प्राचीन भारत पर निबंध: धर्म, जाति व्यवस्था, विज्ञान और दर्शन | Essay on Ancient India: Religion, Caste System, Science and Philosophy.

धर्म (Religion):

प्रकृति के साथ मानव का सामना होने से बहुत-सी महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं । लोगों को अपनी जीविका प्राप्त करने में जंगल, पहाड़, कड़ी मिट्‌टी, सूखा, बाढ़, पशु आदि से होनेवाली कठिनाइयों से निपटना पड़ा ।

इस कारण उन्होंने प्रौद्योगिकी और वैज्ञानिक दृष्टि का विकास किया । पारिस्थितिकी और पर्यावरण द्वारा खड़ी की गई कठिनाइयों के बावजूद सातवीं सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में कृषि और मानव बस्तियाँ प्रकट हुईं ।

लेकिन कई कठिनाइयों पर काबू पाना असंभव मालूम हुआ और प्रकृति की लीलाएँ समझ के बाहर प्रतीत हुईं । इसीलिए अंततोगत्वा लोगों को प्रकृति के साथ समझौता कर लेना पड़ा ।

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अपने सारे प्रयासों के बावजूद लोगों को प्रकृति के विविध वरदानों पर निर्भर रहना पड़ा जैसे मिट्‌टी की उर्वरता समय पर वर्षा होना आदि । प्रकृति की कृपालुता और क्रूरता दोनों ने मानव को धर्म और अलौकिक शक्ति के विषय में सोचने को बाध्य किया । भारत में ब्राह्मण धर्म या हिंदू धर्म पूर्वकाल में प्रभावशाली रूप में विकसित हुआ ।

इसने कला और साहित्य के साथ समाज को भी प्रभावित किया । ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ भारत में जैन और बौद्ध धर्म भी उदित हुए । यद्यपि ईसाई धर्म इस देश में ईसा की पहली सदी के आसपास ही आया फिर भी प्राचीन काल में यह अधिक आगे नहीं बढ़ पाया ।

बौद्ध धर्म भी धीरे-धीरे इस देश से गायब हो गया, हालांकि यह बढ़ते-बढ़ते पूरब में जापान तक और पश्चिमोत्तर में मध्य, एशिया तक फैल चुका था । अपने प्रचार-प्रसार के क्रम में बौद्ध धर्म ने पड़ोसी क्षेत्रों को भारतीय कला भाषा और साहित्य से उद्‌भाषित किया । जैन धर्म भारत में टिका रहा और यहाँ की कला और साहित्य के विकास में इसने योगदान दिया । आज भी इस धर्म के अनुयायी व्यापारी वर्गों में राजस्थान, गुजरात और कर्नाटक में काफी संख्या में हैं ।

वर्णव्यवस्था (Caste System):

भारत में धर्म के प्रभाव से विशेष प्रकार के सामाजिक वर्गों का गठन हुआ । अन्य प्राचीन समाजों में विभिन्न सामाजिक वर्गों के कर्त्तव्यों का निर्धारण कानून के जरिए हुआ और उसे अमल में लाने वाला राज्य था । परंतु भारत में वर्णसंबंधी नियमों को राज्य और धर्म दोनों का समर्थन प्राप्त था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों वर्णों के कर्त्तव्य तो विधि द्वारा सुपरिसीमित किए हुए थे और ऐसा विश्वास प्रचलित था कि यह वर्णव्यवस्था दैवी शक्ति ने निश्चित की है ।

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जो कोई अपने निर्धारित कर्त्तव्यों से च्युत होता था और अपराधी पाया जाता था उसे लौकिक दंड तो भोगना ही पड़ता था साथ-साथ प्रायश्चित अर्थात् धार्मिक शुद्धि भी करनी पड़ती थी । ये दंड अपराधी के वर्ण के अनुसार भिन्न-भिन्न कोटि के होते थे ।

हर वर्ण की न केवल सामाजिक पहचान; बल्कि अनुष्ठानिक पहचान भी थी । धीरे-धीरे कानून और धर्म दोनों ने वर्णों और जातियों को कर्ममूलक से जन्ममूलक या आनुवंशिक बना दिया ।

यह सब इसलिए किया गया कि वैश्य उत्पादन करते और कर चुकाते रहें और शूद्र मजदूरी में खटते रहें ताकि ब्राह्मण पुरोहितों के पद बने रहें और क्षत्रिय शासकों के पद भी । श्रम-विभाजन और व्यवसाय के विशेषीकरण के सिद्धांत पर टिकी यह अद्‌भुत वर्णव्यवस्था आरंभिक अवस्था में अवश्य ही आर्थिक और सामाजिक विकास में सहायक हुई ।

वर्णव्यवस्था का हाथ राज्य के विकास में भी रहा । उत्पादक वर्ग और श्रमिक वर्ग अर्थात् वैश्य और शूद्र दोनों अस्त्रहीन कर दिए गए, और धीरे-धीरे ऊँच-नीच के रूप में हर जाति दूसरी जाति के विरुद्ध इस तरह खड़ी कर दी गई कि शोषित वर्ग सुविधाभोगी वर्गों के खिलाफ एकजुट न होने पाएँ ।

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अपने-अपने कर्त्तव्यों में लगे रहने में ही कल्याण है ऐसी धारणा विभिन्न वर्गों के मन में इस तरह बैठ गई थी कि सामान्यत: वे अपने धर्म से विचलित होने की बात सोच भी नहीं सकते थे । भगवद्‌गीता सिखाती है कि दूसरे का धर्म अपनाने के बदले धर्म की रक्षा के लिए मर जाना अच्छा है क्योंकि दूसरे धर्म को अपनाने का परिणाम भयंकर होता है ।

निम्न वर्णों के लोग अपने कठिन कर्त्तव्य का पालन इस दृढ़ विश्वास के साथ करते रहे कि अगले जन्म में वे सुख की जिंदगी पाएँगे । इस विश्वास के फलस्वरूप एक ओर पैदा करके सबको खिलानेवालों और दूसरी ओर बिना कुछ किए मुफ्त के खानेवाले राजाओं पुरोहितों अधिकारियों सेनानियों और बड़े-बड़े श्रेष्ठ व्यक्तियों के बीच लड़ाई-झगड़े बहुत ही कम हुए ।

इसीलिए निम्न वर्णों के साथ जोर-जबरदस्ती की सीधी कार्रवाई प्राचीन भारत में बहुत आवश्यक नहीं हुई । जो काम यूनान और रोम में गुलामों और अन्य उत्पादक वर्गों से कोड़े का डर दिखाकर कराया जाता था वह यहाँ के वैश्य और शूद्र स्वत: करते थे क्योंकि ब्राह्मण धर्म और वर्णव्यवस्था ने उनके दिमाग को ऐसा ही बना दिया था ।

दार्शनिक पद्धतियाँ (Philosophical Methods):

भारतीय चिंतकों ने संसार को माया समझा तथा आत्मा और परमात्मा के बीच के संबंधों की गंभीर विवेचना की । वास्तव में इस विषय का जितना गहन चिंतन भारतीय दार्शनिकों ने किया उतना किसी अन्य देश के दार्शनिकों ने नहीं । प्राचीन भारत दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए प्रसिद्ध है । परंतु भारत में जगत् के विषय में भौतिकवादी विचाराधारा भी विकसित हुई ।

भारत में उदित छह दार्शनिक पद्धतियों के बीच हम भौतिकवादी दर्शन के तत्त्व सांख्य में पाते हैं जिसके संस्थापक कपिल का जन्म 580 ई॰ पू॰ के आसपास हुआ था । उनके अनुसार आत्मज्ञान के साधन हैं प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द । सांख्य दर्शन में ईश्वर का अस्तित्व नहीं माना गया है । इसके अनुसार संसार की सृष्टि ईश्वर ने नहीं बल्कि प्रकृति ने की है तथा संसार और मानव जीवन स्वयं प्रकृति चलाती है ।

भौतिकवादी दर्शन को ठोस बनाने का सबसे बड़ा श्रेय चार्वाक को है, जो ईसा-पूर्व छठी सदी के आसपास हुए थे । उन्होंने जिस दर्शन की स्थापना की वह लोकायत कहलाता है । उनका मत है कि जिसका अनुभव मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा नहीं कर सकता है उसका वास्तव में अस्तित्व नहीं है ।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है । लेकिन व्यापार शिल्प और नगरीकरण में ह्रास होने के साथ ही दर्शन में प्रत्ययवाद की प्रमुखता हो गई । प्रत्ययवादी दर्शन बताता है कि संसार माया और भ्रम है । उपनिषदों में लोगों को उपदेश दिया गया है कि सांसारिक विषयों से दूर रहें और ज्ञान पाने की चेष्टा करें ।

पाश्चात्य चिंतकों ने उपनिषदों को अपनाया है क्योंकि वे आज के यांत्रिक युग कृत समस्याओं का समाधान कर पाने में असमर्थ हैं । प्रख्यात जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने अपनी दार्शनिक विचारधारा में वेदों और उपनिषदों को भी स्थान दिया है । वह कहा करते थे कि उपनिषदों ने उन्हें इस जन्म में दिलासा दी है और मृत्यु के बाद भी देती रहेंगी ।

शिल्प और प्रौद्योगिकी (Craft and Technology):

यह कहना गलत होगा कि भारतीयों ने भौतिक संस्कृति में कोई प्रगति नहीं की । उन्होंने उत्पादन के कई क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त की । भारतीय शिल्पी रंगाई करने तथा तरह-तरह के रंग बनाने में परम दक्ष थे ।

भारत में बनाए गए मूल रंग इतने चमकीले और पक्के होते थे कि अजंता और एलोरा के मोहक चित्र आज भी ज्यों के त्यों हैं । इसी तरह भारत के लोग इस्पात बनाने में भी परम कुशल थे । इस्पात बनाने की कला सबसे पहले भारत में ही विकसित हुई ।

भारतीय इस्पात का अन्य देशों में निर्यात प्राचीन काल में होने लगा और बाद में आकर वह उत्स (wootz) कहलाने लगा । विश्व का कोई अन्य देश इस्पात की वैसी तलवारें नहीं बना सकता था जैसी भारतीय लोहार बनाते थे । पूर्वी एशिया से लेकर पूर्वी यूरोप तक इन तलवारों की भारी माँग थी ।

राजतंत्र (Monarchy):

कौटिल्य के अथर्शास्त्र से इस बात में कोई शंका नहीं रह गई कि भारत के लोग विशाल साम्राज्य का प्रशासन चला सकते थे और जटिल समाज की समस्याओं का समाधान कर सकते थे । देश ने अशोक के रूप में महान शासक पैदा किया जिसने कलिंग पर शानदार विजय पाकर भी शांति और अनाक्रमण की नीति अपनाई ।

अशोक और कई अन्य भारतीय राजाओं ने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और बताया कि अन्य धर्मों के अनुयायियों की भावना का आदर किया जाए । यूनान के अलावा भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ किसी-न-किसी प्रकार के गणतंत्र का प्रयोग-परीक्षण किया गया हो ।

विज्ञान और गणित (Science and Mathematics):

भारत का विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान है । प्राचीन काल में धर्म और विज्ञान आपस में गुँथे-से थे । इस देश में खगोल-विद्या में इसलिए बहुत प्रगति हुई कि ग्रह देवता माने जाने लगे थे और उनकी गति का गहन अवलोकन आरंभ हो गया । ग्रहों का अध्ययन इसलिए भी आवश्यक हो गया कि उनका ऋतुओं और मौसमों के परिवर्तनों से संबंध था और बिना इन परिवर्तनों को जाने खेती नहीं चल सकती थी ।

व्याकरण और भाषाविज्ञान का उद्‌भव इसलिए हुआ कि ब्राह्मण पुरोहित वेद की ऋचाओं और मंत्रों के उच्चारण की शुद्धता को बहुत महत्व देते थे । वास्तव में भाषा के संबंध में भारतीयों की वैज्ञानिक दृष्टि का प्रथम फल संस्कृत व्याकरण की रचना में पाया जाता है । 450 ई॰ पू॰ में संस्कृत भाषा के नियमों को सुव्यवस्थित रूप से संचित करके पाणिनि ने व्याकरण लिखा जो अष्टाध्यायी के नाम से प्रख्यात है ।

ईसा-पूर्व तीसरी सदी में आकर गणित, खगोल-विद्या और आयुर्विज्ञान तीनों का विकास अलग-अलग आरंभ हुआ । गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों ने तीन विशिष्ट योगदान किए-अंकन पद्धति, दाशमिक पद्धति और शून्य का प्रयोग । दाशमिक पद्धति के प्रयोग का सबसे पुराना उदाहरण ईसा की पाँचवी सदी के आरंभ का है ।

भारतीय अंकन पद्धति को अरबों ने अपनाया और उसको पश्चिमी दुनिया में फैलाया । अंग्रेजी में भारतीय अंकमाला को अरबी अंक (अरेबिक न्यूमरल्स) कहते हैं, किंतु अरबों ने स्वयं अपनी अंकमाला को हिंदसा कहा ।

पश्चिमी देशों में इस अंकमाला का प्रचार होने के सदियों पहले से भारत में इसका प्रयोग हुआ । इसका प्रयोग अशोक के अभिलेखों में पाया जाता है जो ईसा-पूर्व तीसरी सदी में लिखे गए ।

दाशमिक पद्धति का प्रयोग सबसे पहले भारतीयों ने किया । प्रख्यात गणितशास्त्री आर्यभट (476-500 ई॰) इससे परिचित थे । चीनियों ने यह पद्धति बौद्ध धर्मप्रचारकों से सीखी और पश्चिम जगत ने अरबों से । शून्य का आविष्कार भारतीयों ने ईसा-पूर्व दूसरी सदी में किया ।

जब से इसका आविष्कार हुआ भारतीय गणितज्ञ इसको पृथक् अंक समझने लगे और इस रूप में शून्य का प्रयोग अंकगणना में होने लगा । अरब देश में शून्य का प्रयोग सबसे पहले 873 ई॰ में पाया जाता है ।

अरबों ने इसे भारत से सीखा और यूरोप में फैलाया । बीजगणित में भारत और यूनान दोनों का योगदान रहा है परंतु पश्चिम यूरोप में उसका ज्ञान यूनान से नहीं बल्कि अरब से मिला जिसे अरब ने भारत से प्राप्त किया था ।

हड़प्पा में बनी ईंट की इमारतों से प्रकट होता है कि पश्चिमोत्तर भारत में लोगों को मापन और ज्यामिति का अच्छा ज्ञान था । बाद में वैदिक लोगों ने इस ज्ञान से लाभ उठाया होगा जो ईसा-पूर्व पाँचवीं सदी के आसपास के शुल्वसूत्रों में दिखाई देता है ।

ईसा-पूर्व दूसरी सदी में राजाओं के उपयुक्त यज्ञवेदी बनाने के लिए आपस्तंब ने व्यावहारिक ज्यामिति की रचना की । इसमें न्यूनकोण, अधिककोण और समकोण का वर्णन किया गया है ।

आर्यभट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल जानने का नियम निकाला जिसके फलस्वरूप त्रिकोणमिति का जन्म हुआ । इस काल की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है सूर्यसिद्धांत । समकालीन प्राचीन पूरब में इस तरह की कोई दूसरी कृति नहीं पाई गई है ।

खगोलशास्त्र में आर्यभट और वराहमिहिर दो महान विद्वान हुए । आर्यभट पाँचवी सदी में हुए और वराहमिहिर छठी सदी में । आर्यभट ने बेबिलोनियाई विधि से ग्रह-स्थिति की गणना की । उसने चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के कारणों का पता लगाया । उसने अनुमान के आधार पर पृथ्वी की परिधि का मान निकाला जो आज भी शुद्ध माना जाता है । उसने बताया कि सूर्य स्थिर है, पृथ्वी घूमती है । आर्यभट की पुस्तक का नाम आर्यभटीय है ।

वराहमिहिर की सुविख्यात कृति है वृहत्‌संहिता । यह ईसा की छठी सदी की है । वराहमिहिर ने बताया कि चंद्र पृथ्वी का चक्कर लगाता है और पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है । उसने ग्रहों के संचार और अन्य खगोलीय समस्याओं के अध्ययन में यूनानियों की अनेक कृतियों का सहारा लिया ।

यद्यपि भारतीय खगोलशास्त्रियों ने यूनानियों के ज्ञान से लाभ उठाया तथापि उन्होंने इस ज्ञान को आगे बढ़ाया और ग्रहों की गति के अवलोकन में इस ज्ञान का प्रयोग किया । प्रायोगिक क्षेत्र में, भारतीय शिल्पियों ने रसायनशास्त्र की प्रगति में बहुत योगदान किया । भारतीय रंगरेजों ने टिकाऊ रंगों का विकास किया तथा नीला रंग ढूँढ निकाला । पहले बताया जा चुका है कि किस प्रकार भारतीय लोहारों ने दुनिया में इस्पात का सर्वप्रथम निर्माण किया ।

आयुर्विज्ञान (Medical Science):

प्राचीन भारत में वैद्यों ने शरीर रचना विज्ञान (एनेटॉमी) का अध्ययन किया । उन्होंने रोगों के निदान की विधियाँ बनाईं और इलाज के लिए औषधि (दवा) बताई । औषधों का उल्लेख सबसे पहले अथर्ववेद॰॥ में मिलता है ।

परंतु अन्य प्राचीन समाजों की भांति बताए गए उपचारों में जादू-टोना और तंत्र-मंत्र भी भर गए और आयुर्विज्ञान का विकास वैज्ञानिक रीति से नहीं हुआ । ईसा की दूसरी सदी में भारत में आयुर्वेद के दो महान विद्वान उत्पन्न हुए- सुश्रुत और चरक । अपनी सुश्रुतसंहिता में सुश्रुत ने मोतियाबिंद, पथरी तथा और कई रोगों का शल्योपचार बताया है ।

उन्होंने शल्य-क्रिया के 121 उपकरणों का उल्लेख किया है । चरक की चरकसंहिता भारतीय चिकित्साशास्त्र का विश्वकोश है । इसमें ज्वर, कुष्ठ, मिरगी और यक्ष्मा के अनेक भेदोपभेदों का वर्णन है । शायद चरक यह नहीं जानते थे कि इनमें कुछ बीमारियाँ छूत से भी फैलती हैं । इनकी पुस्तक में भारी संख्या में उन पेड़-पौधों का वर्णन है जिनका प्रयोग दवा के रूप में होता है ।

इस प्रकार यह पुस्तक न केवल भारतीय आयुर्विज्ञान के अध्ययन के लिए, बल्कि प्राचीन भारत के वनस्पति और रसायनशास्त्र के अध्ययन के लिए भी उपयोगी है । बाद की सदियों में भारत में आयुर्विज्ञान का विकास चरक के बताए मार्ग पर होता रहा ।

भूगोल (Geography):

भूगोल के अध्ययन में भी प्राचीन भारत के लोगों का कुछ योगदान है । उन्हें भारत से बाहर की दुनिया का भौगोलिक ज्ञान अत्यल्प था, परंतु देश के विभिन्न प्रदेशों की नदियों, पर्वतों और तीर्थस्थलों का विशद वर्णन रामायण, महाभारत और पुराणों में मिलता है । यद्यपि भारत के लोग चीन और पश्चिमी देशों के बारे में कुछ-कुछ जानते थे पर उन्हें इस बात का कोई विशेष ज्ञान नहीं था कि ये देश कहाँ और भारत से कितनी दूर हैं ।

पूर्वकाल में प्राचीन भारतीयों को समुद्रयात्रा का कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने जहाज बनाने की कला में कुछ योगदान किया । परंतु चूंकि बड़ी-बड़ी राजनीतिक शक्तियों के केंद्रस्थल समुद्रतट से बहुत दूर थे और समुद्र की ओर से कोई खतरा नहीं था, इसलिए प्राचीन भारत के राजाओं ने नौपरिवहन की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया ।

कला और साहित्य (Arts and Literature):

प्राचीन भारत के राजमिस्त्री और शिल्पी सुंदर-सुंदर कलाकृतियाँ बनाते थे । अशोक द्वारा बनवाए गए अखंड प्रस्तर के स्तंभ अपनी चमकदार पालिश के लिए प्रसिद्ध हैं और उनकी पालिश की तुलना उत्तरी काले पालिशदार मृद्‌भांड (एन॰ बी॰ पी॰ डब्ल्यू॰) की पालिश से की जा सकती है ।

यह अब भी रहस्य बना हुआ है कि शिल्पकारों ने स्तंभों और मुद्‌भांडों पर कैसे इस तरह की पालिश की । मौर्यकालीन पालिशदार स्तंभों के शीर्ष पर पशुओं विशेषकर सिंहों की मूर्तियाँ हैं । सिंह की मूर्ति वाले स्तंभशीर्ष को भारत सरकार ने राष्ट्रीय चिह्न स्वीकार किया है ।

अजंता के गुहा-मंदिरों और विख्यात चित्रों का उल्लेख यहाँ गौरव के साथ किया जा सकता है जो ईसवी सन् के आरंभकाल के हैं । एक प्रकार से अजंता एशियाई कला का जन्मस्थान है । वहाँ ईसा-पूर्व दूसरी और ईसा की सातवीं सदियों के बीच अनेक गुहा-मंदिर बने जिनकी संख्या 30 तक है । चित्रों की रचना ईसा की दूसरी सदी में शुरू हुई । अधिकतर चित्र गुप्तकाल के बने हैं ।

उनके विषय जातक कथाओं और प्राचीन साहित्यों से लिए गए हैं । अजंता के चित्रकारों की उपलब्धियों की सराहना सभी कला-मर्मज्ञों ने मुक्त कंठ से की है । अजंता की रेखाएँ और रंग पुनर्जागरण के पहले संसार भर में कहीं नहीं पाई गई हैं । इतना ही नहीं भारतीय कला भारत के भीतर ही नहीं समाई रही वह एक ओर मध्य एशिया और चीन तक तथा दूसरी ओर दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैल गई ।

अफगानिस्तान और मध्य एशिया के पड़ोसी भाग में भारतीय कला के प्रसार का केंद्रबिंदु गंधार था । भारतीय कला और यूनानी कला दोनों के तत्त्वों के सम्मिश्रण से नई कला शैली का जन्म हुआ जो गांधार शैली के नाम से प्रसिद्ध है । बुद्ध की पहली प्रतिमा इसी शैली में बनी है ।

उनके नाक-नक्शा तो भारतीय हैं लेकिन उनके आकार में तथा सिर की रचना और वस्त्र-विन्यास में यूनानी प्रभाव दिखाई देता है । इसी प्रकार दक्षिण भारत में बने मंदिर तो दक्षिण-पूर्व एशिया में मंदिर निर्माण के आदर्श ही बन गए । हम कम्पूचिया में अंकोरवट के मंदिर और जावा में बोरोबुदुर के मंदिर की चर्चा कर चुके हैं ।

शिक्षा के क्षेत्र में नालंदा का बौद्ध महाविहार उल्लेखनीय है । वहाँ न केवल भारत के विभिन्न भागों से बल्कि तिब्बत और चीन से भी बौद्ध छात्र पढ़ने के लिए आते थे । परीक्षा का मानदंड कड़ा था ।

इसमें प्रवेश केवल उन्हीं का होता था जो द्वारपंडित द्वारा ली गई परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे । नालंदा का महाविहार आवासीय-सह-शिक्षण संस्थान का सबसे प्राचीन उदाहरण है । यहाँ विद्या, दर्शन और ध्यान के प्रति समर्पित हजारों भिक्षु रहते थे ।

साहित्य के क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों ने ऋग्वेद की रचना की है जो हिंद-आर्य साहित्य की सबसे पुरानी कृति है और जिसके आधार पर आर्य संस्कृति का स्वरूप बनाने की चेष्टा की गई है । गुप्तकाल में हम कालिदास की कृतियाँ पाते हैं । कालिदास के नाटक अभिज्ञानशाकुंतलम् का अनुवाद विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में हुआ है ।

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