प्राचीन भारत में मृदा संरक्षण | Soil Conservation in Ancient India in Hindi.

प्रायः समस्त ताम्रपाषाणिक तथा ऐतिहासिक काल के पूर्व तक की संस्कृतियों की पहचान मृद्‌भाण्डों के आधार पर ही होती है । एक प्रकार से मृद्‌भाण्ड ही इनके नैदानिक लक्षण हैं । प्रारम्भ में मृद्‌भाण्डों का महत्व नहीं समझा जाता था तथा उत्खनन के दौरान जो टुकड़े प्राप्त होते थे उन्हें तुच्छ समझकर फेंक दिया जाता था ।

सर्वप्रथम फ्लिंडर्स पेट्री नामक पुरातत्ववेत्ता ने मिस्र में उत्खनन के दौरान प्राप्त मृद्‌भाण्डों के महत्व का आकलन करते हुए बताया कि प्रत्येक युग में विशेष प्रकार के मृद्‌भाण्ड बनाये जाते हैं ।

उनका प्रकार लम्बे समय तक बना रहता है जिनका अध्ययन करके हम काल विशेष की संस्कृति संबंधी कुछ बातें जान सकते हैं । पेट्री के निष्कर्ष के पश्चात् पुराविदों ने मृद्‌भाण्डों का महत्व समझा तथा अब इसे पुरातत्व की वर्णमाला के रूप में मान्यता प्रदान की गयी ।

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जिस प्रकार वर्णमाला के ज्ञान से ही हम तत्संबंधी साहित्य का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, उसी प्रकार विभिन्न काली एवं कौशल तकनीक से निर्मित मृद्‌भाण्डों का अध्ययन एवं परीक्षण करके हम काल विशेष एवं स्थल विशेष की संस्कृति के विविध पक्षों को उद्घाटित कर सकते हैं ।

इतिहास एवं संस्कृति के अन्य स्रोतों के समान मृद्‌भाण्ड भी एक उपयोगी स्रोत हैं । उनके आधार पर कुछ ऐसी मूढ़ पहेलियों को सुलझाने में सहायता मिलती है जो अन्य स्रोतों के माध्यम से नहीं ज्ञात हो पाते । इनके विश्लेषण से उत्खनित स्तर की तिथि निश्चित करने में भी सहायता मिलती है ।

अत: मृद्‌भाण्ड प्राचीन संस्कृतियों के अध्ययन के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं । विश्व के विभिन्न देशों के समान भारत में भी पुरातात्विक उत्खनन के फलस्वरूप विविध प्रकार के मृद्‌भाण्ड प्रकाश में आये हैं ।

प्रमुख भाण्ड परम्पराओं का विवरण इस प्रकार है:

I. गैरिक मृद्‌भाण्ड (Ochre Coloured Pottery):

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गैरिक अथवा गेरूए रंग के एक विशेष प्रकार के हैं जो अधिकांशतः गंगा घाटी क्षेत्र से मिलते हैं । ये अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं । छूने पर इनका रंग अंगुलियों में लग जाता है तथा ये चूर-चूर हो जाते हैं । ऐसा लगता है कि इन्हें पूर्णरूप से पकाया नहीं गया है ।

संकालिया का विचार है कि जिन स्थलों से ये भाण्ड मिले हैं वे काफी समय तक पानी में डूबे रहे होंगे जिससे उनमें नमी आ गयी तथा भाण्ड अत्यन्त कमजोर एवं भुरझुरे हो गये । किन्तु बी. बी. लाल इससे असहमति प्रकट करते हुए कहते हैं कि बर्तनों की दुर्बलता एवं भंगुरता उनके लम्बे समय तक खुले पड़े रहने एवं ऋतु परिवर्तन के कारण हैं ।

गैरिक मृद्‌भाण्डों की खोज सर्वप्रथम पुराविद् बी. बी. लाल ने 1949 ई. में बिसौली (बदायूं) तथा राजपुरपरसू (बिजनौर) के पुरास्थलों की खुदाई के दौरान किया । इन स्थलों से उन्हें गेरुए रंग के मृद्‌भाण्ड-खण्ड प्राप्त हुए । इनके रंग के आधार पर ही इनका नामकरण गैरिक किया गया । पुरातत्व में इनका नाम ‘ओ. सी. पी.’ (ऑकर कलर्ड पॉटरी) सर्वप्रचलित है ।

गैरिक मृद्‌भाण्डों का विस्तार मुख्यतः उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उत्तरी राजस्थान आदि में मिलता है । इससे संबंधित प्रमुख स्थल हैं- हस्तिनापुर (मेरठ), बड़गाँव तथा बहदराबाद (जिला हरिद्वार), अम्बाखेड़ी (जिला सहारनपुर), अतरंजीखेड़ा (जिला एटा), सैपई (इटावा), लालकिला (बुलन्दशहर), श्रुंगवेरपुर (इलाहाबाद), अहिच्छत्र (बरेली), काटपलान (जालंधर-पंजाब), नोह (भरतपुर, राजस्थान) आदि ।

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इस प्रकार गैरिक पात्र परम्परा उत्तर में बहदराबाद से लेकर दक्षिण-पश्चिम में नोह तक तथा पूरब में अहिच्छत्र से पश्चिम में काटपलान तक विस्तृत थी । हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, अहिच्छत्र, श्रुंगवेरपुर तथा नोह की खुदाई में ये पात्र सबसे नीचे के स्तर से मिलते हैं ।

गैरिक मृद्‌भाण्डों में कई प्रकार के पात्र मिले हैं । इनमें साधार तश्तरी एवं घड़े, बेसिन, कटोरे, ढक्कन, बड़ी आकार की नाँदे, भण्डारण पात्र, छोटे एवं सामान्य आकार के बर्तन आदि मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं । प्रारम्भिक पात्रों पर कोई अलंकरण या चित्रण नहीं मिलता ।

किन्तु अतरंजीखेड़ा एवं लाल किला से प्राप्त बर्तनों के टुकड़ों की लाल सतह पर काले रंग में चित्रण किया गया है । लाल किला से मिले एक बर्तन पर कूबड़दार वृषभ का चित्रण है । कुछ बर्तनों के टुकड़ों पर विविध आकार-प्रकार की रेखाओं, पत्तियों आदि से चित्रकारियाँ की गयी हैं ।

गैरिक मृद्‌भाण्ड के निर्माता कौन थे, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है । बी. बी. लाल इन भाण्डों को ताम्रनिधियों के समकालीन मानते हुए इसके निर्माताओं को गंगाघाटी का आदि निवासी मानते हैं । उनके अनुसार गांगेयक्षेत्र में आर्यों के प्रवेश के पहले शबर, निषाद, मुण्डा आदि आदिम जातियाँ निवास करती थीं ।

इन्हें ही गैरिक भाण्डों का निर्माता कहा जा सकता है । उल्लेखनीय है कि राजपुरपरसू, बहदराबाद, सैपई आदि स्थलों से गैरिक भाण्ड ताम्रनिधियों के साथ मिलते हैं जिससे दोनों की समकालीनता सिद्ध होती है । सैपई से गैरिक भाण्डों के साथ ताम्रनिर्मित एक मत्स्य-भाला भी मिलता है । इसके विपरीत कुछ विद्वान इन्हें प्राग्हड़प्पा तथा कुछ परवर्ती हड़प्पा सभ्यता के निवासियों की कृतियाँ मानते हैं ।

उल्लेखनीय है कि अम्बाखेड़ी तथा बहदराबाद से प्राप्त कतिपय गैरिक मृद्‌भाण्ड प्राग्हड़प्पाकालीन मृद्‌भाण्डों जैसे हैं । एक भाण्ड पर कूबड़दार वृषभ का अंकन है जो हड़प्पावासियों का पवित्र पशु था । अम्बाखेड़ी से मिट्टी के बने कूबड़दार वृषभ, गाड़ी के पहिये तथा मृत्पिण्ड भी मिलते हैं जो हड़प्पा जैसे हैं ।

इन समानताओं को देखते हुए यज्ञदत्त शर्मा, कृष्णदेव जैसे विद्वानों का विचार है कि गैरिक भाण्ड उन लोगों की कृतियाँ हो सकती हैं जो हड़प्पा सभ्यता के पतनोपरान्त उस क्षेत्र में बसे थे । वे इस क्षेत्र के स्थायी निवासी थे, न कि भ्रमणशील या घुमक्कड़ जैसा कि बी. बी. लाल प्रस्तावित करते हैं ।

आर. सी. गौड़ इन मृद्‌भाण्डों को तीन श्रेणियों में रखते है:

1. अतरंजीखेडा, सैपई, लाल किला, नोह से प्राप्त विशुद्ध गैरिक मृद्‌भाण्ड ।

2. बहदरावाद, अम्बाखेड़ी आदि से प्राप्त वे मृद्‌भाण्ड जिन पर हड़प्पा संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है ।

3. आलमगीरपुर तथा बड़गांव से प्राप्त मृद्‌भाण्ड जो परवर्ती हड़प्पा संस्कृति के भाण्डों से प्रभावित हैं ।

इस प्रकार गैरिक मृद्‌भाण्ड के निर्माताओं का प्रश्न असंदिग्ध रूप से हल नहीं किया जा सकता । जहाँ तक गैरिक मृद्‌भाण्डों के तिथिक्रम का प्रश्न है, इस विषय में हमारा ज्ञान अनुमानपरक ही है । हस्तिनापुर, नोह, अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, श्रुंगवेरपुर आदि पुरास्थलों की खुदाई में सबसे नीचले स्तर से ये मृद्‌भाण्ड प्राप्त हुए हैं ।

हस्तिनापुर के उत्खननकर्ता बी. बी. लाल के अनुसार इनका काल ईसा पूर्व 1200 के पूर्व निर्धारित किया जा सकता है । अधिकांश पुराविद् इन मृद्‌भाण्डों का समय ईसा पूर्व 1300-1200 निर्धारित करने के पक्ष में है ।

II. चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड (Painted Gray Ware):

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस पात्र-परम्परा के बर्तन प्रधानतः धूसर अथवा स्लेटी रंग के हैं जिन पर काले रंग में चित्रण किया गया है । कहीं-कहीं काले अथवा चाकलेट रंग के बर्तन भी मिलते हैं ।

चित्रित धूसर मृद्‌भाण्डों की प्राप्ति, सर्वप्रथम अहिच्छत्र के टीले की खुदाई के दौरान 1940-44 ई. में हुई लेकिन उस समय इसके महत्व का सही ढंग से मूल्यांकन नहीं किया जा सका ।

तत्पश्चात् ये मृद्‌भाण्ड अन्य स्थलों से भी प्राप्त हो गये । उत्खनन तथा अनुसंधान के फलस्वरूप सतलज तथा उच्च गंगाघाटी में अब तक लगभग सात सौ चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड स्थलों की गणना हो चुकी है ।

इस पात्र परम्परा का संबंध लोहे से है । वस्तुतः हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद से लेकर बुद्धकाल के प्रारम्भ तक की अवधि की संस्कृतियों के भौतिक परिवेश की जानकारी प्राप्त करने के दृष्टि से इस पात्र परम्परा का महत्वपूर्ण स्थान है ।

प्रारम्भ में इस काल (1500-600) को अन्धयुग माना जाता था जिसकी संस्कृति के ज्ञान के लिये कोई साक्ष्य नहीं था । किन्तु चित्रित धूसर भाण्डों की प्राप्ति ने इस व्यवधान को समाप्त कर दिया ।

रोपड़ तथा आलमगीरपुर में ये भाण्ड, हड़प्पा संस्कृति के बाद की संस्कृति के संदर्भ तथा उत्तरी काले ओपदार परम्परा (एन. बी. पी.) के पूर्ववर्ती संस्कृति के साथ मिले हैं । हस्तिनापुर में यह गैरिक मृद्‌भाण्ड स्तर के ऊपरी तथा एन. बी. पी. स्तर के निचले स्तरों से मिलता है ।

नोह तथा अतरंजीखेड़ा में सबसे नीचे भाण्ड, उसके ऊपर कृष्ण-लोहित भाण्ड तथा उसके ऊपरी स्तर से चित्रित धूसर भाण्ड प्राप्त होते हैं । हरियाणा में दधेरी तथा भगवानपुरा से हड़प्पा सभ्यता के अन्तिम स्तर से ये भाण्ड मिले हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि हड़प्पा संस्कृति के अन्तिम तथा चित्रित धूसर भाण्ड की प्रारम्भिक संस्कृतियों में समकालीनता थी ।

मथुरा, श्रावस्ती आदि कतिपय पुरास्थलों पर प्राप्त चित्रित धूसर एवं उत्तरी काले ओपदार भाण्डों के आधार पर दोनों में तारतम्यता सिद्ध होती है । भगवानपुरा तथा कुछ अन्य स्थलों पर जगपति जोशी द्वारा कराई गयी खुदाइयों से सिद्ध होता है कि हड़प्पा सभ्यता के पतन के तत्काल बाद चित्रित धूसर संस्कृति का प्रारम्भ हुआ ।

अब यह संभावना प्रबल हुई कि हड़प्पा संस्कृति ईसा पूर्व 1500 के बाद भी बनी रही । इस प्रकार चित्रित धूसर मृद्‌भाण्डों की प्राप्ति ने ईसा पूर्व 1500 से 600 के बीच के सांस्कृतिक शून्यता को पाटने का कार्य किया है ।

चित्रित धूसर परम्परा के बर्तन पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के उत्तरी भागों तथा गंगा की ऊपरी घाटी में विशेष रूप से मिलते हैं । उत्तर में माण्डा (जम्मू क्षेत्र) से दक्षिण में उज्जैन (मध्यप्रदेश) तक ये पाये जाते हैं । पाकिस्तान में सिन्ध प्रान्त के लखियोपीर तथा नेपाल में तिलौराकोट तक इनका विस्तार दिखाई देता है ।

इन पात्रों के कुछ ठीकरे कौशाम्बी, वैशाली, सोहगौरा आदि से भी मिले हैं, किन्तु पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी बिहार में इनकी कम संख्या तथा घटिया बनावट को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि पहले इनका प्रचलन उत्तर-पश्चिम की ओर ही हुआ तथा पूर्व तथा दक्षिण की ओर ये बाद में लाये गये । यमुना-गंगा दोआब इनका मुख्य क्षेत्र था लेकिन पश्चिम में बीकानेर तथा दक्षिण में उज्जैन तक ये पात्र पाये जाते हैं ।

पंजाब में रोपड़, दधेरी, संघोल आदि, हरियाणा में भगवानपुर, दौलतपुर, राजा कर्ण का किला आदि, दिल्ली में इन्द्रप्रस्थ, राजस्थान में नोह, जोधपुरा, गिलुन्द आदि, मध्यप्रदेश में उज्जैन, कायथा आदि, उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर, हस्तिनापुर, अहच्छित्र, थापली, जलालपुर हुलास, जखेड़ा, मथुरा, सोंख, सोहगौरा आदि तथा बिहार में वैशाली इस भाण्ड के प्रमुख प्राप्ति स्थल हैं ।

चित्रित धूसर मात्र अत्यन्त पतली गढ़न वाले हैं । इन्हें इतने उच्च ताप (800°C) पर आँवे में पकाया गया है कि इनका रंग धूसर हो गया है । गाढ़े काले रंग से कुछ अलंकरण किया गया है । इनकी मिट्टी अत्यन्त चिकनी है जिसे भलीभाँति गूँथा गया है ।

अधिकांशतः पात्रों का निर्माण चाक पर किया गया है, किन्तु कुछ हस्तनिर्मित पात्र भी पाये जाते हैं । चित्रित धूसर पात्रों में थाली तथा कटोरे प्रकार के बर्तन प्रमुख रूप से मिलते हैं । कुछ विशेष प्रकार के पात्र विशेष स्थलों से मिलते हैं ।

इनमें रोपड़ से लोटा, सरदारगढ से टोंटीदार पात्र, हस्तिनापुर से नाँद, अल्लाहपुर से रिम आधार का पात्र, अतरंजीखेड़ा, नोह तथा अहिच्छत्र से कलश एवं सोंख से प्राप्त घड़ा का उल्लेख किया जा सकता है ।

इन बर्तनों में थालियों तथा कटोरों की संख्या ही अधिक है जिनका प्रयोग उस काल के उच्च वर्ग के लोग भोजन अथवा धार्मिक अनुष्ठानों में किया करते थे । इनकी चित्रण-तकनीक भी उच्चकोटि की है ।

कुछ पात्रों पर काले रंग से स्वस्तिक तथा सर्पिल जैसे आकार बनाये गये हैं लेकिन इनकी संख्या कम है । लाल, काले-लाल, सादे धूसर, काले-पुते भाण्ड इनसे संबद्ध है । चित्रित धूसर संस्कृति के लोग नरकुल तथा गारे से घर बनाते थे ।

गेहूँ, जौ तथा चावल उनके मुख्य खाद्यान्न थे । अतरंजीखेड़ा के प्रथम स्तर से इनके अवशेष मिलते हैं । पालतू पशुओं में भेड़, भैंस, सूअर, हिरन आदि हैं । हस्तिनापुर से घोड़े की हड्डियां मिली हैं जिससे सूचित होता है कि इस भारवाहक पशु से चित्रित धूसर संस्कृति के लोगों का परिचय था ।

भगवानपुरा, दधेरी आदि स्थलों में लोहा नहीं मिलता किन्तु बाद के स्थलों से लौह उपकरण बड़ी मात्रा में मिल जाते हैं । इनमें भाले, कील, फलक, कुल्हाड़ी, कुदाल, दराँती, चाकू, चिमटा आदि हैं । धातुमल से सूचित होता है कि लोहे की ढलाई का काम भी ज्ञात था ।

अतरंजीखेड़ा से मिले कुछ पात्र-खण्डों पर कपास से बने वस्त्रों की छाप मिलती है । भगवानपुरा से पक्की ईंटों के प्रयोग के प्रमाण हैं । इस प्रकार चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड संस्कृति अत्यन्त विकसित ग्रामीण जीवन का संकेत करती है जिसकी पृष्ठभूमि पर बुद्धकाल में द्वितीय नगरीकरण का उत्कर्ष हुआ ।

चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड के उत्खनित स्थलों में मात्र हस्तिनापुर के उत्खनन का विवरण ही सही ढंग से प्रकाशित किया गया है । अत: इस पात्र परम्परा का तिथिक्रम निर्धारित करने में इससे सहायता मिलती है । हस्तिनापुर का उत्खनन बी. बी. लाल ने करवाया था ।

यहाँ द्वितीय स्तर से ये मृद्‌भाण्ड मिलते हैं । पहले स्तर की संस्कृति गैरिक, तीसरे स्तर की उत्तरी काली चमकीली (एन. बी. पी.) तथा चौथे स्तर की उत्तर एन. बी. पी. संस्कृति है । उत्तरी काली चमकीली भाण्ड परम्परा की तिथि सामान्यतः ईसा पूर्व छठीं शताब्दी मानी जाती है ।

अत: चित्रित धूसर एवं उत्तरी काली चमकीली मृद्‌भाण्ड परम्पराओं में लगभग 200 वर्षों का अन्तर अनुमानित कर बी. बी. लाल पहली चित्रित धूसर संस्कृति की तिथि ईसा पूर्व 800 निर्धारित करते हैं । इस संस्कृति के स्तरों का जमाव औसतन 1.50 से 1.20 मीटर तक मिलता है ।

इसके लिये तीन सौ वर्षों के समय का अनुमान लगाकर लाल महोदय ने चित्रित धूसर संस्कृति के प्रारम्भ की तिथि ईसा पूर्व 1100 (800 + 300) निर्धारित किया है । हस्तिनापुर में इस संस्कृति का अन्त गंगा में भीषण बाढ़ के आ जाने के कारण हुआ ।

इस निष्कर्ष के समर्थन में पुराणों के उस कथन का सहारा लिया गया है जिसके अनुसार हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में बह जाने के बाद कुरुवंशी राजा निचक्षु ने उसे त्यागकर कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया । निचक्षु कौशाम्बी के शासक उदयन, जिसका समय ईसा पूर्व छठीं शताब्दी माना जाता है, के अठारह पीढियों पूर्व हुआ था ।

पार्टिटर महाभारत युद्ध की तिथि ईसा पूर्व 950 निर्धारित करते हैं । बी. बी. लाल उदयन से निचक्षु तक शासन करने वाले अठारह राजाओं में प्रत्येक का शासन काल औसतन अठारह वर्ष मानते हुए हस्तिनापुर की बाढ़ की तिथि ईसा पूर्व 800 के लगभग मानते हैं ।

इस प्रकार चित्रित धूसर पात्र परम्परा की तिथि ईसा पूर्व 1100-800 निर्धारित की जा सकती है । यही तिथि कौशाम्बी से प्राप्त चित्रित धूसर भाण्डों की भी है । यहाँ उत्तरी काली चमकीली परम्परा का प्रारम्भ ई. पू. 600 माना गया है । इसकी पूर्ववर्ती चित्रित धूसर परम्परा है ।

अतरंजीखेड़ा में उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा का प्रारम्भ काल ईसा पूर्व 600 माना गया है जिसके ठीक पहले की पात्र परम्परा चित्रित धूसर है । इसका जमाव दो मीटर के लगभग है तथा इसके पाँच स्तर दिखाई देते हैं । अत: इसका प्रारम्भ काल ईसा पूर्व 1100 माना गया है ।

हाल ही में भगवानपुरा (हरियाणा), दधेरी (जालंधर-पंजाब) तथा माण्डा (जम्मू क्षेत्र) में जगपति जोशी द्वारा उत्खनन करवाये जाने से चित्रित धूसर पात्र परम्परा के तिथिक्रम पर नया प्रकाश पड़ता है ।

यहाँ परवर्ती हड़प्पा तथा चित्रित धूसर संस्कृतियों के बीच अतिव्याप्ति के साक्ष्य मिलते हैं । दूसरे शब्दों में इससे सूचित होता है कि परवर्ती हड़प्पा संस्कृति की अवधि में ही चित्रित धूसर संस्कृति का उत्कर्ष हो गया था ।

अब या तो यह माना जाये कि हड़प्पा संस्कृति ईसा पूर्व 1100 (जो चित्रित धूसर के प्रारम्भ की तिथि मानी जाती है) तक बनी रही या फिर चित्रित धूसर परम्परा का प्रारम्भ ईसा पूर्व 1700 या 1500 (जिसे हड़प्पा संस्कृति के अन्त की तिथि माना गया है) में हो चुका था ।

भगवानपुरा के तीनों स्तरों में लोहे के उपयोग के साक्ष्य नहीं मिलते । इस आधार पर ऐसा समझा जाता है कि पहले इस संस्कृति के लोग लौह धातु से परिचित नहीं थे किन्तु बाद में परिचित हो गये ।

इस संदर्भ में कुछ पुरास्थलों से प्राप्त रेडियो कार्बन तिथियाँ भी उल्लेखनीय हैं । अतरंजीखेड़ा की तिथियाँ 1025, 710 तथा 535 ई. पू., नोह की 821 तथा 604 ई. पू. प्राप्त हुई हैं ।

भारत के बाहर यूनान, थिसली तथा शापटेप (ईरान) से इस पात्र परम्परा की प्राप्त रेडियो कार्बन तिथियाँ 2000 ई. पू. की मिलती हैं । इस विवेचन से स्पष्ट है कि चित्रित धूसर पात्र परम्परा की निश्चित तिथि निर्धारित करना कठिन है ।

एक बात जो स्पष्टतः दिखाई देती है वह यह है कि ये पात्र हड़प्पा संस्कृति के पतन तथा द्वितीय नगरीकरण (ईसा पूर्व छठीं शती) के प्रारम्भ के बीच की अवधि से ही संबंधित है । अत: इन्हें ईसा पूर्व 1500-600 के मध्य की अवधि में रखा जाना निरापद प्रतीत होता है ।

जहाँ तक चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड परम्परा के उद्भव का प्रश्न है, इस संबंध में भी कई मत प्रतिपादित किये गये हैं । बी. बी. लाल इसे आर्यों से संबद्ध करते हैं । उन्हें हषदवती घाटी से लेकर ऊपरी गंगाघाटी तक हड़प्पा संस्कृति के पश्चात् इसी संस्कृति के साक्ष्य मिले ।

इस समय तक विद्वानों को मात्र दो ही पात्र परम्पराओं के विषय में ज्ञान था:

1. हड़प्पा की पात्र परम्परा,

2. उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा ।

दूसरी और ईरान, यूनान तथा अफगानिस्तान के कुछ पुरास्थलों से इसी प्रकार के पात्र-खण्ड प्राप्त हुए । इस आधार पर डॉ. बी. बी. लाल ने भारतीय चित्रित धूसर पात्र परम्परा के निर्माताओं को विदेशी मानने का मत प्रस्तावित किया । किन्तु कालान्तर में मध्य देश के विविध पुरास्थलों से इस परम्परा के पात्रों को खोज निकाला गया जिससे इस पात्र परम्परा के देशी होने की संभावना प्रबल हुई ।

पुनश्च: भारतीय तथा विदेशी पात्रों में समानता भी नहीं दिखाई देती । यह स्पष्ट होता है कि चित्रित धूसर मृद्‌भाण्डों का प्रचलन प्रधानतः गंगा-सतलज नदियों के बीच के क्षेत्र में था जिसे प्राचीन साहित्य में मध्य देश कहा गया है । हस्तिनापुर, अहिच्छत्र, मथुरा, काम्पिल्य, पानीपत, इन्द्रप्रस्थ, कुरुक्षेत्र आदि महाभारतकालीन स्थलों के उत्खनन में निचले स्तर से ये पात्र मिलते हैं ।

हस्तिनापुर से घोड़े की हड्डियाँ चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड वाले स्तर से ही प्राप्त होती हैं । इस आधार पर भी इस पात्र परम्परा का आर्यों से संबंधित होने की बात की पुष्टि हो जाती है । कुछ विद्वान भाषा संबंधी साक्ष्यों के आधार पर यह प्रस्तावित करते हैं कि चित्रित धूसर परम्परा का संबंध उत्तर वैदिक आर्यों से था ।

उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थ ईसा पूर्व 1000-600 की अवधि में उत्तरी गंगा के मैदान में लिखे गये थे । इसी भाग से सर्वाधिक चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड स्थल प्राप्त हुए हैं । यहीं सर्वप्रथम बस्तियाँ बसी थीं । ऊपरी गंगाघाटी का क्षेत्र ही मध्य देश था जिसकी प्रशंसा यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद के साथ-साथ उपनिषद ग्रन्थों में भी की गयी है ।

यह भी दृष्टव्य है कि ऋग्वेदिक आर्यों को ऊपरी गंगाघाटी अथवा मध्य देश के विषय में बहुत कम ज्ञात था । यही कारण है कि इस भूभाग की प्रसिद्ध नदियों गंगा तथा यमुना का उल्लेख ऋग्वेद में क्रमशः एक तथा दो बार ही मिलता है । इसके विपरीत उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में इनका स्पष्ट एवं व्यापक उल्लेख प्राप्त होता है ।

इस प्रकार चित्रित धूसर पात्र परम्परा उत्तर वैदिक काल की प्रतीत होती है । पंजाब, हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रारम्भ हड़प्पा सभ्यता के तत्काल बाद हो गया जबकि शेष भागों में यह बाद में प्रचलित हुई । हड़प्पा सभ्यता के साथ इसका संबंध निर्धारित करने के लिये अभी और प्रमाण अपेक्षित हैं ।

III. कृष्ण लोहित मृद्‌भाण्ड (Black and Red Ware):

ये प्रागैतिहासिक काल के प्रमुख मृद्‌भाण्ड हैं । ऐसे मृद्‌भाण्डों का भीतरी तथा बाहर की बारी (Rim) के चारों ओर भाग काला तथा शेष बाहरी भाग ईंट के रंग का लाल मिलता है । आकार-प्रकार एवं अलंकरण चित्रण की दृष्टि से ये भाण्ड अन्य भाण्डों से भिन्नता रखते हैं ।

इनके सम्पूर्ण भीतरी भाग को काला देखकर पहले कई पुराविदों का विचार था कि इन्हें औंधे मुँह पकाया गया होगा जिसके परिणामस्वरूप पर्याप्त आक्सीजन न मिलने के कारण भीतर का भाग काला पड़ गया होगा ।

किन्तु खुरचे जाने पर सतह की रसायनिक जाँच से पता चलता है कि काला रंग जो केवल सतह पर न होकर मोटाई के आधे भाग तक फैला हुआ है, कार्बन का परिणाम है । ऐसा लगता है कि पहले इन बर्तनों को धूप में सुखाया जाता था ।

तत्पश्चात् इन पर कोई कार्बनिक राल तेल अथवा इसी प्रकार का कोई तरल पदार्थ पोत दिया जाता था । पकाये जाने पर ऊपरी भाग तथा मोटाई पर लगी लेप जल गयी तथा केवल कार्बन ही बच गया जिससे बर्तन का रंग काला पड़ गया । कुछ लोगों का मानना है कि इसके लिये इन्हें दो बार पकाया गया होगा ।

काले-लाल मृद्‌भाण्ड मध्यम से लेकर छोटी कोटि के ही हैं । इनमें कहीं भी बड़े अथवा भण्डारण पात्र नहीं मिलते । ये मेज पर सजाकर खाना रखने वाले बरतन-भांडे जान पड़ते हैं । अत: इन्हें विशेष प्रकार से तैयार किया गया होगा ।

इन पर सफेद रंग में बहुत कम चित्रकारी की गयी है । इनके निर्माण विधि को इजिप्शियन तकनीक कहा जाता है । ये नदियों द्वारा बहाकर लाई गयी चूने तथा रेत युक्त मिट्टी से बने हैं । कभी-कभी काचली मिट्टी से भी ये तैयार किये जाते थे । काले लाल मृद्‌भाण्डों का विस्तार समूह भारत में मिलता है ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

(1) सौराष्ट्र क्षेत्र में रंगपुर, लोथल आदि हड़प्पा स्थलों से ये भाण्ड प्राप्त होते हैं । इनमें कटोरे तथा सामान्य प्रकार की थालियाँ हैं । इन्हें उत्तरकालीन हड़प्पा संस्कृति से संबंधित किया जाता है ।

(2) पंजाब तथा हरियाणा के पुरास्थलों से ये भाण्ड चित्रित धूसर भाण्डों के साथ मिलते हैं ।

(3) नोह तथा अतरंजीखेड़ा में ये भाण्ड चित्रित धूसर भाण्डों के साथ तथा गैरिक मृद्‌भाण्डों के ऊपरी एवं चित्रित धूसर भाण्डों के निचले स्तर से प्राप्त हुए हैं ।

(4) उज्जैन, नवदाटोली, माहेश्वर आदि मालवा क्षेत्र के पुरास्थलों से ये भाण्ड उत्तरी काले चमकीले पात्रों के पूर्व एवं उनके साथ मिलते हैं । इनमें कटोरे एवं प्याले प्रमुख हैं । इन पर सफेद रंग में चित्रकारी की गयी है । कुछ पर हिरण एवं नृत्य करती हुई मानव आकृतियां है ।

(5) दक्षिण भारत, बिहार तथा उत्तर प्रदेश के विभिन्न पुरास्थलों पर काले लाल मृद्‌भाण्ड वृहत्पाषाणिक समाधियों में पाये गये हैं ।

इस वितरण को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि काले लाल मृद्‌भाण्डों को किसी संस्कृति विशेष से संबंधित नहीं किया जा सकता है । कुछ विद्वानों का विचार है कि इन्हीं पात्रों को अथर्ववेद में ‘नील-लोहित’ कहा गया है । अमलानन्द घोष का विचार है कि इससे तात्पर्य काले और लाल मृद्‌भाण्डों से ही है ।

कुछ पुरास्थलों पर इस मृद्‌भाण्ड के साथ लौह उपकरण भी मिलते हैं । ऐसा लगता है कि जो लोग एन. बी. पी. मृद्‌भाण्डों के पूर्व काले-लाल भाण्डों का प्रयोग करते थे, उनकी संस्कृति ताम्रपाषाणिक थी । इसी से बाद में लौह संस्कृति का उदय हुआ ।

काले-लाल भाण्डों के प्रयोगकर्त्ताओं के पास लघु पाषाण एवं पाषाण उपकरण थे जिससे वे सीमित मात्रा में ही कृषि कर सकते थे । खोदने के लिये वे लकड़ी के उपकरणों तथा कुदालों का प्रयोग करते थे । लेकिन वे धान पैदा करते थे ।

काले-लाल मृद्‌भाण्ड संस्कृति में ताम्र उपकरणों की प्रधानता न होकर लघु पाषाणोपकरणों की ही प्रधानता दिखाई देती है । ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा के करीब पचास-साठ मील दक्षिण में छोटा नागपुर पठार के आसपास उनका निवास था जहाँ लघुपाषाणोपकरणों का स्रोत था । यहीं से ने नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में गये होंगे ।

उत्तर पूर्व भारत में भी जीविकोपार्जन के लिये उन्होंने मुख्यतः लघु एवं नव पाषाणोपकरणों का ही प्रयोग किया । इलाहाबाद के पास विन्ध्य के पठार की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में भी मुख्यतः लघुपाषाणोपकरण ही मिले हैं । इस संस्कृति के लोग नील गाय, सूअर, हिरण आदि पालते थे ।

मछली तथा चावल उनके मुख्य खाद्यान्न थे । उत्तर भारत के अनेक स्थलों से लोहा, काले-लाल भाण्डों से संबद्ध पाया गया है किन्तु सभी जगह तिथियाँ प्राचीन नहीं मिलतीं ।

जहाँ तक काले और लाल मृद्‌भाण्ड परम्परा की तिथि का प्रश्न है, विभिन्न स्थलों के लिये भिन्न-भिन्न तिथियाँ स्वीकार करनी पड़ेगी । लोथल तथा रंगपुर जैसे परवर्ती हड़प्पा सभ्यता के भाण्डों की तिथि ईसा पूर्व 2000 से 1500 के बीच है ।

मध्यभारत के मालवा क्षेत्र के मृद्‌भाण्ड ईसा पूर्व 1500-500 के बीच तथा दक्षिण भारत की वृहत्पाषाणिक समाधियों से प्राप्त भाण्डों की तिथि ईसा पूर्व 1000-100 के बीच निर्धारित की जा सकती है ।

डी. पी. अग्रवाल इनको कालानुक्रम ईसा पूर्व 2200-600 की विस्तृत अवधि में रखने के पक्ष में है । कुछ विद्वानों का विचार है कि इन भाण्डों के निर्माता आर्यों की ही एक शाखा थे जो वैदिक आर्यों के पूर्व ही यहाँ पहुँच गये थे ।

आर. एस. शर्मा का विचार है कि पंचविंश ब्राह्मण में पूर्वी भारत के जिन ‘व्रात्यों’ का उल्लेख मिलता है वे काले-लाल मृद्‌भाण्ड से संबंधित थे । बताया गया है कि वे न तो व्यापार करते थे, न हल चलाते थे ।

अथर्ववेद तथा पंचविंश, दोनों में मागधों को व्रात्य कहकर उनकी निन्दा की गयी है । यह इस क्षेत्र में लौह पूर्व काल की स्थिति थी । किन्तु इस संबंध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते हैं ।

IV. उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्‌भाण्ड (Northern Black Polished Ware, NBP):

ये ईसा पूर्व छठीं शताब्दी अथवा बुद्ध काल के विशिष्ट मृद्‌भाण्ड हैं जिन्हें सामान्यतः उत्तरी कृष्ण मार्जित अथवा काली पॉलिश के वर्तन कहा जाता है । इन मृद्‌भाण्डों से द्वितीय नगरीकरण के प्रारम्भ की सूचना मिलती है । संक्षेप में इन्हें एन. बी. पी. मृद्‌भाण्ड कहा जाता है ।

निर्माण तकनीक:

एन. बी. पी. प्राविधिक दृष्टि से तत्कालीन भारत के सर्वोत्कृष्ट भाण्ड थे । इन्हें अच्छी तरह तैयार एवं गूंथी हुई मिट्टी से ऊँचे तापक्रम वाले आँवों में पकाकर निर्मित किया जाता था । उन पर अत्यधिक चमकीली पॉलिश थी ।

यह अधिकांशतः काँच के समान झलकती थी तथा बिल्कुल काले रंग से लेकर गहरी भूरी अथवा धातु जैसी फौलादी नीली होती थी जिससे मृद्‌भाण्डों में विशेष प्रकार की भव्यता तथा चमक आ जाती थी ।

अपनी उत्कृष्ट बनावट तथा अच्छी गढ़ने के कारण ये धातु के भाण्डों के समान सुन्दर लगते थे । स्पष्टतः ये समृद्धि सूचक बर्तन थे जिनका प्रयोग सामान्यजन नहीं करता था, अपितु ये धनाढ्‌य और कुलीन वर्गों द्वारा ही, जो प्रायः शहरों में निवास करते थे, अनुष्ठानों अथवा खान-पान में प्रयोग में लाये जाते थे ।

इनका व्यापार भी किया जाता था । अन्य बर्तनों की तुलना में ये बर्तन अधिक महँगे होते थे क्योंकि कुछ पुरास्थलों से प्राप्त इनके ठीकरे तांबे की पिनों से जुड़े हुए हैं । इससे सूचित होता है कि इस पात्र परम्परा के टूटे हुए बर्तन का भी मूल्य होता था ।

एन. बी. पी. भाण्ड परम्परा के प्रमुख बर्तन हैं- थालियाँ, कटोरे, छोटे प्याले, ढक्कन, हांडियाँ, छोटे कलश आदि । इन्हें तेज गति से घूमने वाले चाक पर संभवतः बनाया जाता था जिससे इनका आकार अत्यन्त पतला तथा हल्का दिखाई देता है ।

कभी-कभी इन बर्तनों पर पट्टियाँ, अर्धवृत्त, लाल-भूरी चित्तियों आदि के अलंकरण भी मिलते हैं । इनकी पॉलिश के विषय में विद्वानों में मतभेद है । सनाउल्ला का मत है कि इन बर्तनों के काले लेप में 13% लौह युक्त ऑक्साइड मिला होने के कारण इनका रंग काला हो गया है ।

बी. बी. लाल का विचार है कि बर्तन बनाते समय उसकी सतह पर एक विशेष प्रकार का मिट्टी का घोल लगा दिया गया है । एच. सी. भारद्वाज के अनुसार बर्तनों के काले रंग तथा चमक का कारण कार्बन तथा मैगनेटिक फेरस सिलिकेट का परिणाम है ।

हेगडे का मानना है कि मैगनेटिक आक्साइड की पतली परत के कारण बर्तन काले-चमकीले हो गये हैं । कहीं-कहीं इन बर्तनों का रंग काले के अतिरिक्त गुलाबी, नीला, चॉकलेटी, रुपहला आदि भी मिलता है । इस प्रकार एन. बी. पी. भाण्डों के रंग तथा चमक एक रहस्य बनी हुई है ।

प्रसार:

एन. बी. पी. मध्य गंगाघाटी की प्रमुख पात्र परम्परा है । इलाहाबाद तथा भागलपुर के बीच गंगा के दोनों ओर कछारी मैदान में 450 एन. बी. पी. स्थलों की खोज की गयी है । रोपड़ तथा अहिच्छत्र समेत उच्च गंगा घाटी के अनेक स्थलों से ईसा पूर्व 300 के पूर्व के एन. बी. पी. पात्र मिलते हैं ।

मालवा क्षेत्र में उज्जैन तथा बेसनगर से भी इनकी प्राप्ति हुई है। किन्तु सर्वाधिक स्थल मध्य गंगा क्षेत्र में स्थित हैं जो प्राक्‌मौर्यकाल में नगरीकरण के उत्कर्ष का केन्द बिन्दु था । यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि इन बर्तनों का निर्माण कहाँ होता है ।

आधुनिक पुरातत्ववेत्ता यह मानते हैं कि मध्य गंगाघाटी का प्रदेश ही इसके निर्माण का मुख्य स्थल था । इस क्षेत्र में कौशाम्बी तथा पटना के समीपवर्ती भाग से ये बर्तन बहुतायत में मिले हैं । ह्वीलर तथा कृष्णदेव जैसे पुराविद् यह बताते हैं कि मध्यक्षेत्र से ही ये बर्तन व्यापारियों अथवा तीर्थयात्रियों द्वारा पूर्वी राजस्थान पश्चिमी, मध्य तथा पूर्वी भारत में ले जाये गये थे ।

इनके निर्यात के लिये कौशाम्बी का क्षेत्र सबसे उपयुक्त स्थल था । भारत, पाकिस्तान, बंगला देश तथा अफगानिस्तान के एक बड़े भूभाग में इन बर्तनों का प्रसार पाया जाता है । अफगानिस्तान के बेग्राम, पाकिस्तान के तक्षशिला, चारसद्दा, उदग्राम, नेपाल की तराई में तिलौराकोट आदि स्थलों से ये बर्तन मिलते हैं ।

भारतीय भूभाग में गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, उडीसा, आन्ध्र प्रदेश आदि से इस पात्र परम्परा के बर्तन अथवा ठीकरे प्राप्त किये गये हैं । इस प्रकार इसका प्रसार एक व्यापक क्षेत्र में दिखाई देता है ।

उत्पत्ति:

एन. बी. पी. पात्र परम्परा के निर्माताओं के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । इसकी चमक तथा पॉलिश को देखकर पहले कुछ विद्वानों ने यह विचार व्यक्त किया कि यूनान के ‘काले काचित मृद्‌भाण्ड’ के प्रभाव से भारत की एन. बी. पी. परम्परा का जन्म हुआ ।

मार्शल ने उक्त यूनानी पात्रों को तक्षशिला की खुदाई के दौरान प्राप्त करने का दावा किया है । तक्षशिला के भीर टीले से एन. बी. पी. पात्रों के ठीकरे मिलते हैं जिनकी तिथि ईसा पूर्व 300 के लगभग है । हाल ही में भीर टीले की खुदाई में ऊपरी स्तर से सिकन्दर का एक सिक्का मिलता है जबकि एन. बी. पी. पात्र के ठीकरे निचले स्तर से मिले हैं ।

इससे सूचित होता है कि सिकन्दर के आक्रमण के पहले से ही इस क्षेत्र में एन. बी. पी. पात्रों का निर्माण एवं प्रचलन प्रारम्भ हो चुका था । सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि एन. बी. पी. पात्र तक्षशिला में बाद के स्तर से उतने बहुतायत में नहीं मिलते जितने कि गंगाघाटी के स्थलों में मिलते हैं ।

पुनश्च यूनानी मृद्‌भाण्ड की तिथि ईसा पूर्व 500-300 निर्धारित की गयी है जबकि एन. बी. पी. मृद्‌भाण्ड परम्परा का प्रारम्भ गंगाघाटी में ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में हो गया था । इन प्रमाणों के आलोक में हम एन. बी. पी. पात्र परम्परा को यूनानी काचित पात्र परम्परा से उद्भूत नहीं मान सकते हैं ।

यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि एन. बी. पी. मृद्‌भाण्ड गंगाघाटी में बहुतायत में मिलते हैं । अत: इसी क्षेत्र को इसका उत्पत्ति स्थल माना जा सकता है । इसके पूर्व चित्रित धूसर मृद्‌भाण्डों के साथ काले पुते मृद्‌भाण्ड मिलते हैं ।

हस्तिनापुर के उत्खाता बी. बी. लाल का विचार है कि इन्हीं भाण्डों से बाद में चलकर एन. बी. पी. भाण्डों की उत्पत्ति हुई । भारतीय कुम्हारों ने भाण्ड बनाने में दक्षता प्राप्त कर ली तथा उन्हीं के द्वारा अत्यन्त सुन्दर एवं ओपदार भाण्डों का निर्माण किया गया ।

यह भी ध्यातव्य है कि मध्य गंगाघाटी तथा उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र के विभिन्न स्थलों की खुदाई में काले पुते भाण्ड एन. बी. पी. भाण्डों के पहले के स्तरों से मिलते हैं जिससे इस संभावना को बल मिलता है कि ये एन. बी. पी. मृद्‌भाण्डों के जनक थे । अत: एन. बी. पी. पात्र परम्परा को विदेशी सिद्ध करने का कोई आधार नहीं है । यह विशुद्ध भारतीय परम्परा है ।

तिथिक्रम:

एन. बी. पी. मृद्‌भाण्डों का तिथिक्रम निर्धारित करने के लिये तक्षशिला, हस्तिनापुर, कौशाम्बी तथा श्रावस्ती की खुदाइयों को आधार बनाया जा सकता है । तक्षशिला के भीर टीले के खुदाई में एन. बी. पी. मृद्‌भाण्डों के 22 ठीकरे मिले हैं । इनमें सत्रह ठीकरे उस स्तर के नीचे से मिले हैं जिससे सिकन्दर के सिक्के मिलते हैं ।

इस निचले स्तर का निक्षेप 2.20 से 2.50 मीटर तक था जिसके लिये दो सौ से तीन सौ वर्षों के लगभग तक की अवधि अनुमानित की जाती है । चूंकि सिकन्दर का भारत पर आक्रमण ईसा पूर्व 326 में हुआ था, अत: इस प्रमाण के आधार पर एन. बी. पी. पात्र परम्परा की तिथि तक्षशिला में ईसा पूर्व पाँचवीं शती मानी जा सकती है ।

तक्षशिला के दूसरे टीले सिरकप से इस मृद्‌भाण्ड के दो टुकड़े मिले हैं । ये ऊपरी स्तर से 18 फीट नीचे से मिलते हैं जहाँ बस्ती ईसा पूर्व दूसरी शती में बसी थी । इस आधार पर ह्वीलर का अनुमान है कि एन. बी. पी. भाण्डों का समय पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में ईसा पूर्व पांचवीं से दूसरी शती तक माना जा सकता है ।

चारसद्दा, उदय ग्राम तथा तक्षशिला में इन भाण्डों का प्रवेश मौर्य साम्राज्य के विस्तार के साथ हुआ था । किन्तु बी. बी. लाल इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं ।

एन. बी. पी. मृद्‌भाण्ड परम्परा की तिथि निर्धारित करने के लिये गंगाघाटी के स्थलों की खुदाई से प्राप्त साक्ष्य काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये मृद्‌भाण्ड अधिकांशतः इसी क्षेत्र से मिलते हैं ।

इनमें हम हस्तिनापुर तथा कौशाम्बी के पुरास्थलों से प्राप्त सामग्रियों का विशेष रूप से उल्लेख कर सकते हैं । हस्तिनापुर (मेरठ जिले की मवाना तहसील में स्थित) का उत्खनन बी. बी. लाल द्वारा करवाया गया था । उन्होंने यहाँ के सांस्कृतिक स्तरों को पाँच भागों में विभाजित किया है ।

तीसरे सांस्कृतिक स्तर से एन. बी. पी. भाण्ड मिलते हैं । इसके पूर्व के प्रथम तथा द्वितीय स्तरों से क्रमशः गैरिक एवं चित्रित धूसर भाण्ड प्रकाश में आये हैं । चौथे स्तर शुंग-कुषाण काल से संबंधित है जहाँ से मथुरा के दत्तनामधारी राजाओं एवं यौधेयों के सिक्के (कुषाण सिक्कों की अनुकृति पर ढले हुए) मिले हैं ।

इनके आधार पर इस सांस्कृतिक स्तर की तिथि ईसा पूर्व दूसरी शती से तीसरी शती ईस्वी तक निर्धारित की गयी है । तीसरे तथा चौथे स्तरों के बीच एक सौ वर्षों का व्यवधान माना गया है जिससे सूचित होता है कि तीसरा स्तर ईसा पूर्व तृतीय शती तक चलता रहा ।

इसका अन्त एक अग्निकाण्ड में हुआ जैसा कि तीसरे और चौथे स्तरों के बीच मिली राख की मोटी परत से सूचित होता है । तीसरे स्तर के मोटे निक्षेप (लगभग 2.70 मीटर) के आधार पर डॉ. बी. बी. लाल ने इसे छ: उपकालों में बांटा है तथा प्रत्येक के लिये पचास वर्ष का समय अनुमानित करते हुए सम्पूर्ण स्तर का काल तीन सौ वर्षों का प्रस्तावित किया है ।

इससे निष्कर्ष निकलता है कि हस्तिनापुर में एन. बी. पी. भाण्ड परम्परा ईसा पूर्व छठीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर तीसरी शताब्दी तक विद्यमान रही । कौशाम्बी (मंझनपुर तहसील, इलाहाबाद) की में पचीस निर्माण कालों के साक्ष्य मिले हैं । इन कालों को पहले चार किन्तु अब पाँच सांस्कृतिक स्तरों में बांटा गया ।

तीसरा सांस्कृतिक स्तर, जिसे अब चौथा स्तर कहा जाता है, एन. बी. पी. पात्र परम्परा से संबंधित है । प्रत्येक निर्माण काल की अवधि सत्तर वर्ष मानी गयी है । चौथे काल से हूण नरेश तोरमण (510-515 ई.) की दो मुहरें मिलती है । प्रथम के ऊपर तोरमाण तथा द्वितीय पर हूणराज उत्कीर्ण मिलता है । इसे आधार मानकर कौशाम्बी के उत्खननकर्त्ता जी. आर. शर्मा ने प्रस्तावित किया था कि चौथे (सम्प्रति पाँचवें) सांस्कृतिक स्तर का अन्त हूण नरेश के आक्रमणों के फलस्वरूप 583 ई. (515 + 70) में हुआ ।

कौशाम्बी का तीसरा (वर्तमान में चौथा) सांस्कृतिक स्तर एन. बी. पी. मृद्‌भाण्ड परम्परा से संबंध रखता है । अशोक स्तम्भ वाले इस क्षेत्र से इस भाण्ड परम्परा के आठ आवासीय स्तर उद्घाटित किये गये हैं । कौशाम्बी के सांस्कृतिक स्तरों में कोई रिक्तता नहीं मिलती । इस प्रकार यहाँ के एन. बी. पी. भाण्ड स्तर का काल ई. पू. 605-45 की कालावधि में निश्चित किया गया है ।

श्रावस्ती (बहराइच, उ. प्र.) के टीले की खुदाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष के. के. सिन्हा के निर्देशन में करवायी गयी थी । उन्होंने यहाँ से प्राप्त एन. बी. पी. मृद्‌भाण्डों का प्रारम्भिक काल ई. पू. 500-300 के बीच निर्धारित किया है ।

इस प्रकार विभिन्न स्रोतों से जो संकेत मिलते हैं उनके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि एन. बी. पी. भाण्ड परम्परा ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के आसपास देश के विभिन्न भागों में प्रारम्भ हो चुकी थी । रेडियो कार्बन तिथियाँ भी इसी का समर्थन करती है ।

पुरातत्ववेत्ता ईसा पूर्व की छठीं से चौथी शताब्दियों को एन. बी. पी. की प्रचुरता के युग के रूप में पहचानते हैं । इसी अवस्था में धातु मुद्रा का प्रचलन हुआ तथा कालान्तर में पक्की ईंटों तथा कुओं (ईसा पूर्व तीसरी शती) का प्रचलन हुआ ।

मौर्य काल की यह विशिष्ट पात्र परम्परा बन गयी । राजगीर की खुदाई में सम्पूर्ण मौर्यकालीन स्तरों से ये भाण्ड बहुतायत में मिलते हैं । ईसा की एक अथवा दो शती पूर्व इन भाण्डों का प्रचलन या तो बन्द हो गया या अत्यन्त सीमित हो गया ।

भौतिक संस्कृति:

एन. बी. पी. पात्र परम्परा से गंगाघाटी में ईसा पूर्व छठी शताब्दी अथवा बुद्ध काल में नगरीकरण का प्रारम्भ हुआ । उत्पादन अधिशेष, लौह तकनीक का विकास, शिल्प उद्योगों एवं व्यापार-वाणिज्य की प्राप्ति, धातु मुद्रा का प्रचलन, लिपि का प्रयोग आदि इसकी प्रमुख विशेषतायें थीं ।

कृषि तथा युद्ध दोनों में लौह उपकरणों एवं अस्त्र-शस्त्रों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाने लगा । लौह अयस्क को पिघलाने एवं पीटकर उपकरण बनाने में निपुणता प्राप्त कर ली गयी ।

लौह निर्मित फालों की सहायता से कड़ी से कड़ी भूमि को तोड़कर अत्यन्त गहरी जुताई होने लगी तथा फावड़ा, कुदाल आदि की सहायता से जंगली पेड़ों को काटकर तथा उनकी जड़ों (खुत्थ) को उखाड़कर अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बना लिया गया ।

उत्पादन अतिरेक से गैर-कृषकों का पोषण हुआ तथा प्रमुख नगर बाजार के रूप में विकसित हो गये । नगरों में शिल्पी, व्यवसायी, कारीगर, व्यापारी आदि बड़ी संख्या में केन्द्रित हो गये । शासकों तथा धार्मिक नेताओं द्वारा नगरीकरण को प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान किये जाने से इसकी प्रक्रिया अत्यन्त तीव्र हो गयी ।

मौर्यकाल तक आते-आते भवनों के निर्माण में पक्की ईंटों तथा पत्थरों का प्रयोग किया जाने लगा । नगरों के चारों ओर सुरक्षा भित्ति एवं परिखा बनाये जाने के प्रमाण कौशाम्बी, अहिच्छत्र, राजगृह आदि की खुदाइयों से मिलते हैं ।

राजमार्गों के भी अवशेष मिले हैं । पक्के कुंओं का भी निर्माण होने लगा । लोहे के साथ-साथ अन्य धातुओं की जानकारी बढ़ी तथा उनकी सहायता से आभूषण, उपकरण, बर्तन आदि बड़ी मात्रा में बनाये जाने लगे । ताँबे तथा चाँदी की पत्तरों को काट कर सिक्के तैयार किये जाते थे ।

एन. बी. पी. पुरास्थलों से ये बड़ी संख्या में पाये जाते हैं । इन पर व्यापारियों एवं व्यवसायियों के चिह्न ठप्पा द्वारा लगाये जाते थे । वस्तु विनिमय का युग समाप्त हुआ तथा नियमित सिक्कों के प्रचलन से व्यापार-वाणिज्य में सुगमता हो गयी ।

एन. बी. पी. संस्कृति के लोगों की कलात्मक अभिरुचि काफी बड़ी हुई थी । मृद्‌भाण्डों के साथ-साथ मृण्मूर्तियों के निर्माण में भी काफी प्रगति एवं निपुणता प्राप्त कर ली गयी ।

विभिन्न स्थलों से मिट्टी तथा पत्थर की बनी बहुसंख्यक नारी मूर्तियाँ तथा पशु-पक्षियों आदि की मूर्तियों मिलती हैं । राजगृह से प्राप्त प्राचीर अवशेष से सूचित होता है कि उसका निर्माण बड़े तथा बेडौल पत्थरों को बिना चूने के जोड़कर किया गया था ।

पिपरहवा बौद्ध स्तूप की धातुगर्भ मंजूषा में संरक्षित स्वर्ण, रजत, प्रवाल एवं स्फटिक मणियों के आभूषण एवं बहुमूल्य पत्थर इस युग के स्वर्णकारों एवं जौहरियों की उच्चस्तरीय कलात्मक निपुणता के परिचायक हैं । बड़ी संख्या में अस्थियों के उपकरण भी मिलते हैं ।

इस प्रकार एन. बी. पी. मृद्‌भाण्ड परम्परा से संबद्ध लोगों की भौतिक संस्कृति अत्यन्त विकसित थी । राजनीतिक शक्ति एवं वाणिज्यिक प्रगति ने मिलकर भौतिक जीन्वन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया तथा कबाइली आधार पर गठित वर्णव्यवस्था का रूपान्तरण हो गया ।

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