गुप्त साम्राज्य से पहले भारत में राजनीतिक स्थिति | Political Condition in India before Gupta Empire.

कुषाणों के पतन के बाद से लेकर गुप्तों के उदय के पूर्व तक का काल राजनैतिक दृष्टि से विकेन्द्रीकरण तथा विभाजन का काल माना जाता है । इस समय देश में कोई सार्वभौम शक्ति नहीं थी । सम्पूर्ण देश अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभाजित था जो परस्पर संघर्षरत थे । चतुर्दिक् अराजकता तथा अव्यवस्था का बोल-बाला था ।

भारत में इस समय दो प्रकार के राज्य थे:

1. राजतन्त्र तथा

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2. गणतन्त्र ।

इसके अतिरिक्त कुछ विदेशी शक्तियों भी थीं ।

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निम्नलिखित पंक्तियों में हम उस समय के विभिन्न राज्यों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे:

1. राजतन्त्र:

गुप्तों के उदय के पूर्व उत्तर तथा दक्षिण भारत में अनेक शक्तिशाली राजतन्त्रों का अस्तित्व था ।

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इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं:

i. नागवंश:

कुषाणों के पतन के पश्चात मध्यभारत तथा उत्तर प्रदेश के भूभागों पर शक्तिशाली नागवंशों का उदय हुआ । गंगाघाटी में कुषाण सत्ता के विनाश का श्रेय नागवंश को ही दिया जाता है । पुराणों के विवरण से पता चलता है कि पद्मावती, मथुरा तथा कान्तिपुर में नाग कुलों का शासन था । पुराणों के अनुसार मथुरा में सात तथा पद्मावती में नौ नाग राजाओं ने शासन किया ।

गुप्तों के उदय के पूर्व पद्मावती तथा मथुरा के नागवंश काफी शक्तिशाली थे । इनमें भी पद्मावती का नाग कुल अधिक महत्वपूर्ण था । पद्मावती की पहचान मध्य प्रदेश के ग्वालियर के समीप स्थित आधुनिक पद्‌मपवैया नामक स्थान से की जाती है । पद्मावती के नाग लोग ‘भारशिव’ कहलाते थे । वे अपने कन्धों पर शिवलिंग वहन करते थे, अत: वे भारशिव कहलाये ।

भारशिवों का वाकाटकों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था । भारशिव कुल के शासक भवनाग (305-40 ईस्वी) की पुत्री का विवाह वाकाटक नरेश प्रवरसेन प्रथम के पुत्र के साथ हुआ था । समुद्रगुप्त के समय पद्मावती के भारशिव नागवंश का शासक नागसेन था ।

प्रयाग प्रशस्ति में उसका उल्लेख मिलता है । मथुरा में समुद्रगुप्त के समय में गणपतिनाग का शासन था । तीसरी शताब्दी के अन्त में पद्मावती तथा मथुरा के नाग लोग मथुरा, धोलपुर, आगरा, ग्वालियर, कानपुर, झाँसी तथा बाँदा के भूभागों तक फैल गये थे ।

ii. बडवा का मौखरि वंश:

नागों की राजधानी पद्मावती के पश्चिम में लगभग 150 मील की दूरी पर बडवा (प्राचीन कोटा रियासत) में मौखरियों की एक शाखा तृतीय शताब्दी ईस्वी के प्रथमार्ध में शासन कर रही थी । 239 ईस्वी में इस वंश का शासन महासेनापति बल के हाथों में था ।

इस वंश के लोग संभवतः पश्चिमी क्षत्रपों अथवा नागों के सामन्त थे । वे वैदिक धर्म के पोषक थे । बल के तीन पुत्र थे जिनमें से प्रत्येक ने एक-एक त्रिरात्र यज्ञ का अनुष्ठान किया था । इन यज्ञों की स्मृति में उन्होंने पाषाण-यूपी का निर्माण करवाया था । इन पर उत्कीर्ण लेख ही इस वंश के इतिहास के एकमात्र स्रोत हैं ।

iii. मघराज वंश:

नागों की राजधानी पद्मावती के दक्षिण-पूर्व में मघों का राज्य स्थित था । पहले उसका राज्य केवल बघेलखण्ड (रीवां मंडल) तक ही सीमित था । इस वंश का प्रथम ज्ञात राजा वाशिष्ठीपुत्र भीमसेन है । उनके पुत्र का नाम कौत्सीपुत्र पोठसिरि मिलता है ।

वह एक योग्य शासक था । उसकी राजधानी बन्धोगढ़ में थी । 155 ईस्वी के लगभग इस वंश के भद्रमघ ने कौशाम्बी को कुषाणों से छीन लिया । यहाँ से शक सम्वत् 81 (159 ईस्वी) का उसका एक लेख मिला है । भद्रमघ ने सिक्के भी उत्कीर्ण करवाये थे । उसके पश्चात् गौतमीपुत्र शिवमध तथा फिर वैश्रमण ने शासन किया ।

वैश्रमण के समय में मघ राज्य उत्तर की ओर फतेहपुर तक विस्तृत हो गया । मघवंश के राजाओं का क्रमबद्ध इतिहास तथा उनके काल की घटनाओं के विषय में हमारा ज्ञान अत्यल्प है । कौशाम्बी में 250 ईस्वी तक मघराजवंश ने शासन किया ।

कौशाम्बी के ही समान अहिच्छत्र तथा अयोध्या में भी इस समय शक्तिशाली राजतन्त्र थे । अहिच्छत्र की पहचान बरेली जिले में स्थित रामनगर से की जाती है । यहाँ से प्राप्त बहुसंख्यक सिक्कों से मित्रवंशी राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं ।

कुछ सिक्कों के ऊपर ‘अच्यु’ नाम अंकित है जिसकी पहचान प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित ‘अच्युत’ नामक शासक से की जाती है । इसी प्रकार अयोध्या से प्राप्त सिक्कों में धनदेव, विशाखदेव, मूलदेव आदि राजाओं के नाम मिलते हैं ।

iv. अन्य राजतंत्र:

उस समय उत्तर तथा उत्तर-पूर्वी भारत में पाँच अन्य राज्यतन्त्रों का अस्तित्व था-समतट (पूर्वी बंगाल), डवाक (असम के नौगाँव में स्थित डबोक), कामरूप (असम का केन्द्रीय भाग), नेपाल तथा कर्तृपुर (कुमायूँ स्थित वर्तमान कतूरियाराज) । इन राज्यों के शासकों के विषय में कुछ भी पता नहीं है ।

a. वाकाटक राजवंश:

इस राजवंश की स्थापना तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य विष्णुवृद्धि गोत्र के विन्ध्यशक्ति ने की थी । उसके पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार के स्थानीय शासक थे । सातवाहनों के पश्चात् विन्ध्यशक्ति ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी ।

उसका साम्राज्य विन्ध्यपर्वत के उत्तर में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था । उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र प्रवरसेन प्रथम एक शक्तिशाली राजा हुआ । उसने ‘सम्राट’ की उपाधि ग्रहण की । प्रवरसेन प्रथम के समय में वाकाटकों की शक्ति काफी मजबूत हो चुकी थी । इस समय (275-335 ईस्वी) वाकाटकों का साम्राज्य उत्तर के मध्य प्रान्त तथा बुन्देलखण्ड से लेकर दक्षिण में उत्तरी हैदराबाद तक फैला था ।

b. पल्लव राजवंश:

दक्षिण भारत की दूसरी महत्वपूर्ण शक्ति पल्लवों की थी । ऐसा प्रतीत होता है कि वाकाटकों के समान पल्लव भी प्रारम्भ में सातवाहनों की अधीनता स्वीकार करते थे, परन्तु बाद में स्वतन्त्र हो गये । उनकी राजधानी काञ्ची (मद्रास स्थित काञ्चीवरम्) में थी ।

उत्तर की ओर उनके साम्राज्य में आन्ध्र प्रदेश का एक भाग भी सम्मिलित था । पश्चिम में उनका साम्राज्य पश्चिमी समुद्रतट तक विस्तृत था । पल्लव वंश के प्रारम्भिक राजाओं में स्कन्दवर्मन् का नाम उल्लेखनीय है । समुद्रगुप्त के समय में पल्लव वंश का शासक विष्णुगोप था ।

v. दक्षिण भारत के अन्य राजतन्त्र:

वाकाटकों तथा पल्लवों के अतिरिक्त दक्षिणापथ की राजनीति में अन्य कई शक्तियाँ सक्रिय थीं । समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में दक्षिणापथ के बारह राजाओं का उल्लेख हुआ है जो दक्षिणी कोशल से काञ्ची तक फैले हुए थे । दक्षिण-पश्चिम में सातवाहनों के बाद आभीर, आन्ध्रप्रदेश में ईक्ष्वाकु तथा कुन्तल में चुटुशातकर्णि वंशों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

a. आभीर:

इस वंश का संस्थापक ईश्वरसेन था जिसने 248-49 ईस्वी के लगभग कलचुरिचेदि संवत् की स्थापना की । उसके पिता का नाम शिवदत्त मिलता है । नासिक में उसके शासनकाल के नवें वर्ष का एक लेख प्राप्त हुआ है ।

यह इस बात का सूचक है कि नासिक क्षेत्र के ऊपर उसका अधिकार था । अपरान्त तथा लाट प्रदेश पर भी उसका प्रभाव था क्योंकि यहाँ कलचुरि-चेदि संवत् का प्रचलन मिलता है। आभीरों का शासन चौथी शती तक चलता रहा ।

b. ईक्ष्वाकु:

इस वंश के लोग कृष्णा-गुण्टूर क्षेत्र में शासन करते थे । पुराणों में उन्हें ‘श्रीपर्वतीय’ (श्रीपर्वत का शासक) तथा ‘आन्ध्रभृत्य’ (आन्ध्रों का नौकर) कहा गया है । पहले वे सातवाहनों के सामन्त थे किन्तु उनके पतन के बाद उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी ।

इस वंश का संस्थापक श्रीशान्तमूल था । अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने के उपलक्ष में उसने अश्वमेध यज्ञ किया । वह वैदिक धर्म का अनुयायी था । उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी माठरीपुत्र वीरपुरुषदत्त हुआ जिसने 20 वर्षों तक राज्य किया ।

अमरावती तथा नागार्जुनीकोंड से उसके लेख मिलते हैं । इनमें बौद्ध संस्थाओं को दिये जाने वाले दान का विवरण है । वीरपुरुषदत्त का पुत्र तथा उत्तराधिकारी शान्तमूल द्वितीय हुआ जिसने लगभग ग्यारह वर्षों तक राज्य किया ।

उसके बाद ईक्ष्याकु वंश की स्वतन्त्र सत्ता का क्रमशः लोप हुआ । इस वंश के राजाओं ने आन्ध्र की निचली कृष्णा घाटी में तृतीय शताब्दी के अन्त तक शासन किया । तत्पश्चात् उनका राज्य काञ्ची के पल्लवों के अधिकार में चला गया । ईस्वाकु लोग बौद्ध मत के पोषक थे ।

c. चुटुशातकर्णि वंश:

महाराष्ट्र तथा कुन्तल प्रदेश के ऊपर तीसरी शती में चुटुशातकर्णि वंश का शासन स्थापित हुआ । कुछ इतिहासकार उन्हें सातवाहनों की ही एक शाखा मानते हैं जबकि कुछ लोग उनको नागकुल से सम्बन्धित करते हैं । उनके शासन का अन्त कदम्बों द्वारा किया गया ।

इन वंशों के साथ-साथ अन्य कई छोटे-छोटे राजवंश भी दक्षिण भारत की राजनीति में सक्रिय थे । कृष्णा तथा मसूलीपट्टम् के बीच बृहत्फलायन तथा कृष्णा और गोदावरी के बीच शालंकायन वंशों, जो पहले ईक्ष्वाकुओं के अधीन थे, ने कुछ समय के लिये स्वतन्त्रता स्थापित कर ली थी । बृहत्फलायनों की राजधानी पिथुन्ड तथा शालंकायनों की वेंगी में थी । बाद में दोनों वंश पल्लवों के अधीन हो गये । सुदूर-दक्षिण में चोल, चेर तथा पाण्ड्य राजवंशों का शासन था ।

2. गणतन्त्र या जनजातीय राज्य:

प्राक्-गुप्त युग में राजतन्त्रों के साथ-साथ गणराज्यों का भी अस्तित्व था । ये गणराज्य पूर्वी पंजाब, राजस्थान, मालवा तथा मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में फैले हुए थे । इनमें मालव, अर्जुनायन, यौधेय, शिवि, लिच्छवि, आभीर, मद्रक, सनकानीक, प्रार्जुन, काक, खरपरिक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

इनका परिचय इस प्रकार है:

i. मालव:

सिकन्दर के आक्रमण के समय मालवा गणराज्य के लोग पंजाब में निवास करते थे । कालान्तर में वे पूर्वी राजपूताना में आकर बस गये । पाणिनि ने उनका उल्लेख ‘आयुधजीवी संघ’ के रूप में किया है । उनके लगभग छह हजार सिक्के मिले हैं । उन पर ‘मालवानाम्‌जय’, ‘मालवजय’ तथा ‘मालवगणस्य’ उत्कीर्ण है ।

विद्वानों ने इन सिक्कों की प्राचीनता ईसा की दूसरी से तीसरी शताब्दी के मध्य तक निर्धारित की है । सिक्कों पर अंकित लेख इस बात के सूचक हैं कि उनमें गणतन्त्र शासन पद्धति थी । नहपान के नासिक लेख से पता चला है कि उसने मालवों को पराजित किया था ।

गुप्तों के उदय के पूर्व संभवतः वे मन्दसोर (प्राचीन दशपुर) में राज्य करते थे । यहाँ से प्राप्त लेखों में मालव-संवत् का ही प्रयोग मिलता है । चौथी शती के अन्त तक उनका राजनैतिक अस्तित्व बना रहा । समुद्रगुप्त ने उन्हें पराजित कर अपने अधीन कर लिया था ।

ii. अर्जुनायन:

इस गण जाति के लोग आगरा-जयपुर क्षेत्र में शासन करते थे । प्रथम शताब्दी के लगभग के उनके, कुछ सिक्के मिले हैं जिन पर ‘अर्जुनायनान्’ तथा ‘अर्जुनायनानाम् जय’ अंकित है । इससे सूचित होता है कि उनका भी अपना गणराज्य था । प्रयाग लेख से पता चलता है कि उन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की थी ।

iii. यौधेय:

कुषाणों के पूर्व ये लोग उत्तरी राजपूताना तथा दक्षिणी पूर्वी पंजाब में निवास करते थे । पाणिनि ने उन्हें ‘आयुधजीवी संघ’ कहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक वीर और स्वाभिमानी जाति थी । जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि रुददामिन् ने कड़े संघर्ष के बाद उन्हें जीता था । लेख के अनुसार वे अत्यन्त शक्तिशाली एवं साधन सम्पन्न थे । कुषाणों ने उन्हें परास्त कर अपने अधीन कर लिया था ।

परन्तु कुषाण साम्राज्य के पतनोपरान्त वे स्वतन्त्र हो गये । यौधेयों के सिक्के सहारनपुर, देहरादून, देहली, रोहतक, लुधियाना तथा कांग्रा से प्राप्त हुए हैं । लुधियाना से प्राप्त एक मिट्टी की मुहर पर ‘यौधेयानाम् जयमन्यधराणाम्’ लेख उत्कीर्ण है ।

इससे सूचित होता है कि उनके पास विजय प्राप्त करने का कोई मन्त्र था । उनके प्रारम्भिक सिक्कों (लगभग ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी) पर ‘यौधेयन’ तथा बाद के सिक्कों पर ‘यौधेय गणस्यजय’ उत्कीर्ण है । बाद के सिक्के तीसरी-चौथी शताब्दी के हैं । इससे स्पष्ट है कि कुषाणो को हराकर यौधेयों ने उपर्युक्त क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया था । उनके साम्राज्य में सतलज के दोनों ओर की भूमि (जोहियाबार) तथा बहावलपुर सम्मिलित था । वे कार्तिकेय के उपासक थे ।

iv. कुणिन्द:

यमुना तथा सतलज के बीच भूभाग में यह गणराज्य स्थित था । इनके कुछ सिक्कों पर केवल ‘कुणिन्द’ तथा कुछ पर ‘कुणिन्दगणस्य’ अंकित है । विद्वानों ने इनका काल ईसा पूर्व पहली शताब्दी से दूसरी शताब्दी के मध्य तक निर्धारित किया है । टालमी के भूगोल में ‘कुलिन्ट्रेने’ शब्द मिलता है जिससे तात्पर्य व्यास तथा गंगा नदियों के बीच के समस्त ऊपरी प्रदेश से है ।

विष्णु पुराण में कुणिन्दों को पर्वत घाटी का निवासी (कुलिन्दोपत्यका:) कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि कुणिन्दों का सम्बन्ध किसी पहाड़ी के समीपवर्ती प्रदेश से था । लगता है कि शकों के आक्रमण का सामना करने के लिये यौधेय, कुणिन्द तथा अर्जुनायन गणों का एक संघ बना हुआ था ।

v. शिवि:

सिकन्दर के आक्रमण के समय शिवि लोग झेलम तथा चिनाब के संगम के निचले भाग में निवास करते थे । बाद में उन्होंने चित्तौड़ के समीप माध्यमिका से अपना राज्य स्थापित कर लिया । यहाँ से उनके कुछ सिक्के मिलते हैं । इसका काल ईसा-पूर्व द्वितीय अथवा प्रथम शताब्दी निर्धारित किया गया है ।

vi. लिच्छवि:

गुप्तों के उदय के पूर्व गंगा-घाटी में कई शताब्दियों बाद लिच्छवि पुन: शक्तिशाली हो गये था ।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे:

(I) उत्तरी बिहार जिसकी राजधानी वैशाली में थी ।

(II) नेपाल जिसका उल्लेख प्रयाग प्रशास्ति में मिलता है ।

गुप्त-नरेश चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर अपने राजवंश की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाया था ।

vii. आभीर:

पेरीप्लस में इसे अबिरिया कहा गया है । आभीरों के लेख महाराष्ट्र में भी मिलते हैं जिससे ऐसा लगता है कि उनका महाराष्ट्र में भी शासन था । उनकी दूसरी शाखा भिलसा तथा झाँसी के मध्य अहिरबार नामक स्थान में शासन करती थी । गुप्तों के उदय तक ये दोनों शाखायें विद्यमान थी ।

viii. मद्रक:

यह गणराज्य रावी तथा चिनाब नदियों के बीच के प्रदेश में स्थित था । यह भाग चौथी शती के प्रारम्भ में उन्होंने गडहरों से जीता । स्यालकोट, सम्भवत: उनकी राजधानी थी । अभी तक मद्रकों का कोई भी सिक्का प्राप्त नहीं हुआ है ।

ix. प्रार्जुन:

कुछ विहार मध्य प्रदेश के वर्तमान नरसिंहपुर जिले को प्रार्जुन गण-राज्य की स्थिति बताते हैं ।

x. सनकानीक:

ये भिलसा के आस-पास के क्षेत्र पर शासन करते थे । चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के उदयगिरि से प्राप्त एक लेख में इस जाति के एक सामन्त का उल्लेख मिलता है ।

xi. काक:

भिलसा के बीस मील उत्तर में स्थित काकपुर नामक स्थान में इस जाति का राज्य था । कुछ विद्वान् उन्हें साँची का शासक बताते हैं ।

xii. खरपरिक:

मध्य प्रदेश के दमोह जिले में इस गणजाति के लोग शासन करते थे । उपर्युक्त प्रमुख गणराज्यों के अतिरिक्त गुप्तों के उदय के पूर्व औदुम्बर, उत्तमभद्र, वृष्णि आदि कुछ अन्य छोटे-छोटे गणराज्य भी विद्यमान थे । औदुम्बर अथवा उदुम्बर गणराज्य कांगड़ा, गुरदासपुर तथा होशियारपुर (पंजाब) में स्थित था ।

इसके सिक्के मिलते हैं जिन पर राजा तथा जन दोनों के नाम अंकित है । औदुम्बरों तथा उनके गण का उल्लेख अष्टाध्यायी बृहत्संहिता, मारकण्डेय पुराण, विष्णु पुराण आदि में मिलता है । उन्हें विश्वामित्र का वंशज तथा ‘कौशिक गोत्र’ का बताया गया है ।

ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाणों के पूर्व ही इस गणराज्य का स्वतंत्र अस्तित्व था । कुणाणों ने इन्हें जीतकर अपने अधीन कर लिया था । उत्तमभद्र जाति राजस्थान के किसी क्षेत्र में निवास करती थी । नहपान के नासिक गुहा लेख में इनका उल्लेख मिलता है ।

बताया गया है कि नहपान ने मालवों के घेरे से उन्हें मुक्त कराया था । उत्तमभद्र लोग शकों के अधीन रहे होंगे । वृष्णि संघ का उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है । कनिंघम को एक मुद्रा मिली है जिस पर ‘वृष्णिराज ज्ञागनस्य मुभरस्य’ अंकित है । हर्षचरित में ‘वृष्णि’ का उल्लेख एक जनपद के रूप में मिलता है । महाभारत काल में ‘अंन्धकवृष्णि’ संघ था । वृष्णि गणराज्य के सिक्के भी मिलते है जिनपर ‘वृष्णिराजन्य गणयत्रातस्य’ उत्कीर्ण है ।

इनका समय ईसा पूर्व दूसरी-पहली शताब्दी माना जाता है । सिक्कों पर ‘चक्र’ का चिह्न भी अंकित है । महाभारत के अनुसार वासुदेव कृष्ण इस संध के सदस्य थे । गुप्तों के उदय के बहुत पहले ही इन गणराज्यों का अस्तित्व समाप्त हो गया था ।

विदेशी शक्तियाँ:

गुप्तों के उदय के पूर्व भारत के पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों में अनेक विदेशी शक्तियाँ विद्यमान थीं । गुजरात तथा काठियावाड़ में पश्चिमी क्षत्रपों का राज्य (कार्दमक शक) था । पश्चिमोत्तर सीमाओं पर परसिया के ससैनियन नरेशों के आक्रमण हो रहे थे ।

ससैनियन नरेश शापुर प्रथम (242-272 ई.) ने कृषाणों को परास्त कर पेशावर से सिन्धु नदी घाटी तक का प्रदेश जीत लिया था । 283 ईस्वी में इस वंश के वहराम द्वितीय ने अफगानिस्तान, पश्चिमोत्तर सीमा-प्रान्त तथा सिन्ध को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया ।

शापुर द्वितीय (309-379 ई.) के काल में भी पश्चिमोत्तर भाग पर ससैनियन अधिकार बना रहा । कुछ शक तथा कुषाण शासक भी यहाँ उनकी अधीनता स्वीकार करते थे । अल्तेकर का विचार है कि पेशावर का कुषाण राजा किदार शापुर की अधीनता स्वीकार करता था ।

कालान्तर में समुद्रगुप्त की सहायता पाकर उसने अपने को सस्रैनियन आधिपत्य से मुक्त कर दिया । प्रयाग लेख में किसी कुषाण शासक को ‘दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि’ कहा गया है । संभवतः यह किदार की ही उपाधि थी ।

मुद्राओं से वासुदेव द्वितीय के पश्चात् पंजाब में तीन सीथियन कुलों के अस्तित्व का ज्ञान होता है । पश्चिमी पंजाब में ‘शाक’ वंश का शासन था । इस वंश की राजधानी पेशावर में थी । यहाँ से शाक राजाओं के बहुसंख्यक सिक्के प्राप्त हुए हैं ।

सिक्कों से पता चलता है कि मध्य पंजाब के ऊपर शीलद तथा गडहर जातियों का शासन था । इन दोनों वंशों ने यहाँ समुद्रगुप्त के समय तक शासन किया । पंजाब में शाक-शीलद शासन का विनाश कुषाणों की छोटी शाखा द्वारा हुआ जिसे ‘किदर कुषाण’ कहा गया है ।

इस शाखा का सरदार किदार नामक व्यक्ति था । वह पहले ससानी राजाओं की अधीनता स्वीकार करता था किन्तु कालान्तर में उसने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी तथा गन्धार, कश्मीर, और पश्चिमी एवं मध्य पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ बना लिया ।

किदार ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की तथा उसके पास उपहारादि भेजे थे । शकों तथा कुषाणों के साथ-साथ प्रयाग लेख में मुरुण्ड नामक एक विदेशी जाति का उल्लेख मिलता है । टालमी उन्हें साकेत क्षेत्र का शासक बताता है । चीनी स्रोतों में उन्हें ‘मेउलिन’ कहा गया है ।

गुप्तों के उदय के समय संभवतः गंगा नदी के किनारे कन्नौज में उनका स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गया था । इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि ईसा की तृतीय शताब्दी के उत्तरार्ध तथा चतुर्थ शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों का भारत राजनैतिक दृष्टि से अराजकता, अव्यवस्था एवं दुर्बलता के दौर से गुजर रहा था ।

यह समय किसी महान् सेनानायक की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये सुनहला अवसर प्रदान कर रहा था । शीघ्र ही मगध के गुप्त वंश में ऐसे सेनानायकों का उदय हुआ । गुप्तों के उदय के साथ भारत की राजनैतिक परिस्थितियाँ केन्द्रीकरण की दिशा में अग्रसर हुयीं ।

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