देवी सीता पर निबंध | Essay on Goddess Sita in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. उनका आदर्श जीवन चरित्र ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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भारतीय संस्कृति में नारियों को अत्यधिक सम्मान दिया गया है । नारी शक्ति को दैवीय तथा अलौकिक रूप प्रदान करते हुए उसे इतना पूजनीय माना गया है कि हमारे हिन्दू-धर्म के शास्त्रों और पुराणों में नारी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा गया है- ”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता ।”

दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती आदि नारियां आदर्श प्रेरणास्त्रोत रही हैं । ऐसी ही आदर्श नारी, जो मानवीय और दैवीय दोनों ही रूपों में अत्यन्त ही पूजनीय है, वह है मर्यादा पुराषोत्तम श्रीरामजी की प्राणप्रिया, अर्द्धांगिनी सीताजी ।

2. उनका आदर्श जीवन चरित्र:

देवी सीता का जन्म भूमि के गर्भ से हुआ था । अत: उनकी जननी माता पृथ्वी कही जाती हैं । मिथिला के राजा जनक को सीताजी खेत में हल चलाये जाने के दौरान वरदान स्वरूप प्राप्त हुई थीं । उस समय एक स्वर्ण पेटी  में प्राप्त सीताजी अलौकिक तथा तेजस्वी स्वरुप में साक्षात देवी हो लग रही थीं । जनक ने उन्हें अपनी पालिता-पुत्री मान लिया था ।

बाल्यावस्था से सीताजी विलक्षण गुणों वाली, बुद्धिमान्, साहसी तथा अलौकिक गुण सम्पन्न थीं । वह इतनी तेजस्वी थीं कि भगवान् शिव के धनुष को न केवल उठा लेती थीं, वरन् उस पर प्रत्यंचा भी चढ़ा लेती      थीं । विवाह योग्य होने पर राजा जनक ने स्वयंवर का आयोजन किया था और यह शर्त रखी थी कि जो शिव-धनुष तोड़ लेगा, सीताजी उसी के गले में वरमाला डालेंगी ।

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इस स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए देश-विदेश तथा अनेक द्वीपों से शूरवीर और पराक्रमी राजा-महाराजा, राजकुमार आये थे । अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामजी भी अपने गुरू विश्वामित्र तथा अनुज लक्ष्मण के साथ पधारे थे । मिथिला नगरी में प्रातःकाल पुष्पवाटिका में श्रीराम और सीताजी एक-दूसरे का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके थे ।

स्वयंवर के आयोजन स्थल पर विशाल शिव-धनुष रखा हुआ था । एक के बाद एक शूरवीर आते और शिव-धनुष को उठाने की चेष्टा करते । अनेक राजा-महाराजाओं का प्रयास निष्फल रहा, तो राजा जनक आशंकित हो उठे कि कहीं उनकी कन्या अविवाहित न रह जाये ।

जब रामजी की बारी आयी, तो उन्होंने शिव-धनुष को उठाकर तोड़ दिया और स्वयंवर की शर्त जीत ली । शिव-धनुष तोड़े जाने पर परशुरामजी के कोप का उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से सामना किया । राम से विवाह होने पर सीताजी अयोध्या नगरी के राजमहल आ पहुंचीं । कुछ ही दिन सुख-सम्पन्नता और शान्ति के साथ बीते थे कि माता कैकेयी ने रामजी के राज्याभिषेक के समय विघ्न डालते हुए अपने दो वर मांग लिये, जिसमें पहला-राम को 14 वर्ष का वनवास मिले तथा दूसरा-भरत को राजगद्दी मिले ।

वचनबद्ध दशरथ को यह वर देने के बाद पुत्रशोक का ऐसा आघात पहुंचा कि उनके प्राणों ने उनका साथ छोड़ दिया । पिता द्वारा विमाता कैकेयी को दिये गये वचन का पालन करने के लिए रामजी ने राजसिंहासन छोड़कर 14 वर्ष का वनवास स्वीकार किया । सीताजी भी उनके साथ वन की ओर सारे सुखों का त्याग कर चली गयीं ।

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वन में तपस्विनी-सा जीवन-जीती सीताजी राम-लक्ष्मण की अनुपस्थिति में दीन-दुखी वनवासियों की सेवा में लगी रहती थीं । पंचवटी में शूपर्णखा के असंयमित आचरण से रुष्ट होकर लक्ष्मणजी ने शूपर्णखा के नाक-कान काट दिये थे । अपनी बहिन शूपर्णखा के इस अपमान से दुःखित होकर रावण ने अपने मामा मारीच को स्वर्ण मृग बनाकर वन भेजा ।

स्वर्ण मृग को देखकर सीताजी ने अपने पति राम से उसे लाने का हठ किया । बहुत देर तक पति के न लौटने से व्याकुल सीताजी ने अपने देवर लक्ष्मण को बलपूर्वक भेजा । सीताजी की सुरक्षा का विचार कर लक्ष्मणजी ने एक रेखा खींचकर उसके भीतर ही सीताजी को रहने हेतु सचेत किया था ।

प्रतिशोध की भावना से भरे हुए शूपर्णखा के भ्राता लंकापति रावण एक ब्राह्मण साधु का भेष धारण कर पंचवटी के द्वार पर ”भिक्षामदेहि” की याचना करते हुए खडे थे । उस ब्राह्मण वेशधारी रावण ने लक्ष्मण रेखा से बाहर आकर भिक्षा देने पर ही ग्रहण करने का हठ किया । भोली सीताजी उसके कपट को न समझकर रेखा लांघ गयीं ।

बस फिर क्या था, रावण सीताजी को आकाश मार्ग से बलपूर्वक हरण कर लंका लिये जा रहा था । मार्ग में पक्षी जटायु ने सीताजी की करूण पुकार सुनकर रावण से संघर्ष करते हुए अपने प्राण त्याग दिये । सीताजी रास्ते की पहचान के लिए अपने आभूषण एक-एक करके मार्ग पर डालती गयीं । लौटने पर राम और लक्ष्मण ने सीताजी के हरण का सारा वृतान्त जान लिया ।

वे सीताजी द्वारा मार्ग में छोड़े गये आभूषणों के माध्यम से सीताजी का पता लगाने में सफल रहे । उन्होंने अपने परमभक्त हनुमानजी को सीताजी के पास अपनी अंगूठी देकर लंका नगरी भेजा । वहां पर अशोक वाटिका में पतिव्रता सीताजी अपने प्रिय राम को पुकारती करुण विलाप कर रही थीं ।

त्रिजटा तथा अन्य राक्षसियां पहरा देती हुई लंकापति से विवाह करने हेतु सीताजी को मना रही थीं; क्योंकि सीताजी के तेज के समक्ष रावण का खड़े होना भी कठिन था । हनुमानजी ने एकान्त पाकर रामजी की मुद्रिका सीताजी के समक्ष फेंकी । सीताजी अपने पति राम का स्मरण कर शोकाकुल हो उठीं ।

हनुमानजी सीताजी को बन्धनमुक्त कराने का आश्वासन देकर वहां से रामजी तथा उनकी वानर सेना में जा पहुंचे । पराक्रमी राम तथा उनकी वानर सेना ने विभीषण के सहयोग से लंकापति रावण का वध करके विभीषण को लंका का राजा बना दिया । मुक्त होकर सीताजी अयोध्या लौटी थीं ।

राम-लक्ष्मण व सीताजी का 14 वर्षों का वनवास पूर्ण कर विजयश्री प्राप्त कर लौटने पर अयोध्यावासियों ने घी के दीये जलाकर स्वागत किया । राजसिंहासन पर रामजी के बैठने पर प्रजा अत्यन्त प्रसन्न थी, किन्तु रावण के यहां सीता के कुछ दिनों तक रहने की बात पर उन्हें राजरानी मानने से इनकार करते हुए कुछ दुष्टों ने उनकी पवित्रता पर भी सन्देह किया ।

जनगत और लोकनिन्दा का विचार कर रामजी ने गर्भवती सीताजी को निर्वासित कर वन भेज दिया । वहां ऋषि वाल्मिकि के आश्रम में सीताजी ने लव-कुश को जन्म दिया । अश्वमेध यज्ञ के समय राजकुमार लव-कुश ने रामजी के घोड़े को बांध लिया । फलत: रामजी और उन दोनों बालकों का युद्ध हुआ । श्रीराम ने उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकारा ।

रामजी ने प्रजाजनों के समक्ष सीताजी की अग्निपरीक्षा ली, जिसमें सीताजी ने अपनी पवित्रता सिद्ध की । रामजी तथा प्रजा ने उनसे क्षमायाचना की, किन्तु सीताजी अपने अपमान की असहनीय पीड़ा न झेल सकीं । वे अपनी धरती माता से निवेदन कर उनकी गोद में सदा के लिए समा गयीं । सीताजी के धरती में समा जाने पर रामजी के साथ-साथ सारी प्रजा रो पड़ी थी ।

3. उपसंहार:

सीताजी का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श भारतीय नारी का है, जो सत्यता, पवित्रता, नैतिकता, आदर्श पत्नी, आदर्श माता, आदर्श वधू, आदर्श भाभी होने का एक अनुकरणीय उदाहरण है । सारा भारतवर्ष उनकी इस छवि का भक्त है । सीताजी का आदर्श चरित्र भारत के नर-नारियों के लिए देवीस्वरूप वन्दनीय व पूजनीय है । आज भी सीताजी के बाद रामजी का नाम लेकर उनके प्रति भारतवर्ष अपना अपार श्रद्धा-भाव व्यक्त करता है ।

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