भक्ति काव्य का सामाजिक एवं सांस्कृतिक योगदान! Read this article in Hindi to learn about the contribution of devotional poetry in society and culture.

14वीं सदी के मध्य से 17वीं सदी के मध्य तक अनवरत प्रवाहित भक्ति धारा भारत वर्ष में समय के जिस बिन्दु पर आंदोलनात्मक तेवर प्राप्त करती है । वह भारतीय समाज के लिए जड़ता, ठहराव किन्तु विस्फोट का काल रहा है । जैसा कि ग्रियर्सन की मान्यता है कि भक्ति आंदोलन बिजली को कौंध के समान अस्तित्व में आता है वस्तुतः ऐसा नहीं है ।

उसकी जड़े सदियों पूर्व भारतीय संस्कारों, रीतियों, नीतियों एवं मूल्यों में व्याप्त हैं । वैदिक काल से लेकर 14वीं सदी तक भारतीय मनीषा ने सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र न जाने कितने उतारचढाव का सामना किया एवं समय-समय पर समाज की नियामक शक्तियाँ परिवर्तित होती रही, जिनका सुनिश्चित परिणाम धर्म का आध्यात्मिक आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठित होना था ।

आचार्यों ने भक्ति काव्य को एक विराट आंदोलन में विवेचित-विश्लेषित करते हुए यह पाया है कि प्रथम बार भारतीय समाज का आधार भूमि इतनी विशुद्ध हो सकी है कि जाति सम्प्रदाय, धर्म एवं अन्य सामाजिक भेद बहुत पीछे छूट गए हैं । जैसा कि मुक्तिबोध का मानना है कि प्रथम बार शूद्रों ने अपने सन्त पैदा किए, प्रथम बार युगों-युगों से दलित शोषित जनता, अभिजात्य वर्ग के सामने सिर उठाकर खड़ी हो सकी ।

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यह भक्ति आंदोलन की ही देन है । वस्तुतः भक्ति जिस संदर्भ में आन्दोलनात्मक तेवर प्राप्त करती है, वह स्वभावतः सामाजिक ही हो सकता है । आचार्य शुक्ल प्रथम समीक्षक थे, जिन्होंने भक्ति काव्य का मूल्यांकन लोक धर्म और लोक जागरण की दृष्टि से किया, यद्यपि उनकी अपनी कुछ सीमाएँ है जिसके तहत वे मन्त काव्य धारा में अन्तर्निहित प्रगतिशील वस्तुतत्व का सटीक विश्लेषण नहीं कर सके ।

किन्तु उन्होंने साहित्यिक मूल्यांकन को जनवाद की जो कसौटी प्रदान की उससे भक्ति काव्य के परवर्ती मूल्यांकन को बल मिला ।

डॉ. रामविलास शर्मा भक्ति साहित्य के सामाजिक पक्ष को ही इंगित करते हुए कहते हैं-

”एक समय रहम्यवादी कवियों ने लोक जागरण में बहुत बडी भूमिका निभाई रहस्यवादी कवियों ने मनुष्य में ब्रह्म सत्ता का साक्षात्कार करके मानव धर्म का मार्ग ही प्रशस्त किया ।”

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अस्तु जिस काव्य को आचार्यों ने राष्ट्र की शिराओं में रक्त का संचार करने वाला कहा है नम्न वर्ग के अन्दर आत्मविश्वास जाग्रत करने वाला कहा है, लोक जागरणकारी कहा है, उसकी सामाजिक भूमिका का सांगोपांग मूल्यांकन करना आवश्यक है ।

विवेच्य विषय-वस्तु के संबंध में प्रथम प्रश्न तो यह उठता है कि आचार्य शुक्ल से लेकर द्विवेदी जी, रामविलास शर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, नामवर सिंह, शिव कुमार मिश्र आदि आचार्यों ने जिस भक्ति काव्य का सामाजिक मूल्यांकन करने पर बल दिया है, क्या उसकी मूल चिंता सामाजिक ही है?

वस्तुतः समूचे भक्ति काव्य की मूल चिन्ता आध्यात्मिक है, इसके बावजूद आज अगर वह हमें किसी भी कारण सर्वाधिक प्रभावित, प्रेरित, उद्वेलित करता है तो अपने उदात्त सामाजिक दृष्टि के कारण । चूंकि इस काल खण्ड के संतों और भक्तों की आध्यात्मिक चिता आकाशीय नहीं है, बल्कि भारतीय जीवन से ही उपजी है और इसी पर प्रतिष्ठित है, इसलिए उनकी आध्यात्मिक चिता का समीकरण सामाजिक सोच को कही भी काटता नहीं है. जहाँ कि सामाजिक चिता. आध्यात्मिक चिंता से संग्रथित है ।

बुद्ध, महावीर आदि महापुरुषों ने जिस विचार-क्रान्ति का आरम्भ किया था, उसकी भावात्मक निष्पत्ति सत काव्य धारा में ही होती है । सन्त काव्य धारा के पूर्व समाज की नियामक शक्तियाँ इसी विस्फोटक स्थिति की तरफ ले जा रही थीं, जहां रूढ अभिजात्य और सामंती समाज को खुली चुनौती मिल सकी ।

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कबीर, नानक और रैदास का ब्रह्म तमाम पारम्परिक, दार्शनिक मान्यताओं से ऊपर है और चूंकि वह घट-घट में व्याप्त है, इसलिए ब्रह्म के साधकों के लिए ईश्वर के न्याय, सत्य और ऐश्वर्य की सत्ता के अनुरूप मानवीय सत्ता की परिकल्पना सहज साध्य हो जाती है और यही कारण है कि एकला चलने का व्रत लेने वाले कबीर हिन्दू और मुस्लिम-दोनों धर्मों से तटस्थ रहने वाले कबीर सामंती समाज की विच्छित दशा को देखकर रो पडते हैं-

चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय,

दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ।

सन्त काव्य धारा ऐसे समाज की कल्पना करती है, जिसमें धार्मिक रूढ़ि, परम्परागत, अंधविश्वास, जातिगत, वर्णगत, सम्प्रदायगत भेद एवं नाना प्रकार के कर्मकांडों के लिए कोई जगह नहीं है । जो समाज अपने अनुभव में अपनी संवेदना में ईमानदार है, श्रमशील है, और प्रवृत्ति में निवृत्ति का साधक है वह समाज इन संतों के लिए काम्य है-

संतों वह घर सबसे न्यारा ।

अरेइन दोउन राह न पाई ।

पांडे बूझी पियहू तुम पानी ।

संत काव्य धारा में कबीर के साहित्य में समाज के प्रति जो उदग्र (प्रगतिशील) क्रान्तिधर्मी, वैज्ञानिक विवेकवाद से समर्थित स्वच्छ, सरल एवं ईमानदार दृष्टिकोण का परिपाक पाया जाता है, वह सन्त मत के अन्य कवि दादू, रैदास, मलूक, पीपा, सेन, नानक, पल्टू, भीखा, दरिया, रज्जब साहब आदि यहाँ प्राप्त नहीं होता ।

यद्यपि इन सारे संतों की दार्शनिक एवं सामाजिक मान्यताएँ लगभग एक जैसी हैं, लेकिन प्रतीत होता है कि इतिहास को सामाजिक स्थिति पर जितना आक्रोश व्यक्त करना था जितना झाड़-फटकार करना था, वह सब कबीर में मूर्त हो गया है ।

लेकिन किंचित इस तथ्य की ऐतिहासिकता से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि प्रायः निम्न वर्ग से आए हुए ये सभी सन्त दलित वर्ग के अंदर अनोखे आत्मविश्वास का संचार करते हैं और इसी दृष्टि से इनके काव्य के आध्यात्मिक आस्वाद में समाज के लिए प्रगतिशील दृष्टि का उन्मेष मिलता है, जिसकी प्रासंगिकता भक्ति काव्य की अन्य धाराओं से अपेक्षाकृत कहीं अधिक है ।

निर्गुण भक्ति धारा की दूसरी शाखा, सूफी काव्य धारा का भी महत्व, उसकी सामाजिकता के कारण बढ जाता है । किंचित आचार्यों ने यहाँ तक कह डाला है कि सूफी काव्य सांस्कृतिक मेलजोल की उपज है, इस तथ्य में आशिक सच्चाई हो सकती है ।

वस्तुतः सूफी काव्य की जो लोकधर्मी जमीन है उसका सामाजिक मूल्यांकन अनिवार्यतः उसके काव्य को प्रमाणिक रूप से खोलता है । जैसा कि विजयदेव नारायण साही का कहना है कि जायसी सूफी हो न हों वे कवि अवश्य हैं । वे प्रेम के कवि हैं और धर्मनिरपेक्ष मानसिकता के कवि हैं ।

आचार्य शिव कुमार मिश्र, राम स्वरूप चतुर्वेदी ने जायसी की धर्मनिरपेक्ष दृष्टि को सराहा है । वस्तुतः सच्ची रचनाशीलता का साक्ष्य कथ्य की लोकधर्मी जमीन से मिल जाता है । जिस सामन्ती संस्कृति में नारी विजय की वस्तु थी और उसे पाने के लिए बड़े-बड़े युद्ध हुआ करते थे उसे जायसी खुदा का दर्जा देते है और उसे पाने के लिए रत्नसेन राजसी वैभव त्यागकर जोगिया बाना धारण कर लेता है ।

जायसी अपनी कथा के इर्द गिर्द समूचे भारतीय समाज की रीति, नीति, परम्परा नैतिक मूल्य, उत्सव आदि को इस तरह ढूँढते हैं कि कथ्य के माध्यम से ही सम्प्रषित होने वाला लोक-समारोह बड़ी सहजता के साथ यह ज्ञापित करने लगता है कि यहाँ की प्रकृति जमीन ।

नदी, नाले, पशु-पक्षी, वनउपवन से कवि का कितना गहरा नाता है। इसे जायसी का लोक प्रेम और राष्ट्रप्रेम दोनों कहा जा सकता है । सन्त काव्य में मानव प्रेम, मानव-धर्म की सत्ता को सर्वोपरि माना गया है । ठीक यही बात सूफी काव्य में देखने की मिलती है ।

इसका सबसे बड़ा रचनात्मक सामाजिक उपक्रम यह है कि सामंती संस्कृति का अतिक्रमण करके कवि सहज नैसर्गिक जीवनोत्सव की प्रतिष्ठा करता है, जिसकी जमीन प्रेम की जमीन होती है और जिसकी दृष्टि सत्य न्याय और स्वाभिमान की और होती है ।

यद्यपि कुछ प्रगतिशील समीक्षकों का मानना है कि सत काव्य धारा जिस प्रगतिशील अन्तर्वस्तु को लेकर चल रही थी. उसे अभिजात्य वर्ग बीच में ही खंडित कर देता है । इस तथाकथित वर्ग ने ही सगुण काव्य के द्वारा निर्गुण के किए-कराए पर पानी फेर दिया ।

लेकिन अन्य आचार्य यथा डॉ. प्रेम शकर डॉ. मैनेजर पाण्डेय आदि का मानना है कि इस तथ्य मे आशिक सत्य ही है। डॉ. प्रेम शकर सूर काव्य मे चारागाही सस्कृति के आलोक मे उसकी सामाजिकता की गहरी जाच पड़ताल करते हैं और डॉ. मैनेजर पाण्डेय भी स्वच्छन्दता के शिखर कृष्ण के क्रान्तिधर्मी चरित्र की व्याख्या करते हैं ।

वह चरित्र जो कि अपने समय के सामती और अभिजात्यवाद को घोषित चुनौती देता है। जिस काल खण्ड मे मातृत्व गर्हित हो चला था नारियाँ हरमों की वस्तु बन चुकी थीं और विलासिता के कारण राजाओं का ध्यान प्रजा की तरफ एकदम नहीं जाता था, उस काल खण्ड में सूरदास अपनी ईमानदार एवं चरम संवेदनशील रचनाशीलता का साक्ष्य देते हुए यशोदा जैसी मां की प्रतिष्ठा करते है और बल्लभाचार्य-निर्दिष्ट म्लेच्छाक्रांत धरती पर मातृत्चरूपी दूध की गंगा ही बहा देते हैं ।

शिशु को ब्रह्म के रूप में चित्रित करके वह मानवीय संवेदना के कोमलतम तैतु पर उगली रखते हैं । राजसी विलासिता के समक्ष यह गृहस्थ पावन की प्रतिष्ठा है । सूर का काव्य, नारी की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा करके उस समय के समाज को सबसे बड़ा उपहार देता है । भ्रमर गीत प्रसंग पर आचार्य शुक्ल जैसे मर्यादावादी समीक्षक भी रीझ जाते है ।

प्रथम बार प्रेम सामती-चौखटों से बाहर निकलकर प्रकृति के खुले प्रांगण में आता है और नारिया सामती चौहहियो से बाहर अपने व्यक्ति स्वातन्य की घोषणा करती हैं । आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी, कृष्ण काव्य धारा की सामाजिकता को लक्षित करते हुए उसे गृहस्थ धर्म का काव्य कहते है। उनके अनुसार सूर सागर में गृहस्थों का उत्सव है । उस समय के टूटते हुए समाज के लिए यह बहुत बडा सम्बल था ।

कालान्तर में मीरा तो सूर की गोपियों की व्यावहारिक व्याख्या ही बनकर आती हैं । कृष्ण काव्य धारा में निहित सामाजिक दृष्टि का प्रगतिशील रूप किसी भी दृष्टि से कम महत्व का नहीं है, जबकि यहाँ आकर वैदिक विधि निषेध खण्ड-खण्ड टूट गए हैं, लेकिन यह आश्चर्यजनक तथ्य है और आकस्मिक नहीं है कि समाज यहाँ ज्यादा सशक्त ज्यादा उन्नल और उसी अनुपात में ज्यादा संगठित दिखाई पड़ता है ।

आचार्य शुक्ल भक्ति काव्य की सपरीक्षा करने हुए उसके लोक धर्म का चरम रूप तुलसीदास के रामचरित मानस में पाते हैं । रामभक्ति धारा में तुलसी की रचनाशीलता उस शिखर को छू लेती है, जिसके बाद राम का आख्यान प्रायः निःशेष हो गया है ।

तुलसी अपने समय की सामाजिक व्यवस्था से असंतुष्ट होते हुए रामराज्य की परिकल्पना करते हैं, टूटते हुए समाज को बांधने के लिए वह राम जैसा अनुशासनबद्ध, मर्यादित और शाखशील तथा सौदर्य का शिखर चरित्र चिन्हित करते है । समूचे भक्ति साहित्य में जिस प्रकार तुलसी की दृष्टि सर्वाधिक समन्वयात्मक है, उसी प्रकार उनकी सामाजिक दृष्टि भी सर्वाधिक नीतिबद्ध एवं संगठित है, जिसका परिणाम ‘मानस’ जैसे अद्वितीय प्रबन्ध की सूर्जना है ।

प्रगतिशील समीक्षकों का मानना है कि चूंकि तुलसीदास सनातन धर्मी मानसिकता में संशोधन के ही पक्ष में है, निर्गुणियो की तरह वे पूर्ण सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर नहीं है, इसलिए आज के संदर्भ में आनुपातिक तौर पर उनका काव्य कम प्रगतिशील है । किन्तु रामकाव्य धारा के सामाजिक प्रदेय का मूल्याकन किसी एक कसौटी पर नहीं किया जा सकता है ।

जो भक्ति काव्य ग्रंथ उत्तर भारत के लोगों का कण्ठहार बन जाता है, निश्चित ही उसमें लोक मनोविज्ञान का गहरा रचाव रहता है । लोक मनोविज्ञान का प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करने वाला मानस. सामाजिक जमीन पर जन से सीधे जुड़ा हुआ है । परिवार से लेकर समाज और राष्ट्र तक की सुसंगठित संरचना की परिकल्पना केवल तुलसी के समय में या आज के समय में ही नहीं, बल्कि हर युग के लिए महत्वपूर्ण है ।

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