आय की असमानता: तीव्रता और कारक | Read this article in Hindi to learn about:- 1. आय की असमानता का परिचय (Introduction to Inequality of Income) 2. आय की असमानता का विस्तार (Magnitude of Inequality of Income) 3. प्रभाव (Effects) 4. कारक (Factors).

आय की असमानता का परिचय (Introduction to Inequality of Income):

हमारे मन में सदैव यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत में आर्थिक आयोजन का युग आरम्भ होने के समय से अब तक निर्धन एवं समृद्ध के बीच की खाई कम हुई है या बड़ी है । देश में आरम्भ से ही प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति के फल वितरित करने के लिये व्यवस्थित आयोजन की प्रक्रिया को अपनाया गया । परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि दसवीं पंचवर्षीय योजना के आरम्भ के समय लगभग 37 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी ।

समय-समय पर किये गये विभिन्न अध्ययनों ने दर्शाया है कि अमीरों तथा निर्धनों के बीच की खाई विस्तृत हुई है । वास्तव में आर्थिक शक्तियों का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में हुआ है जबकि अन्य लोग मौलिक आवश्यकताओं से भी वंचित रहे हैं । अतः किसी देश के विकास का अर्थ एक निश्चित समय में वस्तुओं और सेवाओं के भण्डार में वृद्धि ही नहीं बल्कि सभी लोगों में वस्तुओं के वितरण का विस्तार भी है ।

यहाँ पर परिस्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं, राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई है परन्तु इसका समान वितरण नहीं हो पाया, अतः प्रायः कहा जाता है कि समृद्ध लोग और भी समृद्ध हो गये तथा निर्धन और भी निर्धन, अर्थात् आर्थिक असमानताओं की स्थिति है ।

आय की असमानता का विस्तार (Magnitude of Inequality of Income):

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सरल शब्दों में, आय की असमानता को ”समाज के विभिन्न भागों में साधनों का अनुपात-हीन स्वामित्व” के रूप में परिभाषित किया जा सकता है । इसका अर्थ है कि कम लोगों के पास राष्ट्रीय आय का अधिक भाग जबकि अधिक लोगों के पास राष्ट्रीय आय का कम भाग ।

आय की असमानता के विस्तार के परीक्षण के लिये छठी योजना से पहले विभिन्न समितियों ने आय और सम्पत्ति की असमानताओं सम्बन्धी अनुमान लगाये हैं ये अनुमान निम्न प्रकार से हैं:

(i) आय के वितरण पर महालेनोबिस समिति, 1964

(ii) भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमान-1953-54 से 1956-57

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(iii) ‘द नैशनल काऊंसिल ऑफ अप्लाइड एक्मामिक्स रिसर्च’ (NCAER) – 1962 से 1967-68

(iv) रनदिवे की एस्टेट

(v) माहलगी के अनुमान, 1971-72 ।

छठी पंचवर्षीय योजना के अनुमान (Magnitude of Inequality of Income):

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पुरानी छठी पंचवर्षीय योजना (1978-83) ने अवलोकन किया कि आय और सम्पत्ति के वितरण की प्रवृत्तियों की परिचर्चा करना कठिन है । उन्होंने ‘नैशनल सैम्पल सर्वे के 28वें राउन्ड’ के आधार पर प्रयोग किया । इसने दर्शाया कि न्यूनतम 20 प्रतिशत, ग्रामीण क्षेत्रों में कुल उपभोग के 9.5% के लिये उत्तरदायी था जबकि उच्चतम 20%, 38% के लिये उत्तरदायी था ।

शहरी क्षेत्रों के लिये अनुरूप अंक 9.2% और 40% था, तथापि वर्ष 1980-85 के लिये नई छठी पंचवर्षीय योजना ने उपभोग व्यय के वितरण का अनुमान ‘नैशनल सैम्पल सर्वे’ के 32वें राउन्ड के आधार पर लगाया । अनुमान ने दर्शाया कि ग्रामीण क्षेत्रों में नीचे की 40 प्रतिशत जनसंख्या कुल निजी उपभोग व्यय के 21.6% के लिये उत्तरदायी है, इसके विपरीत सर्वोच्च 20%, 40 प्रतिशत के लिये उत्तरदायी है । इसी प्रकार शहरी क्षेत्रों में नीचे का 40% केवल 20.2% उपभोग व्यय के लिये और ऊपर का 20% कुल व्यय के 41.6% के लिये उत्तरदायी है ।

अयंगर और ब्रह्मानन्द (Iyengar and Brahmananda):

एन.एस. अयंगर और पी.आर. ब्रह्मानन्द ने प्रति व्यक्ति घरेलू निजी उपभोग व्यय के नाम-मात्र वितरण आकार की जिनी-लोरेन्त अनुपातों की गणना की । इस प्रयोजन के लिये उन्होंने उपभोग व्यय पर एन.एस.एस. आकड़ों का प्रयोग किया ।

उनके द्वारा प्राप्त परिणाम निम्नलिखित हैं:

1. सन् 1950 के दशक में ग्रामीण और शहरी क्षेत्र दोनों के लिए औसत जिनी-लोरेन्ज अनुपात अनुवर्ती दशकों के जिनी-लोरेन्ज अनुपातों से ऊँचे थे, उपभोग व्यय के वितरण में असमानताएँ कम हो गई हैं ।

2. वर्ष 1960 के पश्चात छठी योजना के अन्त तक, ग्रामीण क्षेत्रों की जिनी-लोरेन्ज अनुपात लगभग 0.30 पर स्थिर था । इसका अर्थ है कि 25 वर्षों की इस अवधि में ग्रामीण क्षेत्रों में असमानताओं की वृद्धि नहीं हुई । वर्ष 1960 के दशक के मध्य से लेकर वर्ष 1980 के दशक के मध्य तक दो दशकों के लिए गिनी-लोरेन्ज अनुपात 0.33 पर स्थिर था, जिसका अर्थ है कि सामान्यतया इस मान्य धारणा के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं कि शहरी क्षेत्रों में असमानताएँ बड़ी हैं ।

3. शहरी क्षेत्रों के लिये जिनी-लोरेन्ज अनुपात ग्रामीण क्षेत्रों के लिये गिनी लोरेन्ज अनुपातों से लगभग 10 से 12 प्रतिशत ऊँचे हैं । यह स्पष्टता से दर्शाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में उच्च असमानताएं हैं ।

सुरेश डी. तेन्दुलकर (Suresh D. Tendulkar):

तेन्दुलकर अधिकाल में प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय के लिये जिनी गुणांक से निष्कर्ष निकालने में अधिक सावधान है । इसलिये तेन्दुलकर निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त करने के लिये जनसंख्या के विभिन्न (दशमक) वर्गों के लिये सापेक्ष कीमत संचलनों में सूचना का प्रयोग करते हैं ।

1. ”जबकि निर्णायक मात्रात्मकताएं उपलब्ध करना कठिन है” जो भी प्रमाण उपलब्ध हैं उनसे प्रतीत होता है कि वास्तव में जीवन के स्तरों में सापेक्ष असमानता सम्भवता 1970 के दशक के मध्य में 1970 के दशक के आरम्भ से कम थी ।

2. वर्ष 1973-74 के उत्तरकाल के लिये ”जीवन के सापेक्ष स्तरों के यथार्थ रूप में संचलनों अथवा समय प्रवृतियों के सम्बन्ध में कुछ वर्णन करना सम्भव नहीं है” क्योंकि, ”वर्ष 1973-74 के पूर्व काल के अनुरूप जनसंख्या के निम्न और उच्च अंशों द्वारा वृद्धि कीमतों के सापेक्ष दरों सम्बन्धी अनुमान” उपलब्ध नहीं हैं ।

आय की असमानता के प्रभाव (Effects of Inequalities of Income):

किसी भी प्रकार की असमानता किसी देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन पर गम्भीर प्रभाव डालती है । वास्तव में, आय और सम्पत्ति की असमानता एक कुचक्र है जो विकास की प्रारम्भिक स्थितियों में आरम्भ हुआ । सम्पूर्ण समाज ‘सधन’ और ‘निर्धन’ की दो श्रेणियों में विभाजित है ।

सधन सभी सुख-सुविधाओं का आनन्द भोगते हैं, परन्तु निर्धन लोगों को जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं जैसे खाद्य पदार्थ, वस्त्र तथा रहने का स्थान तक प्राप्त नहीं होते । जीवन की अन्य सुविधाओं का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।

आय की असमानताओं के प्रभावों का संक्षिप्त वर्णन नीचे किया गया है:

1. साधनों का कुनिर्धारण (Misallocation of Resources):

आय और सम्पत्ति के असमान वितरण का सबसे विपरीत प्रभाव यह है कि प्राकृतिक साधनों के कुनिर्धारण की पर्याप्त सम्भावना रहती है । इन साधनों को उत्पादक उपभोग से अनुत्पादक मार्गों की ओर मोड दिया जाता है । अति लाभप्रद साधनों का व्यय अनावश्यक अर्थात् विलासतापूर्ण वस्तुओं में कर दिया जाता है जिससे आय की असमानताएं और भी बढ़ जाती हैं ।

2. असमान अवसर (Unequal Opportunities):

प्रायः सधन लोग धन एवं साधनों की विशिष्टता के कारण सभी बेहतर अवसरों का प्रयोग कर लेते हैं जबकि निर्धन श्रेणियाँ इनसे वंचित रह जाती हैं । फलतः गरीब लोगों पर अधिक विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

3. जीवन स्तर में अन्तर (Difference in Living Standards):

आय और सम्पत्ति के वितरण में असमानता एक ही देश में दो श्रेणियों के जीवन स्तर में भारी अन्तर ला देती है । समृद्ध लोग सब प्रकार की विलासताओं का आनन्द लेते हैं जबकि अन्य लोगों को दो समय खाना भी नसीब नहीं होता । अतः एक ही स्थान पर दो समुदायों के बीच जीवन स्तर का भारी अन्तर होता है ।

4. आर्थिक शक्तियों का केन्द्रीकरण (Concentration of Economic Power):

आय के असमान वितरण का एक अन्य गम्भीर परिणाम यह है कि इससे आर्थिक शक्तियों का कुछ ही हाथों में केन्द्रीकरण हो जाता है । समृद्ध लोग अपनी आर्थिक शक्तियों के प्रयोग द्वारा राजनैतिक शक्ति प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि इन बड़े व्यापारिक घरानों के पास बड़ी मात्रा में आर्थिक साधन उपलब्ध होते हैं जिस कारण वे केन्द्र एवं प्रान्तीय स्तर पर चुनाव जीतने में सफल होते हैं ।

5. भष्टाचार और कुप्रथाएं (Corruption and Malpractices):

ठीक ही कहा गया है कि समृद्धि तथा आर्थिक शक्तियाँ भ्रष्टाचार को जन्म देती हैं तथा अधिक धन अर्जन करने के लिये गलत ढंग अपनाये जाते हैं । अतः इससे कुप्रथाएं उत्पन्न होती हैं जोकि अनेक बुराइयों के लिए उत्तरदायी हैं ।

6. अदक्षता (Inefficiency):

आय की असमानता होने के कारण, निर्धन लोगों को शिक्षा तथा अन्य विशेषीकृत प्रशिक्षण के अवसर नहीं प्राप्त होते । अतः उनका मानसिक एवं शारीरिक विकास ठीक ढंग से नहीं होता जिससे कार्य की दक्षता पर बहुत प्रभाव पड़ता है । उचित समझ तथा निपुणता के बिना उत्पादन प्रक्रिया में पूर्ण अदक्षता रहेगी ।

7. निर्धनता तथा असुरक्षा की वृद्धि (Growth of Poverty and Insecurity):

आय की असमानता निर्धनता की ओर ले जाती है जिससे असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है ।

”केवल समृद्ध समाज ही समतावादी होने की क्षमता रखता है । एक समृद्ध समाज का समतावादी होना आवश्यक है अन्यथा इसकी समृद्धि बेरोजगारी में बिखर जायेगी ।”

8. बेरोजगारी की समस्या (Problem of Unemployment):

आय और धन की असमानता देश को बेरोजगारी की समस्या की ओर ले जाती है क्योंकि निर्धन लोगों को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त नहीं होते । सभी बड़े कार्य समृद्ध समाज के भाग में आ जाते हैं ।

धन और आय की असमानता के लिये उत्तरदायी कारक (Factors Responsible for Inequality of Wealth and Income):

आय और धन के वितरण का प्रतिरूप दर्शाता है कि भारत में सुस्पष्ट असमानताएं हैं । अब सरल प्रश्न यह है कि वह कौन से कारक हैं जो इन असमानताओं के लिये उत्तरदायी हैं तथा कौन-से नियन्त्रण इन असमानताओं को दूर कर सकते हैं? कुछ लोगों का विचार है कि समाज में लोगों की योग्यताओं में आधारभूत अन्तरों के कारण असमानताएँ उत्पन्न होती हैं जबकि अन्य लोग इस दृष्टिकोण के विरुद्ध हैं ।

वास्तव में आय असमानताओं के दो मुख्य कारण हैं वे हैं- निजी सम्पत्ति तथा उत्तराधिकार का नियम । कुछ अन्य कारण भी आय और सम्पत्ति की असमानताओं को बढ़ाने के लिये उत्तरदायी हैं जो इसे निर्धनता के दलदल में धकेल देते हैं ।

असमानता के लिये उत्तरदायी कारणों का वान नीचे किया गया है:

1. सम्पत्ति का निजी स्वामित्व (Private Ownership of Property):

भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था है । इस प्रणाली के अन्तर्गत लोगों को निजी सम्पत्ति रखने का अधिकार सुनिश्चित किया गया है । इसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को भूमि, भवन, कारखाने तथा उत्पादन के सभी साधन रखने का अधिकार है ।

सभी आर्थिक निर्णय व्यक्ति द्वारा लिये जाते हैं जो अपने निजी उद्देश्यों को उच्च प्राथमिकता स्वामित्व निम्नलिखित ढंग से आय की असमानताओं की ओर ले जाता है:

(i) भूमि एवं अन्य सम्पत्ति का स्वामित्व (Ownership of Land and Other Assets):

 

नैशनल सैम्पल सर्वे (N.S.S. – 26th Round) के अनुसार वर्ष 1971-72 में बड़े किसानों के 5.44 प्रतिशत भाग के पास कुल कृषि भूमि का 39.43 भाग था तथा सीमान्त किसान जिनके पास एक एकड़ से कम भूमि है और जो सामान्य किसानों का 43.99 प्रतिशत है उनके पास कठिनता से 1.58 प्रतिशत भूमि थी ।

अध्ययन यह भी दर्शाता है कि कुछ समय से भूमि स्वामित्व ने न केवल छोटे धारकों का संख्या को बढ़ाया है बल्कि धारित भूमि का आकार भी वर्ष 1953-54 से 1953-54 तक 1971-72 एकड़ से घट कर 0.14 एकड रह गया है । इसी प्रकार मिन्हास, दाण्डेकर, रथ और वर्धान द्वारा किये गये अध्ययनों में देखा गया है कि सभी कृषि कार्य तथा छोटे सीमान्त कृषक जिनके पास दो हैक्टयेर भूमि से कम है, निर्धन हैं । इससे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आय की असमानताएँ बढी हैं ।

(ii) सम्पत्ति का अप्राकृतिक वितरण (Unnatural Distribution of Assets):

भारतीय सामाजिक व्यवस्था उद्योगों और व्यापार सम्पत्ति के स्वामित्व का अधिकार देती हैं जिससे शहरों और गांवों में सम्पत्ति का अप्राकृतिक वितरण हो जाता है । NCAER ने वर्ष 1975-76 के लिये एक सर्वेक्षण का संचालन किया, जिसने दर्शाया कि शहरों में सम्पत्ति का वितरण अत्याधिक विषम था ।

सर्वेक्षण वर्ष में, शहरी क्षेत्रों में उच्च 10 प्रतिशत कुल सम्पत्ति के 46.28 प्रतिशत के लिये उत्तरदायी था जबकि नीचे के 60 प्रतिशत के पास केवल 11.67 प्रतिशत सम्पत्ति थी । तथापि, नैशनल सैम्पल सर्वे द्वारा 1981-82 के लिये किया गया सर्वेक्षण दर्शाता है कि शहरी क्षेत्रों में प्रत्यक्ष सम्पत्ति का वितरण बहुत विषम है । सम्पत्ति के वितरण के मानदण्डों ने व्यापारियों को शहरों में सम्पत्ति के स्वामित्व को बढ़ाने के योग्य बना दिया है ।

(iii) व्यवसायिक प्रशिक्षण में असमानताएं (Inequalities in Professional Training):

यह अवलोकन सत्य है कि व्यापारिक अधिकारियों, अभियन्ताओं, डॉक्टरो, वकीलों तथा अन्य व्यवसायियों की आय बहुत ऊंची होती है । अतः आय की असमानताएं व्यवसायिक योग्यता अथवा इसके अभाव से उत्पन्न होती हैं । इसके लिये सुयोग्य प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है जोकि उन्हें सरलता से उपलब्ध नहीं होता ।

केवल विशिष्ट वर्ग के बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण उपलब्ध होते हैं । दूसरी ओर निर्धन लोगों के बच्चे हैं जोकि (जिसमें कृषि श्रमिक, औद्योगिक श्रमिक, हरिजन और जनजातियों के लोग सम्मिलित हैं) उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण के सम्बन्ध में सोच भी नहीं सकते । इन्हीं तथ्यों के कारण आय वितरण में असमानताएं बढ़ जाती हैं ।

(iv) समृद्ध वर्ग का प्रभुत्व (Domination of Rich Classes):

शहरी क्षेत्रों में समृद्ध वर्ग प्रायः उत्पादन के साधनों पर प्रभुत्व रखता है । सामान्य बुद्धि होते हुये भी उनकी आय बहुत ऊंची होती है । अतः वह सम्पूर्ण व्यापारिक गतिविधियों का नियन्त्रण करते हैं । इसके विपरीत वास्तव में बुद्धिमान व्यक्ति जीवन में बेहतर अवसर नहीं प्राप्त कर पाते । इसी प्रकार, असंगठित क्षेत्र के श्रमिक जो समाज के निम्न वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं निर्धन श्रेणी का निर्माण करते हैं ।

(v) आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण (Concentration of Economic Power):

अर्थिक शक्तियों का कुछ महान् उद्योगपतियों के हाथों में केन्द्रीकरण आय और धन की असमानताओं की रचना करता है । वर्तमान में केवल 20 बड़े व्यापारिक घराने देश की 98 प्रतिशत सम्पत्ति के स्वामी हैं । आर्थिक शक्तियों के केन्द्रीकरण के लिये सरकार द्वारा किये गये अनेक उपाय कारगर सिद्ध नहीं हुये ।

(vi) श्रम गहन तकनीकों को न अपनाना (Non-Adoption of Labour Intensive Techniques):

भारत में दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान पी.सी. महालेनोबिस के मार्गदर्शन में पूंजी गहन तकनीकें अपनायी गयी थी । निःसन्देह यह तकनीक देश में आर्थिक विकास का मूलभूत एवं मुख्य कारक थी । वास्तव में, हमारे देश में पूंजी अभाव एवं श्रम पूर्ति का बहुल्य है । इस कारण समाज में निर्धन और समृद्ध लोगों के बीच की खाई विस्तृत गई ।

2. उत्तराधिकार का नियम (The Law of Inheritance):

उत्तराधिकार के नियम का प्रचलन समाज के विभिन्न वर्गों के बीच आय असमानताओं को बनाये रखने के लिये उत्तरदायी है । एक पूंजीपति का पुत्र पूंजीपति होगा तथा एक श्रमिक का बेटा श्रमिक बनेगा । इस नियम के अनुसार बाद को सम्पत्ति का उत्तराधिकार बच्चों को प्राप्त होता है ।

फलतः बड़े उद्योगपतियों, भू-स्वामियों, व्यापारियों तथा अन्य समृद्ध लोगों के बच्चे अपने आप समृद्ध हो जाते हैं । इसके विपरीत, श्रमिकों तथा अन्य कर्मचारियों के बच्चों को उत्तराधिकार में कोई संपत्ति प्राप्त नहीं होती । अतः यह नियम देश में आय असमानताओं को वैधता उपलब्ध करता है ।

3. कराधान की त्रुटिपूर्ण व्यवस्था (Faulty Taxation System):

सरकार को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष करों से प्राप्त होता है । क्योंकि, परोक्ष कर आय के मुख्य स्रोत हैं इसलिये इनका भार निर्धन उपभोक्ताओं की ओर स्थानान्तरित कर दिया जाता है । इसके विपरीत समृद्ध वर्ग सदैव प्रत्यक्ष करों की अवहेलना करते हैं । इसके अतिरिक्त प्रशासनिक मशीनरी में भी कुछ दुर्बलताएँ हैं । इस प्रकार, त्रुटिपूर्ण कर प्रणाली समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच की खाई को विस्तृत करती है ।

4. स्फीतिकारी दबाव (Inflationary Pressure):

स्फीतिकारी प्रवृत्ति ने सदैव समृद्ध वर्गों को लाभ पहुंचाया है जबकि निरन्तर बढ़ती हुई प्रवृति ने श्रमिक वर्ग की वास्तविक आय को कम किया है । अतः इस बुराई ने आर्थिक असमानताओं को बढाया है ।

5. साख नीति (Credit Policy):

विभिन्न अभिकारणों की साख नीति ने ऋण और साख सीमाओं की सुविधाएं केवल बड़े उद्योग घरानों को बड़ी मात्रा में उपलब्ध करवाई हैं । व्यापारिक बैंकों और विशेषीकृत वित्तीय संस्थाओं ने भी बड़े घरानों का चयन किया है तथा छोटे व्यापारों, घरानों तथा असंगठित क्षेत्रों की उपेक्षा की है । आय के वितरण तथा जीवन स्तर और एकाधिकार जांच आयोग पर समिति ने दर्शाया है कि विशेषीकृत संस्थाओं ने छोटे उत्पादकों के विरुद्ध पक्षपाती व्यवहार किया है ।

6. अहितकर अनुज्ञा नीति (Unfavorable Licensing Policy):

एक विशेषज्ञ विवरण अनुसार सरकार की अनुज्ञा (लाईसेन्स) नीति उत्पादकों के लिये अधिक हितकर नहीं है बल्कि यह बड़े व्यापारिक घरानों की रक्षा करती है जिन्होंने स्पष्टतया आय की असमानता को बढाया है ।

7. बेरोजगारी की समस्या (Unemployment Problem):

देश बेरोजगारी एवं अदृश्य बेरोजगारी की गम्भीर समस्या का सामना कर रहा है । नि:सन्देह सरकार ने योजनाओं में बेरोजगारी दूर करने के लिये युद्ध स्तर पर अनेक पग उठाये हैं, फिर भी यह अपने विराट रूप में विद्यमान है । इस कारण निर्धनता और भी अधिक जोखिमपूर्ण हो गई है ।