औद्योगिक स्थान का महत्व | Importance of Industrial Location in Hindi.

उद्योगों का स्थानीकरण कई प्रकार के भौगोलिक कारकों पर निर्भर करता है । इनमें कच्चे माल की उपलब्धता, शक्ति, परिवहन के साधन, सस्ता व कुशल श्रम, पूंजी, प्रौद्योगिकी व सरकार की नीति आदि का विशेष महत्व है । परंतु ये सभी कारक किसी एक स्थान पर न तो उपलब्ध हो सकते हैं और न ही औद्योगिक स्थानीकरण पर इनका समान प्रभाव पड़ता है ।

अतः भूगोलवेत्ताओं व अर्थशास्त्रियों में किसी उद्योग के अनुकूलतम स्थानीकरण पर इन कारकों के प्रभाव के संबंध में जिज्ञासा रही है । जर्मन अर्थशास्त्री अल्फ्रेड वेबर द्वारा 1909 ई. में Theory of the Location of Industries नामक पुस्तक में दिया गया ‘न्यूनतम परिवहन लागत सिद्धांत’ इस संदर्भ में पर्याप्त महत्ता रखता है ।

इस सिद्धांत के अनुसार कच्चे माल के अशुद्ध या भारह्रासी होने पर उससे संबंधित उद्योग का स्थानीकरण कच्चे माल के क्षेत्रों में होता है; उदाहरण के लिए चीनी उद्योग, जूट उद्योग, कागज उद्योग आदि ।

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यदि कच्चा माल सर्वत्र उपलब्ध हो तो उद्योग का स्थानीकरण बाजार के निकट होता है; उदाहरण के लिए मिट्‌टी के बर्तन बनाने का उद्योग, परंतु जब कच्चे माल शुद्ध हों अर्थात् भारह्रास न करते हों एवं क्षेत्र विशेष में उपलब्ध हों तो इस प्रकार के उद्योगों का स्थानीकरण कच्चे माल के क्षेत्र से बाजार के मध्य कहीं भी हो सकता है; उदाहरण के लिए सूती वस्त्र उद्योग ।

एक से अधिक कच्चे माल पर आधारित उद्योगों के लिए वेबर ने ‘अवस्थिति त्रिकोण’ के द्वारा अपना औद्योगिक स्थानीकरण प्रारूप दिया है । उदाहरण के लिए, लौह-इस्पात उद्योग के लिए मुख्य कच्चा माल लौह-अयस्क और कोयला है, सीमेंट उद्योग के लिए चूना पत्थर और कोयला तथा एल्युमिनियम उद्योग के लिए बाक्साइट एवं विद्युत प्रमुख कच्चे माल हैं ।

यद्यपि इन उद्योगों में अन्य कच्चे माल भी हो सकते हैं, परंतु उनके स्थानीकरण का प्रारूप इन्हीं दो कच्चे मालों के आधार पर निर्धारित होता है । अतः वेबर ने एक से अधिक कच्चे माल पर आधारित उद्योगों को दो वर्गों में रखा है । ये हैं- भारह्रासी उद्योग और भारह्रास नहीं करने वाले उद्योग ।

प्रथम त्रिभुजाकार मॉडल के अंतर्गत लौह-इस्पात उद्योग, सीमेंट उद्योग, एल्युमिनियम उद्योग आदि आते हैं । भारत के जमशेदपुर एवं जर्मनी के एस्सेन (Essen) में लोहा-इस्पात उद्योग के स्थानीकरण को इसी प्रारूप द्वारा समझा जा सकता है ।

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भारत में विशाखापत्तनम में लौह-इस्पात का तटीय स्थानीकरण भी ‘न्यूनतम परिवहन लागत’ पर ही आधारित है । द्वितीय त्रिभुजाकार मॉडल के अंतर्गत वैसे उद्योग आते है, जिनके कच्चे माल भारह्रास नहीं करते हों एवं जहाँ पर बाजार अधिक महत्व रखता हो ।

वेबर ने बताया कि यदि किसी क्षेत्र में श्रम अधिक सस्ता हो तो न्यूनतम परिवहन लागत केन्द्र से वहाँ उद्योग का स्थानांतरण हो सकता है, बशर्ते उद्योग के वहाँ स्थानांतरित करने में लगा अतिरिक्त परिवहन लागत, श्रम के मूल्य में होने वाली बचत से कम हो ।

दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका के अलबामा राज्य में सूती वस्त्र उद्योग के विकास का यह प्रमुख कारण था । भारत के अनेक नगरों में तैयार वस्त्र उद्योग और चमड़ा उद्योग का विकास न्यूनतम श्रम लागत का ही परिणाम है ।

वेबर ने ‘समूहीकरण के प्रभाव’ से भी लागत में कमी की संभावना बतायी एवं कहा कि हल्के उद्योग और फुटलूज उद्योग की स्थापना में कभी-कभी परिवहन मूल्य की तुलना में संरचनात्मक कारकों का अधिक प्रभाव पड़ता है । चूँकि ये उद्योग अपने विकास के लिए संरचनात्मक सुविधाओं में पर्याप्त निवेश कर पाने में सामान्यतः सक्षम नहीं होते, अतः समूहीकरण के क्षेत्र में ये स्थान्तरित हो जाते हैं ।

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इससे वे एक ही आधारभूत संरचना तथा एक दूसरे के उपोत्पादों का लाभ उठाकर अपनी प्रति इकाई उत्पादन लागत कम कर सकते हैं । उदाहरण के लिए महानगरीय क्षेत्रों में या उसके वाह्य प्रदेशों में इलेक्ट्रॉनिक उद्योग, तैयार वस्त्र उद्योग, सॉफ्टवेयर उद्योग आदि के विकास का संदर्भ लिया जा सकता है ।

सिंगापुर में इन्हीं कारणों से तैयार वस्त्र, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान व सॉफ्टवेयर उद्योग का बेहतर विकास हो सका है । विभिन्न औद्योगिक संकुलों के विकास को भी समूहीकरण के प्रभाव के अंतर्गत ही समझा जा सकता है ।

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