ब्रह्मांड पर निबंध | Essay on the Universe in Hindi!

Essay on the Universe


Essay # 1. ब्रह्माण्ड का परिचय (Introduction to the Universe):

ब्रह्माण्ड आकार में इतना बड़ा है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है । ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म कणों से लेकर बड़ी से बड़ी मंदाकिनियाँ सम्मिलित हैं । किसी को पता नहीं है कि ब्रह्माण्ड का आकार कितना बड़ा है परन्तु खगोल विद्वानों के अनुसार ब्रह्माण्ड में 100 अरब (100 billion) मंदाकिनियाँ हैं और प्रत्येक मंदाकिनी में औसतन 100 अरब सितारे (Stars) है ।

प्रसरणशील ब्रह्माण्ड (Expanding Universe):

विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड में मंदाकिनियों का वितरण प्रत्येक दिशा में लगभग समान दूरी पर है । इसी कारण किसी पर्यवेक्षक (Observer) को किसी भी मंदाकिनी से ब्रह्माण्ड की रचना (Composition) समरूप दिखाई देती है ।

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मंदाकिनी (Galaxies):

सितारों के एक विशाल समूह को मंदाकिनी कहते हैं । सबसे छोटी मंदाकिनी में भी लगभग एक लाख सितारे होते हैं, परन्तु सब से बड़ी मंदाकिनी में लगभग 3000 अरब सितारे होते हैं । ब्रह्माण्ड की रचना में मंदाकिनियाँ बिल्डिंग-ब्लॉक (Building-Block) का स्थान रखती हैं, अर्थात् ब्रह्माण्ड की रचना मंदाकिनियों से होती है ।

ब्रह्माण्ड की मंदाकिनियों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:

(i) व्यवस्थित मंदाकिनियाँ (Regular Galaxies) तथा

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(ii) अव्यवस्थित मंदाकिनियाँ (Irregular Galaxies)

(i) व्यवस्थित मंदाकिनियाँ (Regular Galaxies):

व्यवस्थित मदाकिनियाँ डिस्क (Disc) अथवा दीर्घवृत्तीय (Elliptical) होती हैं तथा उनमें नये सितारे पाये जाते हैं । इसके विपरीत अव्यवस्थित मंदाकिनियों में सितारे बहुत पुराने होते हैं  ।व्यवस्थित मंदाकिनियों का आकार पेंचदार/सर्पिल (Spiral) अथवा दीर्घवृत्तीय भी हो सकता है ।

(a) सर्पिल मंदाकिनियाँ (Spiral Galaxies):

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आकाश-गंगा एवं विशाल ऐण्ड्रोमिडा (Andromeda), सर्पिल मंदाकिनियों (Spiral Galaxies) के उत्तम उदाहरण हैं । इनके मध्य भाग में सितारों का जमावड़ा अधिक होता है  । सर्पिल मंदाकिनियों में वक्राकार भुजायें होती हैं ।

लगभग 25 प्रतिशत मंदाकिनियों में वक्राकार भुजायें होती हैं । सर्पिल मंदाकिनियों में अन्तरातारकीय (Interstellar) गैस, पर्याप्त मात्रा में होती है, जिससे नये सितारों की उत्पत्ति होती है । सर्पिल मंदाकिनियों की परिक्रमा के दौरान उनकी भुजाओं में नये चमकीले सितारों का जन्म होता रहता है ।

(b) दीर्घवृत्ताकार मंदाकिनियाँ (Elliptical Galaxies):

अधिकतर मंदाकिनियाँ दीर्घवृत्ताकार (Elliptical) होती हैं । सामान्यत इनका आकार सर्पिल मंदाकिनियों (Spiral Galaxies) की तुलना में छोटा होता है । इनका आकार सममित (Symmetrical) अथवा गोलाकार (Spheroidal) होता है ।

इनमें से कुछ का आकार इतना छोटा होता है कि उनको बौना (Dwarf) की संज्ञा दी जाती है । सबसे बड़ी दीर्घवृत्ताकार मंदाकिनी का व्यास लगभग 200,000 प्रकाश वर्ष (Light Years) माना जाता है । ब्रह्माण्ड में बड़ी तथा अधिक चमकने वाली मंदाकिनियाँ दीर्घवृत्ताकार होती हैं । लगभग दो-तिहाई (66%) मंदाकिनियाँ दीर्घवृत्तीय हैं ।

(ii) अव्यवस्थित मंदाकिनियाँ (Irregular Galaxies):

कुल मंदाकिनियों का लगभग 10 प्रतिशत अव्यवस्थित मंदाकिनियाँ हैं । इनके सितारे बहुत पुराने हैं तथा कुछ में नये तथा पुराने सितारों का मिश्रण पाया जाता है । हमारी आकाशगंगा तथा अन्य सर्पिल मंदाकिनियों में पुराने सितारे मध्य भाग में तथा नये एवं अधिक चमकने वाले सितारे उनकी भुजाओं में पाये जाते हैं  |

हमारी आकाशगंगा (Our Galaxy-Milky Way):

हमारी आकाशगंगा की आकृति एक चपटी डिस्क (Flat Disc) के समान है । इसका व्यास लगभग एक लाख प्रकाश वर्ष के बराबर है तथा केन्द्र (Nucleus) में इसका व्यास दस हजार के बराबर है, जबकि डिस्क के छोरों पर इसकी मोटाई पाँच सौ प्रकाश वर्ष से लेकर दो हजार प्रकाश वर्षों के बराबर है ।

आकाशगंगा सितारों तथा धूल से भरी हुई है तथा इसकी भुजाओं में जुड़वां सितारे पाये जाते हैं । अभी तक शुद्ध रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि सूर्य आकाशगंगा के केन्द्र से कितनी दूर है, परन्तु इसको परम्परागत रूप से 33,000 प्रकाश वर्ष के बराबर माना जाता है ।

आकाशगंगा की तुलना में हमारा सौरमण्डल (Solar System) बहुत छोटा है, जो केवल बारह प्रकाश वर्ष अथवा 13 अरब किलोमीटर के बराबर है । पूरी आकाशगंगा अंतरिक्ष में परिक्रमा कर रही है । इसके केन्द्रीय भाग के सितारे, बाह्य भाग के सितारों की तुलना में तीव्र गति से परिक्रमण करते हैं । हमारा सूर्य (Sun) आकाशगंगा का एक चक्कर लगभग 22 करोड़ (220 Million) वर्ष में लगाता है ।

निहारिका (Nebula):

मंदाकिनी में पाये जाने वाले धूल के बादलों को निहारिका कहते हैं  । यदि निहारिका के बादल की गैस उज्ज्वलित हो जाये तो निहारिका चमकने लगती है ।

श्वेत वामन-ड्वार्फ (Dwarf):

सफेद रंग के ड्वार्फ सितारों का घनत्व सामान्य पार्थिव ग्रहों की तुलना में अधिक होता है तथा उनका आकार बहुत छोटा होता है । ऐसा अनुमान किया जाता है कि श्वेत वामन (Dwarf) सितारे किसी समय में सामान्य सितारों की भांति थे । धीरे- धीरे इनके नाभिक ईंधन (Nucleus-Fuel) का ह्रास हुआ और इनका आकार घट कर छोटा हो गया । यद्यपि कुछ श्वेत वामन तारे हमारी पृथ्वी के आकार के हैं, परन्तु उनका घनत्व हमारे सूर्य के समान है ।

जल की तुलना में इनका घनत्व दस लाख गुना माना जाता है । इनके एक चम्मच भर पदार्थ का वजन कई टन के बराबर होता है । पदार्थ का इतना अधिक घनत्व तब ही सम्भव है, जब इलेक्ट्रॉन (Electron) अपना स्थान बदल कर नाभिक (Nucleus) के निकट आ जाये ।

ऐसे पदार्थ को विकृत पदार्थ (Degenerated Matter) कहते हैं । यदि कोई सितारा श्वेत वामन का रूप धारण कर ले तो इसकी ऊर्जा तथा ऊष्मा समाप्त हो जाती है जिसके कारण यह ठंडा हो जाता है, धुन्धला पड़ जाता है । इसकी अन्तिम अवस्था एक कृष्ण वामन (Black Dwarf) की हो जाती है ।

कृष्ण छिद्र (Black-Holes) अथवा न्यूट्रॉन सितारे (Neutron Stars):

जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है छोटे आकार के श्वेत वामन तारे का घनत्व अधिक होता है तथा बड़े आकार के श्वेत वामन का घनत्व कम । यदि हमारी पृथ्वी कृष्ण छिद्र के रूप में नष्ट (Collapse) हो जाये तो इसका आकार घट कर एक फुटबॉल के समान रह जायेगा ।


Essay # 2.

सौरमण्डल (The Solar System):

सूर्य के परिवार को सौरमण्डल कहते हैं । सौरमण्डल में आठ ग्रह, एक छोटा ग्रह (Dwarf Planet) प्लूटो, बहुत-से चन्द्रमा (Satellites) तथा अनगिनत ग्रहिकाएं (Asteroids), उल्काएं, धूमकेतु आदि सम्मिलित हैं, जो सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं । पृथ्वी पर ऊष्मा तथा प्रकाश सूर्य से आता है । सूर्य तथा उसके परिवार के सदस्य (ग्रह)  में दिखाये गये हैं ।

सौरमण्डल की उत्पत्ति (Origin of Solar System):

कहा जाता है कि, अंतरिक्ष में अवस्थित विशाल बादल में गुरुत्वाकर्षण के नष्ट होने (Gravitation Collapse) के कारण सौरमण्डल की उत्पत्ति हुई । सूर्य से दूर जाते हुए ग्रहों की संरचना एवं घनत्व में विभिन्नता इस तथ्य को सिद्ध करते हैं । उदाहरण के लिये जो ग्रह सूर्य के निकट हैं वे चट्‌टानों तथा धातुओं के बने हुये हैं जो ऊँचे तापमान पर बने थे । इसके विपरीत सूर्य से अधिक दूरी पर पाये जाने वाले ग्रहों की उत्पत्ति ऐसी धातुओं से हुई जो कम अथवा निम्न तापमान पर ठोस (Solid) होते हैं ।

अधिकतर वैज्ञानिकों का विश्वास है कि ब्रह्माण्ड की, उत्पत्ति लगभग 15 अरब वर्ष (15 Billion Years) पूर्व हुई थी । इसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि भारी बिग-बैंग (Big-Bang) धमाका हुआ था । इस धमाके के फलस्वरूप भौतिक पदार्थों ने बिखर कर मंदाकिनियों (Galaxies), सितारों तथा ग्रहों का रूप धारण कर लिया ।

वैज्ञानिकों का विचार है कि हमारे सौरमण्डल की उत्पत्ति आकाशगंगा (Milky-Way) की भुजा में हुई थी । आकाशगंगा की इस भुजा में एक हल्का ठंडी गैस का बादल था । इस बादल की मुख्य गैसों में हाइड्रोजन (Hydrogen), हीलियम, ऑक्सीजन एवं लौह इत्यादि थे ।

यह बादल धीरे-धीरे चक्कर लगाने लगा । तत्पश्चात् उस बादल में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का पतन (collapse) आरम्भ हुआ और उसमें गैस के घूमते हुए चक्र (Disc) उत्पन्न हुये, जिनके आंतरिक भाग का तापमान अत्यधिक था । गैस के यह डिस्क (Disc) धीरे-धीरे ठंडे होकर सौरमण्डल का रूप धारण कर गये ।

सूर्य (Sun):

व्यास- 1,392,000 किलोमीटर (864,948 मील)

मास (Mass)- 1990 मिलियन, मिलियन, मिलियन, मिलियन टन ।

वैज्ञानिकों के अनुसार, सूर्य की उत्पत्ति, आकाशगंगा की भुजा में पाये जाने वाले धूल के बादल में गुरुत्वाकर्षण बल (Gravitational Force) के पतन के कारण

हुई । सूर्य के आंतरिक भाग का तापमान जब लगभग 1,000,000°C तक पहुँचा तब नाभिक संलयन (Nuclear Fusion) की प्रक्रिया आरम्भ हुई अर्थात् हाइड्रोजन, हीलियम में परिवर्तित हुआ, जिससे सूर्य से निरन्तर ऊष्मा एवं प्रकाश की लपटें उत्सर्जित होती रहीं ।

प्रकाश-मण्डल (Photosphere):

सूर्य की अधिक चमकीली बाह्य परत को प्रकाश-मण्डल कहते हैं । सूर्य के इस भाग में 300 किलोमीटर की गहराई तक गैस (Gases) जलती रहती हैं । प्रकाश-मण्डल का तापमान लगभग 6000°K (11,000°F) रहता है ।

वर्णमण्डल (Chromosphere):

प्रकाश-मण्डल के बाह्य भाग को वर्णमण्डल (Chromosphere) कहते हैं । वास्तव में यह जलती गैसों की एक पतली परत होती है ।

सूर्य-कलंक (Sun-Spot):

सूर्य की परत पर कुछ धब्बे उत्पन्न होते हैं, जिन्हें सूर्य कलंक कहते हैं । सूर्य के इन कलंकों (Sunspots) का तापमान, आस-पास के तापमान से लगभग 1500°C कम होता है । सूर्य कलंक की औसत आयु चंद दिनों से लेकर कुछ महीनों तक होती है । प्रत्येक सूर्य-कलंक के मध्य भाग को प्रच्छाया (Umbra) कहते हैं और प्रकाशित भाग को उपछाया (Penumbra) कहते हैं ।

एक सूर्य-कलंकी चक्र ग्यारह-वर्ष का होता है । एक सूर्य-कलंकी चक्र में सूर्य-कलंकों की संख्या घटती बढ़ती रहती है । कहा जाता है कि जब सूर्य-कलंक उत्पन्न नहीं होते तब सूर्य का तापमान लगभग 1°C कम रहता है । सूर्य कलंकों की कम अथवा अधिक संख्या का पृथ्वी की जलवायु पर प्रभाव पड़ता है ।

ग्रह (Planet):

ग्रह एक ऐसे खगोलीय पिण्ड (Celestial-Body) हैं जो सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं । ग्रह के पास अपना प्रकाश एवं ऊष्मा नहीं होती । हमारी पृथ्वी भी एक ग्रह है जो सूर्य से प्रकाश एवं ऊष्मा लेती है और उसके चारों ओर परिक्रमा करती है ।

ग्रहों को निम्न दो वर्गों में विभाजित किया जाता है:

(i) आन्तरिक ग्रह- [बुध-Mercury), (शुक्र-Venus), (पृथ्वी-Earth) तथा (मंगल-Mars)]

(ii) बाह्य ग्रह- [वृहस्पति- (Jupiter)], (शनि-Saturn), (अरुण-Uranus), तथा (वरुण- Neptune)]

विभिन्न ग्रहों के मुख्य तथ्य निम्न प्रकार हैं:

(i) आन्तरिक ग्रह:

बुध (Mercury) (वाणिज्य एवं निपुणता का ग्रह):

व्यास- 4878 किलोमीटर (3031 मील)

राशि (Mass)- 330 मिलियन मिलियन, मिलियन टन

तापमान- न्यूनतम-173°C अधिकतम 427°C

सूर्य से दूरी- 58 मिलियन किलोमीटर (36 मिलियन मील)

दिन की अवधि- 58.65 पृथ्वी दिनों के बराबर

वर्ष- पृथ्वी के 87.97 दिनों के बराबर

ऊपरी सतह का घनत्व- 1 किग्रा. = 0.38 किग्रा.

बुध ग्रह चन्द्रमा के समान है जिस पर बहुत से प्रसुप्त ज्वालामुखी और उनके क्रेटर (Crater) पाये जाते हैं ।

शुक्र (Venus) (सुन्दरता की देवी):

व्यास- 12,102 किलोमीटर, (7520 मील)

मास (Mass)- 4870 मिलियन, मिलियन, मिलियन टन

तापमान- 457°C (अत्यधिक तापान्तर उपलब्ध नहीं)

सूर्य से दूरी- 108 मिलियन किलोमीटर (67 मिलियन मील)

दिन की अवधि- पृथ्वी के 243.01 दिन के बराबर

वर्ष- पृथ्वी के 224.7 दिनों के बराबर

ऊपरी सतह का घनत्व- 1 किलो = 0.88 किलो

शुक्र (वीनस) को पृथ्वी का जुडवां ग्रह भी माना जाता है, परन्तु दोनों ग्रहों में बहुत-सी असमानतायें हैं । उदाहरण के लिए शुक्र ग्रह पर ऊँच-ऊँचे पठार, अनेक ज्वालामुखी, वलनदार पवर्तमालायें तथा समतल लावे के मैदान हैं ।

शुक्र ग्रह कार्बन डाई-ऑक्साइड तथा सल्फर ऑक्साइड (Sulfuric Oxide) युक्त वायुमण्डल से लिपटा हुआ है । इसमें दो बडे भू-भाग महाद्वीपों के समान हैं जिनकी ऊँचाई कई किलोमीटर है । इसीलिए कहा जाता है कि शुक्र ग्रह का धरातल हमारी पृथ्वी के समान है ।

पृथ्वी (Earth):

व्यास- 12,756 किलोमीटर (7926 मील)

मास (Mass)- 5976 मिलियन, मिलियन, मिलियन टन

तापमान- -80°C से 58°C तक

सूर्य से दूरी- 150 मिलियन किलोमीटर (93 मिलियन मील)

दिन की अवधि- 23.92 घण्टे

वर्ष की अवधि- 365.25 दिन (पृथ्वी के)

धरातलीय घनत्व- 1 किलो = 1 किलो

पृथ्वी एक गेंद के समान है, परन्तु पूर्ण रूप से गोल नहीं है । पृथ्वी की दैनिक गति के कारण इसका विषुवतरेखीय भाग कुछ उभरा हुआ है तथा ध्रुवीय भाग कुछ चपटा है । पृथ्वी इसी कारण एक जियोइड (Geoid) आकृति की है ।

हमारी पृथ्वी अन्य पार्थिव ग्रहों (बुध, शुक्र तथा मंगल) से भिन्न है । केवल पृथ्वी पर ही जीवन है । इसकी सूर्य से दूरी तथा आकार के कारण इस पर वायुमण्डल की उत्पत्ति सम्भव हो सकी है। इस पर ठोस द्रव्य तथा गैस पाई जाती हैं । पृथ्वी पर जल है जिसके कारण जीवन सम्भव हो सका है ।

पृथ्वी का वायुमण्डल:

पृथ्वी-उत्पत्ति की प्रारम्भिक अवस्था में पृथ्वी के धरातल पर लगातार ज्वालामुखियों के उद्‌गार हो रहे थे । इन ज्वालामुखियों से निकलने वाले लावा, राख, धुआँ तथा वाष्प (जल) से वायुमण्डल की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार बादल बने, वर्षा हुई और पृथ्वी के निचले भागों में जल एकत्रित होकर सागर का रूप धारण करता गया ।

पृथ्वी के तापमान में स्थिरता आई और धरती पर जीवन की उत्पत्ति आरम्भ हुई । कार्बन-डाइ-ऑक्साइड जीवन दान देने वाली ऑक्सीजन में बदलने लगी । पृथ्वी के लगभग 367 वर्ग किलीमीटर पर सागर फैला हुआ है जो मगंल-ग्रह के क्षेत्रफल का दुगना तथा चन्द्रमा के क्षेत्रफल का नौ गुना है ।

पृथ्वी के धरातल का सबसे निचला भाग प्रशान्त महासागर में है, जिसको मेरियाना गर्त (Mariana Trench) कहते हैं । इसकी गहराई 10920 मीटर है । यदि माउंट ऐवरेस्ट (Mt. Everest) को इस गर्त में डाल दिया जाये तब भी जल की गहराई लगभग दो किलोमीटर होगी ।

मगंल (Mars) (लाल ग्रह-युद्ध का देवता):

व्यास- 6786 किलोमीटर (4217 मील)

मास (Mass)- मिलियन, मिलियन, मिलियन टन

तापमान- न्यूनतम –137°C अधिकतम 37°C

सूर्य से दूरी- 228 मिलियन किलोमीटर (142 मिलियन मील)

दिन की अवधि- 24.623 घंटे

वर्ष- पृथ्वी के 188 वर्षों के बराबर

ऊपरी सतह का घनत्व- 1 किलो = 0.38 किलो

मंगल ग्रह पृथ्वी तथा शुक्र से छोटा है परन्तु इस में बहुत-सी विचित्र भू-आकृतियाँ पाई जाती हैं । इस पर बहुत बड़े आकार के ज्वालामुखी हैं जिनमें से एक ज्वालामुखी की ऊँचाई 28 किलोमीटर से अधिक है ।

एक बहुत बड़ी कैनियन (Canyon) पूरे गोलार्द्ध पर फैली हुई है जिसकी लम्बाई लगभग चार हजार किलोमीटर है । इस ग्रह पर जल-अपवाह एवं बाढ़ के प्रमाण मिले हैं । बहुत-सी भू-आकृतियाँ पवन द्वारा निर्मित प्रतीत होती हैं । इसके ध्रुवीय भागों में हिम तथा धूल के निक्षेपों की सम्भावनायें जताई गई हैं ।

बाह्य ग्रह (Outer Planets):

बृहस्पति (Jupiter), शनि (Saturn), अरुण (Uranus), तथा वरुण (Neptune) तथा प्लूटो (Pluto) बाह्य ग्रह कहलाते हैं । ये सभी ग्रह हल्के पदार्थ के बने हुये हैं जिनमें हाइड्रोजन, हीलियम तथा ऑक्सीजन मुख्य हैं । बाह्य ग्रह चट्‌टानों द्वारा निर्मित नहीं बल्कि हिम के बने हुये हैं ।

बृहस्पति (Jupiter) (देवताओं का ग्रह):

व्यास- 142,984 किलामीटर (88,846 मील)

मास (Mass)- 1,900,000 मिलियन, मिलियन, मिलियन टन

तापमान- न्यूनतम -153°C, अधिकतम (ज्ञात नहीं)

सूर्य से दूरी- 778 मिलियन किलोमीटर (483 मिलियन मील)

दिन की अवधि- 9.84 घंटे

वर्ष- 11.86 पृथ्वी के वर्षों के बराबर

ऊपरी सतह का घनत्व- 1 किलो = 2.53 किलो

बृहस्पति का अधिकतर भाग गैस एवं तरल पदार्थ का बना हुआ है । इसका कोई भी भाग ठोस पदार्थ का बना हुआ नहीं है । परंतु इसके चंद्रमा ठोस पदार्थ के बने हुए हैं । वृहस्पति के चार बड़े चन्द्रमाओं में आओ (lo), यूरोपा (Europa), गेनेमीड (Ganymede) तथा केलिस्टो (Callisto) की खोज 1610 ई. में गैलिलियो ने की थी इसलिये इनको गैलिलियो चन्द्रमा कहते हैं । इसका आयतन पृथ्वी के आयतन (Volume) की तुलना में 1300 गुणा है ।

शनि (Saturn) (कृषि का देवता):

व्यास- 120,660 किलोमीटर (74,974 मील)

मास (Mass)- 570 मिलियन, मिलियन टन

तापमान- न्यूनतम -185°C अधिकतम ज्ञात नहीं

सूर्य से दूरी- 1427 मिलियन किलोमीटर (887 मिलियन मील)

दिन की अवधि- 10.23 घंटे

वर्ष- पृथ्वी के 29.46 वर्षों के बराबर

ऊपरी सतह का घनत्व- 1 किलो = 1.07 किलो

शनि एवं बृहस्पति ग्रह में बहुत-सी समानतायें पाई जाती हैं । बृहस्पति की भांति इसमें भी हाइड्रोजन और हीलियम की बहुतायत है । इसके वायुमण्डल में काले रंग की पट्‌टियाँ (Bands) पाई जाती हैं । इसके चारों ओर लाखों-करोड़ों बर्फ से लिपटी हुई चट्‌टानों के टुकड़े चक्कर लगाते रहते हैं जिनसे एक वृत्त (Ring) इसके चारों ओर चक्कर लगाता हुआ प्रतीत होता है ।

यूरेनस/अरुण (Uranus) (हरित ग्रह अथवा स्वर्ग का देवता):

व्यास- 51,118 किलोमीटर (31,763 मील)

मास (Mass)- 86,800 मिलियन, मिलियन, मिलियन टन

तापमान- -214°C (अधिकतम ज्ञात नहीं)

सूर्य से दूरी- 2870 मिलियन किलोमीटर (1783 मिलियन मील)

दिन की अवधि- 17.9 घंटे

वर्ष- 84.01 पृथ्वी के वर्षों के बराबर

घनत्व- 1 किलो = 0.92 किलो

नेप्च्यून-वरुण (Neptune) (सागर का देवता):

व्यास- 49,528 किलोमीटर (30,775 मील)

मास (Mass)- 102,000 मिलियन, मिलियन, मिलियन टन

तापमान- -225°C (अधिकतम ज्ञात नहीं)

सूर्य से दूरी- 4497 मिलियन किलोमीटर (2794 मिलियन मील)

दिन की अवधि- 19.2 घंटे

वर्ष- पृथ्वी के 164.79 वर्षों के बराबर

घनत्व- 1 किलो = 1.18 किलो

यूरेनस एवं नेप्च्यून को जुड़वां ग्रह भी कहते हैं । यह ग्रह हाइड्रोजन, हीलियम तथा मिथेन से घिरे हुये हैं ।

प्लूटो (Pluto) (बौना ग्रह-मृत्यु का देवता):

व्यास- 2300 किलोमीटर (1428 मील)

मास (Mass)- 13 मिलियन, मिलियन, मिलियन टन

तापमान- -236°C (अधिकतम ज्ञात नहीं)

सूर्य से दूरी- 5900 मिलियन किलोमीटर (3666 मील)

दिन की अवधि- 6.39 घंटे

वर्ष- पृथ्वी के 248.54 वर्षों के बराबर

घनत्व- 1 किलो = 0.30 किलो

 

 

ग्राहिका (Asteroid):

सूर्य के चारों ओर करोडों छोटी ग्रहिकाएँ मंगल एंव बृहस्पति ग्रहों के मध्य परिक्रमा करती रहती हैं जिनको एस्टिरॉयड कहते हैं । कभी-कभी यह ग्रहिकाएँ टूट कर पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश कर जाती हैं और पृथ्वी पर आ गिरती हैं ।

धूमकेतु/पुच्छल तारा (Comets):

सौरमण्डल में पुच्छल तारे आश्चर्यजनक खगोलीय पिण्ड माने जाते हैं । जमी (frozen) हुई गैसों से बने धूमकेतुओं की तुलना बर्फ की गेंद से की जाती है । बहुत- से धूमकेतु दीर्घ-मार्ग (Elongated Orbit) में परिक्रमा करते हैं । धूमकेतु जब शनि की कक्षा (Orbit) में प्रवेश करते हैं तब यह नजर आने लगते हैं । हैली धूमकेतु, बड़े धूमकेतुओं में एक है । हर 76 वर्ष के पश्चात् यह पृथ्वी की कक्षा से गुजरता है  ।

उल्का पिण्ड (Meteorite):

उल्का पिण्ड तीव्र गति से अन्तरिक्ष में घूमते रहते हैं । उल्का पिण्ड जब पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं तो घर्षण के कारण वह जलकर चमकने लगते हैं । जलने के पश्चात यह राख में बदल कर धरती पर बिखर जाते हैं । सामान्यतः इनको शुटिंग स्टार (Shooting Stars) कहते हैं ।

अन्तरिक्ष से कोई भी वस्तु पृथ्वी के धरातल पर गिरती है तो उल्का पिण्ड (Meteorite) कहलाती है । ये उल्का पिण्ड चट्‌टानों के टुकड़े, राख, निकिल-लोहे आदि के बने होते हैं । विश्व में उल्का पिण्ड के गिरने से अरिजोना राज्य में एक बहुत बड़ा क्रेटर बन गया था । कहा जाता है कि, 1300 मीटर गहरा यह क्रेटर लगभग दस हजार वर्ष पूर्व बना था ।

मौसम (Seasons):

पृथ्वी अपनी धुरी (Axis) पर 23.5° कोण पर झुकी हुई है (Fig. 1.7) । जून के महीने में जब उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य के सामने होता है, तो सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्बवत पड़ती हैं । इसलिये उत्तरी गोलार्द्ध में गर्मी का मौसम होता है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में सर्दी का मौसम ।

छह महीने के पश्चात् दिसम्बर में सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लम्बवत पड़ती हैं । इसलिये दिसम्बर के महीने में दक्षिणी गोलार्द्ध में गर्मी का मौसम और उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दी का मौसम होता है ।

तालिका 1.2: मौसम बदलने के पाँच मुख्य कारण:

1. परिक्रमण [(वार्षिक गति) Revolution]सूर्य के चारों ओर परिक्रमा, जिसमें 365.25 दिन लगते हैं ।

 

2. दैनिक (Rotation)- पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घट में एक चक्कर पूरा कर लेती है जिसकी गति विषुवत रेखा पर 1675 किलोमीटर प्रति घंटा होती है ।

 

3. झुकाव (Tilt)- पृथ्वी अपनी धुरी पर 23.5 डिग्री के कोण पर झुकी हुई है ।

4. धुरी (Axis)- पृथ्वी अपनी धुरी पर सदैव एक ही कोण पर झुकी रहती है तथा ध्रुव तारा (Polaris) सदैव उत्तरी ध्रुव पर रहता है ।

5. गोलाई (Sphericity) – पृथ्वी की आकृति एक जियोइड (Geoid) के समान है यह पूर्ण रूप से वृत्ताकार नहीं है ।

चन्द्रमा:

विभिन्न अंतरिक्ष अभियानों तथा खोज कार्यों के पश्चात् चन्द्रमा के बारे में बहुत-सी जानकारी प्राप्त हुई है । चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है, जिसका व्यास (Diameter) 3470 किलोमीटर है । चन्द्रमा पर करोड़ों ज्वालामुखी (Crater) हैं, जो आकार में छोटे गड्‌ढे (Pits) से लेकर सैकड़ों किलोमीटर व्यास के हैं । चन्द्रमा पृथ्वी की तुलना में मन्द गति से अपनी धुरी पर घूमता है ।

इसको अपनी धुरी पर एक चक्कर लगाने में लगभग 27 दिन लगते हैं । चूंकि चन्द्रमा को पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने में भी लगभग इतना ही समय लगता है, इसलिये चन्द्रमा का एक भाग (Same Face) ही पृथ्वी से नजर आता है ।

एक पूर्ण चन्द्रमा से दूसरे पूर्ण-चन्द्रमा के बीच 29.5 दिन का समय लगता है । एक महीने के अलग-अलग दिनों में चन्द्रमा की आकृति भी भिन्न-भिन्न दिखाई देती है, जिसका मुख्य कारण चन्द्रमा तथा पृथ्वी का पारस्परिक बदलता स्थान है । चन्द्रमा के इन बदलते स्वरूपों को चन्द्रकलाएं कहते हैं ।


Essay # 3.

अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा (International Date Line):

कोई भी स्थान जो ग्रीनविच (Greenwich) से 180° पश्चिम में स्थित है उसका समय ग्रीनविच (लन्दन) के समय से 12 घंटे पीछे होगा और कोई स्थान जो 0° से 180° पूर्व में है उसका समय 12 घंटे आगे होगा । जैसे कोई मुसाफिर पूर्वी गोलार्द्ध से पश्चिमी गोलार्द्ध की ओर अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा (180°) पार करता है तो उसको एक दिन छोड़ देना पड़ता है ।

इसके विपरीत यदि कोई मुसाफिर पश्चिमी गोलार्द्ध से पूर्व गोलार्द्ध की ओर अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा (180°) को पार करता है तो उसको एक दिन बढ़ाना पड़ता है । अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा तथा समय-क्षेत्र (Time Zone) को (Fig. 1.9) में दिखाया गया है ।

 

 

समकक्ष सार्वभौम समय (Co-Ordinated Universal Time):

1928 में ग्रीनविच (लन्दन) समय को समकक्ष सार्वभौम समय (Co-Ordinated Universal Time) से बदल दिया गया । वर्तमान में सभी देशों में सरकारी कामकाज के लिए UTC समय का इस्तेमाल किया जाता है । UTC समय को पेरिस (फ्रांस) के प्रसारण समय से निर्धारित किया जाता है ।

प्रत्येक समय-क्षेत्र (Time Zone) के मध्य भाग के दोनों ओर 7.5° का अन्तराल होता है (Fig. 1.9) । यदा-कदा कुछ देशों में समय-क्षेत्रों में संशोधन करके सीमाओं में परिवर्तन किया गया है, ताकि स्थानीय समय की जटिलता को दूर किया जा सके । देखिये चीन के समय-क्षेत्र (Time Zone of China) ।

दिन का प्रकाश बचाने का समय (Daylight Saving Time):

विश्व के कुछ देशों में बसंत ऋतु के आते ही अप्रैल के पहले रविवार को समय को एक घंटा आगे कर दिया जाता ओर अक्टूबर के आखिरी रविवार को घड़ियों को एक घंटा पीछे कर दिया जाता है ताकि सूर्य प्रकाश से लाभ उठाकर बिजली के उपभोग में बचत की जा सके ।

इस प्रकार से घड़ियों को आस्ट्रेलिया, कनडा, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में उपयोग किया जाता है । समय को इस प्रकार प्रकाश समंजन करने का आविष्कार बेंगामिन फ्रैंकलिन (Bengamin Franklin) ने किया था ।

दीर्घ वृत्त (Great Circle) तथा लघु वृत्त (Small Circle):

अक्षांश तथा देशान्तरों के निर्धारण में दीर्घ वृत्त एवं लघु वृत्त की बड़ी भूमिका है । दीर्घ-वृत्त (Great Circle) ऐसे वृत्त को कहते हैं, जिसका केन्द्र पृथ्वी के केन्द्र के अनुरूप हो । इनकी संख्या अनन्त (infinite) हो सकती है । एक दीर्घ वृत्त में प्रत्येक देशान्तर रेखा, दीर्घ वृत्त की आधी होती है। एक चपटे कागज पर बने मानचित्र पर हवाई जहाजों के मार्ग सीधी रेखाओं के द्वारा दिखाया जाता है ।

दीर्घ वृत्त (Great Circle) को छोड़कर अन्य सभी अक्षांश रेखाओं की लम्बाई विषुवत रेखा से ध्रुव की ओर घटती चली जाती है जिस कारण वे लघु वृत्त बनाती हैं । इन लघु वृत्तों का केन्द्र पृथ्वी के केन्द्र के अनुरूप नहीं होता  ।

उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध (The Northern and Southern Hemisphere):

विषुवत रेखा एक काल्पनिक रेखा है जो पृथ्वी के मध्य से पश्चिम से पूर्व की ओर खींची गई है तथा पृथ्वी को दो बराबर भागों में विभाजित करती है । इसके उत्तरी भाग को उत्तरी गोलार्द्ध तथा दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्द्ध कहते हैं  ।

पूर्वी तथा पश्चिमी गोलार्द्ध (The Eastern and Western Hemisphere):

पृथ्वी को उत्तर से दक्षिण की ओर 0° डिग्री तथा 180° देशान्तरों के साथ दो बराबर भागों में विभाजित किया गया है । इस प्रकार के विभाजन से पृथ्वी को पूर्वी तथा पश्चिमी गोलार्द्ध में विभाजित किया जा सकता है । 0° (ग्रीनविच-लन्दन) से 180° पूर्व तक पूर्वी गोलार्द्ध तथा 0° (ग्रीनविच-लन्दन) से 180° पश्चिम तक पश्चिमी गोलार्द्ध ।

थलीय गोलार्द्ध (Land Hemisphere) एवं जल-गोलार्द्ध (Water Hemisphere):

थल तथा जल के आधार पर भी पृथ्वी को दो गोलार्द्धों में विभाजित किया जा सकता है । विषुवत रेखा से उत्तर (उत्तरी गोलार्द्ध) में थलीय का भाग अधिक है, इसलिये इसको थलीय-गोलार्द्ध कहते हैं । इसके विपरीत दक्षिण गोलार्द्ध में जल का क्षेत्रफल अधिक है इसलिये दक्षिणी गोलार्द्ध को जल का गोलार्द्ध कहते हैं ।

ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम (Global Positioning System- GPS):

इस सिस्टम का आविष्कार 1970 में सुरक्षा तथा सैन्य उद्देश्य के लिये किया गया था । इसमें पृथ्वी के चारों और चक्कर लगाने वाले मानव द्वारा छोड़े गये 2434 उपग्रहों की सहायता से किसी स्थान के अक्षांश तथा देशान्तर का निर्धारण किया जाता है ।

इसके द्वारा किसी स्थान का निर्धारण सेंटीमीटर की शुद्धता तक किया जा सकता है । इस विधि में पॉकिट-रेडियो के आकार का एक यन्त्र होता है जिसमें तीन कृत्रिम उपग्रहों की सहायता से शुद्ध रूप से अक्षांश तथा देशान्तर को निर्धारित कर लिया जाता है ।

आजकल इस यन्त्र का उपयोग जहाजरानी भूमि-सर्वेक्षण राजमार्गों खनन संसाधनों के मानचित्र तैयार करने तथा पर्यावरण से सम्बंधित परियोजना तैयार करने में होता है । भूगोल में इस विधि का विशेष महत्व है क्योंकि इसकी सहायता से मानचित्र बनाने तथा स्थानों का निर्धारण करने में सहायता मिलती है ।


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