जनसंख्या विस्फोट और खाद्य सुरक्षा पर निबंध | Essay on Population Explosion and Food Security in Hindi.

जनसख्या एक संसाधन है, जो प्राकृतिक ससाधनों को आर्थिक संसाधनों में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है । शिक्षित व तकनीकी रूप से दक्ष मानव संसाधन के द्वारा आर्थिक संसाधनों को अधिक मूल्यवान बनाया जा सकता है । किसी प्रदेश में जनसंख्या का आकार वहाँ की सामाजिक-आर्थिक स्थिति व संसाधनों के वृद्धि दर के द्वारा निर्धारित होती है ।

संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में ही किसी प्रदेश में अल्प जनसंख्या, अधिक जनसंख्या या अनुकूलतम जनसंख्या की स्थिति होती है । जब जनसंख्या की वृद्धि दर संसाधनों की वृद्धि दर की तुलना में अधिक होती है, तो उसे जनसंख्या विस्फोट की स्थिति कहा जाता है ।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री नोटेस्टीन व थॉम्पसन ने जनसंख्या में 2% से अधिक वार्षिक वृद्धि दर को जनसंख्या विस्फोट की अवस्था कहा है । भारत 1991 ई. तक उपरोक्त अवस्था से गुजर रहा था ।

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यद्यपि 1991 ई. के पश्चात् जनसंख्या की वृद्धि दर में गिरावट आई है, परंतु अभी भी भारत जनसंख्या विस्फोट की अवस्था में ही है । इसका मुख्य कारण जनसंख्या के ‘जैविक रूप से पुनरूत्पादक वर्ग’ के आधार का बड़ा होना है । अशोक मित्रा ने बताया है कि इस वर्ग में भारत की लगभग 50 से 55% जनसंख्या आती है ।

जन्म दर अभी भी उच्च (21 प्रति हजार) बना हुआ है, जबकि मृत्यु दर में गिरावट आई है और यह घटकर (8 प्रति हजार) विकसित देशों के स्तर तक आ गई है । इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण जन्म दर व मृत्यु दर के बीच के अंतर का अधिक होना है । कुल प्रजनन दर (TFR) अभी भी उच्च बना हुआ है ।

जहाँ 1951 ई. में यह प्रति परिवार 6 थी, वही वर्तमान समय में यह लगभग 2.6 है जबकि, नई जनसंख्या नीति में जनसंख्या को प्रतिस्थापन दर पर लाने के लिए इसका 2.1 होना अनिवार्य माना गया है ।

महिलाओं की तुलनात्मक रूप से खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा का अभाव, निम्न आय वर्ग के लोगों की संख्या का अधिक होना, विवाह की कम आयु और धार्मिक मान्यताएँ आदि जन्म दर में इस वृद्धि के पीछे मुख्य कारण रहे हैं ।

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यदि पिछली सदी के पहले 50 वर्षों का आकलन करें तो जहाँ इस काल में मात्र लगभग 13 करोड़ की जनसंख्या वृद्धि हुई थी, वहीं अंतिम 50 वर्षों में यह वृद्धि लगभग 66 करोड़ की रही है । वस्तुतः केवल 1991-2001 के दशक में ही जनसंख्या वृद्धि लगभग 18 करोड़ थी, जो पिछली सदी के प्रथम 50 वर्षों के कुल वृद्धि से भी अधिक थी ।

2001-2011 के दशक में भी कुल जनसंख्या वृद्धि लगभग 18 करोड़ की रही है । विश्व का कुल 2.43% क्षेत्रफल रखने वाला भारत देश में, विश्व की कुल जनसंख्या का 17.7% जनसंख्या रहती है । यह भारत में जनसंख्या दबाव की स्थिति का द्योतक है । इससे विभिन्न तरह की समस्याएं उत्पन्न हुई है । खाद्य समस्या इनमें से एक सर्वप्रमुख समस्या है ।

वस्तुतः भारत की प्रायः संपूर्ण जनसंख्या खाद्य व पोषणहार की कमी से प्रभावित है । विश्व विकास रिपोर्ट में दी गई परिभाषा के अनुसार ‘खाद्य सुरक्षा एक ऐसी दशा है, जिसमें सभी समयों पर सभी लोगों के लिए एक सक्रिय व स्वस्थ जीवन हेतु पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो ।’ यह भोजन पोषण-मानकों के अनुरूप होना चाहिए ।

संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के ‘खाद्य एवं पोषण आहार बोर्ड’ के अनुसार ‘प्रत्येक व्यक्ति को 2,900 कैलोरी एवं 60 ग्राम प्रोटीन की प्रतिदिन उपलब्धता अनिवार्य है, जिससे कि कुपोषणजनित समस्याएँ उत्पन्न न हो सके ।’

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खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, भारत में औसत रूप से कैलोरी व प्रोटीन की वर्तमान उपलब्धता क्रमशः 2,385 कैलोरी एवं 30 ग्राम है । एक अध्ययन के अनुसार औसत भारतीयों के बीच कैलोरी उपलब्धता 2,200-2,600 के बीच है ।

परंतु, भारत के कुछ प्रदेश व कुछ मानव समूह ऐसे भी हैं, जिनमें यह उपलब्धता 1,500 कैलोरी से भी कम है, जो कि विभिन्न प्रकार के आनुवांशिक बीमारियों का कारण बन सकता है । इस संदर्भ में ओडिशा के कालाहांडी व केरल के पल्लीपुरम की विशेष रूप से चर्चा की गई है । यह अनुसूचित जनजाति व अनुसूचित जाति प्रधान क्षेत्र है ।

1951 ई. के पश्चात् यद्यपि स्थिति में निरंतर सुधार आया है, परंतु यह पर्याप्त नहीं रहा है । जहाँ 1951 ई. में कैलोरी उपलब्धता मात्र 1,600 थी, वहीं अब यह बढ़कर 2,385 हो गई है, परंतु प्रोटीन की मात्रा में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो सकी है । दालों के उपभोग का प्रतिशत जहाँ 1951 ई. में 16.7% था, वहीं अब घटकर मात्र 8% रह गया है ।

इसी प्रकार प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति दलहन उपलब्धता 1951 ई. के 60.6 ग्राम से घटकर अब मात्र 41.8 ग्राम रह गई है । इसी प्रकार खाद्यान्न व दुग्ध आदि के उत्पादन में वृद्धि के बावजूद निम्न आय व क्रय शक्ति का अभाव खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने का मुख्य कारण रहा है ।

जहां संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, यूनाइटेड किंगडम आदि में खाद्यान्न व पोषक तत्वों पर अपनी आय का 10-12% खर्च किया जाता है, वहीं भारत में अधिकतर भारतीय अपनी आय का लगभग 33% खर्च करने के बावजूद अपेक्षित कैलोरी व प्रोटीन प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं ।

प्रति व्यक्ति आय का कम होना, गरीबी और जीवन-निर्वाह अर्थव्यवस्था आदि भारत में खाद्य संकट का मुख्य कारण बना हुआ है । इस संदर्भ में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का वक्तव्य उद्धृत किया जा सकता है कि ‘अकाल व खाद्य समस्या का मुख्य कारण सिर्फ खाद्य पदार्थों का अभाव नहीं , वरन् लोगों की क्रयशक्ति में कमी ही इसके पीछे मूल कारण रहा है ।’

संयुक्त राष्ट्र की विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार विश्वभर में कुपोषण की शिकार कुल जनसंख्या का लगभग 25% भाग भारत में निवास करता है । भारत में खाद्य समस्या को प्रादेशिक और वर्गगत दोनों ही परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है ।

सामान्यतः पूर्वोत्तर राज्य, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, आंध्र प्रदेश का रायलसीमा क्षेत्र, अंडमान-निकोबार, दादर-नागर हवेली कुपोषण प्रभावित क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं ।

सामाजिक रूप से यह समस्या कुछ विशेष वर्गों में अधिक गंभीर है । इनमें 6 वर्ष से कम आयु वर्ग के लोग, मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग, जनजातीय जनसंख्या, अनुसूचित जनजाति, कृषक, मजदूर, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग, गर्भवती महिलाएँ एवं दुग्ध-पान कराने वाली महिलाएँ आदि को मुख्य रूप से शामिल किया जा सकता है ।

यही कारण है कि इन समूहों में बाल मृत्युदर अधिक है एवं औसत जीवन-प्रत्याशा कम है; साथ ही कुपोषण की समस्या के कारण विभिन्न रोगों के प्रति ये अधिक संवेदनशील भी होते हैं । इस प्रकार खाद्य व पोषण आहार की समस्या प्रादेशिक के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी दिखाई पड़ता है तथा अपेक्षित समाधान की माँग करता है ।

खाद्य सुरक्षा हेतु स्वतंत्रता के पश्चात् से ही लगातार प्रयास हुए हैं तथा इसके समाधान की दिशा में बहु-आयामी कार्यक्रम चलाए गए हैं । प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्रों पर सर्वाधिक बल दिया गया, इसके बाद से सिंचाई की सुविधा बढ़ाने के लिए विभिन्न बहुउद्देशीय परियोजनाएँ प्रारंभ की गई ।

खाद्य पदार्थ की उपलब्धता बढ़ाई गई । इसके बावजूद अभी भी खाद्य उत्पादन में वृद्धि के अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सके हैं ।

12वीं पंचवर्षीय योजना में खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखकर अनेक लक्ष्य निर्धारित किए गए, जिनमें खाद्य उत्पादन को अगले 10 वर्षों में दोगुना करना, रोजगार व आय में वृद्धि के अवसर उपलब्ध कराना, निर्धनता निवारण कार्यक्रमों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में टिकाऊ विकास का सृजन करना तथा गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा कम मूल्य पर अनाजों को उपलब्ध कराना शामिल है ।

वर्तमान समय में भारत 4 लाख 60 हजार सार्वजनिक वितरण इकाइयाँ कार्यरत हैं, जो विश्व में सर्वाधिक हैं । खाद्य पदार्थों के वितरण में संतोषजनक स्थिति लाने के लिए इन्हें सुदृढ किया जा रहा है ।

लगभग 29% जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की है, जिनके लिए सामान्य से आधे दामों पर खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं । ‘अंत्योदय योजना’ के अंतर्गत 35 किलोग्राम खाद्य पदार्थ प्रति महीने, प्रति परिवार, उपलब्ध कराए जा रहे हैं, जिनसे लगभग 6 करोड़ लोग लाभान्वित हो रहे हैं ।

खाद्य व पोषण आहार के संदर्भ लोगों में जागृति लाने का प्रयास भी किया जा रहा है, ताकि आय की सीमाओं के बावजूद लोग पर्याप्त मात्रा में खाद्य व पोषण आहार प्राप्त कर सकें । इस उद्देश्य से 1964 ई. में ‘राष्ट्रीय खाद्य एवं पोषण आहार बोर्ड’ का गठन किया गया है ।

1980 के दशक से ही 6 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों, अनुसूचित जातियों व जनजातियों की महिलाओं, मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों के लिए FAO द्वारा समय-समय पर खाद्य एवं पोषण आहार व बेहतर स्वास्थ्य हेतु ‘मेडिकेयर फुड’ उपलब्ध कराए जा रहे हैं । बच्चों के विकास कार्यक्रम में विश्व बैंक का भी सहयोग मिल रहा है ।

1982 ई. से ही प्रतिवर्ष नवम्बर के प्रथम सप्ताह को पोषाहार सप्ताह (Nutrition Week) के रूप में मनाया जाता है, जिसका मूल उद्देश्य लोगों में खाद्य व पोषक आहारों के सम्बंध में जागृति लाना है । विभिन्न राज्यों में ‘राज्य पोषाहार बोर्ड’ का गठन भी किया जा रहा है । अभी तक 17 राज्यों एवं 2 केन्द्रशासित प्रदेशों में इसका गठन किया जा चुका है ।

भारतीय जनसंख्या को कुपोषण-मुक्त करने के लिए दो महत्वपूर्ण अनुसंधान केन्द्र National Institute of Nutrition, हैदराबाद एवं All India Institute of Hygiene एवं Indian Council of Medical Research, विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) एवं भारत सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय भी कुपोषण मुक्ति की दिशा में समय-समय पर विशेष कार्यक्रम चलाते रहते हैं ।

स्पष्ट है कि खाद्य सुरक्षा व पोषण स्तर को बढ़ाने की दिशा में सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर विविध प्रयास किए जा रहे हैं । परंतु जबतक जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण हासिल न किया जाए, तब तक भारत की समस्त लोगों को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध अत्यधिक कठिन कार्य है ।

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