वन्यजीव संरक्षण पर निबंध! Here is an essay on ‘Wildlife Reserve’ in Hindi language.

प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण हमारा देश भारत जैव-विविधता के सन्दर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है । विश्व के कुल प्राणी जगत का 7% से अधिक और वनस्पति जगत का लगभग 11% भाग हमारे देश में ही अवस्थित है ।

25 जैविक प्रान्तों और 14 जैव-भौगोलिक क्षेत्रों वाले इस देश में विश्वभर में पाए जाने वाले समस्त जीवों की 8% प्रजातियाँ (लगभग 16 लाख) विद्यमान हैं, किन्तु विगत शताब्दी के दौरान पारिस्थितिकी-तन्त्र पर प्रतिकूल मानवीय प्रभावों के दुष्परिणामस्वरूप भारत में वनस्पतियों की 100% और स्तनधारी जीवों की 20% प्रजातियाँ विलुप्तता की कगार पर हैं, जो हमारे लिए अत्यन्त ही गम्भीर और चुनौतीपूर्ण समस्या है ।

भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण (जेडएसआई) के अनुसार भारत में चीता, लाल सिर वाली बत्तख एवं पहाड़ी कुऔल विलुप्त हो चुके हैं । वर्ष 2014 में डेनमार्क की ‘आरहूस यूनिवर्सिटी’ के शोधार्थियों द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, हिमयुग में विशाल हिरण, दांतेदार बिल्ली, तेन्दुए के आकार बाले शेर एक बड़े कंगारू पाए जाते थे, किन्तु 1.32 लाख वर्ष पूर्व से लेकर एक हजार वर्ष पूर्व के मध्य इनका अन्त हो गया ।

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इस रिपोर्ट में हिमयुग के पश्चात् 10 किग्रा से अधिक वजन वाले पशुओं की कुल 177 प्रजातियों के नष्ट होने की बात कही गई है ।  शोध में इस बात का खुलासा भी किया गया कि जिन क्षेत्रों में जीवों की 30% प्रजातियों का अन्त हुआ था, बही मनुष्यों की संख्या तेजी से बढ रही थी ।

इस शोध-अध्ययन से स्पष्ट होता है कि अब तक धरती पर इतने बड़े स्तर पर जीवों की प्रजातियों के नष्ट होने के पीछे मनुष्य ही कारण रहा है, न कि जलवायु परिवर्तन । हाल में जारी की गई IVCN Red List के अनुसार, वर्तमान समय में विद्यमान कुल 76 हजार प्रजातियों में से 21 हजार प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं ।

वाशिंगटन डीसी में 3 मार्च, 1973 को ‘विलुप्तप्राय प्रजातियों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अभिसमय’ (CITES) पर हस्ताक्षर किए गए थे । 35 हजार से अधिक वनस्पतियों एवं जीव प्रजातियों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को विनियमित करने वाला 179 सदस्यीय देशों से सम्बद्ध यह समझौता सुनिश्चित करता है कि वनस्पति एवं जीव प्रजातियों का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार इनके अस्तित्व हेतु सकट न बन जाए ।

इसी समझौते की याद में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वन्यजीव-जन्तुओं एवं लुप्तप्राय प्रजातियों वाले जीव-जन्तुओं के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अंकुश लगाने तथा वन्यजीवों व वनस्पतियों के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से 20 दिसम्बर, 2013 को यह निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष 3 मार्च ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा ।

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विश्व की संकटग्रस्त प्रजातियों को इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की रेड डाटा बुक में दर्ज किया जाता है । इसके अनुसार, किसी भी प्रजाति को पचास वर्षों तक वन्य रूप में कहीं भी नहीं देखे जाने पर उसे विलुप्त मान लिया जाता है; जैसे-डोडो ।  भारत में जीव प्रजातियों के विलुप्त होने के अनेक कारण हैं ।

दिनोंदिन देश की बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति व बिकास के कारण पारिस्थितिकी-तन्त्र पर दबाव बढता जा रहा है और वनों की तेजी से कटाई की जा रही है वन्यजीवों की खाल, सींग, हड्डी, खुर, दाँत आदि का औषधीय एवं शृंगारिक महत्व एवं खाद्य पदार्थ के रूप में इनके मास के प्रयोग के कारण इनका बड़ी संख्या में शिकार किया जाता है देश में बड़े पैमाने पर मवेशियों को चराने के कारण मिट्टी के कटाव को बल मिलता है तथा कई वनस्पतियों का पुनर्जनन प्रभावित होता है ।

आजकल जीन-रूपान्तरित बीजों के प्रयोग का प्रचलन बढता जा रहा है । इनसे उत्पन्न फसलों को खाकर वन्यजीव अपनी प्रजनन क्षमता खो देते हैं । मानवीय क्रियाकलापों के द्वारा पर्यावरण को हानि पहुँचाने के कारण भी वन्यजीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है ।

कृषि कार्यों में प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशकों के दुष्परिणामस्वरूप मोर, बाज, चील, गौरेया जैसी प्रजातियाँ कम होती जा रही हैं । बाढ़, तूफान, आग जैसी प्राकृतिक आपदाओं एवं पर्यावरण में होने वाले प्राकृतिक परिवर्तनों के कारण भी वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट होते है और वे भारी संख्या में मारे जाते है ।

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आक्रमणकारी विदेशी प्रजातियों द्वारा कमजोर स्थानीय प्रजातियों को भोजन बनाए जाने से भी विशेष प्रजातियों की संख्या में कमी आने लगती है । पिरान्हा मछली इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । तमिलनाडु, गोवा, केरल, कर्नाटक, गुजरात व महाराष्ट्र के क्षेत्रों में फैली पश्चिमी घाटी पर्वत श्रृंखला संकटग्रस्त प्रजातियों हेतु विश्व का दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण आश्रय स्थल है ।

यूनेस्को द्वारा घोषित किए गए इस विश्व विरासत स्थल में पाँच हजार से अधिक फूलों, 500 से अधिक पक्षियों और 300 से अधिक उभयचर व स्तनपायी प्रजातियाँ निवास करती हैं ।  यह कम-से-कम 325 संकटग्रस्त प्रजातियों का आश्रय स्थल भी है । यहाँ पाई जाने बाली विलुप्तप्राय प्रजाति ‘मकाक’ की संख्या थे विश्व में मात्र 250 ही रह गई है । यहाँ पाया जाने वाला ‘परपल फ्रॉग’ भी विलुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल है ।

पारिस्थितिकी विशेषज्ञ माधव गाडगिल की रिपोर्ट में बिना नियोजन के चलाई गई विकास परियोजनाओं को पश्चिमी घाट की जैव-विविधता के हास का कारण बताया गया है ।  अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ की रेड लिस्ट के अनुसार, भारत में वैश्विक रूप से संकटग्रस्त 413 जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ हैं, जो विश्व की कुल संकटग्रस्त प्रजातियों का लगभग 5% है ।

भारत में प्रिसीटस व मैक्रोडन प्रिस्टिसजिस मछलियों की, ब्लू व्हेल, फिन व्हेल व सेरन उभयचरों की भेड़िया, लोमड़ी, रेड पाण्डा, तेन्दुआ, बाघ, शेर, सुनहरी बिल्ली, सुनहरा गिब्बन, नीलगिरि लंगूर, मकाक, वनमानुष आदि स्तनधारी की, ग्रेट इण्डियन बस्टर्ड, साइबेरियन केन आदि पक्षियों की तथा लैड स्नैल, एक्टीनिला आदि अकशेरुकी जन्तुओं की प्रमुख संकटग्रस्त प्रजातियाँ हैं ।

वर्ष 2009 में विलुप्तप्राय गंगा डॉलफिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया गया है । विगत पाँच दशकों में इसकी संख्या घटकर आधी रह गई है, जिसका प्रमुख कारण नदी के प्रदूषण को माना जा रहा है ।  इस विलुप्तप्राय जीव की संख्या दो हजार से भी कम हो गई है । हाथियों, जिनकी देशभर में कुल संख्या लगभग 26 हजार है, के संरक्षण हेतु वर्ष 2010 में इसे ‘राष्ट्रीय विरासत पशु’ का दर्जा दिया गया है ।

भारत में संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण के लिए मुख्य रूप से दो उपाय अपनाए जाते है:

(i) यथास्थल संरक्षण एवं

(ii) बहि: स्थल संरक्षण ।

यथास्थल संरक्षण के अन्तर्गत राष्ट्रीय पार्क और अभयारण्य का तन्त्र बनाकर निर्जन क्षेत्र का एक पर्याप्त भाग संरक्षित क्षेत्र के रूप में पृथक कर दिया जाता है ।  यह प्रजातियों के संरक्षण कीं सर्वश्रेष्ठ विधि है, किन्तु बिलकुल विनाश की कगार पर पहुँची संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण हेतु बहिस्थल संरक्षण के अन्तर्गत उन्हें प्राकृतिक आवास से बाहर विशेष रूप से संरक्षित किया जाता है, जहाँ कृत्रिम रूप से बनाई गई दशाओं में उनकी संख्या बढ़ाने का लक्ष्य रखा जाता है ।

दुर्लभ वनस्पतियों व जन्तुओं की संख्या वृद्धि हेतु ये प्रजनन कार्यक्रम महंगे होने के पश्चात भी काफी उपयोगी साबित होते हैं । भारत में वन्यजीव संरक्षण को पहले ही से महत्व दिया जा रहा है केन्द्र सरकार ने भारतीय बन्यजीव (संरक्षण) अघिनियम, 1972 द्वारा इसे कानूनी रूप प्रदान किया है ।

इसके तहत संकटग्रस्त प्रजातियों की रक्षा, शिकार प्रतिबन्धन, वन्यजीव आवास पर कानूनी रक्षण तथा जंगली जीवों के व्यापार पर रोक लगाने पर बल दिया गया है । भारत में रक्षित नेटवर्क में राष्ट्रीय उद्यान, 441 वन्यजीव अभयारण्य, 18 बायोस्फीयर रिजर्व तथा 4 सामुदायिक रिजर्व शामिल हैं ।

भारत में वन्यजीव संरक्षण को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2006 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य अभयारण्य प्रबन्धन में संख्यात्मक मानकों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ बाघ संरक्षण को सुदृढ़ करना है ।

इस प्राधिकरण द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2013 में कुल 63 बाघों की मौत हुई जिनमें 42 शिकारियों द्वारा मारे गए । वर्ष 2011 में हुई गिनती के अनुसार, भारत में बाघों की कुल संख्या 1,706 थी, ऐसे में शिकारियों द्वारा इतनी बड़ी संख्या में इनका मारा जाना निश्चय ही चिन्ताजनक है ।

वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में प्रशिक्षण एवं अनुसन्धान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वर्ष 1982 में बन एवं पर्यावरण मन्त्रालय के प्रशासनिक नियन्त्रण के अधीन ‘भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्लूआईआई) की स्थापना की गई । इसके अलावा जीव-जन्तुओं के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के प्रावधानों को प्रभावी बनाने हेतु जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड (एडब्लूबीआई) का गठन किया गया ।

देश में वन्यजीव संरक्षण हेतु निम्न प्रमुख परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं:

1. हंगुल परियोजना – हंगुल यूरोपियन रेंडियर प्रजाति का आईयूसीएन की रेड डाटा लिस्ट में शामिल होने वाला एक हिरण है जो अब सिर्फ कश्मीर स्थित ‘डाचीग्राम राष्ट्रीय उद्यान’ में ही शेष रह गया है । इसी के संरक्षण को ध्यान में रखकर वर्ष 1970 में इस परियोजना की शुरूआत की गई ।

2. कस्तूरी मृग परियोजना – आईयूसीएन के सहयोग से उत्तराखण्ड के केदारनाथ अभयारण्य में इस परियोजना को शुरू किया गया ।

3. बाघ परियोजना – इसकी शुरूआत वर्ष 1973 में की गई थी । वर्ष 2011 तक देशभर में 53 बाघ परियोजनाएँ कार्यरत हैं ।

4. गिर सिंह परियोजना – वर्ष 1973 में ‘एशियाई शेरों का घर’ नाम से प्रसिद्ध गिर अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया ।

5. कछुआ संरक्षण योजना – ‘ऑलिव रिडले’ नामक कछुए की एक प्रजाति के संरक्षण हेतु वर्ष 1976 में ओडिशा सरकार द्वारा इस योजना को प्रारम्भ किया गया ।

6. मणिपुर धामिन योजना – मणिपुर में धामिन मृग के संरक्षण हेतु वर्ष 1977 में इसकी शुरूआत की गई ।

7. गैण्डा परियोजना – गैण्डों के संरक्षण हेतु वर्ष 1987 में इसकी शुरूआत की गई । असम का मानस अभयारण्य, काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान तथा पश्चिम बंगाल का जन्दापारा अभयारण्य गैण्डों की प्रमुख शरणस्थली है ।

8. हाथी परियोजना – वर्ष 1992 में झारखण्ड के सिंहभूम जिले में इसका शुभारम्भ किया गया । भारत में 26 हाथी रिजर्व हैं ।

9. लाल पाण्डा परियोजना – विश्व प्रकृति निधि (डब्लूडब्लूएफ) के सहयोग से पद्‌मजा नायडू हिमालयन जन्तु पार्क ने वर्ष 1996 में इसकी शुरूआत की ।

10. गिद्ध संरक्षण परियोजना – डिक्लोफेनेक, नॉन-स्टेरॉएडल एटी-इनफ्लेमेटरी दवाओं के कारण बड़ी संख्या में देश में गिद्धों की मृत्यु हो रही है । हरियाणा बन विभाग व बीएनएचएस के बीच गिद्धों के संरक्षण हेतु समझौता किया गया है ।

केन्द्र व राज्य सरकारों के वन्यजीव संरक्षण के प्रयासों के साथ-साथ देश के नागरिकों का भी यह कर्तव्य बनता है कि वे यहाँ रहने वाले जीव-जन्तुओं के जीवन की रक्षा करने में सहयोगी बने । यदि ऐसा नहीं हुआ, तो आने वाली हमारी अगली पीढ़ियों को वर्तमान समय में पाई जाने वाली जीवों की कई प्रजातियाँ देखने को नहीं मिल सकेंगी ।  हम सबको विलुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है । हमारे प्रयासों से ही भारत जैव-विविधता के क्षेत्र में अपनी समृद्ध विरासत को बचाए रख सकेगा ।

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