ब्रिटिश शासन के दौरान भूमि राजस्व का शोषण | Read this article in Hindi to learn about the exploitation of land revenue in India during British rule.  
1765 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी मिलने के बाद अधिक से अधिक मालगुज़ारी वसूल करना भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन की प्रमुख चिंता थी ।

खेती अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार और इसलिए आय का प्रमुख स्रोत थी और इस कारण वसूली बढ़ाने की जल्दी में मालगुजारी के अनेक प्रयोग किए गए, हालांकि नवाबी प्रशासन मुहम्मद रजा खाँ के हाथों में ही रहा, जो कंपनी के नायब दीवान का काम करता रहा । अंग्रेज इस बारे में कोई खतरा उठाने को भी तैयार न थे ।

इसलिए हालांकि वसूली के लिए देशी अधिकारी रखे गए, पर कंपनी के यूरोपीय अधिकारियों को उनपर निगरानी का अधिकार दिया गया तथा उनके भ्रष्टाचार ने और स्थानीय स्थिति के अज्ञान ने भी कुछ ही वर्षो के अंदर दीवानी वाले प्रांतों में खेतिहर अर्थव्यवस्था और समाज को पूरी तरह अस्तव्यस्त कर दिया गया ।

1769-70 का विनाशकारी अकाल, जिसने बंगाल की लगभग एक-तिहाई आबादी को निगल लिया फैली हुई अराजकता का बस एक सूचक था । अपने शेयरधारकों को प्रत्याशित लाभांश दे पाने में असमर्थ कंपनी के डायरेक्टर गिरती मालगुजारी और अकाल के विनाश के कारणों की तलाश करने लगे ।

उनकी एक आसान ”बलि का बकरा” रजा खाँ के रूप में मिल गया, जिसे भ्रष्टाचार और गबन के झूठे आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया । लेकिन उसको हटाए जाने का असली कारण बंगाल के नवनियुक्त गवर्नर वॉरेन हेस्टिंग्ज की यह इच्छा थी कि मालगुज़ारी प्रशासन को भारतीयों से एकदम मुक्त कराकर अंग्रेजों को प्रांत के संसाधनों का एकमात्र नियंत्रक बना दिया जाए ।

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1772 में उसने फार्मिग के नाम से नई व्यवस्था का आरंभ किया । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है जिलों के यूरोपीय कलेक्टरों को अब मालगुज़ारी की वसूली का नियंता बना दिया गया, जबकि वसूली का अधिकार सबसे बड़ी बोली लगानेवालों को दिया जाने लगा ।

बंदोबस्तों (settlements) की अवधि के बारे में अनेक प्रयोग किए गए पर फार्मिग व्यवस्था आखिरकार स्थिति को सुधारने में असफल रही क्योंकि फ़ार्मर (वसूली करनेवाले) उत्पादन-प्रक्रिया की चिंता किए बिना अधिक से अधिक वसूली की कोशिश करने लगे ।

फलस्वरूप किसानो पर मालगुज़ारी की माँग का बोझ बढ़ा और अकसर यह बोझ इतना कमर-तोड़ होता था कि उसकी वसूली की ही नहीं जा सकती थी । अंधाधुंध प्रयोगों की इस पूरी अवधि का कुल परिणाम खेतिहर आबादी की तबाही रहा । इसलिए 1784 में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को राजस्व प्रशासन को चुस्त बनाने का विशिष्ट आदेश दे कर भारत भेजा गया ।

स्थायी बंदोबस्त: | Permanent Settlement

कॉर्नवालिस ने अनुभव किया कि मौजूदा व्यवस्था देश को गरीब बना रही थी, खेती को नष्ट कर रही थी और वह भारी और नियमित अधिशेष (Surplus) पैदा नहीं कर रही थी जिसकी कंपनी को आशा थी । कंपनी का व्यापार भी प्रभावित हो रहा था क्योंकि यूरोप को निर्यात करने के लिए भारतीय माल प्राप्त करने में कठिनाई आने लगी थी ।

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कंपनी के निर्यात की दो प्रमुख मदें थीं रेशम और कपास जो मुख्यत: खेती पर आधारित थीं । मगर खेती की गिरावट से दस्तकारी (हस्तशिल्प उद्योग) का उत्पादन भी प्रभावित हुआ । इसलिए ऐसा सोचा जाने लगा कि मालगुज़ारी का स्थायी निर्धारण स्थिति में सुधार का एकमात्र रास्ता था ।

वास्तव में 1770 से ही, अर्थात् कॉर्नवॉलिस के आगमन से बहुत पहले से ही कंपनी के अनेक अधिकारी तथा अलेक्जेंडर डो, हेनरी पैटुलो, फिलिप फ्रांसिस और टॉमस लॉ जैसे यूरोपीय प्रेक्षक मालगुज़ारी के स्थायी निर्धारण की पैरवी करते आ रहे थे ।

अपने अलग-अलग वैचारिक रुझानों के बावजूद उस भू-अर्थवादी (physiocratic) विचार-संप्रदाय में उन सबकी साझी आस्था थी जो किसी देश की भू-अर्थवादी अर्थव्यवस्था में कृषि को प्रधानता देता था । ये ही विचार 1793 कै स्थायी (इस्तमरारी) बंदोबस्त के आधार बने जिसने बंगाल में ”हमेशा के लिए आकलन” की नीति लागू की ।

आशा की गई कि इससे उस भ्रष्टाचार की सभावना कम होगी जा अधिकारियों द्वारा आकलन में मनमाने फेरबदल करने से हो सकती थी । ज़मींदार भूमि के सुधार में पैसा लगाएँगे क्योंकि राज्य की माँग के स्थिर होने के कारण उनकी ही उत्पादन में वृद्धि और आय में बढ़ोतरी का पूरा लाभ मिलेगा ।

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कंपनी को नियमित रूप से कर मिलते रहेंगे और कॉर्नवॉलिस की सोच थी कि आवश्यकता होने पर कंपनी व्यापार और वाणिज्य पर कर लगाकर अपनी आय बढ़ा सकती थी । चूकि मालगुज़ारी को हमेशा के लिए तय किया जाना था इसलिए उसे ऊँचे स्तर पर अधिकतम संभव स्तर पर तय किया गया ।

इस कारण 1789-90 के आकलन को आधार बनाकर इसे 268 लाख रुपए (लगभग 30 लाख पाउंड) तय किया गया । जहाँ पी. जे. मार्शल की राय में 1793 में मालगुज़ारी की माँग 1757 की मालगुज़ारी से केवल 20 प्रतिशत अधिक थी, वहीं बी. बी. चौधरी की गणना के अनुसार यह 1765 और 1793 के बीच ”लगभग दोगुनी” हो गई ।

कंपनी के लिए दूसरी समस्या यह तय करने की थी कि मालगुज़ारी वसूल किससे की जाएगी । नवाब इसे जमींदारों से वसूल किया करते थे । उनमें से कुछ तो बड़े भूस्वामी थे जिनके नियंत्रण में बड़े-बड़े इलाके थे और जिनके अपने हथियारबंद दस्ते होते थे; 1790 में बारह बड़े ज़मींदार घरानों ने बंगाल की कुल मालगुज़ारी के 53 प्रतिशत से अधिक भाग की अदायगी की ।

दूसरे छोटे ज़मींदार थे जो मालगुज़ारी या तो सीधे राज्य को देते थे या बड़े जमींदारों के माध्यम से देते थे । किसान खेती (काश्त) करते थे और परंपरागत दरों से ज़मींदारों को भुगतान करते थे जो अकसर अलग-अलग तहसीलों में अलग-अलग दरों से होता था; कभी-कभी अबवाब नाम से गैर-कानूनी वसूलियाँ भी की जाती थीं ।

लेकिन कंपनी का प्रशासन इनमें से कुछ ज़मींदारों को बनाए रखकर और दूसरों की जगह नए किसानों को लाकर 1790 तक स्थिति को बुरी तरह उलझा चुका था । आकलन में भी पुराने परंपरागत अधिकारों की उपेक्षा की गई और जब कॉर्नवॉलिस आया तबतक इस क्षेत्र में पूरी तरह अव्यवस्था फैल चुकी थी ।

ब्रिटेन का एक कुलीन भूस्वामी होने और ज़मींदारी में सुधार की भावना से भरे होने के कारण वह स्वाभाविक रूप से ज़मींदारों को प्राथमिकता देता था । उनसे (ज़मींदारों से) आशा की गई कि उनके संपत्ति के अधिकार सुरक्षित रखे जाने पर वे कृषि के सुधार के लिए पूँजी लगाएँगे ।

कुछ दूसरे व्यावहारिक कारण भी थे असंख्य काश्तकारों से मालगुज़ारी वसूल करना थोड़े-से ज़मींदारों से मालगुज़ारी वसूल करने की तुलना में आसान था जिसके लिए प्रशासन का एक बड़ा तंत्र आवश्यक होता । और आखिरी बात इससे स्थानीय जनता के एक शक्तिशाली वर्ग की वफादारी सुनिश्चित होती ।

इसलिए 1793 का स्थायी बंदोबस्त ज़मींदारों के साथ किया गया । बंगाल, बिहार और उड़ीसा की एक-एक इंच ज़मीन अब एक ज़मींदारी का हिस्सा बन गई और ज़मींदार को उस पर तय मालगुज़ारी देनी थी । ऐसा करके वह अपनी ज़मींदारी का मालिक बन सकता था उसे बेच सकता था रेहन रख सकता था किसी को दे सकता था: उत्तराधिकारी भी विरासत में ज़मीनें पा सकते थे ।

लेकिन मालगुज़ारी देने में असफल रहने पर सरकार ज़मींदारी को ज़ब्त कर सकती थी और उसे नीलामी के रूप में बेच सकती थी; फिर तो उस पर मालिकाना हक नए खरीदार को मिलना था । ज़मीन में निजी संपत्ति का तथाकथित सृजन यही था; व्यापक रूप से यह आशा की गई कि निजी संपत्ति का यह जादू कृषि में वांछित सुधार लाएगा । स्थायी बंदोबस्त ने ज़मीन का मालिकाना हक ज़मींदारों को दिया जिनको पहले केवल मालगुज़ारी वसूल करने का अधिकार था ।

इसलिए इस बंदोबस्त में जो लोग घाटे में रहे वे थे किसान जो अब ज़मींदारों की दया पर निर्भर हो गए । उनके परंपरागत दखली अधिकारों (occupancy rights) की उपेक्षा की गई, और अब वे काश्तकार (tenants) बनाकर रख दिए गए । ज़मींदार लोग किसान और ज़मींदार के बीच पट्टा (लिखित समझौता) के प्रावधान का शायद ही कभी पालन करते थे जिसमें देय मालगुज़ारी दर्ज होती थी ।

न ही किसान इसे पसंद करते थे, क्योंकि अधिकारों और दायित्वों के किसी भी औपचारिक रिकॉर्ड से उन्हें हमेशा नुकसान का भय सताता रहता था । इस तरह मालगुज़ारी की भारी माँग का बोझ किसानों के सिर पर डाल दिया गया जिनसे अकसर गैर-कानूनी करों की भी माँग की जाती थी ।

बाद में 1799 और 1812 के कानूनों (रेग्युलेशंस) ने ज़मींदारों को अधिकार दिया कि लगान न देने की स्थिति में किसी अदालत की अनुमति के बिना भी काश्तकारों की संपत्ति जब्त कर सकते थे । इसलिए आश्चर्य नहीं कि ज़मींदारों की इस असीमित शक्ति के समर्थन के संचयी परिणाम (cumulative effect) के रूप में स्थायी बंदोबस्त से वास्तविक काश्तकारों (खेतिहरों) की हालत बिगड़ी ।

यह बंदोबस्त हालांकि ज़मींदारों के पक्ष में था, फिर भी उनको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । जैसा कि डेनियल थॉर्नर का तर्क था भूमि में निजी संपत्ति का सृजन एक गलत शब्द था क्योंकि परम स्वामित्व तो साम्राज्यिक सत्ता के ही हाथों में रहा ।

ज़मींदारों को एक निश्चित तारीख तक तय मालगुज़ारी देनी पडती थी (तथाकथित ‘सूर्यास्त’ का नियम) और न दे पाने पर ज़मींदारी बिक जाती थी । अकसर उनके लिए लगान वसूल करना भी कठिन होता था क्योंकि माँगे बहुत भारी थी और प्रकृति का कोई भरोसा नहीं था ।

फलस्वरूप ज़मींदारियाँ अकसर बिकती रहती थीं: 1794 और 1807 के बीच बंगाल और बिहार में लगभग 41 प्रतिशत मालगुज़ारी देनेवाली ज़मीनें नीलामी में बिकीं उड़ीसा में 1804 और 1818 के बीच नीलामी के कारण 51.1 प्रतिशत मूल ज़मींदार तबाह हो गए ।

निश्चित ही इसका अर्थ अधिकांश पुराने ज़मींदार घरानों का पतन था लेकिन पुराने गलत विश्वासों के विपरीत जिन्होंने ये जागीरें खरीदीं, वे बंगाल के खेतिहर समाज में एकदम ‘नए’ व्यक्ति नहीं थे । पुरानी ज़मींदारियों को उनके अपने अमलों (ज़मींदारी के कारिंदों) और धनी काश्तकारों ने या पड़ोसी ज़मींदारों ने आपस में बाँट लिया ।

हाँ, बर्दवान राज जैसे कुछ पुराने घरानों ने अपने आपको शिकमी ज़मींदारी (subinfeudation) की नई विधि अपनाकर बचाए रखा, जिससे पट्टेदारी का ढाँचा बेतुका और जटिल हो उठा । ये शिकमी पटनी पट्टेदारियाँ (जिनकी संख्या किसान और ज़मींदार के बीच कभी-कभी 12 तक चली जाती थी) किसानों के बोझ को बढ़ाती ही थीं ।

1859  और 1885 में पट्टेदारी संबंधी कानून बनाए गए जिन्होंने काश्तकारों के दखली अधिकारों को मान्यता देकर कुछ सीमा तक उन्हें सुरक्षा प्रदान की । यह वह समय था जब कंपनी के राज ने अपने-आप को एक आत्मविश्वास से भरे राज्य में बदल लिया था तथा अर्थव्यवस्था और समाज में और भी गहरे पैठने की तथा जनता के और भी व्यापक हिस्सों को साथ लेने की कोशिश कर रहा था ।

लेकिन ज़मींदारों की शक्ति अधिकतर अनियंत्रित बनी रही और राज के साथ उनका गठजोड़ अपरिवर्तित रहा । नए कानूनी सुधारों ने गरीब खेतिहरों को कोई राहत नहीं दी । इन्होंने केवल शक्तिशाली धनी जोतदारों (किसानों) के एक वर्ग की स्थिति मजबूत की, जिनके बारे में माना जाता है कि गाँव के स्तर पर जोतों पर वास्तविक नियंत्रण उन्हीं का था, जैसा कि रजत रे और रललेखा रे (1973,1975) का तर्क है । उधर ज़मींदारों को केवल मालगुज़ारी की वसूली के अधिकार प्राप्त थे ।

रे और रे का तर्क है कि उपनिवेशी नीतियों से आए परिवर्तनों के बावजूद इस वर्ग की शक्ति और ग्रामीण समाज पर उसकी पकडू अप्रभावित रही और उपनिवेशी बंगाल के ग्रामीण सामाजिक ढाँचे की बुनियादी निरंतरता इसी बात में थी ।

लेकिन इस ‘जोतदारी प्रस्थापना’ (jotedar thesis) पर तीखा हमला सुगत बोस (1986) की एक रचना में किया गया है, जिन्होंने जोतदारों के ऐसे प्रभुत्व को उत्तरी बंगाल तक ही सीमित पाया । बाकी क्षेत्र में उन्होंने खेतिहर अर्थव्यवस्था की दो दूसरी सुस्पष्ट पद्धतियों का पता लगाया है: पश्चिमी बंगाल में किसानों की जोत और स्वधारक श्रमिकों की एक समन्वित व्यवस्था का तथा पूर्वी बंगाल में किसानों की छोटी जोतों की व्यवस्था का ।

दोनों क्षेत्रों में उन्होंने 1930 के दशक तक ज़मींदारों की शक्ति को अप्रभावित पाया, और इस रुख का समर्थन अकिनोबू कवई (1986-87) और पार्थ चटर्जी (1984) की रचनाओं ने भी किया है । ‘जोतदार’ के पक्ष में बाद के एक लेख में रजत रे (1988) ने यह बात मानी कि ग्रामीण बंगाल में ज़मींदारों का प्रभाव और अधिकार संभवत: लगभग 1930 के दशक तक बने रहे पर फिर भी पूरे दौर में अच्छे मालदार किसानों का एक हिस्सा ऐसा रहा जिनको बंगाल के गाँवों में अच्छी-खासी शक्ति प्राप्त थी ।

इस संशोधित रुख की आंशिक पुष्टि बाद की दो रचनाओं ने की है । नारियाकी नकाज़ातो (1994) ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में मध्य और पूर्वी बंगाल के कुछ जिलों में एक शक्तिशाली जोतदार-हवलदार वर्ग का अस्तित्व दिखाया है ।

पर उनका तर्क है कि इसका अर्थ पुरानी ज़मींदारी व्यवस्था का अंत नहीं है क्योंकि इन दोनों वर्गो के हित निश्चित तौर पर शत्रुतापूर्ण न होकर एक-दूसरे के पूरक थे । दूसरी ओर, पश्चिमी बंगाल में, जैसे मेदिनीपुर जिले में, चित्त पांडा (1996) ने ज़मींदारों के केवल अविशेष (unqualified) पतन का पता लगाया है, जो भूमि के बाजार ग्रामीण ऋण और व्यापार के तंत्रों को नियंत्रित करनेवाले धनी किसानों के एक वर्ग के हाथों बिके जा रहे थे ।

फिर भी, नकाज़ातो और पांडा दोनों ने ज़ोरदार ढंग से यह तर्क दिया है कि स्थायी बंदोबस्त के बाद के बंगाल के खेतिहर ढाँचे में निरंतरता से अधिक परिवर्तन पाया जाता है । इन परिवर्तनों ने जिन्होंने गरीब किसानों को लगभग हर जगह प्रभावित किया और उनको भूमि और शक्ति के नियंत्रण से स्थायी रूप से वंचित रखा किसान विद्रोहों को जन्म दिया ।

रैयतवारी बंदोबस्त | Ryotwari Settlement

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को आशा थी कि उसके स्थायी बंदोबस्त यानी ज़मींदारी व्यवस्था को भारत के दूसरे भागों में भी लागू किया जाएगा । लॉर्ड वेलेज़ली जब भारत आया तब बंगाल की व्यवस्था में उसकी और बोर्ड ऑफ कंट्रोल के हेनरी डंडस की एक समान आस्था थी और 1798 में वेलेज़ली ने इसे मद्रास प्रेसिडेंसी में लागू करने का आदेश जारी किया ।

यहाँ समस्या बंगाल जैसे एक खासे बड़े ज़मींदार वर्ग को पाने की थी पर फिर भी मद्रास के अधिकारियों ने 1801 और 1807 के बीच अपने नियंत्रण वाले बहुत बड़े क्षेत्र में इसे लागू किया । स्थानीय पालेगरों को ज़मींदार मान लिया गया और जहाँ ऐसे लोग नहीं मिले, वहाँ गाँवों को मिलाकर जागीरें बनाई गईं और सबसे अधिक बोली लगाने वालों को बेच दी गई ।

इससे पहले की यह बात आगे जाती वहाँ के ब्रिटिश अधिकारी स्थायी बंदोबस्त से अधिकाधिक मोहभंग के शिकार होने लगे, जिसने सरकार की आय बढ़ाने का कोई साधन प्रदान नहीं किया जबकि भूमि से होनेवाली आय की वृद्धि ज़मींदारों के पास जा रही थी ।

बड़े ज़मींदारों के प्रति यह अविश्वास कुछ-कुछ स्कॉटिश ज्ञानोदय की उपज था, जो कृषि की प्रधानता पर बल देता था और खेतिहर समाजों में भूमिधर कृषक (Yeoman farmer) के महत्त्व के गीत गाता था । स्पष्ट है कि ऐसे विचारों ने टॉमस मुनरो और माउंटस्टुअर्ट एलफ़िस्टन जैसे स्कॉट अधिकारियों को प्रभावित किया जिन्होंने कंपनी के राजस्व प्रशासन को बदलने की पहल की ।

यह ऐसा समय भी था जब उपयोगितावादी विचार भारत में नीति-नियोजन को प्रभावित करने लगे थे और डेविड रिकार्डो का लगान का सिद्धांत मौजूदा व्यवस्था में संशोधन के सुझाव देता हुआ प्रतीत होता था । लगान ज़मीन से प्राप्त अधिशेष था अर्थात् उसकी आय से उत्पादन और श्रम की लागत निकालने पर बचा हुआ भाग था और राज्य इस अधिशेष का वैध दावेदार था जबकि गैर-उत्पादक बिचौलियों के दावे का अकेला आधार उनका स्वामित्व का अधिकार था ।

इस तरह इस सिद्धांत ने ज़मींदारों के उन्मूलन का औचित्य प्रस्तुत किया और ज़मीन के नए अधिग्रहणों से बड़ी हुई आय के एक बड़े भाग के अधिग्रहण का भी । एक नए बंदोबस्त का और भी महत्त्वपूर्ण कारण मद्रास प्रेसिडेंसी का स्थायी वित्तीय संकट था, जिसे युद्ध के बढ़ते खर्चो ने और भी बदतर बना दिया था । मद्रास प्रेसिडेंसी में रैयतवारी बंदोबस्त का मूल कारण यही था ।

रैयतवारी का प्रयोग 1792 में अलेक्जेंडर रीड ने बड़ामहल में आरंभ किया, और मुनरो को जब 1801 में समर्पित जिलों (Ceded Districts) का राजस्व प्रशासन संभालने को कहा गया तो उसने इसे जारी रखा । ज़मींदारों की जगह अब ये लोग गाँवों से सीधे मालगुज़ारी जमा करने लगे और हर गाँव की मालगुज़ारी तय कर दी गई ।

इसके बाद हर खेतिहर (रैयत) की मालगुज़ारी अलग-अलग तय की गई, और इस तरह रैयतवारी व्यवस्था का जन्म हुआ । इसने ज़मीन में वैयक्तिक स्वामित्व अधिकार पैदा किया पर इस अधिकार से ज़मींदार नहीं बल्कि किसान विभूषित थे । इसका कारण था कि मुनरो ”चार या पाँच सौ बड़े भूस्वामियों की जगह चालीस या पचास हजार छोटे भूस्वामियों के हाथों में इसके होने को” बेहतर समझता था ।

लेकिन मुनरो की व्यवस्था ने सार्वजनिक और निजी स्वामित्व के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर भी किया । डेविड लडन के शब्दों में, ”उसने स्वयं राज्य को सर्वोच्च भूस्वामी ठहराया और अलग-अलग किसानों को भूस्वामी बताया, जो सरकार को हर साल नकद लगान देकर या मालगुज़ारी का आकलन कराकर यह अधिकार प्राप्त करते थे ।”

अपने अंतिम विकसित होनेवाले रूप में यह खेत पर आकलन की एक व्यवस्था थी, क्योंकि हर खेत की मालगुज़ारी का आकलन सभी ज़मीनों के एक आम सर्वेक्षण के द्वारा स्थायी रूप से किया जाना था । फिर सरकार और खेतिहर के बीच सालाना समझौते होने थे, तथा खेतिहर को समझौता करने या न करने का अधिकार था । अगर वह सहमत होता, तो उसे एक पट्टा दिया जाता, जो निजी संपत्ति पर उसकी पात्रता का प्रमाण होता, और अगर कोई खेतिहर न मिलता तो ज़मीन खाली पड़ी रहती थी ।

इसलिए इस व्यवस्था को आकर्षक और समतामूलक बनाने के लिए एक विस्तृत भूमि-सर्वेक्षण की आवश्यकता पड़ी जिसमें मिट्टी की किस्म, खेत का क्षेत्रफल, ज़मीन के हर आकलित टुकड़े की औसत पैदावार, और उस आधार पर मालगुज़ारी की मात्रा का आकलन होता ।

लेकिन यह सिद्धांत था, व्यवहार में तो आकलन हमेशा अनुमानों पर आधारित होते थे और मालगुज़ारी की माँग अकसर इतनी अधिक होती थी कि उसे बड़ी कठिनाई से वसूल किया जाता था, या वह वसूल नहीं भी होती थी । इसलिए किसानों को ऐसे अनुचित बंदोबस्तों पर सहमति के लिए बाध्य किया जाता था ।

इसलिए 1807 में मुनरो के लंदन चले जाने के बाद जल्द ही रैयतवारी व्यवस्था को लगभग त्याग ही दिया गया । 1820 के आसपास स्थिति बदलने लगी क्योंकि मुनरो मद्रास का गवर्नर बनकर वापस आया । उसका तर्क था कि रैयतवारी भारत की प्राचीन भू-व्यवस्था थी और इसलिए भारतीय दशाओं के लिए सबसे अधिक अनुकूल थी ।

लेकिन अतीत की यह दुहाई साम्राज्य के हित में थी । उसका मानना था कि ब्रिटिश साम्राज्य को प्रभुसत्ता की एक समन्वित धारणा की आवश्यकता थी, और रैयतवारी व्यवस्था उसका आधार हो सकती थी । जैसा कि समर्पित जिलों में उसके अनुभवों से पता चला साम्राज्य की सुरक्षा और प्रशासन के लिए अति-शक्तिशाली पालेगरों के उन्मूलन की और ब्रिटिश अधिकारियों की निगरानी में सीधे किसानों से मालगुज़ारी की वसूली की आवश्यकता थी ।

इसलिए उसने अपने कदम को यह कहकर उचित ठहराया कि इतिहास में भारत में भूमि राज्य की संपत्ति होती थी जो सोपानक्रम में वर्गीकृत अधिकारियों को इनाम में जमीनें देकर उनके द्वारा किसानों से मालगुज़ारी की वसूली करता था ।

इस ज़मींदार-राज्य की सत्ता सैनिक शक्ति पर आधारित थी और जब वह ताकत कम होती, पालेगर ज़मीनें हड़पकर उसके माध्यम से प्रभुसत्ता में सेंध लगा देते थे । हस्तांतरण की इस प्रक्रिया को अब पलटने की आवश्यकता थी ।

यह तर्क देते हुए उसने तेजी के साथ फ्रांसिस एलिस जैसे व्यक्तियों की विपरीत राय को किनारे लगा दिया, जिनका तर्क था कि परंपरा में संपत्ति का अधिकार समुदाय या कबीलों को दिया जाता था, और परिवार को सामुदायिक परिसंपत्तियों पर अनेक प्रकार के अधिकार प्राप्त थे ।

साथ ही, मुनरो ने इस बात पर जोर दिया कि यह व्यवस्था किसानों के मालगुज़ारी के बोझ को कम करेगी, मगर राज्य को अधिक मालगुज़ारी दिलाएगी, क्योंकि अधिशेष में बिचौलियों का अब कोई हिस्सा नहीं

रहेगा । इसके साथ ही लंदन को भी प्रसन्नता होगी क्योंकि यह व्यवस्था सत्ता और शक्ति को सीधे अंग्रेजों के हाथों में इस तरह लाएगी कि कॉर्नवॉलिस की व्यवस्था इसकी आशा भी नहीं कर सकती थी ।

मद्रास की सरकार पैसे की तंगी से बुरी तरह त्रस्त थी और इसलिए उसने प्रेसिडेंसी के अधिकांश भागों में रैयतवारी बंदोबस्त लागू करने का निर्णय किया । लेकिन मुनरो की जो कल्पना थी धीरे-धीरे इस व्यवस्था ने उससे एकदम भिन्न रूप धारण कर लिए । उसने सरकार की आय तो बढ़ाई पर खेतिहरों को भारी मुसीबत में डाल दिया ।

अनेक क्षेत्रों में कोई सर्वेक्षण नहीं कराया गया और किसी रैयत पर कर गाँव के कागज़ात के आधार पर मनमाने ढंग से तय किया जाने लगा । यह व्यवस्था पुटचुट के नाम से जानी गई जिसमें एक रैयत की मालगुज़ारी हर खेत पर अलग अलग नहीं उसके सभी खेतों के आधार पर तय की जाने लगी जिन पर सिंचाई की सुविधाएं अलग-अलग होती थीं और इसलिए जिनकी उत्पादकता में भिन्नता होती थी ।

जहाँ सर्वेक्षण कराया भी गया वहाँ उसे अकसर ”गलत योजना के तहत और जल्दबाजी में” किया गया, जिसका परिणाम अति-आकलन था । मुनरो का आग्रह था भारत में ब्रिटिश साम्राज्य 89 कि एक खेतिहर जितनी ज़मीन चाहे उतनी उसे लेने की स्वतंत्रता दी जाए पर इसके विपरीत ”सिमटाव (contraction) या भराव (replacement) का यह अधिकार ” व्यवहार में 1833 तक त्याग दिया गया ।

इस तरह खेतिहर किसान धीरे-धीरे गरीब होने लगे, अधिकाधिक कर्ज़दार होते गए और खेती के विस्तार के लिए पूँजी नहीं लगा सकते थे । कोयंबटूर को छोड़ दें तो मद्रास में कोई भूमि-बाज़ार लगभग था भी नहीं, क्योंकि ज़मीन खरीदने का अर्थ लूट जैसी दर से मालगुज़ारी की अदायगी होता था ।

रैयतवारी व्यवस्था ने ग्रामीण कुलीनों का उन्मूलन भी नहीं किया, जो सरकार और किसानों के बीच बने रहे । चूँकि मीरासीदारों के विशेष लगानों और विशेष अधिकारों को मान्यता दी गई और ब्राह्मणों के जातिगत विशेषाधिकारों को सम्मान दिया जाता रहा, इसलिए गाँवों में मौजूद शक्ति-संरचना शायद ही बदली, बल्कि नई व्यवस्था से वह और भी मजबूत बनी ।

वास्तव में, इस पूरी व्यवस्था को अधिकारियों और तमिल लेखकों के सहयोग से सृजित इस उपनिवेशी ज्ञान से बल मिला कि वेल्लाल जैसी अच्छी खेतिहर जातियों के मीरासीदार मूल उपनिवेशी और अच्छे किसान थे ।

ऐसे रूढ़ विचारों ने मीरासीदारों-जैसे परंपरागत ग्रामीण कुलीनों को एक स्थानबद्ध कृषक समुदाय के ब्रिटिश विचार की धुरी बना दिया । इस तरह इन कुलीनों ने धीरे-धीरे मालगुज़ारी प्रशासन के निचले भागों में अपने लिए आराम की एक जगह बना ली और उनमें से कुछ ने सरकारी नियुक्तियाँ पाने के बाद सिंचित ज़मीनों के लाभदायक और बड़े-बड़े टुकड़े खरीद लिए ।

1816 के बाद मालगुज़ारी के इन अधिकारियों ने गाँवों में मालगुज़ारी की वसूली और पुलिस के कर्तव्य दोनों सँभाल लिए । शक्ति में इस वृद्धि के कारण कलक्टरी कार्यालय (Collectorate) के निचले अधिकारियों के अत्याचार, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार में निश्चित तौर पर वृद्धि हुई । यह बात 1855 के मद्रास टॉर्चर कमीशन (यातना आयोग) रिपोर्ट में भरपूर और निर्मम विस्तार के साथ सामने आई, जिसने कारगर सुधार की जरूरत के सुझाव दिए ।

यही वह साल था जिसके बाद भूमि का एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया जाने लगा और मालगुज़ारी का आकलन नए सिरे से किया गया, जिससे कर के वास्तविक बोझ में कमी आई । यह तय हुआ कि मालगुज़ारी की दर ज़मीन की पैदावार के मात्र मूल्य की आधी होगी और बंदोबस्त तीस साल के लिए किया जाएगा ।

यह संशोधित व्यवस्था 1864 में लागू की गई, जिससे शीघ्र ही खेतिहर समृद्धि आई और खेती का विस्तार हुआ । 1865-66 और 1876-78 के दो अकालों ने इसमें विप्न डाला । फिर भी जैसा कि धर्मा कुमार का कथन

है ”कुल मिलाकर प्रेसिडेंसी में वसूली (recovery) और अधिक तेजी से हुई ।”

वे यह तर्क भी देती हैं कि प्रचलित मिथकों के विपरीत ”आँकड़े… इस विचार का समर्थन नहीं करते कि जमीन अधिकाधिक धनी किसानों और सूदखोरों के हाथों में पहुँचती जा रही थी ।” असमानता गोदावरी डेल्टा जैसे केवल समृद्ध और सिंचित क्षेत्रों में बढ़ी; अन्यथा इसमें कमी आई ।

उनकी राय में इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं कि कर्जदारी व्यापक पैमाने पर बेदखली का कारण बन रही थी । कर्जो की प्रकृति में भिन्नताएँ थीं जबकि तिरूनेलवेली को छोड़ दें तो दूसरे सभी स्थानों पर गैर-हाजिर (absentee) ज़मींदारी में कमी आई । लेकिन पूरी प्रेसिडेंसी में जहाँ भी काश्तकार थे, उनको शायद ही कोई सुरक्षा प्राप्त थी ।”

मद्रास के ग्रामीण समाज पर रैयतवारी व्यवस्था का प्रभाव अनेक कोणों से द्रष्टव्य है । जैसा कि हाल के अनेक लघुस्तरीय अध्ययनों (micro-studies)ने दिखाया है, संपत्ति के अधिकारों को पुनर्निरूपित करके उसने वास्तव में जहाँ भी ग्रामीण कुलीन थे, उनकी शक्ति को बढ़ाया और इस तरह सामाजिक संघर्ष तेज हुआ ।

पर यह बात भी सही है कि इस प्रभाव में व्यापक क्षेत्रीय भिन्नताएँ थीं जिनका अस्तित्व वर्तमान मौजूदा सामाजिक ढाँचों और पर्यावरण की दशाओं पर आधारित था । उदाहरण के लिए, तिरूनेलवेली ज़िले पर डेविड लडेन के अध्ययन ने दिखाया कि स्थानीय स्तर पर शक्तिशाली मीरासीदारों ने विशेष लगानों की सुविधा पाने और अपनै सामूहिक अधिकारों को वैयक्तिक संपत्ति के अधिकारों में बदलने के लिए किस तरह इस व्यवस्था का गलत इस्तेमाल किया ।

1820 के बाद मद्रास सरकार ने काश्तकारों द्वारा मीरासीदारों की शक्ति का सक्रिय मगर व्यर्थ का प्रतिरोध करने के बावजूद उनके अधिकारों की सुरक्षा में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । लेकिन लडेन का तर्क है कि सिंचित क्षेत्रों के मीरासीदारों का हाल असिंचित या मिश्रित क्षेत्रों के मीरासीदारों से काफी बेहतर रहा ।

तंजावुर (तंज़ोर) जिले के कावेरी डेल्टा पर विलेम वॉन शेंडेल के अध्ययन से भी मीरासीदारों के ”स्वर्णयुग” का पता चलता है, जब उन्होंने भूमि और श्रम पर अपने नियंत्रण को मजबूत बनाया और इस तरह ”स्थानीय समाज का ध्रुवीकरण तेज हुआ ।”

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उनके समुदाय के अंदर सामाजिक और आर्थिक विभेदीकरण बढ़ने के कारण और पुराने परिवारों की जगह नए व्यापारिक समूहों के उदय के कारण उनकी शक्ति थोड़ी-बहुत कम हुई । लेकिन किसी भी तरह से इसका अर्थ स्थानीय समाज में मीरासीदारों की शक्ति का अंत नहीं था ।

दूसरे तमिल जिलों में भी स्थिति काफी सीमा तक तिरुचिरापल्ली (त्रिचिनापल्ली) के सिंचित तालुकों से मिलती-जुलती थी, जबकि दक्षिणी अर्काट और चिंगलीपुट में वास्तविक खेतिहर भूस्वामित्व के ऐसे विशेषाधिकारों को अधिकाधिक चुनौती देने लगे थे ।

लेकिन तमिलनाडु के दूसरे विशाल क्षेत्रों में जहाँ खेती की ज़मीन की प्रचुरता थी स्थिति पर बड़ी संख्या वाले मालिक-किसान और मझोले भूस्वामियों के छोटे समूह हावी थे । मद्रास प्रेसिडेंसी के आंध्र ज़िलों में भी रैयतवारी व्यवस्था ने किसानों के विभेदीकरण को बढ़ावा दिया ।

बीसवीं सदी के आरंभ तक बड़े भूस्वामियों का एक समृद्ध समूह पैदा हो चुका था, जिनको ए. सत्यनारायण ने ”किसान-बुर्जुआ” (peasant-bourgeoisie)कहा है; ये लोग बड़े-बड़े खेतों पर नियंत्रण रखते थे और फालतू जमीनें भूमिहीन काश्तकारों और बटाईदारों को लगान पर देते थे ।

बिचौलियों की हालत भी अच्छी रही और वे स्थिर आर्थिक दशाओं में रहते रहे । दूसरी ओर गरीब किसान जो ग्रामीण आबादी में बहुमत में थे, फटेहाल जीते रहे; धनी रैयत, लेनदार और ज़मीन बँटाई पर देने वाले उनका शोषण करते रहे, अपनी बदहाली के बावजूद वे मजदूरी के लिए विवश रहे और जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों से बँधे रहे ।

बंबई प्रेसिडेंसी में रैयतवारी व्यवस्था का आरंभ गुजरात से 1803 में उसके अधिग्रहण के बाद हुआ, और फिर जब 1818 में पेशवा के इलाके जीत लिए गए तो मुनरो के शिष्य माउंटस्टूअर्ट एलफ़िस्टन की निगरानी में इसे उन क्षेत्रों में भी लागू किया गया ।

इन क्षेत्रों में अंग्रेज पहले देशमुखों और ग्राम प्रधानों अर्थात् पाटिलों की मदद से मालगुज़ारी वसूल करते रहे । पर इससे उनको आशानुरूप मालगुज़ारी नहीं मिलती थी और इस कारण 1813-14 के बाद वे सीधे किसानों से मालगुज़ारी वसूल करने लगे ।

जो दुर्व्यवहार मद्रास प्रेसिडेंसी की विशेषता बन चुके थे वे जल्द ही बंबई मैं भी सामने मान लगे क्योंकि मालगुज़ारी की तय की हुई दरें असाधारण सीमा तक ऊँची थीं । बार-बार फसल तबाह होने और दामों के गिरने पर किसानों को या तो सूदखोरों के पास ज़मीन गिरवी रखनी पड़ती थी या खेती छोड्‌कर वे पड़ोस के रजवाड़ों में चले जाते थे जहाँ दरें कम थीं ।

इसलिए आर. के. प्रिंगल नाम के एक अधिकारी ने एक भू-सर्वेक्षण किया; उसने भूमि का वर्गीकरण किया और मालगुज़ारी की दर पैदावार के मात्र मूल्य का 55 प्रतिशत तय किया । इंदापुर तालुका में 1830 में पहले-पहल लागू की गई यह योजना जल्द ही दोषपूर्ण पाकर त्याग दी गई ।

उसकी जगह 1835 में एक संशोधित ‘बंबई सर्वेक्षण व्यवस्था’ (बॉम्बे सर्वे सिस्टम) लागू की गई जिसे दो अधिकारियों जी. विंगेट और एच. ई. गोल्डस्मिथ ने तैयार किया था । यह एक व्यावहारिक बंदोबस्त था जिसका उद्देश्य माँग को गिराकर ऐसे उचित स्तर तक लाना था कि उसका नियमित भुगतान होता रहे ।

हर खेत का वास्तविक आकलन निकट अतीत के भुगतान प्रत्याशित मूल्य वृद्धि मिट्टी की प्रकृति और स्थान पर निर्भर था । यह नया आकलन एक तीस वर्षीय बंदोबस्त के आधार पर 1936 में आरंभ किया गया और 1847 तक दकन के अधिकांश भाग में इसे लागू किया जा चुका था ।

पश्चिमी भारत के खेतिहर समाज पर रैयतवारी बंदोबस्त का प्रभाव एक गहरे ऐतिहासिक विवाद का विषय है क्योंकि इसने 1875 में बंबई दकन में एक ग्रामीण विद्रोह को जन्म दिया । नील चार्ल्सवर्थ (1985) जैसे इतिहासकार यह नहीं मानते कि वास्तव में 1840 और 1870 के बीच लागू किए गए विंगेट (Wingate) बंदोबस्तों ने पश्चिमी भारत में किसी बड़े परिवर्तन को जन्म दिया । उसने गाँव के पाटिल को एक मामूली किसान और सरकार का वेतनभोगी नौकर बनाकर रख दिया ।

लेकिन उसकी शक्तियों में कमी तो अंग्रेजों के पहले से ही आने लगी थी और ब्रिटिश राज तो ”बस उस प्रक्रिया को पूरा कर रहा था जो पहले से ही पूरी गति में थी ।” ऐसा भी नहीं था कि इन बंदोबस्तों ने हर जगह ग्रामीण कुलीनों को अपदस्थ किया हो; गुजरात में भागदारों नर्वदारों और अहमदाबाद के ताल्लुकदारों के श्रेष्ठतर अधिकारों को सम्मान दिया जा रहा था और फलस्वरूप इन क्षेत्रों में ”अधिक राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता की गारंटी” रही ।

शक्ति-संबंधों में एक शून्य केवल मध्य दकन में पैदा हुआ, जिसने मारवाड़ी और गुजराती बनियों को और भी सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर दिया । किसानों के लिए ये नए बंदोबस्त ”मालगुज़ारी के आकलन को कम बोझिल और असमतामूलक बना रहे थे ।”

वे अगर उन्नीसवीं सदी के मध्य तक कर्ज से लद गए तो यह कर्जदारी वास्तव में ”बहुत पुरानी” थी मालगुज़ारी की माँगों का परिणाम न थी और अपने आप में वह बड़े पैमाने पर ज़मीनों के हस्तांतरण का कारण नहीं बनी क्योंकि खेतिहरों की ज़मीनों के प्रति मारवाड़ी लेनदारों को कोई खास आकर्षण नहीं था ।

इस व्याख्या का समर्थन एच. फुकाजावा भी करते हैं और कहते हैं: ”इसका कोई प्रमाण नहीं है कि जमीनें व्यापारियों और सूदखोरों द्वारा अधिकाधिक खरीदी जा रही थीं ।” इयान का मानना है कि खेतिहरों की बेदखली और उनसे गैर-खेतिहरों को ज़मीनों का हस्तांतरण दकन में उन्नीसवीं सदी के मध्य में अवश्य हुए मगर ये निश्चित रूप से दकन के दंगों के कारण नहीं थे ।”

मगर दूसरी ओर रवींदर कुमार और सुमित गुहा का तर्क है कि रैयतवारी बंदोबस्त एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक उथल-पुथल को ज़न्म दे रहा था जिसने गाँवों के मुखियों की सत्ता को कमजोर किया और इस तरह महाराष्ट्र के गाँवों में सामाजिक स्थिति संबंधी एक क्रांति को जन्म दिया और यह कि इस असंतोष ने ही आखिरकार दकन के दंगों को जन्म दिया ।”

इस विवाद की विस्तार से विवेचना करेंगे जब हम 1875 के दकनी दंगों पर विचार करेंगे । यहाँ संभवत: जो बात कही जा सकती है वह यह है कि मद्रास और बंबई, दोनों में रैयतवारी व्यवस्था के सामाजिक प्रभाव संभवत स्थायी बंदोबस्त के प्रभावों से कम नारकीय थे । लेकिन ”निरंतरता” के पक्ष में तर्क करना कठिन होगा, क्योंकि जो पुराने रूप जारी रहे वे अब ”साम्राज्यवाद के हाथों अलग ढंग से ढाँचाबद्ध” हुए ।

महलवारी बंदोबस्त | Mahalwari Settlement

जिस ‘ग्राम समुदाय’ का चार्ल्स मेटकॉफ़ से लेकर हेनरी मैन तक कुछ आरंभिक पश्चिमी प्रेक्षकों ने खुलकर गुणगान किया था उसे न तो स्थायी बंदोबस्त में कोई जगह मिली न रैयतवारी बंदोबस्त में ।

लेकिन 1801 और 1806 के बीच जब ये दोनों व्यवस्थाएँ तैयार की जा रही थीं, तब उत्तर और पश्चिमोत्तर भारत के विशाल क्षेत्र उजाड़े जा रहे थे । हिमालय की तलहटी से लेकर मध्य दकन पठार तक और गंगा-यमुना के दोआब को समेटने वाला यह क्षेत्र, जो कभी मुगल साम्राज्य का केंद्र था, पश्चिमोत्तर प्रांत कहलाता था ।

इस क्षेत्र के खेतिहर ढाँचे में एक ओर तो थोड़े-से कुलीन थे जो तालुकदार कहलाते थे । नूरूल हसन ने उनको ”बिचौलिये ज़मींदार” कहा है जो ”एक विशेष क्षेत्र की मालगुजारी की वसूली के लिए राज्य से करार करते थे ।” दूसरी ओर, ”प्राथमिक ज़मींदारों” का एक बड़ा समूह था, जो ”खेतिहर और रिहाइशी दोनों तरह की जमीनों पर मालिकाना अधिकारों के स्वामी” थे ।

इस समूह में छोटे मालिक-किसान भी थे और अनेक गाँवों के बड़े-बड़े स्वामी भी । बंगाल के मॉडल को ध्यान में रखकर अंग्रेजों ने आरंभ में ताल्लुकदारों से मालगुज़ारी वसूल करनी शुरू की, जिनमें अठारहवीं सदी के अंत तक दो सुस्पष्ट समूह शामिल थे ।

एक ओर तो ”वंशगत प्रभुत्व वाले रजवाड़ों के” स्थानीय स्तर पर मज़बूत शासक थे और दूसरी ओर मुगल जागीरदार, मालगुज़ारी के अधिकारी और मालगुज़ारी वसूल करनेवाले किसान थे जिन्होंने अपने आपको ”यथार्थत: राजा या ताल्लुकदार” बना रखा था ।

ये आरंभिक संक्षिप्त बंदोबस्त जिनको आखिरकार स्थायी बना दिया गया नव-विजित क्षेत्रों की उत्पादकता के कृत्रिम और दोषपूर्ण आकलन पर आधारित थे, और इसलिए अनेक उदाहरणों में मालगुज़ारी का आकलन असामान्य सीमा तक अधिक था ।

अनेक बड़े तालुकदारों ने इस नई व्यवस्था का और उसकी मालगुज़ारी की भारी माँग का विरोध किया, और उन्हें बड़ी निर्दयता से समाप्त कर दिया गया । बहुतों को खदेड़कर उनके गारे-मिट्टी के किलों को धराशायी कर दिया गया । दूसरे उदाहरणों में सरकार ने मालगुज़ारी न दे सकनेवाली जागीरों को बेच डाला ।

फलस्वरूप 1820 तक, जिनको एरिक स्टोक्स ने ”उत्तरी भारत का अप्रतिष्ठित धनी वर्ग” कहा है उसके बहुत से सदस्यों की ”स्थिति या तो पूरी तरह समाप्त हो गई या फिर बहुत ही मामूली रह गई ।”  नीलामी में बिकी ज़मीनें अकसर अमलों और तहसीलदारों ने खरीदीं, जिन्होंने अपने स्थानीय ज्ञान का प्रयोग करके और अपनी शक्ति के सहारे जोड़तोड़ करके इस क्षेत्र की कुछ बेहतरीन संपत्तियाँ खरीद लीं ।

उदाहरण के लिए, बनारस के क्षेत्र में उन्नीसवीं सदी के मध्य तक लगभग 40 प्रतिशत ज़मीनों के स्वामी बदले जा चुके थे और जैसा कि बरनार्ड कोहन की सूची बतलाती है, वे ”असैनिक कर्मचारियों और उनके वंशजों के तथा सौदागरों और बैंकरों (साहूकारों) के कब्ज़े में चली गई ।”

यही लोग फिर ”भूस्वामियों का एक नया वर्ग” बन गए, जो ग्राम समुदाय के लिए बाहरी होते थे और जमीन के प्रति अलग ही रवैये रखते थे ।” लेकिन दूसरी ओर जैसा कि टॉमस मेटकॉफ़ ने तर्क दिया है चूंकि भूमि का बाजार अपूर्ण था (अकसर उसके खरीदार भी नहीं होते थे) और अकसर नए खरीदारों के लिए ज़मीनों को पुराने मालिकों की ही निगरानी में छोड़ना आवश्यक हो जाता था, ज़मीन का वास्तविक हस्तांतरण कुछ ही मामलों में हुआ ।

फिर भी, इस स्थिति ने एक भय खड़ा कर दिया कि जमीन गैर-खेतिहरों के हाथों में जा रही है और 1819 मे होल्ट मैकेंजी ने इसे एक ”विषाद क्रांति” (melancholy revolution) का नाम दिया क्योंकि उसकी राय में केवल गाँव के सहदायी निकाय (coparcenary bodies) ही ”भूमि के अकेले स्वामी” थे ।

इसलिए अंग्रेज अब ताल्लुकदारों की जगह ‘प्राथमिक जमींदारों’ और ग्राम समुदायों को प्राथमिकता देने लगे । मैकेंजी की सिफ़ारिशों को 1822 के रेगुलेशन सात (Regulation VII) में शामिल किया गया जिसमें मालगुज़ारी के आकलन के लिए एक-एक खेत के विस्तृत सर्वेक्षण की व्यवस्था थी ।

बंदोबस्त एक ग्राम समुदाय के या उपलब्ध हो तो एक ताल्लुकदार के साथ किया जाता था और मालिकाना अधिकारों के अलावा रिहाइशी खेतिहर किसानों से मिलनेवाले लगान का भी निश्चय और लिपिबद्ध किया जाना था । ताल्लुकदार पूरी तरह खत्म नहीं किए गए, लेकिन जहाँ भी संभव हुआ, भूमि का संयुक्त मालिकाना अधिकार ग्राम समुदायों में निहित कर दिया गया ।

ताल्लुकदारों की दमनकारी और हठीली प्रकृति ने, यथासंभव मालगुज़ारी बढ़ाने की आवश्यकता ने और किसान मालिकों के अधिकारों की सुरक्षा की आवश्यकता ने भी खेती में सुधार के उद्देश्य से, महलवारी बंदोबस्त को अपनाने के लिए प्रेरित किया न कि रिकार्डों के लगान सिद्धांत के प्रभाव ने ।

लेकिन आरंभ से ही यह नया बंदोबस्त गड़बड़ी का और भ्रष्टाचार का शिकार रहा क्योंकि व्यवहार में इसे लागू करना लगभग असंभव था । जो सर्वेक्षण नए बंदोबस्त का आधार होता वही असफल रहा क्योंकि वह इतना जटिल था कि मौजूदा प्रशासनतंत्र उसे लागू करने में असमर्थ था ।

इसका स्पष्ट परिणाम ”सनक से भरे अनुमानों” पर आधारित अति-आकलन था । 1828 की खेतिहर मंदी ने स्थिति को और बिगाड़ा । बकाये बढ़ने लगे, जमीनें बिना जुती रह जाती थीं, खरीदार मिलना मुश्किल होता था । स्पष्ट है कि कुछ सुधारों की आवश्यकता थी; ये ही सुधार 1833 के रेगुलेशन ग्यारह (Regulation XI) के द्वारा लागू किए गए।

संशोधित व्यवस्था में, जिसे एक और असैनिक अधिकारी आर. एम. बर्ड ने तैयार किया था, एक पूरे महल (राजस्व की इकाई) की मालगुज़ारी के आकलन के लिए एक विस्तृत सर्वेक्षण का प्रावधान था इसका आधार खेत की संभावित उपज का मात्र मूल्य होता ।

इस तरह निश्चित कुल मालगुज़ारी को एक हिस्सेदार समूह के सदस्यों में विभाजित कर दिया जाता । राज्य भूमि की कुल आय का दो-तिहाई भाग ले लेता और बंदोबस्त तीस साल के लिए होता । लेकिन बर्ड द्वारा आरंभ किए और जेम्स टॉमसन द्वारा पूरे किए गए ये ग्रामवार बंदोबस्त भी अधूरे सर्वेक्षण अ-सटीक गणना और इसलिए अति-आकलन पर आधारित थे । उनकी विशेषता ताल्लुकदारों के प्रति एक खुली शत्रुता भी थी, क्योंकि बर्ड उनको ”गैर-उत्पादकों का एक समूह” मानता था ।

उनमें से अनेक बेदखल कर दिए गए और नकदी भत्ते के रूप में पेंशन देकर बिठा दिए गए और यह नीति इतनी सफल रही कि जैसा कि 1842 में बर्ड की सेवानिवृत्ति के बाद प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने टिप्पणी की थी इसने ”समाज की पूरी सतह को लगभग सपाट” बना दिया ।

लेकिन इसका अर्थ ग्राम समुदायों के लिए एक स्वर्ण युग का आरंभ नहीं था जिनको मालगुज़ारी की भारी माँग कर्ज के बढ़ते बोझ मालगुज़ारी के बकायों और फलस्वरूप उनकी संपत्तियों की बिक्री ने और दीवानी अदालतों के आदेशों के जरिये उनकी बेदखली ने नष्ट कर दिया ।

अनेक मामलों में ज़मीनें सूदखोरों और सौदागरों के हाथों में चली गईं विशेषकर बढ़ते व्यापार वाले जिलों में । इस प्रश्न पर बहस संभव है कि क्या इसका अर्थ एक बुनियादी सामाजिक उथल-पुथल था क्योंकि अनेक मामलों में संपत्तियों की औपचारिक बिक्री के कारण गाँवों में जोत की संरचना में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं आया इसलिए कि नए खरीदार मूल स्वामियों के बिना शायद ही कुछ कर सकते थे ।

लेकिन जैसा कि टॉमस मेटकॉफ़ ने स्वीकार किया है, ”शायद ही कोई यह कह सके कि ‘कुछ नहीं हुआ’ है ।”

इस तरह उन्नीसवीं सदी के मध्य तक कंपनी के प्रशासन ने भूमि में निजी संपत्ति का सृजन करते हुए और तीन अलग-अलग समूहों को मालिकाना अधिकार देते हुए मालगुज़ारी प्रशासन की तीन व्यवस्थाएँ पैदा कीं-जमींदारों के साथ स्थायी बंदोबस्त किया गया रैयत अर्थात् मालिक किसानों के साथ रैयतवारी बंदोबस्त किया गया और ग्राम समुदायों के साथ महलवारी बंदोबस्त किया गया ।

जब पंजाब और मध्य भारत को जीता गया तो इस तीसरी व्यवस्था को इन क्षेत्रों में भी लागू किया, गया जबकि रैयतवारी बंदोबस्त को सिंध असम और कुर्ग में लागू किया गया । ज़मींदारी व्यवस्था को मद्रास प्रेसिडेंसी के उत्तरी जिलों मै लागू किया गया जहाँ ज़मींदार मिल गए ।

एक अनुमान के अनुसार 1928-29 में भारत में खेती-योग्य भूमि का लगभग 19 प्रतिशत भाग जमींदारी बंदोबस्त 29 प्रतिशत महलवारी और 52 प्रतिशत रैयतवारी बंदोबस्त के अंतर्गत था ।”  जैसा कि हमने देखा, इन सभी बंदोबस्तों की एक साझी विशेषता थी अति-आकलन, क्योंकि मालगुज़ारी की आय को यथासंभव बढ़ाना कंपनी की सरकार का प्रमुख उद्देश्य था । इसके परिणाम थे बकाये, बढ़ते कर्ज़, ज़मीन की बढ़ती बिक्री और बेदखलों ।

स्वीकृत मान्यता के विपरीत आधुनिक अनुसंधान ने साबित कर दिया है कि इन परिवर्तनों के प्रभाव कभी जितना समझा जाता था उससे कम नाटकीय थे और उनमें महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय अतर थे क्योंकि भूमि के हस्तांतरण हर जगह भूस्वामित्व के ढाँचों में बुनियादी बदलाव नहीं ला सके ।

इस तरह कभी जितना समझा जाता था खेतिहर समाज उससे कहीं अधिक लचकदार साबित हुआ । लेकिन उसकी मार से जो समूह और वर्ग बचे रह गए उन्हें अत्यधिक भिन्न अधिकार दायित्व और शक्तियाँ प्राप्त थी । उन परिवर्तनों और उनसे उत्पन्न शिकायतों की भरपूर अभिव्यक्ति खेतिहर उथल-पुथल में हुई, जो भारत में ब्रिटिश राज की पहली सदी की विशेषता थी । ।

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