भारतीय संस्कृति पर निबंध | Essay on Indian Culture in Hindi language!

Essay # 1. भारतीय संस्कृति की परिभाषा (Definition of Indian Culture):

सभ्यता और संस्कृति, इन दोनों शब्दों का प्रयोग आजकल प्रायः समान अर्थ में किया जाता है । सामान्यतः सभ्यता से तात्पर्य की उपलब्धियों से है । मनुष्य ने देश और काल में विश्व के धरातल पर मन से जो सोचा है, कर्म से किया है तथा भौतिक माध्यम से निर्मित किया है, सभ्यता उन सभी की एक सामान्य संज्ञा है ।

सभ्यता शब्द संस्कृत के ‘सभा’ से निष्पन्न हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है सभा अथवा समाज के योग्य (सभ्य+तल+टाप्) । इससे तात्पर्य विनम्रता सुशीलता अथवा कुलीनता से माना गया है । इसका सम्बन्ध सामाजिकता से है जिसके अन्तर्गत मनुष्य से कतिपय विधि-निषेधों के पालन की अपेक्षा की जाती है । अंग्रेजी में इसे ‘सिविलाइजेशन’ कहा जाता है । इसका सम्बन्ध नागरिक से है ।

अंग्रेजी शब्दकोश के अनुसार इस शब्द का अर्थ है-सामाजिक विकास की उन्नत अवस्था । इसी प्रकार संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक ‘कृ’ धातु में क्तिन् प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका अर्थ है वह कार्य जो भलीभाँति किया गया हो तथा विभूषित अथवा अलंकृत भी हो । इस दृष्टि से संस्कृति किसी अवस्था के परिष्कृत या सुधरे हुए स्वरूप को द्योतित करती है ।

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प्रत्येक सभ्यता के इतिहास में एक ऐसा स्तर आता है जबकि मनुष्य एक विशेष प्रकार का बौद्धिक उत्कर्ष कर लेता है । यह उत्कर्ष साहित्य, दर्शन विज्ञान, कला आदि के माध्यम से मुखरित होता है । इस स्तर को प्राप्त कर सभ्यता अलंकृत अथवा परिष्कृत हो जाती है ।

सभ्यता के इस स्वरूप को ही हम विशिष्ट अर्थ में संस्कृति की संज्ञा प्रदान कर सकते है, अन्यथा सामान्य अर्थ में ये दोनों ही शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में ग्रहण किये जाते हैं । इन शब्दों से इतिहासकार किसी समाज के जीवन एवं कृतियों की समष्टि की ही विवक्षा रखता है ।

इस प्रकार मानव संस्कृति का सम्बन्ध गान, कर्म तथा रचना से हैं, किन्तु इसके लिये यह भी आवश्यक है कि संस्कृति सस्कार-सम्पन्न अथवा विभूषित हो । संस्कृति को अंग्रेजी में कल्चर कहा जाता है । इस शब्द के विभिन्न अर्थों में से एक है- परिष्कार अथवा बौद्धिक विकास द्वारा उन्नति ।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जहाँ मध्यता भौतिक प्रगति की अवस्था को सूचित करती है वहीं संस्कृति बौद्धिक अथवा आत्मिक प्रगति की सूचक है । सभ्यता दृश्य तथा संस्कृति अदृश्य है । दोनों परस्पर अविच्छिन्न रूप से सम्बन्धित है ।

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भारत की प्राचीन संस्कृति का इतिहास अत्यन्त गौरवशाली है । इसने सभ्यता के अति प्राचीन काल से ही विश्व में अतीव आदरपूर्ण स्थान प्राप्त किया । ऋग्वेद में स्पष्टतः कहा गया है कि ‘सा संस्कृति प्रथिमा विश्ववारा’ अर्थात् आदि संस्कृति विश्ववारा अथवा विश्व के कल्याण के लिये थी ।

भारतीय संस्कृति की इस उदात्त भावना का ही परिणाम था कि जहाँ प्राचीन विश्व की समकालीन संस्कृतियां पूर्णतया काल-कवलित हो गयी वहाँ भारतीय संस्कृति आज भी जीवन्त तथा सबके लिये प्रतिमान या आदर्श स्वरूप है । ऐसी गरिमामयी संस्कृति का अध्ययन समस्त भारतीयों को गौरवान्वित करता है ।

Essay # 2. भारतीय संस्कृति के अध्ययन स्रोत (Study Sources of Indian Culture):

भारतीय संस्कृति के अध्ययन के लिये प्रायः उन्हीं स्रोतों का उपयोग किया जाता है जो इतिहास के अध्ययन के लिये उपयोगी है क्योंकि दोनों परस्पर अविच्छिन्न रूप से सम्बन्धित है । इतिहास के ही समान संस्कृति के अध्ययन के लिये साहित्य, विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण तथा पुरातत्व तीनों साधनों का उपयोग किया जाता है ।

भारतीय संस्कृति का आधार है प्राग्वैदिक एवं वैदिक काल । प्राग्वैदिक काल के अन्तर्गत पाषाणकाल तथा धातु-काल की संस्कृतियाँ आती हैं । इनके विषय में हमारे ज्ञान का एकमात्र साधन पुरातत्व ही है । धातुकालीन सभ्यताओं में सिन्धु अथवा हड़प्पा सभ्यता का अतिविशिष्ट स्थान है ।

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यह भारत की प्रथम नागर सभ्यता थी । दुर्भाग्यवश इसकी लिपि का उद्वाचन न होने से इसके अधिकांश बौद्धिक पक्षों के विषय में हमारी जानकारी अनुमानपरक ही है । विभिन्न स्थलों से प्राप्त अवशेषों के आधार पर हम इस सभ्यता के भौतिक स्वरूप का पुनर्निर्माण करते हैं ।

सैन्धव सभ्यता के पूर्व की संस्कृति का ज्ञान हमें पाषाण एवं धातु-निर्मित उपकरणों, मृण्मूर्तियों, मुहरों, भाण्डों आदि की सहायता से होता है जो बहुतायत में विभिन्न पुरास्थलों से उपलब्ध होती हैं । प्राचीन भारतीय साहित्य अत्यन्त विशाल है जिसे सुविधा के लिये धार्मिक और लौकिक दो भागों में विभाजित किया गया है । वैदिक साहित्य तथा उसके आधार पर लिखे गये ग्रन्थ ब्राह्मण साहित्य कहे जाते है । कुछ धार्मिक साहित्य बौद्ध तथा जैन धर्म से सम्बन्धित है ।

चार वेद- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद संयुक्त रूप से ‘संहिता’ कहे जाते है । इसके बाद ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद ग्रन्थ हैं । ऋग्वेद में वर्णित संस्कृति पूर्ववैदिक तथा बाद के ग्रन्थों की संस्कृति उत्तर-वैदिक कही जाती है । वेदांग, सूत्र, महाकाव्य, पुराण, स्मृति ग्रन्थ आदि के अध्ययन से भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है ।

बौद्ध एवं जैन साहित्य का दृष्टिकोण भी धर्मपरक ही है । जहाँ ब्राह्मण ग्रन्थों से सूचना नहीं मिलती, वहाँ इन ग्रन्थों में वर्णित सामग्रिया हमारी सहायता करती है । ब्राह्मण साहित्य का दृष्टिकोण ग्रामीण तथा बौद्ध एवं जैन साहित्य का दृष्टिकोण नगरीय प्रतीत होता है ।

इनमें नागर जीवन की अनेक मान्यताओं जैसे व्यापार-वाणिज्य, सूदखोरी, वेश्यावृत्ति आदि का समर्थन किया गया । ये दोनों ही धर्म बदले हुए सामाजिक दृष्टिकोण तथा आर्थिक परिवेश के पूर्णतया अनुकूल थे । बौद्ध ग्रन्थों के अध्ययन से हम तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक दशा का व्यापक विवरण प्राप्त कर लेते हैं ।

विदेशी लेखकों एवं यात्रियों के विवरण भारतीय इतिहास के साथ-साथ संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर भी सुन्दर प्रकाश डालते हैं । प्राचीन यूनानी हेरोडोटस के विवरण से भारत-ईरान सम्बन्धों की जानकारी होती है । पेरीप्लस से भारत के प्राचीन समुद्री व्यापार पर प्रकाश पड़ता है । राजदूत मेगस्थनीज प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में उपस्थित हुआ ।

उसका ग्रन्थ ‘इंडिका’ मौर्ययुगीन समाज एवं संस्कृति के अध्ययन के लिये उपयोगी है । फाह्यान तथा हेव्नसांग जैसे चीनी यात्रियों के भ्रमण-वृतान्त क्रमशः गुप्त एवं वर्धनकालीन संस्कृति के कुछ पक्षों का बोध कराते है । पूर्व-मध्यकाल में अनेक अरबी-फारसी यात्री, लेखक एवं विद्वान् भारत पहुंचे । इनमें सबसे प्रमुख नाम अलबरूनी का है ।

उसका ग्रन्थ ‘तहकीक-ए-हिन्द’ राजपूतकालीन समाज, धर्म, रीति-रिवाज, परम्पराओं आदि पर अच्छा प्रकाश डालता है । पुरातत्व के अर्न्तगत अभिलेख, सिक्के तथा प्राचीन स्मारकों की गणना की जाती है । अशोक के समय से प्रारम्भ होकर प्राचीन इतिहास के प्रत्येक काल के लेख बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं ।

यद्यपि इनका मुख्य उद्देश्य शासकों की राजनीतिक उपलब्धियों बताना है तथापि इनके अध्ययन से समकालीन शासन, धर्म, समाज, साहित्य, व्यापार-वाणिज्य, कला आदि विविध सांस्कृतिक पक्षों का भी सुन्दर गान हो जाता है । सिक्के आर्थिक इतिहास के प्रमुख स्रोत माने गये हैं । इनकी अधिकता को आर्थिक प्रगति एवं न्यूनता को अवनति का सूचक माना जाता है ।

सिक्कों पर अंकित कुछ धार्मिक प्रतीक एवं चिह्न समकालीन धर्म एवं धार्मिक स्थिति की भी सूचना देते हैं । भारतीय संस्कृति के सोत के रूप में प्राचीन स्मारकों- भवन, मन्दिर, मूर्तियों आदि का काफी महत्व है । सैन्धव संस्कृति के नगरीय स्वरूप का गान खुदाई में मिले स्मारकों से ही होता है । मन्दिर मूर्तियों आदि से जहाँ एक ओर जनता की धर्मिकता का पता चलता है वहीं दूसरी ओर हिन्दू कला के विविध पक्षों पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है ।

दक्षिण भारत से भी अनेक स्मारक प्राप्त हुए है । सजीर का बृहदीश्वर मन्दिर द्रविड़ शैली का उत्कृष्टतम उदाहरण है । खजुराहो सथा उड़िसा से प्राप्त मन्दिर हिन्दु वास्तु एवं स्थापत्य के सर्वोत्तम स्वरूप को प्रकट करते है ।

इस प्रकार साहित्य, विदेशी विवरण तथा पुरातत्व-इन तीनों की सहायता से हम भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का अच्छा अध्ययन करते हैं । इन सभी का उपयोग यथास्थान करते हुए भारत की प्राचीन संस्कृति का विवरण प्रस्तुत किया जायेगा ।

Essay # 3. भारतीय संस्कृति की विशेषतायें (Characteristics of Indian Culture):

भारतीय संस्कृति की कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो विश्व के अन्य देशों की संस्कृतियों में दृष्टिगत नहीं होतीं । अपने विशिष्ट तत्वों के कारण ही भारतीय संस्कृति ने विश्व के देशों में अपनी महत्ता को बनाये रखा है ।

इन्हें हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत रख सकते हैं:

i. प्राचीनता:

भारतीय संस्कृति का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है । भारत में सभ्यता का उदय तथा विकास ईसा के कई शदियों पूर्व हुआ । प्रागैतिहासिक उपकरणों से पता चलता है कि विश्व के अन्य भागों के साथ ही भारत में भी मानव संस्कृति का प्रारम्भ हुआ था ।

सैन्धव सभ्यता की खोज से भारतीय संस्कृति की प्राचीनता बढ़ गयी है तथा आज हमारे पास यह विश्वास करने के लिये पर्याप्त आधार है कि मिस तथा मेसोपोटामिया की सभ्यताओं की भाँति भारत की भी अपनी एक स्वतंत्र सभ्यता थी जो अधिकांश अंशों में समकालीन सभ्यताओं की अपेक्षा कहीं अधिक विकसित एवं गतिशील थी ।

मिस्र एवं मेसोपोटामिया के समान भारत देश भी मानव सभ्यता का जनक होने का दावा कर सकता है जहाँ उन विचारों विश्वासों एवं क्रियाओं का सूत्रपात हुआ जिन्होंने कालान्तर में विश्व इतिहास एवं सभ्यता को दिशा प्रदान किया । यूनान, रोम आदि देशों में सभ्यता का प्रादुर्भाव भारत के बहुत बाद में हुआ । इस प्रकार भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में सर्वप्रमुख है ।

ii. निरन्तरता एवं चिरस्थायिता:

भारतीय संस्कृति में प्राचीनता होने के साथ ही साथ निरन्तरता एवं चिरस्थायिता भी है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में दृष्टिगोचर नहीं होती । मिस, सुमेर, अक्काद, बेबीलोन, असीरिया तथा ईरान की संस्कृतियों का अस्तित्व बहुत पहले ही समाप्त हो चुका है । मिस्र, मेसोपोटामिया आदि के आधुनिक निवासियों का अपनी प्राचीन संस्कृतियों से कोई सम्बध नहीं है जो आज अतीत की कहानियाँ मात्र है ।

किन्तु यह बात भारतीय संस्मृति के लिये लागू नहीं होती । भारत का अतीत उसके वर्तमान जीवन से अविच्छिन्न रुप से सम्बद्ध है । इस संस्कृति के मूल तत्व इतने स्थायी हैं कि समय का प्रवाह एवं प्रहार उन्हें विलुप्त नहीं कर पाया है । शताब्दियों के परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति की आत्मा समान रही है । इसमें अद्‌भुत सातत्य है ।

सैन्धव सभ्यता से प्राप्त देवी-देवताओं की मूर्तियाँ आज भी भारतीयों के लिये पूजनीय है । हिमालय से कन्याकुमारी तक बसे हुए हिन्दू आज भी उन वैदिक मंत्रों का उच्चारण अतीव श्रद्धा के साथ करते हैं जिन्हें ऋषियों ने शताब्दियों पूर्व सिम्पू सरिता के तट पर उच्चारित किया था।

यूनान तथा रोम की सभ्यताओं के उदात्त धर्म एवं दार्शनिक सिद्धान्त भी आज उनके निवासियों के लिये कोई महत्व नहीं रखते, जबकि भारतीयों के लिये उनकी प्राचीन भाषा, साहित्य, धर्म, दर्शन, सामाजिक आचार-विचार आज भी उतने ही मूल्यावान बने हुये है जितने प्राचीन समय में थे । यह निरन्तरता भारतीय संस्कृति की अपनी वस्तु है जो पाश्चात्य दर्शकों के लिये आश्चर्यजनक प्रतीत होती है । भारतीय संस्कृति के सम्मुख अनेक गम्भीर चुनौतियाँ आई जिनका सामना दृढता के साथ करती हुई वह समय की कसौटी पर खरी उतरी है ।

ऐतिहासिक काल से लेकर प्राचीन युग के अन्त तक देश को अनेक भीषण एवं बर्बर आक्रमणों का सामना करना पड़ा किन्तु पराभव के दिनों में भी भारतीय संस्कृति ने अपना मूल स्वरूप स्थायी बनाये रखा तथा अपने उदात्त विचारों एवं विश्वासों से क्रूर एवं बर्बर जातियों को भी सभ्य बना दिया ।

iii. आध्यात्मिकता:

आध्यात्मिकता अथवा धार्मिकता एक प्रकार से भारतीय संस्कृति का प्राण है जिसने इसके सभी अंगों को प्रभावित किया है । प्राचीन भारतीयों ने ऐहिक सुखों का महत्व समझते हुए भी उन्हें अपनी जीवन पद्धति में गौण स्थान प्रदान किया । प्राचीन समाज में पुरुषार्थो का विधान एवं आश्रम-व्यवस्था का प्रतिपादन मनुष्य की आध्यात्मिक साधना के ही प्रतीक है ।

जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है तथा अन्य सभी पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ एवं काम-इसमें सहायक हैं । इनमें धर्म को प्रमुखता दी गयी है जो जीवन की सभी अवस्थाओं में व्यक्ति की क्रियाओं को प्रेरित एवं प्रभावित करता है । जो धर्म के द्वारा उन्नति करें वही विद्वान् एवं गुणवान् कहा गया है । धर्म के माध्यम से ही जीवन यापन करने वाला मनुष्य अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति करता है ।

iv. ग्रहणशीलता:

भारतीय संस्कृति की एक विशेषता उसकी ग्रहणशीलता (Adaptability) है । उसमें प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर अपने में समाहित कर लेने की अद्‌भुत शक्ति है । ऐतिहासिक काल से लेकर मध्य काल के पूर्व तक भारत पर अनेक जातियों के आक्रमण हुए ।

इनमें यवन, शक, कुषाण, हूण आदि प्रमुख है । भारतीय संस्कृति ने पहले तो इनके प्रबल प्रहार को शान्त एवं गम्भीर भाव से झेला तथा फिर क्रमशः इन विदेशियों को अपनी धारा में प्रवाहित कर लिया । उन्होंने ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्मों को ग्रहण किया तथा भारतीय संस्कृति के प्रचारक एवं उन्नायक बन गये । शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् वैदिक धर्म एवं संस्कृति का पोषक था जबकि कुषाण शासक कनिष्क ने न केवल बौद्ध धर्म ग्रहण किया अपितु उसके प्रचार-प्रसार में अपने साम्राज्य के सभी साधनों को भी लगा दिया ।

हिन्द-यवन मिलिन्द (मेनाण्डर) ने बौद्ध संघ में ‘अर्हत’ पद प्राप्त किया । क्रूर एवं बर्बर हूणों ने शैव धर्म ग्रहण किया । पूर्व मध्य काल के तुर्क भी भारतीय संस्कृति के प्रभाव से नहीं बच सके । यह सब संस्कृति की ग्रहणशीलता का ही परिणाम था ।

v. समन्वयवादिता:

भारतीय संस्कृति समन्वयवादी है । प्राचीन समय से ही अनन्त भेदों के बीच वैचारिक एकता तथा समानता की स्वीकृति की बात कही गयी है । ऋग्वैदिक ऋषियों ने इस सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए स्पष्टतः लिखा है “सामान मन्त्र, समान समिति, समान मन, समान सबकी प्रेरणा, समान सबके हृदय, समान सबके मानस, समान सबकी स्थिति….” ।

भारतीय मनीषियों ने अतिवादी विचारधाराओं का विरोध किया है तथा मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है । अतिशय आसक्ति एवं विरक्ति दोनों ही त्याज्य है । भौतिक सुखी का उपभोग करते हुए भी उनसे लिप्त न होने का उपदेश दिया गया है । भारतीय व्यवस्थाकारों ने मानव जीवन में चारों पुरुषार्थो के विधान द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखों के बीच समन्वय स्थापित करने का सुन्दर प्रयास किया है । मानवता के महान् पुजारी महात्मा गौतम बुद्ध समन्वयवादी थे ।

गीता में ज्ञान, कर्म रख भक्ति के बीच समन्वय स्थापित किया गया है जो सभी के लिये अनुकरणीय है । हिम धर्म की यह सर्वप्रमुख धारणा रही है कि ‘ईश्वर एक है तथा संसार के सभी धर्म सच्चे और अच्छें है’ । भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था भी विभिन्न वर्गों एवं मानव जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के बीच समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से बनाई गयी थी ।

सुप्रसिद्ध सम्राट अशोक ने पारस्परिक मेल-मिलाप, प्रीति एवं सहानुभूतिपूर्ण एकत्व को ही विभिन्न वर्गों के लिये जीवन का श्रेष्ठ मार्ग घोषित किया है (समवाय एवं साधु) । ‘समवाय’ अथवा समन्वय की अवधारणा ने ही भारत के दीर्घकालीन इतिहास के समस्त राजनैतिक एवं सांस्कृतिक विकास को नियंत्रित करते हुए उसे एकता के सूत्र में आबद्ध होने के मार्ग पर अग्रसर किया है । समन्वय की यह प्रवृत्ति विश्व के किसी अन्य संस्कृति में दिखायी नहीं देती । भारतीय संस्कृति को विश्व इतिहास में समन्वय का एक महान् प्रयोग कहा जा सकता है ।

vi. धार्मिक सहिष्णुता:

भारतीय संस्कृति धार्मिक विषयों में सहिष्णुता का उपदेश देती है । धर्मान्धता संकुचित मनोवृत्ति इसमें नहीं मिलती । प्राचीन भारत में धर्म के नाम पर अत्याचार रख रक्तपात प्रायः नहीं हुआ है । भारतीय मनीषा ने ईश्वर को एक, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् आदि मानते हुये विभिन्न धर्मों एवं मतों को उस ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग बताया है ।

ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘सत् अर्थात् ब्रह्म एक है, किन्तु ज्ञानी लोग उसका विविध प्रकार से वर्णन करते हैं- एक सद विप्रा: बहुधा वदन्ति । गीता में कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन, सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुकरण करते है (मम वत्र्मना हि वर्तन्त्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:) ।’ जैन दर्शन का स्याद्‌वाद एवं सप्तभंगीनय का सिद्धान्त धार्मिक सहिष्णुता का ही प्रतिपादक है ।

सुप्रसिद्ध भारतीय सम्राट अशोक अपने बारहवें शिलालेख में धर्म-सहिष्णुता की भावना को इस प्रकार व्यक्त करता है- “मनुष्य को अपने धर्म का आदर तथा दूसरे के धर्म की अकारण निन्दा नहीं करनी चाहिए । एक न एक कारण ले अन्य धर्मों का आदर करना चाहिए ऐसा न करने पर मनुष्य अपने सम्प्रदाय को क्षींण करता है तथा दूसरे के सम्प्रदाय का अपकार करता है । जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति भक्ति तथा उसकी उन्नति की लालसा में दूसरे के धर्म की निन्दा करता है वह वस्तुतः अपने सम्प्रदाय की ही बहुत बड़ी हानि करता है । लोग एक दूसरे के धर्म को सुनें इससे सभी सम्प्रदाय बहुश्रुत होंगे तथा संसार का कल्याण होगा ।”

प्राचीन इतिहास के स्वर्ण-युग गुप्तकाल में सर्वत्र धार्मिक सहिष्णुता देखने को मिलती है । यहाँ धार्मिक कट्टरता एवं असहिष्णुता के उदाहरण अपवादस्वरूप ही मिलते हैं । प्राचीन भारतीयों ने उन विदेशी धर्मावलम्बियों को भी अपने यहां शरण प्रदान की जो अपने देशों में होने वाले धार्मिक संहार एवं अत्याचार से पीड़ित होकर यहाँ पहुँचे ।

vii. सर्वाड्गीणता:

भारतीय संस्कृति मानव जीवन के सभी पक्षों के सम्यक् विकास पर बल देती है । मैक्समूलर जैसे कुछ पाश्चात्य विचारकों की धारणा है कि प्राचीन भारतीयों के लिये भौतिक जीवन एक स्वप्न एवं भ्रान्ति के समान था । किन्तु इस प्रकार का विचार तर्कसंगत नहीं लगता । वास्तविकता यह है कि प्राचीन भारतीयों ने भौतिक सुखी के महत्व को भी समझा तथा उनकी उपेक्षा नहीं की ।

यह सही है कि भारतीय जीवन के सभी पक्ष धर्म से अनुप्राणित थे । परन्तु इसका अर्ध यह नहीं है कि धर्म का सम्बन्ध मात्र पारलौकिक सुखों से ही था । वैशेषिक दर्शन में धर्म उसे कहा गया है जिससे लौकिक तथा पारलौकिक दोनों सुखों की प्राप्ति होती है (यतोद् भ्युदय नि:श्रेयस् सिद्धि: स धर्म:) । मानव जीवन में आश्रम-व्यवस्था एवं पुरुषार्थो का विधान मनुष्य तथा समाज के सर्वाड्गीण विकास को ध्यान में रखकर ही किया गया था ।

viii. सार्वभौमिकता:

भारतीय में सार्वभौमिकता मिलती है । इसमें अपनी उन्नति के साथ की साथ समस्त विश्व के कल्याण को कामना की गयी । वैदिक काल से ही भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण विश्व को एक मानकर ‘विश्वबंधुत्व’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे उदात्त सिद्धान्तों का प्रथम उद्‌घोष करते हुए सार्वभौमिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । उन्होने न केवल मानव जाति अपितु प्राणी मात्र के कल्याण की चिन्ता व्यक्त किया है ।

ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि वह विश्व को अन्धकार से प्रकाश, असत् मे सत् तथा नश्वरता से अमरता की ओर अग्रसर करें (तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्‌गमय, मृर्त्यो मा अमृत गमय) । लोक कल्याण की भावना व्यक्त करते हुए कहा गया है- ‘सभी सुखी हों, विघ्नरहित हों, कल्याण का दर्शन करें तथा किसी को कोई दुख प्राप्त न हो-

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सत्र निरामया: ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत् ।

सार्वभौमिकता की यह भावना भारतीय साहित्य एवं दर्शन में स्थान-स्थान पर मुखरित हुई है । यह भारतीय संस्कृति की अपनी थाती है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में दुष्प्राप्य है ।

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