स्वतंत्रता पर निबंध: शीर्ष 4 निबंध | Essay on Freedom: Top 4 Essays in Hindi!

Essay # 1. स्वतंत्रता की संकल्पना (Concept of Freedom):

राजनीति के एक सिद्धांत के रूप में ‘स्वतंत्रता’ के दो अर्थ लिए जाते हैं । पहले अर्थ में स्वतन्त्रता को ‘मानवीय अस्तित्व का एक गुण’ माना जाता है जिसका अभिप्राय यह है कि जहाँ प्रकृति के अन्य तत्व-वस्तुएं या जीव-जंतु प्रकृति के निर्विकार नियमों (Immutable Laws) से नियमित होते हैं, वही मनुष्य प्रकृति के नियमों का ज्ञान प्राप्त करके उन्हें अपने उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना लेता है । अतः वह अपनी जीवन को मनचाहा रूप दे सकता है ।

दूसरे अर्थ में स्वतन्त्रता ‘मनुष्य की एक दशा’ है जिसमें मनुष्य स्वयं-निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति में समर्थ होता है और उस पर बाहर से कोई बंधन नहीं लगा होता है । यह बात महत्वपूर्ण है कि स्वतंत्रता की ‘दशा’ का विचार तभी हमारे सामने आता है जब हम मनुष्य में स्वतंत्रता के ‘गुण’ या क्षमता को स्वीकार करके चलते हैं । राजनीति-सिद्धांत का मुख्य सरोकार ‘स्वतंत्रता की दशा’ से है ।

साधारणतः स्वतंत्रता की मांग का आधार ‘मनुष्य का विवेकशील प्राणी’ होना है । इस विचार की व्याख्या करते हुए जे॰आर॰ ल्यूकस ने अपनी पुस्तक ‘The Principles of Politics- 1976’ में लिखा है कि ”स्वतंत्रता का तात्त्विक अर्थ यह है कि विवेकशील लोगों को जो कुछ सर्वात्तम प्रतीत हो, वही कुछ करने में वह समर्थ हो और उसके कार्यकलाप बाहर के किसी प्रतिबंध से न बँधे हों ।”

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औपचारिक दृष्टि से, स्वतंत्रता की संकल्पना को ‘प्रतिबंधों का अभाव’ माना जाता है और ऐसी स्वतंत्रता की मांग विवेकशील लोगों के लिए की जाती है । जो सिद्धांत सभी मनुष्यों को समान रूप से विवेकशील मानता है, वह सबको समान स्वतंत्रता देने की मांग करता है परंतु जो सिद्धांत कुछ ही लोगों को विवेकसम्पन्न मानता है, वह इसका विरोध करता है । वास्तव में सच्ची स्वतंत्रता वही है जो सबको समान रूप से प्राप्त हो ।

बार्कर ने ‘Principles of Social and Political Theory -1951’ में स्वतंत्रता के नैतिक आधार पर विशेष बल देते हुए कांट को उद्धृत किया है कि ‘विवेकशील प्रकृति अपने-आप में साध्य है’ (Rational nature exists as an end-in-itself) ।

चूंकि मनुष्य इसी विवेकशील प्रकृति की श्रेणी में आता है, इसलिए मानव मात्र को सदैव एक साध्य मानकर चलना चाहिए, केवल साधन मानकर कभी नहीं चलना चाहिए ।

औपचारिक प्रतिबंध न होते हुए भी यथार्थ परिस्थितिया मनुष्य को बहुत कुछ करने से रोकती है । उदाहरण के लिए, मनुष्य पीड़ाग्रस्त होने पर मनचाहा कार्य नहीं कर सकता । मनुष्य केवल विवेकशील ही नहीं, संवेदनशील प्राणी भी है । वह भूख-प्यास या दुख-दर्द के कारण विवश हो सकता है ।

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अतः स्वतंत्रता का सबसे विस्तृत अर्थ यह होगा कि मनुष्य अपने भीतर या बाहर से किसी भी तरह की विवशता से ग्रस्त न हो ताकि वह जो कुछ सर्वोत्तम समझता है, उसे करने में कोई भी बाधा अनुभव न करे । साथ ही, स्वतंत्रता का सिद्धांत यह मांग भी करता है कि जो मनुष्य पराधीन होते हुए भी पराधीनता की मांग नहीं करता, उसे स्वाधीनता का रास्ता दिखाकर उसके सोए हुए विवेक को जगाना चाहिए ।

स्वतंत्रता के सार्थक प्रयोग के लिए इस पर युक्तियुक्त निबंधन भी आवश्यक है अन्यथा यह स्वच्छंद बन जाएगा । स्वच्छंदता की स्थिति में एक मनुश्य की स्वतंत्रता दूसरे मनुष्य की विवशता बन सकती है । बडी मछली छोटी मछली को अपना आहार बनाने की स्वतंत्रता चाहे तो छोटी मछली को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे ।

एल.टी. हॉबहाउस ने अपनी कृति ‘The Elements of Social Justice – 1922’ में कहा है कि ”एक व्यक्ति की निरंकुश स्वतंत्रता का अर्थ यह होगा कि बाकी सब घोर पराधीनता की बेडियों से जकड़े जाएंगे । अतः दूसरी ओर से देखा जाए तो सबको स्वतंत्रता तभी प्राप्त हो सकती है जब सब पर कुछ-न-कुछ प्रतिबंध लेगा दिए जाए ।”

यही कारण है कि स्वतंत्रता कानून और व्यवस्था की मांग करती है और उसके साथ पहली शर्त यह जुडी रहती है कि दूसरों को भी वैसी ही और उतनी ही स्वतंत्रता का अधिकार है । इस तरह स्वतंत्रता पर समानता का अंकुश रहता है परंतु केवल समानता का नियम अपना लेना पर्याप्त नहीं होगा ।

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एक-दूसरे को धक्का मारकर गिरा देने का ‘समान अधिकार’ स्वतंत्रता की परिभाषा में नहीं आएगा; स्वतंत्रता के सिद्धांत का प्रयोग कल्याण के पथ पर चलने के संदर्भ में करना चाहिए, विनाश के पथ पर चलने के संदर्भ में नहीं ।

स्वतंत्रता और सत्ता (Authority) के सम्बन्ध के विषय में भिन्न-भिन्न विचारकों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण व्यक्त किया है । टॉमस हॉब्स का कहना है कि राज्य की सत्ता के सारे लाभ तभी उठाए जा सकते हैं जब व्यक्ति की स्वतंत्रता को अत्यंत सीमित कर दिया जाए । इस तरह उसने व्यक्ति की स्वतंत्रता को गौण माना है ।

इसके विपरीत, जॉन लॉक और जे.एस. मिल जैसे विचारक यह तर्क देते हैं कि व्यक्ति की स्वतंत्रता को सार्थक बनाने के लिए राज्य की सत्ता को यथासंभव सीमित करना जरूरी है । नागरिकों का नैतिक समर्थन प्राप्त करने के लिए राज्य को नागरिकों की लोकतंत्रीय स्वतंत्रताओं की यथेष्ट रक्षा करनी चाहिए ।

इनमें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता (Freedom of Thought and Expression) सभा करने और संघ बनाने की स्वतन्त्रता (Freedom of Assembly and Association) का विशेष महत्व है । इन स्वतंत्रताओं की रक्षा नहीं होने पर नागरिक राज्य के प्रति विद्रोह पर उतारू हो जाते हैं ।

कानून और स्वतंत्रता के संबंधों पर डी.डी. रफील ने अपनी पुस्तक ‘Problems of Political Philosophy -1976’ में विचार व्यक्त किया है । चूँकि स्वतंत्रता सामाजिक जीवन की सीमाओं से बँधी होती है, इसीलिए किसी व्यक्ति को वहीं तक स्वतन्त्रता प्रदान की जा सकती है जहाँ तक वह दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक न हो । जहाँ एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा कर सकती है, वही उस पर प्रतिबंध लगाना जरूरी हो जाता है ।

ऐसा कोई प्रतिबंध कानून के द्वारा ही लगाया जा सकता है । कानून हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कहीं तक रोक लगा सकता है, या कानून के कौन-कौन से प्रतिबंध स्वतंत्रता के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं माने जा सकते-यह एक जटिल विषय है ।

रफील ने ऐसे 4 क्षेत्रों को चिहिनत किया है जिनमें कानून के प्रतिबंध तर्कसंगत माने जाते हैं । ये क्षेत्र हैं- अपराध के क्षेत्र, दीवानी विवादों के क्षेत्र, आर्थिक नियंत्रण के क्षेत्र और समाज-कल्याण व्यवस्था के क्षेत्र ।

स्वतंत्रता की अन्य धारणाएं इस प्रकार हैं:

I. राजनीतिक स्वतंत्रता (Political Freedom):

किसी व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रता वह है जिसके द्वारा वह अपनी सरकार के चयन, देश के नीति-निर्माण और प्रशासन में भाग लेता है । राजनीतिक स्वतंत्रता लोकतंत्र की रीढ़ है परन्तु लोकतंत्र स्वयं में स्वतंत्रता का प्रमाण नहीं है । हो सकता है कि कोई अन्य शासन प्रणाली अनुमति-मूलक हो और लोकतंत्रीय प्रणाली प्रतिबंधमूलक । अतः वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है ।

II. आंतरिक स्वतंत्रता (Internal Freedom):

इसकी मांग है कि व्यक्ति अपने क्रियाकलाप में स्वयं की इच्छा से निर्देशित हो, क्षणिक आवेग या परिस्थिति के वश में न हो जाए । यह स्वतंत्रता व्यक्ति की अपनी नैतिक कमजोरी या क्षणिक आवेगों के कारण नष्ट हो सकती है । दूसरों के द्वारा बाध्य किए जाने से यह सम्बन्धित नहीं है । अतः यह वैयक्तिक स्वतंत्रता से भिन्न है ।

III. शक्ति रूपी स्वतंत्रता (Powerful Freedom):

इसकी मांग है कि व्यक्ति अपनी इच्छाएँ पूरी करने में सक्षम हो और अनेक विकल्पों में से अपनी पसंद का विकल्प चुने सके । यह स्वतन्त्रता व्यक्ति की कार्यक्षमता पर निर्भर है; दूसरों के अहस्तक्षेप से इसे कुछ लेना-देना नहीं है ।

संभव है कि कोई व्यक्ति विधि के अंतर्गत जो कुछ नहीं कर सकता, उसे करने में वह सक्षम हो, और जो कुछ करने से उसे कोई रोक नहीं रहा है, उसे करने में वह स्वयं असक्षम हो । अतः शक्ति रूपी स्वतंत्रता भी वैयक्तिक स्वतंत्रता से अलग है ।

अतः हेयक का कहना है कि स्वतंत्रता के उचित रूप को पहचानने के लिए उसके मूल अर्थ (प्रतिबंध का अभाव) को सुरक्षित रखना ही श्रेयस्कर है ।

स्वतंत्रता और समानता (Freedom and Equality):

हेयक का कथन है कि स्वतंत्रता का ध्येय समाज की प्रगति है न कि व्यक्ति का उन्नयन । समाज में किसी विशेष स्वतंत्रता का मूल्यांकन करते समय यह नहीं देखना चाहिए कि वह कितने व्यक्तियों को प्राप्त है बल्कि यह देखना चाहिए कि वह स्वतंत्रता अपने-आप में कितनी महत्वपूर्ण है ।

अतः हेयक स्वतंत्रता के समान वितरण में विश्वास नहीं करता । उसका कहना है कि समाज में कोई स्वतंत्र न हो, इससे तो बेहतर है कि कुछ लोग स्वतंत्र हों । इसी प्रकार सब लोगों को थोडी-थोडी स्वतंत्रता देने से अच्छा है कि कुछ लोगों को पूरी स्वतंत्रता दे दी जाए, चाहे बाकी लोग उससे वंचित ही क्यों न रह जाएँ ।

किसी स्वतंत्रता का महत्व निर्धारित करते समय यह नहीं देखना चाहिए कि उसका प्रयोग कितने लोग कर पाएंगे बल्कि यह देखना चाहिए कि वह सभ्यता को कितनी ऊँचाई तक ले जाएगी ? हेयक की दृष्टि में लोगों का महत्व इसलिए है कि वे सामाजिक उन्नति के साधन हैं, इसलिए नहीं कि वे स्वयं साध्य हैं ।

मिल्टन फ्रीडमैन के विचार:

अमेरिकी अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रीडमैन राजनीति चिंतन के क्षेत्र में ‘अहस्तक्षेप मूलक उदारवाद’ के प्रबल समर्थक हैं ।

राजनीति चिंतन के क्षेत्र में उन्होंने विभिन्न विचार व्यक्त किए, जो निम्नलिखित हैं:

पूंजीवाद और स्वतंत्रता:

फ्रीडमैन ने अपनी पुस्तक ‘Capitalism and Freedom -1962’ के अंतर्गत आर्थिक प्रणाली और राजनीतिक प्रणाली के सम्बन्ध पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि स्वतंत्रता के लिए पूंजीवाद आवश्यक शर्त है । सी.बी. मैक्फर्सन ने कहा है कि फ्रीडमैन ने हर्बर्ट स्पेंसर के पुराने तर्कों को ही नए गा से दोहराने की कोशिश की है ।

उसने लिखा है कि उदारवाद की दृष्टि से व्यक्ति या परिवार की स्वतंत्रता ही किसी सामाजिक व्यवस्था को जांचने की अंतिम कसौटी है । प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य है अर्थात् यह आर्थिक स्वतंत्रता की ऐसी प्रणाली है जो राजनीतिक स्वतंत्रता की आवश्यक शर्त है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि जो समाज आर्थिक दृष्टि से समाजवादी हो, वह राजनीतिक दृष्टि से लोकतंत्रीय नहीं हो सकता अर्थात् वह वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता ।

फ्रीडमैन के शब्दों में, ”राजनीतिक स्वतंत्रता के लक्ष्य की पूर्ति के लिए आर्थिक प्रबंध इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे शक्ति के जमाव या फैलाव को प्रभावित करते हैं । प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद ऐसा आर्थिक संगठन है जो प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक स्वतंत्रता की व्यवस्था करता है और राजनीतिक स्वतंत्रता को भी बढावा देता है, क्योंकि वह आर्थिक शक्ति को राजनीतिक शक्ति से अलग करता है और इस तरह से वह एक प्रकार की शक्ति को दूसरे प्रकार की शक्ति की कमी पूरी करने में सहायता देता है ।”

Essay # 2. स्वतंत्रता के आर्थिक और राजनीतिक आयाम (Economic and Political Dimensions of Freedom):

फ्रीडमैन ने स्वतंत्रता के आर्थिक और राजनीतिक आयामों में तार्किक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया है । उन्नत समाजों में उदारवाद को इस चुनौती का सामना करना पड़ता है कि आर्थिक गतिविधियों को वैयक्तिक स्वतंत्रता के साथ कैसे समन्वित किया जाए?

लाखों-करोडों लोगों की आर्थिक गतिविधियों में समन्वय स्थापित करने के दो ही तरीके हैं । पहला तरीका केंद्रीकृत प्रशासन का है, जो बल-प्रयोग पर आधारित है अर्थात् यह ‘सर्वाधिकारवादी’ शासन की तकनीक है । दूसरा तरीका व्यक्तियों के स्वैच्छिक सहयोग का है अर्थात् यह लोकतंत्रीय शासन को बाजार-व्यवस्था के साथ मिलाने की तकनीक है ।

तार्किक दृष्टि से केंद्रीकृत समाजवादी नियोजन में राजनीतिक स्वतंत्रता की कोई संभावना नहीं है जबकि पूंजीवादी व्यवस्था में राजनीतिक स्वतन्त्रता की पूरी संभावना रहती है ।

इस तरह बाजार-व्यवस्था आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए पर्याप्त तो होगी, परंतु राजनीतिक स्वतंत्रता की समस्या फिर भी बनी रहेगी । अतः फ्रीडमैन के अनुसार, राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि किसी मनुष्य को उसके सहचर किसी प्रकार बाध्य न कर सके ।

सरकार के कार्य:

 

फ्रीडमैन वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकतम विस्तार के लिए मांग करता है कि सरकार को केवल वही कार्य करने चाहिए जिन्हें बाजार-व्यवस्था या तो बिल्कुल नहीं कर सकती या जिन्हें करने में इतना ज्यादा खर्च आता है कि उनके लिए राजनीतिक व्यवस्था का उपयोग ही अधिक उपयुक्त होगा ।

सरकार का कार्य बाजार-व्यवस्था को सहारा देना और उसके बचे-खुचे कार्यों को करना है, न कि उस पर नियंत्रण करना, अर्थात् सरकार को कल्याणकारी या विनियमन (Regulation) के कार्यों से कोई मतलब नहीं रखना चाहिए । सरकार का काम कानून और व्यवस्था कायम रखना, संपत्ति-अधिकारों को परिभाषित करना, अनुबंधों को लागू करना, असहाय और अनाथ लोगों को संरक्षण प्रदान करना, आदि है ।

आइजिया बर्लिन के विचार:

बर्लिन के अनुसार राज्य केवल व्यक्ति की नकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है, सकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा करना राज्य के कार्य क्षेत्र में नहीं आता । बर्लिन के अनुसार, नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति को अपने विवेक के अनुसार अपना रास्ता चुनने से रोका न जाए ।

सकारात्मक स्वतंत्रता यह मांग करती है कि व्यक्ति का अपने ऊपर पूरा नियंत्रण होना चाहिए । कोई व्यक्ति कही तक सकारात्मक स्वतंत्रता का प्रयोग कर सकता है यह उसके चरित्र, क्षमता या साधनों पर निर्भर है, राज्य इसमें कुछ भी नहीं कर सकता । राज्य केवल यह कर सकता है कि जहाँ तक हो सके, वह व्यक्ति की स्वयं निर्धारित गतिविधियों पर कोई प्रतिबंध न लगाए ।

यदि कोई व्यक्ति आजाद पंछी की तरह पंख फैलाकर आकाश में नहीं उड सकता, या हेल मछली की तरह समुद्र में तैर नहीं सकता तो यह उसकी अपनी कमी है । ऐसी हालत में वह शिकायत नहीं कर सकता कि उसे राजनीतिक स्वतन्त्रता से वंचित किया जा रहा है अर्थात अपनी आकाक्षाएं पूरी कर पाने की क्षमता या अक्षमता व्यक्ति का अपना मामला है, राज्य का इससे कोई सरोकार नहीं । बर्लिन ने सत्तावाद का खण्डन किया है और उदारवादी-व्यक्तिवादी सिद्धांत को आगे बढाया है ।

Essay # 3. सृजनात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा (Concept of Creative Freedom):

मैक्फर्सन ने तर्क दिया है कि पूंजीवाद की नैतिक विफलता यह है कि पूंजीपतियों को ‘अतिरिक्त मूल्य’ (Surplus Value) कमाने का अवसर देता है परंतु स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद की नैतिक विफलता यह है कि वह कारीगरों के एक बहुत बड़े वर्ग को अपनी क्षमता और निपुणता का सृजनात्मक उपयोग करने से रोकता है ।

मैक्फर्सन के शब्दों में, ”किसी घोड़े या मशीन की क्षमता की परिभाषा यह होगी कि वह कितना काम कर सकती है, चाहे उससे काम लिया जाए अथवा न लिया जाए परंतु मनुष्य तभी मनुष्य रह सकता है जब वह अपनी शक्ति और कौशल का प्रयोग उन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए कर सके जिन्हें उसने अपनी चेतना से खुद निर्धारित किया हो ।”

मैक्फर्सन का मानना है कि पश्चिमी लोकतंत्रीय सिद्धांत में दो तरह के विचार पाए जाते हैं पहला विचार ‘उपयोगिताओं का अधिकतम विस्तार’ है जबकि दूसरा ‘शक्तियों का अधिकतम विस्तार’ पहले विचार के तहत मनुष्य को एक उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है, जो एक उपयोगितावादी दृष्टिकोण है ।

दूसरा विचार एक नैतिक संकल्पना है जिसमें मनुष्य को केवल उपभोक्ता के रूप में नहीं बल्कि एक कर्ता या सृजनकर्ता के रूप में देखा जाता है । कार्य करने की क्षमता उसकी मुख्य विशेषता है । मैक्कर्सन ने दो प्रकार की शक्ति में अंतर किया है- दोहन शक्ति (Extractive Power) और विकासात्मक शक्ति (Developmental Power) ।

दोहन शक्ति का अर्थ है कि मनुष्य अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए दूसरों की क्षमताओं का कितना इस्तेमाल कर सकता है जबकि विकासात्मक शक्ति का अर्थ है कि मनुष्य अपनी क्षमताओं का कितना विकास और इस्तेमाल कर सकता है ?

मैक्कर्सन ने लिखा है कि बाजार समाज के तहत निर्धन लोगों की विकासात्मक शक्ति नगण्य होती है और दोहन शक्ति तो बिल्कुल ही शून्य होती है जबकि पूंजीपतियों की दोहन शक्ति उनकी संपत्ति के मूल्य से जुडी होती है क्योंकि इसके बल पर वे दूसरों की क्षमताओं को खरीदकर अपने लाभ के लिए प्रयोग कर सकते हैं ।

मैक्फर्सन ने विकासात्मक शक्ति के अन्तर्गत मानवीय क्षमता की सूची इस प्रकार दी है- तर्कपूर्ण ज्ञान की क्षमता; नैतिक निर्णय और कार्रवाई की क्षमता; कलात्मक सृजन या सोच की क्षमता, मैत्री और प्रेम की भावात्मक गतिविधि की क्षमता और प्रकृति के उपहार को बदलने की क्षमता । मानवीय क्षमताओं के बारे में यह दृष्टिकोण भौतिक उत्पादन करने वाले श्रम की क्षमता के विचार से कहीं अधिक व्यापक है ।

मैक्फर्सन का मानना है कि मनुष्य की विकासात्मक शक्ति का अधिक विस्तार ही उसकी ‘सृजनात्मक स्वतंत्रता’ की कुंजी है ।

इसके मार्ग में तीन तरह की रुकावटें उत्पन्न हो सकती हैं:

(1) जीवन-निर्वाह के पर्याप्त साधनों का अभाव

(2) श्रम के प्रयोग के साधना तक पहुँच का अभाव और

(3) दूसरों के अतिक्रमण से संरक्षण का अभाव ।

ये सारे अभाव दो प्रकार की समस्याएं उत्पन्न करते हैं- प्रौद्योगिक और भौतिक समस्याएं तथा सांस्कृतिक और विचारधारात्मक समस्याएं । मैक्कर्सन को पूरा विश्वास है कि इन समस्याओं का समाधान बाजार समाज के ढांचे में संभव नहीं है क्योंकि उसमें निर्धन लोगों की विकासात्मक शक्ति निरंतर पूंजीपतियों को हस्तांतरित होती रहती है ।

केवल समाजवादी समाज में ही इनका समाधान संभव है । चूंकि समाजवादी समाज में उत्पादन के साधन सामाजिक स्वामित्व के अधीन होंगे, अतः वे व्यक्तियों को अपनी-अपनी क्षमताओं का सृजनात्मक प्रयोग करने के लिए उपलब्ध होंगे । इस प्रकार के समाज में व्यक्ति बाजार की जरूरतों के मुताबिक अपने कौशल का विकृत उपयोग करने के लिए बाध्य नहीं होंगे ।

Essay # 4. नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रता (Negative and Positive Freedom):

यदि कोई व्यक्ति कुछ करना चाहता हो और कर भी सकता हो, तो उसे वैसा करने से रोका न जाए । इस तरह की स्वतंत्रता को नकारात्मक या औपचारिक (Formal) स्वतंत्रता कहते हैं । इस प्रकार की स्वतंत्रता से यह संकेत मिलता है कि व्यक्ति के कार्य में राज्य की ओर से कोई सहायता नहीं दी जाएगी । व्यक्ति को नकारात्मक स्वतंत्रता प्रदान करते समय राज्य केवल अपने ऊपर संयम रखता है, सामाजिक व्यवस्था से कोई छेड़छाड़ नहीं करता ।

जाहिर है, इस तरह की स्वतंत्रता जनसाधारण के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि जब समाज भारी आर्थिक विषमताओं से ग्रस्त हो, तब नकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थकों में आइजिया बर्लिन, एफ.ए. हेयक, मिल्टन फ्रीडमैन आदि के नाम प्रमुख हैं ।

सकारात्मक या तात्त्विक स्वतंत्रता  का आशय है कि राज्य द्वारा दुर्बल वर्गों की सामाजिक और आर्थिक असमर्थताओं को दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए ताकि सबको अपने सुख के साधन जुटाने का उपयुक्त अवसर मिल सके । इसके लिए सामाजिक-आर्थिक जीवन के विस्तृत विनियमन की आवश्यकता हो सकती है परंतु ये विनियमन और प्रतिबंध समाज के हित में होते हैं ।

साधारणतः राजनीतिक, नागरिक या कानूनी स्वतंत्रता अपने-अपने सीमित अर्थ में नकारात्मक स्वतंत्रता होती है । परंतु सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता सकारात्मक स्वतंत्रता की मांग करती है । उदाहरण के लिए, भूख-प्यास या लाचारी से स्वतंत्रता सकारात्मक स्वतंत्रता की द्योतक है क्योंकि इसकी स्थापना के लिए राज्य को ठोस प्रयत्न करने होंगे ।

स्वतंत्रता का सकारात्मक पक्ष ही उसे सामाजिक संकल्पना में परिणत कर देता है क्योंकि स्वतंत्रता का यह सिद्धांत उन प्रतिबंधों और विवशताओं को हटाने की मांग करता है जो सामाजिक व्यवस्था से पैदा हुई हों, और जिन्हें हटाना व्यावहारिक भी हो । सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थकों में टी॰एच॰ ग्रीन, एच॰जे॰ लॉस्की, जे॰एस॰ मिल, क्रिश्चियन बे, आदि के नाम लिए जा सकते हैं ।

संक्षेप में, नकारात्मक स्वतंत्रता उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण होगी जो स्वयं अपने जीवन को मनचाहा रूप देने में समर्थ हों परंतु जो लोग सामाजिक-आर्थिक विवशताओं से घिरे हों और अपने जीवन को सवांरने में सर्वथा असमर्थ हों, उनके लिए सकारात्मक स्वतंत्रता की व्यवस्था आवश्यक होगी ।

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