मुगल साम्राज्य का पतन | Decline of the Mughal Empire.

मुगल साम्राज्य, जिसे जहीरुद्दीन बाबर ने 1526 में स्थापित किया था और जिसे सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में बादशाह अकबर ने उसकी ख्याति की चरम सीमा तक पहुँचा दिया था अपने अंतिम महान बादशाह औरंगजेब (1658-1707) के शासनकाल के बाद तेजी से पतन की ओर बढ़ने लगा ।

सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक उसकी राजधानी दिल्ली पूरे पूर्वी गोलार्द्ध (Hemisphere) का एक प्रमुख सत्ता-केंद्र मानी जाती थी लेकिन आधी सदी के अंदर इस शक्तिशाली साम्राज्य के पतन के चिह्न असदिग्ध रूप से दिखाई देने लगे ।

कुछ इतिहासकार इस पतन के लिए औरंगजेब की विभाजनकारी नीतियों को दोषी ठहराते हैं विशेष रूप से दोष उसकी धार्मिक नीतियों को दिया जाता है जिन्होंने हिंदुओं को जो आबादी का बहुमत थे विमुख करै दिया ।

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माना जाता है कि दक्षिणी भारत में दो स्वतंत्र राज्यों-बीजापुर और गोलकुंडा के विरुद्ध और मराठों के विरुद्ध उसके (औरंगजेब के) प्रसारवादी सैनिक अभियानों ने भी साम्राज्य की जीवन-शक्ति को चूस लिया । पर कुछ अन्य इतिहासकारों का विश्वास है कि मुगल साम्राज्य के पतन की जड़ें व्यक्तियों या विशेष नीतियों की बजाय मुगल प्रशासन की बुनियादी संस्थाओं और व्यवस्थाओं में थीं ।

फिर भी इस बात को लेकर कम विवाद है कि पतन की प्रक्रिया औरंगजेब के काल में ही आरंभ हुई और उसके कमजोर उत्तराधिकारी इसे नहीं रोक सके । उत्तराधिकार के लिए बार-बार होने वाली लड़ाइयों ने स्थिति को और बदतर बनाया ।

कथित रूप से योग्य कमानदारों की अत्यधिक कमी कें कारण मुगल सेना कमजोर हुई; कोई सैनिक सुधार नहीं हुआ, न कोई नई तकनोलॉजी (प्रौद्योगिकी) ही आई । मुगल सैन्यबल के कमजोर पड़ने के कारण अंदरूनी विद्रोहों को बढ़ावा और विदेशी हमलों को आमंत्रण मिला । शिवाजी के नेतृत्व में मराठे बार-बार औरंगजेब के शासन को ललकारने लगे ।

उसके मरने के बाद मराठों की लूट-मार बढ़ गई; 1738 में उन्होंने दिल्ली के उपनगरों तक को लूटा । उसके बाद 1738-39 में नादिरशाह के नेतृत्व में फारसी आक्रमण हुआ और दिल्ली में लूट-पाट की जो साम्राज्य की प्रतिष्ठा पर भयानक चोट थी । थोड़े समय के लिए स्थिति सुधरी और 1748 में हुए पहले अफगान हमले को असफल कर दिया गया ।

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लेकिन अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों ने फिर हमला किया पंजाब को हथिया लिया और 1756-57 में दिल्ली को नष्ट किया । अफगानों को पीछे धकेलने के लिए मुगलों ने मराठों से सहायता माँगी पर 1761 में पानीपत की लड़ाई में अब्दाली ने मराठों को भी मात दे दी ।

अफगान का खतरा बहुत दिनों तक जारी नहीं रहा क्योंकि सेना में एक विद्रोह ने अब्दाली को वापस अफगानिस्तान जाने पर विवश कर दिया । लेकिन उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति निश्चित ही मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा के समाप्त होने का आभास दे रही थी ।

सर यदुनाथ सरकार (1932-50) जैसे आरंभिक इतिहासकारों का विश्वास था कि यह व्यक्तित्व का एक संकट था-कमजोर बादशाह और अयोग्य कमानदार शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के इस पतन के लिए जिम्मेदार थे ।

लेकिन टी.जी.पी. स्पियर (1973) जैसे दूसरे इतिहासकारों का कहना है कि अठारहवीं सदी के भारत में योग्य व्यक्तियों की कोई कमी नहीं थी । यह सचमुच ही सैयद भाइयों निजामुल मुल्क, अब्दुस्समद खाँ, जकरिया खाँ, सआदत खाँ, सफदर जंग, मुर्शिद कुली खाँ या सवाई जय सिंह जैसे योग्य व्यक्तियौं और सैनिकों की गतिविधियों का काल था ।

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लेकिन दुर्भाग्य से ये सारे योग्य राजनयिक स्वार्थ-सिद्धि में लिप्त रहे और उन्हें साम्राज्य के भाग्य की चिंता कम रही । इस कारण संकट के काल में वे नेतृत्व प्रदान नहीं कर सके बल्कि पतन की प्रक्रिया में उन्होंने सीधे-सीधे योगदान ही किया ।

लेकिन इसे व्यक्तिगत असफलता मानने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि मुगल संस्थाओं की वे अंदरुनी कमजोरियाँ इसके लिए कहीं अधिक जिम्मेदार थीं जो सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों में धीरे-धीरे बड़ी थीं । मुगल साम्राज्य को मूल रूप से एक ”सैनिक राज्य” कहा गया है ।

उसने एक केंद्रीकृत शासन-व्यवस्था के विकास की कोशिश की जिसकी जीवन-शक्ति वस्तुत: उसकी सैन्य-शक्ति पर निर्भर थी । इस प्रशासनिक ढाँचे के शिखर पर (मुगल) बादशाह था जिसकी सत्ता मुख्यत: उसके सैन्यबल पर निर्भर थी । इस ढाँचे में उससे नीचे सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व था सैनिक कुलीनवर्ग ।

सोलहवीं सदी के अंतिम भाग में अकबर ने इस कुलीनवर्ग को अपनी मनसबदारी व्यवस्था के माध्यम से संगठित किया था अर्थात् इसमें कुलीनों का एक सैन्य संगठन था जो मूलत: बादशाह के प्रति निजी स्वामिभक्ति पर आधारित था ।

हर कुलीन को मनसबदार कहा जाता था और उसका एक दोहरा मनसब होता था-जात मनसब और सवार मनसब । जात मनसब का अर्थ उसका निजी मनसब था और सवार मनसब का अर्थ यह था कि उसे कितने घुड़सवार रखने थे ।

यह दोहरा मनसब यह भी बताता था कि पूरी मुगल नौकरशाही में किसी विशेष कुलीन की क्या स्थिति थी । कभी-कभी उन्हें नकद वेतन दिया जाता था (ये नकदी मनसबदार होते थे) लेकिन अधिकांशत: उनको भुगतान जागीर के रूप में कियो जाता था जिसकी अनुमानित (जमा) राजस्व आय उनके निजी वेतन के अलावा उनके सिपाहियों और घोड़ों के रख-रखाव पर खर्च होती थी ।

जागीरें दो प्रकार की थीं-हस्तांतरणीय यानी तनखा जागीर और अहस्तांतरणीय यानी वतन जागीर । अधिकांश जागीरें हस्तांतरणीय थीं । अहस्तांतरणीय जागीरें स्थानीय स्तर पर शक्तिशाली राजाओं और जमींदारों के स्वतंत्र क्षेत्रों को उनकी वतन जागीरें घोषित कर उनको मुगल व्यवस्था में शामिल करने का उपाय मात्र थीं ।

मनसबदारों की नियुक्ति पदोन्नति और सेवा से निष्कासन और उनको जागीरों का आवंटन या उसका हस्तांतरण केवल बादशाह द्वारा किया जाता था और इस कारण कुलीनवर्ग के सदस्यों की केवल बादशाह के प्रति निजी वफादारी होती थी ।

मुगलकालीन भारत में राष्ट्रीय उपजातीय या धार्मिक किसी प्रकार की निवैयक्तिक निष्ठा विकसित नहीं हुई और इसलिए पूरा साम्राज्यिक तंत्र बादशाह और शासक वर्ग के बीच मौजूद ”संरक्षक-संरक्षित संबंध” पर आधारित रहा ओं इस संबंध की प्रभावशीलता और स्थिरता बादशाह के व्यक्तिगत गुणों पर और संसाधनों के निरंतर विस्तार पर निर्भर होती थीं और यह बात मुगलकालीन भारत में नए-नए क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए मुगल सेना के निरंतर युद्धरत रहने की स्थिति की व्याख्या करती है ।

लेकिन औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम वर्षों के बाद कोई विजय-अभियान नहीं चलाया गया और माना जाना है कि इसके बाद का काल साम्राज्य के संसाधनों के निरंतर सकुचन का काल था जमा कुछ इतिहासकारों का तर्क है साम्राज्यिक प्रशासन की दक्षता बादशाह और कुलाना क जिस कार्यात्मक संबंध पर आश्रित थी उसे इसी बात ने तोड़ा ।

कुलीनों की निष्ठा में कमी ने किस तरह मुगल साम्राज्य को प्रभावित किया इसे समझने के लिए इस शासक वर्ग की संरचना को गहराई से देखने की आवश्यकता है । मनसबदार-पद पर नियुक्ति जैसी बातों के लिए निर्णायक तत्त्व वंश या जातीय पृष्ठभूमि होती थी ।

मुगल कुलीनों का एक बहुत बड़ा हिस्सा बाहरी लोगों का था जो मध्य एशिया के विभिन्न भागों से आए थे । लेकिन धीरे-धीरे उनका भारतीयकरण होता गया हालांकि यह भारतीयकरण साम्राज्य की किसी सुसंगत नीति के बिना ही हुआ ।

इसलिए कुलीनवर्ग विभिन्न जातीय-धार्मिक समूहों में विभाजित रहा और उनमें तूरानी और ईरानी समूह सबसे महत्त्वपूर्ण थे । जो लोग मध्य एशिया के तुर्की-भाषी क्षेत्रों से आए थे वे तूरानी कहलाते थे जबकि वर्तमान ईरान अफगानिस्तान और इराक के फारसी-भाषी क्षेत्रों से आने वालों को ईरानी कहा जाता था ।

तूरानी सुन्नी और ईरानी शिया मुसलमान थे और इस कारण उनकी आपसी शत्रुता और जलन को एक धार्मिक रंग मिल गया । यद्यपि मुगलों का संबंध एक तूरानी नस्ल से था पर उन्होंने तूरानियों के प्रति कोई निजी कृपा दृष्टि नहीं दिखाई ।

कुलीनों में दूसरे समूह थे अफगान शेखजादे या भारतीय मुसलमान और हिंदू । हिंदुओं में मुख्यत राजपूत और मराठे थे जिनको साम्राज्य की विशिष्ट राजनीतिक आवश्यकताओं के कारण कुलीनवर्ग में शामिल किया गया था ।

दो दकनी राज्यों बीजापुर और गोलकुंडा पर औरंगजेब की विजय (क्रमश 1685 और 1689 में) के बाद जो कुलीन इन राज्यों की सेवा में थे उनको मुगल कुलीनवर्ग में शामिल कर लिया गया और फिर उनका समूह दकनी समूह कहलाया ।

मराठा और दकनी कुलीनों के शामिल किए जाने के कारण मुख्यत: औरंगजेब के अंतिम वर्षो में ही मुगल कुलीनवर्ग की संरचना में एक नाटकीय परिवर्तन और जिसने उसके अंदर के प्रच्छन्न अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया ।

इन कुलीनवर्गो की आपसी शत्रुता और प्रतिस्पर्धा जैसा कि कुछ इतिहासकारों का तर्क है अठारहवीं सदी के एक आर्थिक संकट के कारण चरम बिंदु पर जा पहुँचीं । भू-राजस्व से प्राप्त मुगल साम्राज्य की लगभग अस्सी प्रतिशत आय मनसबदारों के नियंत्रण में थी पर इस आय का वितरण बहुत ही असमान था ।

सत्रहवीं सदी के मध्य में लगभग 8 मनसबदारों में से केवल 445 मनसबदार ही साम्राज्य की 61 प्रतिशत राजस्व आय पर नियंत्रण रखते थे । इस कारण कुलीनवर्ग के अंदर स्वाभाविक रूप से ईर्ष्या और तनाव पैदा हुए खासकर तब जबकि साम्राज्य के संसाधन बढ़ नहीं रहे थे बल्कि कम ही हो रहे थे ।

सतीशचंद्र ने इस आर्थिक स्थिति का जिसे अठारहवीं सदी का ”जागीरदारी संकट” कहा गया है निरूपण निम्नलिखित शब्दों में किया है ”उपलब्ध सामाजिक अधिशेष (Surplus) प्रशासन की लागत उठाने के लिए, हर एक प्रकार के युद्ध का खर्च उठाने के लिए और शासक वर्ग को उसकी अपेक्षाओं के अनुसार एक जीवन-स्तर प्रदान करने के लिए अपर्याप्त था ।”

इसका कारण था ऐसे समय में मनसबदारों की संख्या में असाधारण वृद्धि जब जागीर के रूप में दिया जाने वाला क्षेत्र (या पायबाकी) बढ़ नहीं रहा था बल्कि घटता जा रहा था । राजस्व की उगाही अनुमानित आय से बहुत कम थी खासकर दक्षिण में और इसके कारण उपद्रव वाले क्षेत्रों में जागीरदारी की वास्तविक आय कम हुई ।

हालत इसलिए और भी खराब हो गई क्योंकि सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षो से ही कीमतें लगातार बढ़ने लगी थीं क्योंकि विलासिता की वस्तुएँ यूरोपीय बाजारों की ओर जा रही थीं और मुगल कुलीनवर्ग की कठिनाई इस कारण और बढ़ रही थी ।

अब चूंकि बहुत अधिक मनसबदार बहुत थोडी-सी जागीरों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे इसलिए बहुतों को वर्षों तक बिना जागीर के रहना पड़ा । फिर जब जागीर उन्हें मिलती भी थी तो इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि थोड़े ही समय में उसे हस्तांतरित नहीं कर दिया जाएगा । इसलिए पूरा कुलीनवर्ग निजी असुरक्षा की एक गहरी भावना से ग्रस्त था ।

फिर भी, जागीर का यह संकट कोई नई घटना (Phenomenon) नहीं थी क्योंकि राजस्व की वसूली (यानी राजस्व की वास्तविक आय) और किसी विशेष जागीर की अनुमानित राजस्व-आय में हमेशा अतर रहता था । यह संकट औरंगजेब के शासन के अंतिम वर्षो में मुख्यत दकनी युद्धों के कारण और गहराया ।

अब मनसबदारों की संख्या बढ़ चुकी थी और राजनीतिक उथल-पुथल ने राजस्व की वसूली को और मुश्किल बना दिया था । जे.एफ. रिचर्ड्स (1975) का तर्क है कि यह समस्या एक हद तक कृत्रिम थी और औरंगजेब की गलत नीतियों के कारण पैदा हुई जो खालिसा (शाही जमीनों) के आकार को लगातार बड़ा करता जा रहा था ।

बीजापुर और गोलकुंडा की विजय के बाद राजस्व में 23 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई । लेकिन इस अतिरिक्त आय को अपने मनसबदारों में बाँटने की बजाय संसाधनों का उपयोग औरंगजेब अपने दकन-अभियान में करना चाहता था ।

इसलिए नए-नए जीते गए क्षेत्रों को खालिसा में शामिल कर लिया गया तथा उनकी राजस्व-आय दक्षिण में युद्धरत सैनिकों को वेतन देने के लिए सीधे शाही खजाने में जाने लगी । इस तरह जागीरदारी के संकट को हल करने का एक अवसर जाता रहा और इसीलिए रिचर्ड्स मानते हैं कि यह संकट कृत्रिम था और संसाधनों की किसी वास्तविक दुर्लभता का परिणाम नहीं था ।

फिर भी उन्होंने दिखाया है कि दकन में राजस्व की वसूली धीरे-धीरे कम हो रही थी जबकि सतीशचंद्र का तर्क है कि दकन हमेशा एक घाटे वाला क्षेत्र रहा । इसलिए निर्णायक रूप से इस बारे में कुछ कह सकना कठिन है कि बीजापुर और गोलकुंडा की विजय जागीर संकट को वास्तव में कैसे हल करती ।

कृत्रिम हो या वास्तविक माना यही जाता है कि जागीरदारी संकट ने कुलीनों के बीच अच्छी जागीरों पर कब्जे के लिए एक अस्वस्थ प्रतियोगिता का आरंभ किया । मुगल दरबार में गुटबंदी की राजनीति आए दिन की बात हो गई; हर गुट अच्छी जागीरें पाने के लिए बादशाह को अपने प्रभाव में लाने की कोशिश करने लगा ।

1712 में बहादुरशाह की मृत्यु के बाद समस्या ने संकट का रूप ले लिया क्योंकि राजस्व की वसूला अधिकाधिक कठिन होती गई और इस कारण कम मनसब वाले अधिकारियों के लिए जो कुछ उन्हें अपनी जागीरों से मिलता था उसके बल पर अपने जीवन-स्तर को बनाए रखना सचमुच कठिन हो गया ।

यह समस्या जहाँदारशाह (1712-13) और फरुखसियर (1713-19) के शासनकालों में और गहराई । यह मुहम्मदशाह के शासनकाल (1719-48) में भी नहीं सुधरी जब राजनीतिक कारणों से मनसबदारी के ओहदे दोनों हाथों से बाँटे जाने लगे जिसके कारण कुलीनों की संख्या और बड़ी ।

उनकी बढ़ती माँगों को पूरा करने के लिए खालिसा जमीनों के कुछ भागों को जागीरों में बदल दिया गया । इस कदम से मनसबदारों की समस्याएँ पूरी तरह हल नहीं हुई पर बादशाह पर गरीबी अवश्य आ गई । वजीर (प्रधानमंत्री) बनने के बाद निजामुल मुल्क ने भूमि के पुनर्वितरण के द्वारा समस्या को हल करने की कोशिश की किंतु दरबार के अंदर से भारी विरोध के कारण वह इसे पूरी तरह लागू नहीं कर सका ।

उन दिनों शाही दरबार में जोड़-तोड़ अपनी चरम सीमा पर था । और अधिक सामान्य शब्दों में कहें तो मुगल कुलीनवर्ग तीन परस्परविरोधी गुटों में विभक्त था: असद खाँ और उसके बेटे जुल्फ़िकार खाँ के नेतृत्व वाला ईरानी गुट; गाजिउद्दीन खाँ फीरोज जग और उसके बेटे चिन कुलिच खाँ (निजामुल मुल्क) के नेतृत्व वाला तूरानी गुट; और सैयद भाइयों खाने-दौरों कुछ अफगान नेताओं और कुछ हिंदुओं के नेतृत्व वाला हिंदुस्तानी गुट ।

ये गुट जाति या धर्म पर आधारित न होकर पारिवारिक संबंधों निजी मित्रता और सबसे बढ़कर साझे स्वार्थो पर अधिक आधारित थे । गुटों की यह लड़ाई न कभी शाही दरबारों से बाहर गई न हिंसक टकरावों में बदली । तैमूर के शासकों के शासन करने के दैवी अधिकार को किसी ने चुनौती नहीं दी । लेकिन संरक्षण के वितरण को नियंत्रित करने के लिए हर गुट बादशाहों को अपने प्रभाव में लेने के प्रयास करता रहा ।

सत्ता के केंद्र से किसी विशेष गुट की निकटता स्वाभाविक रूप से दूसरे गुटों को उससे विमुख करती थी और इसके कारण बादशाह और उसके कुलीनों के वफादारी वाले निजी संबंध धीरे-धीरे प्रभावित हुए क्योंकि असंतुष्ट गुटों को साम्राज्य के हितों का ध्यान रखने का कोई कारण दिखाई नहीं देता था ।

फिर इससे भी बदतर बात यह हुई कि इसके कारण सेना में भ्रष्टाचार फैला । अब कोई मनसबदार अपेक्षित संख्या में सिपाही और घोड़े नहीं रख रहा था और न ही इसकी प्रशासनिक निगरानी की कोई कारगर व्यवस्था थी ।

सेना का इस तरह कमजोर पड़ना साम्राज्य के लिए घातक था क्योंकि साम्राज्य का स्थायित्व अंतत उसके सैन्यबल पर ही निर्भर था । मराठों के नेता शिवाजी ने सफलतापूर्वक दिखा दिया कि मुगलों की सेना अब अजेय नहीं थी ।

चूँकि सेना में कोई नया प्रौद्योगिक तत्त्व या सांगठनिक प्रवर्तन-कार्य (Innovation) सामने नहीं आया इसलिए सेना का यह पतन और भी स्पष्ट होता गया । अब कुलीन अपने लिए स्वतंत्र या अर्द्ध-स्वतंत्र रजवाड़े खड़े करने में अधिक दिलचस्पी लेने लगे जिसके कारण साम्राज्य एक तरह से विखंडित होकर रह गया ।

सत्रहवीं सदी के अंतिम तथा अठारहवीं सदी के प्रारंभिक वर्षो में बार-बार होने वाले किसान विद्रोहों को भी मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण माना जाता है और शासक कुलीनवर्ग के संकट का इससे कुछ संबंध रहा होगा यह भी संभव नहीं है ।

ऊपर से आरोपित एक साम्राज्य को और उसपर धीरे-धीरे बढ़ रहे आर्थिक दबावों को संभवत ग्रामीण समाज ने कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया था और एक केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध क्षेत्रीय भावनाएँ तो थीं ही । इस कारण मुगल साम्राज्य की स्थापना के आरभ से ही किसानों का असंतोष उसके इतिहास का एक स्थायी तत्त्व बना रहा । लेकिन मुगलों का भय किसानों के लिए हमेशा हतोत्साहक का काम करता रहा और क्षेत्रीय असंतोष की समस्या को असाध्य बनने से रोकता रहा ।

सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षो और अठारहवीं सदी में जब केंद्रीय सत्ता की कमजोरियाँ स्पष्ट हो गई और मुगल सेना को बार-बार मात खानी पड़ी और साथ ही साथ जब मुगल शासकवर्ग का दमन बढ़ता गया तब शाही सत्ता का प्रतिरोध व्यापक भी बना और अधिक दृढ़संकल्प भी ।

अधिकांश मामलों में इन विद्रोहों का नेतृत्व असंतुष्ट स्थानीय जमींदारों ने किया और दमन से पीड़ित किसानों ने उनका पूरा-पूरा साथ दिया । आखिरकार जमींदारों और किसानों का मिला-जुला दबाव इतना बढ़ गया था कि मुगल सत्ता उसे सहन नहीं कर पाती थी ।

इन विद्रोहों की अनेक प्रकार से व्याख्या की जा सकती है । उन्हें एक अतिक्रामक केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध क्षेत्रीय और सामुदायिक पहचानों (Identities) की राजनीतिक दावेदारी के रूप में पेश किया जा सकता है या औरंगजेब की धर्माध नीतियों के विरुद्ध प्रतिक्रियाओं के रूप में भी ।

बाद वाली व्याख्या अधिक असंभाव्य लगती है क्योंकि अपने शासन के बाद वाले वर्षो में औरंगजेब विधर्मियों (हिंदुओं) के प्रति अधिक उदारता दिखाने लगा था । वास्तव में वह ठंडे दिमाग से सोच-विचारकर अनेक स्थानीय हिंदू सरदारों को अपनी ओर मिलाने लगा था जिससे उनकी वफादारी पा सके और अपने शत्रुओं को अलग-अलग करके साम्राज्य की राजनीतिक समस्याओं को हल कर सके ।

लेकिन दूसरी ओर जैसा कि कुछ इतिहासकारों का तर्क है इन विद्रोहों के पीछे वास्तविक कारण मुगल साम्राज्य के संपत्ति के संबंधों में पाया जा सकता है । बादशाह अपने साम्राज्य की जमीनों का मालिक था या नहीं था यह एक विवादास्पद प्रश्न है । लेकिन राजस्व के रूप में जमीनों की जो आय वसूल की जाती थी जिसकी राशि सुल्लानी काल में धीरे-धीरे बढ़ती ही गई उस पर असंदिग्ध रूप से बादशाह का अधिकार

था ।

इरफान हबीब (1963) ने दिखाया है कि राजस्व की मुगल व्यवस्था एक समझौते पर आधारित थी: किसान के पास जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त अनाज छोड़ दिया जाता था जबकि जहाँ तक संभव होता था अधिशेष को राज्य राजस्व के रूप में ले लेता था ।

मुगलकाल के किसान के पास अधिशेष कुछ रहता ही नहीं था यह बात सही नहीं है: उत्पादन जारी रखने के लिए उसके पास निश्चित ही कुछ छोड़ दिया जाता था साथ ही किसानों के अंदर विभेदीकरण (Differentiation) भी इसका संकेत देता है ।

लेकिन कुल मिलाकर देखें तो जहाँ बड़े किसान इस बोझ को सह सकते थे वहीं छोटे किसान अधिकाधिक अपने को उत्पीड़ित समझने लगे । आम तौर पर जज्ज क्षेत्रों में (जहाँ जमीनों का विस्तृत सर्वेक्षण कराया गया था) भू-राजस्व की माँग उपज की एक-तिहाई होती थी लेकिन वास्तविक माँग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग थी ।

कुछ क्षेत्रों में यह फसल का आधा थी और गुजरात जैसे उपजाऊ क्षेत्रों में तो तीन-चौथाई तक थी । उसका खालिसा जमीनों से वसूल किया गया एक भाग राजकोष में जाता था जबकि एक बड़ा भाग (औरंगजेब के काल में 80 प्रतिशत) जागीरदारों को मिलता था ।

भूमि की आय पर एक दावा और भी होता था जो राज्य के दावे से कम और किसान के हिस्से से अधिक होता था और यह दावा स्थानीय जमींदारों का होता था । इन जमींदारों में विभेदीकरण भी था । राजस्थान के राजपूत सरदारों जैसे कुछ तो काफी बड़े राजा थे जिनकी स्थानीय राजनीतिक शक्ति भी काफी अधिक होती थी ।

एक नियत राशि (पेशकश) और बादशाह के प्रति वफादारी की शर्त पर उनको मुगल नौकरशाही मैं शामिल कर लिया गया तथा उनके अपने वतन (क्षेत्र) पर उनकी स्वतंत्र सत्ता को मान्यता दे दी गई । सबसे नीचे मालगुजार या छोटे जमींदार थे जिनका भूमि पर स्वतंत्र अधिकार होता था और अनेक मामलों में तो किसानों से मालगुजारी उन्हीं के माध्यम से वसूली जाती थी जिसके बदले में वे नानकार या मालगुजारी मुक्त जमीनें पाते थे ।

इन दो समूहों के बीच मध्यवर्ती जमींदार थे जो अपनी जमींदारियों से और दूसरे मालगुजारी जमींदारों से भी भू-राजस्व वसूल करते थे । जमींदारों के नीचे किसान थे और उनमें भी भेद थे खुदकाश्त तो दखली अधिकारों (Occupancy rights) वाले किसान थे जबकि पाहीकाश्त घुमक्कड़ किसान होते थे ।

छोटे जमींदारों और किसानों के बीच जाति वंश और धर्म पर आधारित गहरे सामुदायिक संबंध होते थे । यह अंतर्सबंध जमींदारों की शक्ति का महत्त्वपूर्ण स्रोत था; उनमें से अनेक तो छोटी-छोटी सेनाओं और किलों (Forts) के स्वामी थे ।

इसलिए उनके सक्रिय सहयोग के बिना अंदरूनी इलाकों में मुगल प्रशासन चल ही नहीं सकता था । अकबर ने इन जमींदारों को सहयोगी बनाने की कोशिश की थी लेकिन औरगजेब के अंतिम वर्षों से ही और विशेषकर उसकी मृत्यु के बाद (1707-08 में उत्तराधिकार के युद्ध के बाद) उत्पीड़ित जमींदारों की स्वामीभक्ति निसंदेह डगमगाने लगीं ।

बहादुरशाह के शासन के अंतिम वर्षो में छोटे और मध्यवर्ती दोनों प्रकार के जमींदार संकटग्रस्त किसानों के सक्रिय सहयोग से मुगल राजसत्ता के विरुद्ध हो गए । जागीरदारों का बढ़ता दमन स्थानीय जमींदारों की खुली अवज्ञा का एक प्रमुख कारण हो सकता है । पिछले बादशाहों ने परिक्रमण (Rotation) की व्यवस्था के द्वारा उनको नियंत्रण में रखने की राजनीतिक कोशिशें की थीं ।

इरफान हबीब (1963) का तर्क है कि इस मुगल व्यवस्था के कारण और इसका लाभ उठाकर जागीरदार किसानों को उत्पीड़ित करते थे । चूँकि अकसर उनका स्थानांतरण कर दिया जाता था इस कारण जागीर से उनका कोई लगाव या उसमें दीर्घकालिक रुचि नहीं होती थी और अपने थोड़े समय की जागीरदारी के दौरान वे किसानों का कोई ध्यान रखे बिना यथासभव उन्हे लूटने-खसोटने की कोशिश करते रहते थे ।

उनकी स्वाभाविक उत्पीड़क प्रवृत्तियाँ निरना शाही निरीक्षण के कारण ही एक सीमा में रहती थीं पर अठारहवीं सदी में निरीक्षण की यह व्यवस्था पूरी तरह धराशायी हो गई । जो शक्तिशाली जागीरदार प्रतिरोध या स्थानातरण का विरोध कर सकते थे उन्होंने शक्ति के अपने स्थानीय आधार तैयार कर लिए और उसके सहारे यथासभव कर लूटने-खसोटने के प्रयास करते रहे । गोलकुंडा पर अधिकार के बाद वहाँ यह प्रवृत्ति एकदम स्पष्ट थी ।

आगे चलकर बहादुरशाह के शासन के अंतिम वर्षों में दकन के अनेक जागीरदारों ने मराठा सरदारों से समझौते किए और इस बंदोबस्त ने उनको किसानों से यथासंभव कर वसूल करने की छूट दे दी । कभी-कभी वे आमिलों (राजस्व वसूलने वाले अधिकारियों) से पेशगी रकम भी लेते थे जो फिर किसानों से यथासंभव वसूली करते थे ।

दूसरी ओर जिन लोगों का जब-तब स्थानांतरण होता रहता था उनको स्थानीय परिस्थितियाँ इतनी उथल-पुथल वाली लगती थीं कि राजस्व वसूल नहीं किया जा सकता था । इस समस्या को हल करने और एक छोटी-सी अवधि में अधिकतम लाभ पाने के लिए उन्होंने इजारादारी व्यवस्था विकसित की जिसके द्वारा मालगुजारी की वसूली का अधिकार सबसे ऊँची बोली लगानेवाले को दे दिया जाता था ।

इजारादार की माँग अकसर मालगुजारी की वास्तविक माँग से बहुत अधिक होती थी और इसका दबाव अकसर छोटे जमींदारों और किसानों पर आ जाता था । फर्रुखसियर के शासन काल में खालिसा की जमीनें भी इजारादारों को दी जाने लगी थीं ।

माना जाता है कि इस तरह मुगलों की यह समझौता नीति पूरी तरह टूट गई और छोटे जमींदार अधिशेष में अपने हिस्से के लिए मुगल प्रशासन का विरोध करने लगे । दकन जैसे बाहरी और अधिक उथल-पुथल वाले इलाकों में जमींदारों की अवज्ञा आए दिन की बात हो गई ।

अठारहवीं सदी में मुगलकालीन उत्तर भारत के केंद्र तक में जमींदारों में केंद्रीय सत्ता की अवज्ञा मालगुजारी का भुगतान रोकने और मुगल सत्ता अगर उसे बलपूर्वक वसूल करने की कोशिश करती तो उसका प्रतिरोध करने की एक व्यापक प्रवृत्ति थी ।

किसानों से अपने सामुदायिक संबंधों के कारण वै लोग मुगल सत्ता के विरुद्ध किसानों को आसानी से लामबंद कर सकते थे । किसानों के लिए भी जमींदारों की यह पहल नेतृत्व की समस्या हल कर देती थी क्योंकि एक केंद्रीय सत्ता को अपने बल पर चुनौती देना और अपने संघर्ष को बहुत लंबे समय तक जारी रखना अकसर उन्हें कठिन दिखाई देता था ।

इसलिए परवर्ती मुगलकाल में किसानों की शिकायतें अकसर धार्मिक और क्षेत्रीय पहचानों के आधार पर सामने आती थीं । मराठा सरदारों ने किसानों की इन शिकायतों का लाभ उठाया; उत्तर भारत में जाट किसानों को उनके जमींदारों ने संघटित किया; पंजाब में सिख विरोध में उठ खड़े हुए और राजस्थान में राजपूत सरदारों ने अपनी वफादारी वापस ले लीं ।

इन सभी विद्रोहों के कारण साम्राज्य के विभिन्न भागों में स्वतंत्र रजवाड़े स्थापित हुए और इससे मुगलों की सत्ता और भी कमजोर हुई । इस तरह अठारहवीं सदी में अनेक प्रकार के क्षेत्रीय रजवाड़े पैदा हुए जिनमें से कुछ ने ”राज्य-निर्माण की पुरानी स्थानीय या क्षेत्रीय परंपरा (ओं)” को अपना आधार बनाया तो कुछ ने अपने आधार के लिए अपनी नस्ली पहचान तथा उससे जुड़ी ” ‘समुदाय’ की अवधारणाओं” पर ध्यान केंद्रित किया ।

16 इस सदी के अंत तक मुगल बादशाह का प्रभावी शासन राजधानी दिल्ली के आसपास के एक छोटे-से भाग तक सिमटकर रह गया । अंग्रेजों ने 1858 में जब अंतिम बादशाह बहादुरशाह द्वितीय को शासन से अपदस्थ किया तो केवल इससे बादशाही का भ्रममात्र ही टूटा ।

फिर भी कुछ इतिहासकार निर्धनता और आर्थिक दबाव को इन विद्रोहों की और अंतत मुगल साम्राज्य के पतन की पर्याप्त व्याख्या नहीं मानते क्योंकि स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के बीच महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय अंतर थे । इसलिए हाल का ”संशोधनवादी” इतिहास-लेखन चाहता है कि हम इस केंद्रवादी दृष्टि से हटकर एक भिन्न परिप्रेक्ष्य में इस स्थिति को देखें । इस नए इतिहास-लेखन के अनुसार मुगलों का पतन नए समूहों के ऊपर उठकर आर्थिक और राजनीतिक शक्ति पाने का तथा उनको नियंत्रित करने में एक दूर स्थित और कमजोर पड़ चुके केंद्र की असमर्थता का परिणाम था ।

मुगल साम्राज्य के पूरे इतिहास में पतन और संकट से अधिक समृद्धि और संवृद्धि के साक्ष्य मिलते हैं । इस बात को अस्वीकार करना संभव नहीं कि अठारहवीं सदी तक भी अतिरिक्त संसाधनों वाले क्षेत्र मौजूद थे जैसे मुरादाबाद-बरेली अवध और बनारस ।

लेकिन मुगल सत्ता स्थानीय जमींदारों के हाथों में जमा इस अधिशेष का और संसाधनों का अधिग्रहण नहीं कर सकी । 17 बंगाल अधिशेष वाला एक और क्षेत्र था । पूर्वी बंगाल में लगभग उन्हीं दिनों जंगली जमीन के बड़े-बड़े हिस्से साफ किए गए और इन नए क्षेत्रों में रहने वालों ने अपने नवस्थापित खेतिहर समुदायों को सुस्पष्ट धार्मिक व राजनीतिक दिशा प्रदान की जबकि स्थानीय अधिकारी इन खेतिहर बस्तियों के आस-पास अपने लिए आसानी से राजस्व उगाही की नई इकाइयाँ बना सकते थे ।

दूसरे शब्दों में बढ़ते खेतिहर उत्पादन और अर्थव्यवस्था के मौद्रीकरण (Monetization) ने जमींदारों किसानों और स्थानीय शक्तिशाली वंशों को और अधिक संसाधन उपलब्ध कराए जिनको साम्राज्य के केंद्र के सापेक्ष सुस्पष्ट रूप से अधिक लाभकारी स्थिति और आत्मविश्वास की प्राप्ति हुई ।

उनको कमजोर पड़ रहे केंद्रीय नियंत्रण का लाभ उठाकर अब मुगल साम्राज्य के सांस्कृतिक और वैचारिक ढाँचे को बनाए रखकर भी केंद्रीकृत साम्राज्यिक सत्ता से अपनी निष्ठा तोड़ना और अपनी स्वतंत्रता का दावा करना अधिक सुविधाजनक लगा ।

माना गया है कि मुगलकालीन भारत में शक्ति के ऐसे बिखराव (Diffusion) की संभावनाएँ सदैव रहीं । ऐसे सामूहिक गुट (Corporate groups) और सामाजिक वर्ग भी थे, जो एक तथाकथित अतिक्रामक केंद्रीय सत्ता के बावजूद विभिन्न प्रकार के अधिकारों से लैस थे, और सी.ए. बेइली के शब्दों में ये अधिकार उनकी “पोर्टफोलियो पूंजी” थे, जिसका निवेश करके वे भारी लाभ कमा सकते थे ।

इस विचार को मानने वाले इतिहासकारों के अनुसार पूरे मुगल काल में केंद्रीय सत्ता और क्षेत्रीय कुलीनों के बीच समझौते और तालमेल की एक प्रक्रिया निरंतर चलती रही । जैसा कि आंद्रे विक ने कहा है, मुगलों की प्रभुसत्ता ”निरंतर परिवर्तनशील शत्रुताओं और गठजोडों की एक संतुलनकारी व्यवस्था” पर आधारित थी ।

मुगल व्यवस्था “फित्ना” (राजद्रोह) को समायोजित करने के लिए तैयार थी और अपनी सार्वभौम अधिकार क्षेत्र की धारणा में (देशी हों या विदेशी) ऊपर उठ रही स्थानीय शक्तियों को शामिल करने की हमेशा कोशिश करती रही ।

समझौते और बलप्रयोग के इसी तंत्र के प्रभावी क्रियान्वयन पर उसके अस्तित्व का बना रहना निर्भर था । दूसरे शब्दों में मुगलों की केंद्रीकरण की प्रक्रिया में संगठन के परस्परविरोधी सिद्धांतों के बने रहने के लिए पर्याप्त संभावना बची रहती थी ।

इस संदर्भ में फ्रैंक पर्लिन ने ”श्रेणियों और तकनीकों के एक ‘पुस्तकालय”’ के अस्तित्व की बात कही है; पुस्तकालय (Library) से उसका अभिप्राय शासन की व्यवस्थाओं मापन की विधियों तथा राजस्व-संग्रह की तकनीकों की बहुलता से था जिनमें देश-काल के अनुसार व्यापक परिवर्तन आते रहते थे ।

अधिकारों की बहुलता भी थी जैसे दकन में वतन की धारणा थी जिसका अर्थ विरासत में मिलनेवाले ऐसे अधिकार थे जिनको बादशाह भी छीन नहीं सकता था । अठारहवीं सदी में केंद्रीकरण के प्रयास भी उन अधिकारों को समाप्त नहीं कर सके ।

इसलिए जैसा कि मुज़फ्फ़र आलम ने स्थिति का सार प्रस्तुत किया है, विकेंद्रीकरण और व्यवसायीकरण के कारण इन्हीं दिनों ”नए नवाबों” के एक दल ने साम्राज्य के संसाधनों पर इस तरह अपना एकाधिकार कर लिया कि वंशानुगत मुगल कुलीन अर्थात् खानजादे उनसे वंचित हो गए ।

ये नए नवाब वे नए क्षेत्रीय सत्ताधिकारी थे जिन्होंने प्रांतों में प्रमुखता प्राप्त की और मुगल साम्राज्य की केंद्रीकरण की प्रवृत्ति का सफलतापूर्वक सामना किया । इस समूह में ऐसे जागीरदार थे जिन्होंने स्थानांतरण की अवज्ञा की और इस तरह स्थानीय शासक बन बैठे और इसमें इजारादार अर्थात् नए ”राजस्व संबंधी उद्यमी” थे, जिन्होंने “नकदी और स्थानीय व्यापार के प्रबंध की विशेषज्ञता के साथ सैन्यबल का समन्वय” किया ।

इस तरह निर्धनता और संकट की बजाय ”सुसंगत आर्थिक संवृद्धि और समृद्धि ही स्थानीय राजनीतिक उथल-पुथल का कारण” थीं । दूसरे शब्दों में, मुगल साम्राज्य में शक्तिशाली क्षेत्रीय राजनीतिक समूहों के उत्थान की संभावना सदैव थी तथा अठारहवीं सदी के महत्त्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों ने उस संभावना को और भी स्पष्टता के साथ उजागर किया ।

लेकिन वहीं इन नए विकासक्रमों को सही-सही समझा भी नहीं गया था न व्यवस्था में समायोजित किया गया था और इसलिए ही अंतत: उसका पतन हुआ । इन ‘परंपरागत’ और ‘संशोधनवादी’ इतिहास-लेखनों के बीच एक सुविधाजनक मध्यक्षेत्र (Middle ground) की खोज कर सकना कठिन है; न ही इन दोनों में से किसी को रह कर सकना सरल है ।

संशोधनवादी इतिहास-लेखन की आलोचना उसके द्वारा मुगल साम्राज्य के सुगठित चरित्र को कम करके ओकने तथा केंद्रीकृत प्रभुसत्ता की समकालीन मुस्लिम धारणा को अनदेखा करने के कारण की गई है । दूसरी ओर इन आलोचकों की आलोचना उनके एक ऐसी मानसिकता से चिपके रहने के कारण की गई है जो मुगल साम्राज्य को केवल एक केंद्रीकृत ढाँचे के रूप में देखने की अभ्यस्त रही है ।”

संशोधनवादी इतिहास-लेखन (Historiography) की समालोचना करते हुए जैसा कि अतहर अली ने माना है अगर कोई साझी जमीन (या मध्यक्षेत्र) है तो यही आम मान्यता है कि जमींदार या मध्यवर्ती वर्ग मुगल ढाँचे में ”एक अपकेंद्री शक्ति” थे ।

फिर भी निष्कर्षस्वरूप हम यह कह सकते हैं कि भारतीय इतिहास की अठारहवीं सदी को समझने के लिए ‘पतन’ की अवधारणा संभवत एक अपर्याप्त विचार है । मुगल व्यवस्था साम्राज्य के वास्तविक पतन के बाद भी बहुत समय तक जारी रही जब अनेक क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ ।

भारतीय इतिहास में अठारहवीं सदी कोई अंधकार का युग नहीं है न ही कुल मिलाकर पतन का युग है । एक अखिल भारतीय साम्राज्य के पतन के बाद एक अन्य का उदय हुआ और बीच के काल में अनेक प्रकार के शक्तिशाली क्षेत्रीय राज्यों का वर्चस्व रहा । इस कारण जैसा कि सतीशचंद्र (1991) का तर्क है इस सदी को एक सुस्पष्ट कालगत समग्रता में समझा जाना चाहिए ।

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