसमें ग्रामांचलों की समस्त धड़कनें कैद हैं ।

2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म:

रेणुजी का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले, हिंगना औराही नामक ग्राम में हुआ था । आपके पिता आर्यसमाजी थे । उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा फारबिसगंज से पूर्ण की । वहीं से मैट्रिकुलेशन भी किया । उन्होंने बनारस के टी०एन०जे० कॉलेज में प्रवेश लिया था ।

वे साहित्य के साथ-साथ राजनीति में भी काफी रुचि रखते थे । सन 1950 में उन्होंने नेपाल के राजा के खिलाफ चलाये जाने वाले शासन के विरोध में सशस्त्र क्रान्ति में भाग लिया था । रेणुजी की रचनाओं में ”मैला आंचल”, ”परती परिकथा”, ”दीर्घतपा जुलूस”, ”कितने चौराहे”, ”हाथ का जस” प्रमुख हैं ।

ADVERTISEMENTS:

कहानी संग्रह में: ”ठुमरी”, “आदिम रात्रि की महक”, “अगिनखोर इत्यादि प्रमुख हैं । रेणुजी की अधिकांश कहानियां आंचलिक हैं । उपन्यास की कथावस्तु भी आंचलिक है । रेणुजी ने अपनी रचनाओं में अंचल विशेष का बड़ी ही सजीवता के साथ चित्रण किया है । भाषा आंचलिक परिवेश को ग्रहण किये हुए प्रवाहमीय तथा प्रभावमयी है ।

अंग्रेजी, उर्दू के साथ-साथ ग्रामीण शब्दावली, ग्रामीण कहावतों का प्रयोग भी उन्होंने बखूबी किया है । उनकी कहानियों में स्वतंत्र्योत्तर भारत के ग्रामीण जीवन, विशेषत: बिहार तथा उसके आस-पास की सजीव झांकी दिखाई पड़ती है ।

अंचलवासियों की रुचि, भाषा, विचार, जीवनशैली, परम्पराएं, लोकरूढ़ियां, लोकगीत गहरी संवेदनशीलता को जन्म देते हैं । आंचलिक तत्त्वों की दृष्टि से ”ठेस”, “पंचलाइट” संवदिया’ उनकी श्रेष्ठ कहानियां हैं । वहीं ”लाल पान की बेगम” भी एक मनोवैज्ञानिक एवं मर्मस्पर्शी कहानी है ।

कहानियों में ग्राम्यजीवन की आत्मीयता अपने पूर्ण भाषायी परिवेश के साथ उजागर हो उठती है । रेणुजी की औपन्यासिक आंचलिक कला भी अत्यन्त उच्चकोटि की है । ”मैला आंचल” उपन्यास में 1947 के भारतीय ग्रामीण जनजीवन का वह विविध परिवेश है, जहां के पात्र ”गोदान” की तरह पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

ग्राम्य जन-जीवनशैली, उनकी चेतना व विशिष्ट जीवनशैली को लेखक ने अत्यन्त सजीवता, ईमानदारी एवं मनोवैज्ञानिकता के साथ चित्रित किया है । ”मारे गये गुलफाम” पर बनी {“तीसरी कसम” फिल्म} में उन्होंने नौटंकी के ग्रामीणस्वरूप का यथार्थ मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है ।

उनकी भाषा सरल, सहज, प्रभावमयी, विषयानुकूल, भावानुकूल है । अंचल विशेष की स्थानीय भाषा में कहावतों और मुहावरों का प्रयोग नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है । उनकी शैली भावप्रधान, रोचक, आंचलिक परिवेश को आत्मसात किये हुए है ।

3. उपसंहार:

श्री फणीश्वरनाथ रेणु नागार्जुन, इलाश्चन्द्र जोशी, शैलेश मटियानी जैसे आंचलिक कथाकारों की तुलना में भाषा-भाव एवं शिल्प की क्षेत्र से श्रेष्ठ आंचलिक कथाकार के रूप में जाने जाते हैं । विशेषत: अपने बिहार अंचल के परिप्रेक्ष्य में उनका स्थान निःसन्देह सर्वश्रेष्ठ ही माना जा सकते है । ग्रामांचल से जुड़ी समस्याओं पर तथा जनाकांक्षाओं पर केन्द्रित इस रचनाकार का 14 अप्रैल, 1977 में देहान्त हो गया ।

Home››Biography››