गरीबी पर निबंध: मतलब, अवधारणा और स्थिति | Read this essay in Hindi to learn about:- 1. निर्धनता से आशय (Meaning of Poverty) 2. निर्धनता की धारणाएँ (Concepts of Poverty) 3. निर्धनता एवं आवश्यकताएँ (Poverty and Need) 4. निर्धनता का बहुभुज (Polygon of Poverty) 5. वर्तमान दशाएँ (Present Status).

निर्धनता से आशय (Meaning of Poverty):

विभिन्न समाजों में निर्धनता का अर्थ भिन्न-भिन्न है । यह एक तुलनात्मक शब्द है । सामान्य रूप से निर्धनता को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है ।

i. सामाजिक निर्धनता:

सामाजिक निर्धनता न केवल असमानता (सम्पत्ति, आय, जीवन स्तर को सूचित करती है बल्कि सामाजिक हीन दशाओं यथा निर्भरता एवं शोषण से भी सम्बन्धित है ।

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ii. कंगाली अथवा दरिद्रता:

यह समाज के उस वर्ग से सम्बन्धित है जो अपने आपको न्यूनतम जीवन स्तर पर बनाए रखने में भी असमर्थ होते है ।

iii. नैतिक निर्धनता:

यह एक समाज की मूल्य प्रणाली में या इसके अपवगों एवं संस्थाओं में निर्धनता की दशा को सूचित करती है । इसके अधीन यह देखा जाता है कि निर्धनता नैतिक रूप से स्वीकृत है अथवा नहीं तथा वह कौन-सी दशाएं है जो निर्धन व्यक्ति को सुख सुविधा प्राप्त करने से वंचित कर रही है ।

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अस्थायी एवं स्थायी निर्धनता (Temporary and Permanent Poverty):

निर्धनता के अस्थायी एवं स्थायी रूप में भेद किया जाना सम्भव है । अस्थायी निर्धनता के अन्तर्गत समाज में उन व्यवितयों की दशा को ध्यान में रखा जाता है जो शिक्षा प्रशिक्षण एवं कुशलता का वांछित स्तर होने पर भी रोजगार के समुचित अवसरों को प्राप्त करने की आशा करते हैं ।

स्थायी निर्धनता उन व्यक्तियों में पायी जाती है जो इसलिये कार्य नहीं कर पाते, क्योंकि रोजगार के अवसरों, नौकरियों का अभाव है साथ ही प्रभावित व्यक्ति बीमारी, अशिक्षा एवं शारीरिक अकुशलताओं के कारण कार्य नहीं कर पाता ।

आर्थर लेविस ने स्पष्ट किया कि निर्धनता एवं निर्धनों की हीन दशा, एक पृथक् एवं स्वतन्त्र निम्न वर्ग संस्कृति को जन्म देता है, जिसे निर्धनता की संस्कृति कहा जाता है । यदि निर्धनता की संस्कृति की परिभाषा उन सांस्कृतिक घटकों के द्वारा दी जाये जो व्यक्तियों को निर्धन बनाए रखती है तब इसके पीछे समृद्ध वर्ग में विद्यमान वह सांस्कृतिक दशाएँ भी उत्तरदायी होती हैं जो समाज में कई व्यक्तियों को निर्धन बनाए रखती है ।

निर्धनता की धारणाएँ (Concepts of Poverty):

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मार्टिन रेन ने निर्धनता की तीन धारणाओं को प्रस्तुत किया है:

(i) जीवन निर्वाह,

(ii) असमानता एवं

(iii) बर्हिकारक ।

जीवन निर्वाह उन न्यूनतम सुविधाओं को अभिव्यक्त करता है जो स्वास्थ्य एवं कार्य क्षमता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है । यह जीवित रहने एवं शारीरिक कुशलता बने रहने से सम्बन्धित है ।

असमानता आय वर्गों की सापेक्षिक दशा से सम्बन्धित है । स्तरीकृत आय में यह सबसे कम आय वाले व्यक्तियों से समाज के अन्य लोगों के सम्बन्ध को बताता है । बर्हिकारक तत्त्व मुख्यत: निर्धनता की सामाजिक दशाओं से सम्बन्धित है ।

निर्धनता के आशय को स्पष्ट करने हेतु मात्र आर्थिक अकुशलता आर्थिक असमानता एवं आर्थिक अमितव्ययिता को ही ध्यान में रखना पर्याप्त नहीं है । पीटर टाउनसेन्ड ने निर्धनता को संसाधन विषमताओं, आय, पूँजीगत परिसम्पत्तियों, पेशेगत लाभों, सार्वजनिक सेवाओं के वर्तमान स्वरूप एवं चालू निजी सेवाओं के आधार पर स्पष्ट किया ।

राउनट्री ने उन लोगों को, जो जीवनयापन हेतु आवश्यक आवश्यकताओं के अभाव से पीडित रहते हैं निर्धन कहा । यह परिभाषा, न्यूनतम जीवन निर्वाह स्तर के आधार पर, व्यापक रूप से स्वीकृत की जाती है । सामान्य शारीरिक कुशलता को बनाए रखने के लिए न्यूनतम आवश्यक आहार प्राप्त करने वाले व्यक्ति प्राथमिक निर्धनता रेखा में आते हैं ।

द्वितीय निर्धनता रेखा से तात्पर्य उस आय स्तर से है जो जीवन निर्वाह स्तर हेतु आवश्यक है लेकिन जीवन एवं स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए अधिक क्रय करने की असमर्थ दशा को सूचित करता है । निरपेक्ष निर्धनता को बहुधा सापेक्षिक निर्धनता से भिन्न समझा जाता है । आर्थिक असमर्थता को आर्थिक असमानता की तुलना में निर्धनता का प्राथमिक सूचक माना जाता है ।

पाँचवी पंचवर्षीय योजना (1978-83) के प्रारूप में योजना आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति के द्वारा परिभाषित किया । एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में निर्धनता रेखा को 6400 रु॰ वार्षिक प्रति परिवार के द्वारा स्पष्ट किया गया, जबकि इससे पूर्व इसे 3500 रु॰ वार्षिक माना गया ।

आय के असमान वितरण से देश के भीतर स्तरीकरण होता है । इसमें निर्दिष्ट किए जाने वाले वर्ग, कृषक, ग्रामवासी, पशुचारक, घुमक्कड़, शिल्पकार व अन्य कामगार इत्यादि के रूप में रखे जा सकते हैं । औद्योगीकरण का प्रारम्भ होने से व्यावसायिक वर्गों का पुन: स्तरीकरण प्रारम्भ होता है । जैसे श्रमजीवी वर्ग या सर्वहारा निर्धन ग्रामवासी, दैनिक मजदूरी प्राप्त करने वाले, मजदूरी प्राप्त न करने वाले इत्यादि ।

प्रो. अमर्त्यसेन ने अपने महत्त्वपूर्ण अध्ययन Poverty and Famines (2002) में निर्धनता से सम्बन्धित निम्न पक्षों पर विचार किया:

(1) ”गरीबी वास्तव में विषमता का ही एक स्वरूप है ।” परन्तु गरीबी को विषमता का ही एक मुद्‌दा मानकर विचार करने में दोनों के ही प्रति अन्याय होने की सम्भावना रहती है । गरीबी की व्यापकता में विषमताओं की भूमिका पर चर्चा सम्भव है-पर इस चर्चा के लिए विषमता को ही गरीबी का नाम देना उचित नहीं होगा ।

(2) गरीबी के अध्ययन में सापेक्ष अभाव के विचार का प्रयोग बहुत उपयोगी रहा है । गरीबी होने का अर्थ है अभाव भोगना और किसी भी सामाजिक प्राणी के लिए अभाव तो सापेक्ष ही होता है किन्तु यह सापेक्ष अभाव का विचार भी, अपने आप में, बहुत सारी विविधताओं को समाए हुए है ।

एक तो ‘अभाव की अनुभूति’ और ‘अभाव की दशाओं’ के बीच का भेद है । पीटर टाउनसेंड का विचार है कि ‘अभाव की दशा’ उस अवस्था का सही चित्रण करती है । कोई भी मानदण्ड जो ठोस दशाओं पर आधारित हो, के द्वारा सापेक्ष अभाव का निर्धारण अधिक वस्तुपरक हो सकता है । यह अभाव आय, रोजगार, शक्ति-अधिकार जैसे किसी भी लक्षण या विशेषता का हो सकता है ।

(3) कई विद्वानों का कहना है कि गरीबी तो अपने-अपने विवेक बोध की बात है । गरीबी को बुरा मानना और इसके उन्मूलन को भौतिक दृष्टि से उचित मानना स्वाभाविक-सा लगता है । इस बात से असहमत रहते हुए प्रो. सेन का कहना है कि गरीबी के आकलन में नैतिकता के तकाजों को शामिल किया जा सकता है । यह कहना कि इस प्रकार से गरीबी के निरूपण में आदेशात्मकता झलकती है तथा समाज के सदस्यों के आग्रहों को निरूपण में स्थान देने पर बल देना, दो अलग-अलग बातें है ।

पहले से प्रचलित आग्रह की बात करना चर्चा या व्याख्या हो सकती है- आदेश नहीं । इसलिए गरीबी की परिभाषा तो समाज की अपनी परम्पराओं के अनुसार ही होती है । किन्तु इससे गरीबी किसी का विवेक बोध नहीं बन जाती । यह किसी प्रकार का व्यक्तिनिष्ठ प्रयास भी नहीं हो जाती ।

गरीबी का अध्ययन और मापन करने वाले के लिए तो समाज की परम्पराएँ समाज के वर्तमान मानक तथ्य की तरह होती है । इसमें नैतिकता या व्यक्तिनिष्ठता से जुड़े प्रश्नों का कोई स्थान नहीं होता । अध्ययनकर्त्ता यह तय नहीं करता कि समाज के मापदण्ड क्या होने चाहिए या उसकी क्या अनुभूति है या उसकी नैतिकता का तकाज़ा क्या है?

(4) गरीबी- नीति विषयक परिभाषा के पक्ष देखने आवश्यक हैं । गरीबी का अनुमान कुछ दिये हुए मानदण्डों के अनुसार हो सकता है ।

देखना यह होगा कि इन मानदण्डों के निहितार्थ क्या है, अर्थात् इनका आधार क्या है?

(i) क्या ये सार्वजनिक नीति के वक्तव्य हैं?

(ii) क्या इनमें नीति के लक्ष्यों की घोषणा है?

(iii) क्या सह संकेत करते हैं कि नीति क्या होनी चाहिए?

नीति सम्बन्धी परिभाषा का सामान्य कथन:

यदि समाज का विश्वास है कि किसी को भूख एवं खुले में जिन्दगी बिताने के कारण मरने नहीं दिया जाएगा तो फिर न्यूनतम भोजन एवं छत के अभाव को गरीबी माना जाएगा । मनुष्य के अस्तित्व से आगे बढ़कर यदि समाज अच्छे स्वास्थ्य को भी आवश्यक माने तो बीमारियों के बचाव व उनके उपचार के लिए जरूरी संसाधन की आवश्यकताओं की सूची में जुड़ जायेंगे ।

स्पष्ट है कि प्रत्येक समय अवधि में नीतिगत परिभाषा समप्त की योग्यताओं एवं अपेक्षाओं के मध्य सन्तुलन लाने का प्रयास करती है । कम आय वाला समाज जीवित रह पाने से आगे कुछ सोच नहीं पाता । दूसरा समाज जो अपने आश्रित नागरिकों की कुछ बेहतर देखभाल की व्यवस्था कर पाते हैं, यह सोचने लगते हैं कि निर्धनता का तो गरीबों और गैर गरीबों पर एक जैसा प्रभाव पड़ेगा । व्यावहारिक नीति निर्धारण में, क्या होना चाहिए की सामान्य चिन्ता के अलावा भी अनेक बातों पर ध्यान दिया जाता है ।

जैसे कि:

(1) नीतियाँ राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करती हैं । सरकार के स्वरूप, इसके अधिकार स्रोत एवं अन्य संगठनों की शक्तियों आदि का भी नीतियों पर गहरा असर पड़ता है । अनेक देशों की सार्वजनिक नीतियों में अभावों के उन्मूलन के किसी प्रयास की झलक खोज पाना कठिन होता है । वास्तविक नीति के रूप में व्याख्या करने पर ये नीति परिभाषा नीति निर्धारण से जुड़े राजनीतिक मुद्‌दों पर सदैव ध्यान नहीं दे पातीं ।

(2) यदि इन्हें वास्तविक सार्वजनिक नीति नहीं बल्कि उससे जुड़ी सामाजिक सिफारिशों का रूप मानकर चलें तब भी कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ता है । कारण यह है कि अभाव क्या है और क्या इसे नीति द्वारा हटाया जा सकता है, इन दोनों बातों में अन्तर होता है । नीतिगत सुझावों में क्या कर पाना व्यावहारिक होगा, इसे भी ध्यान में रखा जाता है । परन्तु जिन अभावों को तुरन्त दूर कर पाना सम्भव नहीं होता, वह भी अभाव ही बने रहते है, उनका स्वरूप बदल नहीं जाता ।

प्रो. अमर्त्य सेन के अनुसार नीतिगत परिभाषा एक आधारभूत भ्रम पर आधारित है । यह सही है कि आर्थिक विकास के कारण अभाव एवं गरीबी के प्रति दृष्टिकोण बदलते रहते हैं । समस्या के समाधान हेतु ‘क्या करना चाहिए’ के बारे में भी लोगों के विचार बदलते रहते है । हालांकि यह दोनों परिवर्तन एक-दूसरे से जुड़े हैं तथा इनमें सामयिक सहसम्बन्ध भी है परन्तु किसी को भी पूरी तरह से एक-दूसरे में समाहित करते हुए उसकी परिभाषा नहीं की जा सकती ।

प्रो. सेन का निष्कर्ष है कि यदि लोगों की गरीबी या दुरावस्था का मूल्यांकन आवश्यकताओं के वर्तमान पैमाने या मापदण्ड के आधार पर ही हो तब यह तथ्यात्मक विश्लेषण होगा, नीतिशास्त्रीय नहीं । ये तथ्य भी केवल इस बात से जुड़े हैं कि अभाव क्या है- इनका सुझाई गई नीतियों से कोई सम्बन्ध नहीं होता ।

निर्धनता एवं आवश्यकताएँ (Poverty and Need):

निर्धनता की व्याख्या करने के निर्धनों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना होगा ।मसलोव ने आवश्यकताओं को मनोवैज्ञानिक-सामाजिक दशा के द्वारा स्पष्ट किया ।

इसकी सहायता से आवश्यकताओं को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है:

(1) प्राथमिक आवश्यकताएँ:

i. भोजन व पोषण की मात्रा गुण एवं मूल्य- निर्धनता की दशा में पोषण रहित भोजन का प्राप्त हो पाना ।

ii. भोजन पकाने के बरतन, विधियाँ व माध्यम- मिट्‌टी के बर्तन, भोजन बनाने में लकड़ी का प्रयोग, पीने हेतु प्रदूषित एवं अशुद्ध जल ।

iii. आवास एवं विद्युत व्यवस्था- मिट्‌टी व घास-फूस के मकान, शौचालय की सुविधा नहीं, मिट्‌टी के तेल के लैम्प का प्रयोग ।

iv. स्वास्थ्य कार्य की क्षमता व कार्य का स्वरूप- कुपोषण के कारण सांघातिक बीमारी, अस्वास्थ्य कर दशाओं में रहना, कार्य की कम क्षमता, कठिन श्रम साध्य कार्य ।

v. वस्त्र, बिस्तर इत्यादि- जमीन में सोना, कपड़ा बिस्तर का अभाव ।

(2) द्वितीयक आवश्यकताएँ:

vi. संस्कृति एवं शिक्षा-परिवार में साक्षर व्यक्तियों की कम संख्या, परिवार में अन्य ब कोई भी व्यक्ति रोजगार से संलग्न नहीं ।

vii. गतिशीलता व यातायात व संवादवाहन की सुविधा- अधिकांश कार्य पैदल चलकर सम्भव, सड़कों की कमी, यातायात सुविधा का अभाव ।

(3) तृतीयक आवश्यकताएँ:

viii. सम्पत्ति, बैंक जमा, मकान, परिसम्पत्ति ।

ix. कार स्कूटर ।

x. घरेलू वस्तुएँ; जैसे- टेलीविजन, रेफ्रीजरेटर, टेलीफोन ।

xi. स्वयं का व्यवसाय, उद्योग, दुकान इत्यादि ।

निर्धनता का बहुभुज (Polygon of Poverty):

निर्धनता के बहुभुज के अधीन भोजन आवास वस्त्र स्वास्थ्य शिक्षा व संस्कृति व सामाजिक गतिशीलता के घटकों को एक परिवार के सन्दर्भ में देखा जाता है । यह जानना आवश्यक है कि निर्धनता की दशा में रहने वाले व्यक्तियों की वर्तमान स्थिति क्या है ? निर्धनता को दूर करने के लिए न्यूनतम आवश्यकताएँ क्या हैं ?

मुख्य बाधाकारी शक्तियाँ या अवरोध क्या हैं तथा सरकार द्वारा निरोधक उपाय हेतु कौन-सी नीतियाँ प्रस्तावित व क्रियान्वित की जा रही है । यह ध्यान में रखते हुए कि निर्धनता का काल्पनिक बहुभुज (चित्र 6.2) वर्तमान विद्यमान दशाओं को प्रदर्शित करता है तथा यह स्पष्ट करता है कि निर्धनता को करने के लिए सरकार द्वारा प्रभावी कार्यक्रम किये जाते रहे है ।

अनुभव सिद्ध अवलोकन से स्पष्ट होता कि निर्धनता को दूर करने के लिए जो कोष नियत किए गए हैं वह उन परिवारों तक पहुँच ही नहीं पाते जिनके लिए उन्हें प्रवाहित किया जाता है । यह निर्धनता को दूर करने के प्रयास में बाधाओं या अवरोधों को सूचित करता है । चित्र में इन बाधाओं को बिन्दुदार रेखा की सहायता से दिखाया गया है ।

निर्धनता का आधारभूत आवश्यकताओं से सीधा सम्बन्ध है जिसमें पोषणयुक्त आहार, आवास, वस्त्र, शुद्ध पेयजल, सफाई एवं स्वास्थ, सार्वजनिक यातायात एवं शिक्षा की सुविधा मुख्य हैं । विश्व बैंक ने आधारभूत आवश्यकताओं को पाँच भागों यथा खाद्यान्न एवं पोषण, पीने का पानी, स्वास्थ्य, आवास एवं शिक्षा से सम्बन्धित किया ।

होपकिन एवं शेल्फ होएवन ने आधारभूत आवश्यकताओं की व्याख्या करते हुए निम्न घटकों को महत्वपूर्ण माना:

 

1. आधारभूत आवश्यकताओं का भाग; जैसे- भोजन, आवास, शिक्षा इत्यादि ।

2. आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के सूचक; जैसे- भोजन में कैलोरी की मात्रा, शिक्षा में साक्षरता दर ।

3. सूचकों का लक्ष्य या स्तर जिनसे आवश्यकताएँ सन्तुष्ट होती हैं ।

होपकिन एवं रोल्क होएवन ने आधारभूत आवश्यकताओं की रणनीति एवं आवश्यक आवश्यकताओं की विधि में अन्तर स्थापित किया । आधारभूत आवश्यकताओं की रणनीति से अभिप्राय नीतियों का ऐसा समुच्चय है जिससे लक्ष्यों की पूर्ति हो सके । दूसरी ओर आधारभूत आवश्यकताओं की विधि से अभिप्राय है आधारभूत आवश्यकताओं के लक्ष्य के साथ नीतियों का समुच्चय जिससे लक्ष प्राप्त किये जा सकें ।

विकास की आधारभूत आवश्यकता समानता से सम्बन्धित होती है । यह एक देश की आर्थिक संरचना से सम्बन्धित होने के साथ-साथ उत्पादन एवं वितरण के पक्षों से जुड़ी हैं । अत: निर्धनता का बढ़ना और गहन होना उस आर्थिक संरचना पर निर्भर करता है जो आज के विश्व में विद्यमान है ।

रौनट्री ने Poverty- A Study of Town Life में निर्धनता के चक्र की व्याख्या की । उन्होंने एक श्रमिक का उदाहरण लेते हुए कहा कि अपने बचपन में यदि एक बच्चे का पिता कुशल श्रमिक नहीं है तो वह निर्धनता की स्थिति में होगा । यह स्थिति तब तक चलेगी जब तक उसका कोई भाई या बहिन कमाना शुरू न करें व अपने पिता की मजदूरी में इतनी वृद्धि न करें कि परिवार निर्धनता की रेखा से ऊपर आ जाएगा । यह बच्चा जब किशोर उम्र का होता है तो स्वयं भी कमाना शुरू करता है व अपने संरक्षकों के साथ रहता है । सापेक्षिक रूप से एक अच्छी दशा तब तक चलती है जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती है तब उसके दो या तीन बच्चे को जाते हैं तो निर्धनता उस पर पुन: आक्रमण करती है । यह स्थिति तब तक चलेगी जब तक उसका बच्चा चौदह पन्द्रह का न हो जाये व कमाने के योग्य न बने । यह चक्र इसी प्रकार चलना रहता है ।

निर्धनता का सम्बन्ध व्यवित से भी है और राष्ट्र से भी । एक राष्ट्र तब निर्धन है जब वहाँ निर्धनों की संख्या काफी अधिक हो अर्थात् एक राष्ट्र निर्धन है, क्योंकि यह निर्धनता के विषमदुश्चक्र में फँसा है तथा इसके साथ ही पूर्ति माँग, वितरण, क्रियान्वयन व सहयोग का विषम चक्र साथ-साथ चलता है ।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तरीकरण राष्ट्रों की निर्धनता को सूचित करता है जो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में देश की स्थिति को बताता है जबकि सामाजिक स्तरीकरण तथा सामाजिक रीति-रिवाज एक देश के भीतर व्यक्तियों एवं परिवारों की निर्धनता को सूचित करते है । अन्तर्राष्ट्रीय स्तरीकरण की क्रिया अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, शिक्षा के स्वरूप, तकनीक सृजित करने की कुशलता, तकनीकी श्रेष्ठता मोलभाव करने की शक्ति, राजनीतिक सम्बन्धों, कूटनीति, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व सैन्य सन्धियों, खोज एवं आविष्कार पर निर्भर करती है ।

सामाजिक स्तरीकरण जाति या सम्प्रदाय, मालिक-नौकर सम्बन्ध, शिक्षा के अवसरों, एक विशेष वर्ग के लोगों को प्रगतिशील जीवन में आने से रोकना, जाति के आधार पर श्रेष्ठ या निम्न स्तर बनाने की प्रवृत्तियों को सूचित करता है । इसके साथ ही निर्धनता का ऐसा कुचक्र पनपता है जिसमें व्यक्ति गरीबी की ओर लगातार धकेले जाते हैं ।

थियोडोर शूल्ज ने अपने शोध लेख The Economics of being Poor में लिखा है कि विश्व के अधिकांश निवासी निर्धन हैं । अत: यदि हम निर्धनों के अर्थशास्त्र को जान लें तो हम अर्थशास्त्र के उस स्वरूप को जान पाएँगे जो वास्तव में लागू होता है ।

प्रो. अमर्त्य सेन ने अपने ग्रन्थ गरीबी एवं अकाल (2002) में निर्धनता को अभाव का मुद्‌दा बतलाया । समाजशास्त्रीय विश्लेषण में परम अभाव से सापेक्ष अभाव की ओर रुझान से विश्लेषण के उपयोगी सूत्र बनाए जा सकते हैं । किन्तु गरीबी की व्याख्या विधि के रूप में सापेक्ष अभाव भी निरन्तर अपूरा या अपूर्ण ही रहता है । जीवशास्त्रीय विधि भी परम अभाव से जुड़ी है । यह भुखमरी एवं भूख को गरीबी के विचार में केन्द्र में ही बनाये रखती है ।

गरीबी को विषमता का ही एक मुद्‌दा मान लेने से तो दोनों ही संकल्पनाओं के साथ अन्याय होता है । गरीबी और विषमता दोनों ही एक-दूसरे से जुड़े हुए परन्तु पृथक्-पृथक् विचार है तथा एक में दूसरे को पूरी तरह समाहित नहीं किया जा सकता ।

गरीबी के आकलन को नीतिशास्त्रीय नहीं बल्कि एक व्याख्या का मुद्‌दा मानने पर बहुत आग्रह हुए हैं । यह भी कहा जा सकता है कि गरीबी की नीति परिभाषा में आधारभूत त्रुटियों हैं । गरीबों की हीन दशा के प्रचलित मानकों के अनुसार व्याख्या में भी अस्पष्टताएँ आ जाती हैं पर अस्पष्ट व्याख्या को आदेशात्मक नहीं माना जा सकता । वास्तव में सुलभ विधियों के चयन तथा प्रचलित मापदण्डों के चुनाव में अपरिहार्य मनमानेपन को स्वीकार कर उसके प्रति सजगता अधिक उचित होगी ।

निर्धनता की वर्तमान दशाएँ (Present Status of Poverty):

विश्व में जनसंख्या का अधिकांश भाग निर्धनता से ग्रस्त है । विकासशील देशों की एक तिहाई एवं निम्न आय वर्ग वाले देशों की आधी से अघिक जनसंख्या निरपेक्ष निर्धनता के चंगुल में है । जिससे अभिप्राय है कुपोषण, अशिक्षा एवं रोग से घिरा होना । ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता अधिक व्यापक है । बांग्लादेश, पाकिस्तान व भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या का बहुत भाग निर्धन है ।

कम विकसित देशों में निर्धनता मुख्यत: निम्न पक्षों से सम्बन्धित रही है:

1. भूमि की उत्पादकता का मून होना । न्यून उत्पादन का मुख्य कारण पुरातन तकनीक व दुर्बल सामाजिक ढाँचा है ।

2. जनसंख्या का तीव्र गति से बढ़ना । इन देशों में न्यून उत्पादक भूमि पर जनसंख्या का भारी दबाव रहता है । एक ओर जनसंख्या तेजी से बढ़ती है तो दूसरी ओर उत्पादक कृषि का अनुपात कम है ।

3. रोजगार की सम्भावनाओं का सीमित होना तथा निर्भरता अनुपात का उच्च होना । ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की ओर प्रवास के बावजूद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं देखा जाता ।

4. निर्धन व्यवितयों की आर्थिक रूप से हीन दशा तथा सामाजिक स्तर अत्यन्त दुर्बल होना । सामान्य रूप से इनके द्वारा अपना जीवन स्तर सुधारने का प्रबल प्रयास नहीं किया जाता । राजनीतिक स्तर पर इन्हें समृद्ध व शक्तिशाली वर्ग के दबाव में रहना पड़ता है ।

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