नि: शुल्क राइडर समस्या: सार्वजनिक सामान और सामान | Read this article in Hindi to learn about the free rider problem of public goods and bad with policy options.

सार्वजनिक अच्छाइयां और बुराइयां (फ्री राइडर समस्याऐं) (Public Goods and Bads: Free Rider Problems):

प्रत्येक अतिरिक्त श्रमिक जो संयुक्त भूमि पर खेती करने वालों में शामिल होता है वह अन्य सभी श्रमिकों के, किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति के बिना, प्रतिफलों को नीचा करके एक नकारात्मक बाध्यता की रचना करता है ।

एक बाध्यता तब घटित होती है जब किसी व्यक्ति का उपभोग अथवा उत्पादन व्यवहार किसी अन्य के व्यवहार को बिना किसी क्षतिपूर्ति के प्रभावित करता है । किसी के कार्यों के लाभों और लागतों का अन्तरीकरण तब होता है जब किसी को उन्हें पूर्ण रूप से सहन करने के लिये विवश किया जाता है ।

बाध्यताओं का अन्तरीकरण इतनी सरलता से पूर्ण नहीं किया जा सकता । यह विशेषतया वह स्थिति है जहां एक व्यक्ति के कार्यों के परिणाम एक सार्वजनिक अच्छाई अथवा सार्वजनिक बुराई का निर्माण करते हैं ।

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एक सार्वजनिक अच्छाई वह वस्तु है जो सबको लाभ उपलब्ध कराती है तथा जिसकी उपलब्धता, अन्यों द्वारा उसी समय उपभोग से किसी प्रकार कम नहीं होती । स्वच्छ वायु और राष्ट्रीय सुरक्षा इसके सामान्य उदाहरण हैं । सार्वजनिक बुराई वह वस्तु अथवा बुराई है जो एक गैर-थकाऊ ढंग से दूसरों के कल्याण को कम करती है ।

वायु प्रदूषण एवं जल प्रदूषण इसके उदाहरण हैं । सहजानुभूतिक रूप में, यह स्पष्ट है कि प्रदत्त मानवीय प्रकृति और यह तथ्य कि लोग अपने कार्यों से सम्बन्धित पूर्ण लागतों का भुगतान नहीं करते बहुत सी सार्वजनिक बुराई उत्पन्न होगी । इसका परिणाम सामाजिक रूप में गैर-अनुकूलतम होगा । हम शीघ्र ही रेखाचित्रीय प्रस्तुतीकरण द्वारा यह प्रदर्शित करेंगे ।

किसी विशेष सामाजिक बुराई का विषय लेते हैं, जैसे वनों की कटाई के कारण क्षेत्र में पर्यावरणीय अधोगति, क्षरण की शक्तियों की बड़ी हुई सम्भावनाएं, मृदा की अत्याधिक शुष्कता, भूमिगत जल की क्षेत्र हानि, सार्वजनिक जलपूर्तियों का प्रदूषण अथवा गाद और सम्भावित जलवायु परिवर्तन सभी सार्वजनिक बुराईयां हैं जो वनों की कटाई अथवा वृक्षों को जलाने से सम्बन्धित है ।

वनों की सुरक्षा द्वारा पर्यावरणीय संरक्षण सबको लाभ उपलब्ध कराता है तथा इसलिये यह सार्वजनिक अच्छाई है । एक सार्वजनिक अच्छाई तथा विशुद्ध निजी अच्छाई में सबसे स्पष्ट अन्तर यह है कि सार्वजनिक संसाधनों के लिये कुल मांग का निर्धारण व्यक्तिगत मांग वक्रों को समस्तरीय जोड़ के स्थान ऊर्ध्व जोड़ द्वारा किया जा सकता है जैसा कि निजी अच्छाई का प्रकरण है ।

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रेखाचित्र 7.4 दोनों प्रकार के जोड़ दर्शाता है । अन्तर इस तथ्य का परिणाम है कि बहुत से व्यक्ति सार्वजनिक अच्छाई की उसी इकाई का आनन्द ले सकते हैं परन्तु एक सामान्य, निजी उपभोग वस्तु से केवल एक व्यक्ति ही लाभ उठा सकता है ।

ऊर्ध्व जोड़ द्वारा हम निश्चित रूप में सभी व्यक्तियों को सार्वजनिक अच्छाई की प्रत्येक इकाई से होने वाले लाभ प्रदान कर सकते हैं । रेखाचित्र 7.4 सार्वजनिक वस्तुओं के मूल्यकरण की समस्याओं को प्रदर्शित करता है ।

रेखाचित्र 7.4 (a) में सामाजिक रूप में अनुकूलतम वृक्षों की संख्या Q* है । इसका निर्धारण कुल मांग वक्र के पूर्ति वक्र (MC) के कटाव द्वारा होता है । Q* पर सार्वजनिक अच्छाई PMDC, से समाज को कुल लाभ अधिकतम होते हैं । तथापि-फ्री-राइडर समस्या के कारण मुक्त बाजार इस अनुकूलतम मात्रा की ओर नहीं ले जायेगा । क्योंकि लोग अन्यों द्वारा उपलब्ध किये गये वृक्षों का लाभ उठाने के योग्य है, प्रत्येक उससे कम का योगदान करेगा जितना कि वह स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हुये करता ।

Pm की कीमत पर, मुक्त बाजार, व्यक्ति B की मांग QB को पूरा करेगा जबकि व्यक्ति A की आवश्यकता QA को इन्कार नहीं करेगा; अर्थात् A मुक्त रूप में B के योगदान को प्राप्त हो सकता है ।

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इसलिये बाजार वन संरक्षण का उप-अनुकूल स्तर QB उपलब्ध करेगा । अनुकूलता के पुर्नस्थापन के लिये (सार्वजनिक अच्छाई के Q*) किसी प्रकार का सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक होगा ।

सबसे प्रभावी समाधान, प्रत्येक उपभोक्ता से केवल प्रति इकाई पर्याप्त वसूल करना है, व्यक्ति A और B के लिये क्रमश: PA और PB, उन सबको वृक्षों की अनुकूलतम मात्रा Q*B के संरक्षण की मांग के लिये लुभाना ।

उनके संयुक्त भुगतान, PA × Q*A के लिये जमा PB × Q* के लिये PM × Q* के बराबर कुल योगदान को दर्शाता हैं जो संरक्षण के सामाजिक रूप में अनुकूलतम स्तर को खरीदने के लिये पूर्णतया वांछित राशि हैं ।

नीति विकल्प (Policy Options):

इस समस्या से निपटने के लिये अल्प विकसित देशों के पास छ: विकल्प उपलब्ध हैं ।

ये विकल्प हैं:

(i) उचित साधन मूल्यन,

(ii) लोगों की सहभागिता,

(iii) अधिक स्पष्ट सम्पत्ति अधिकार,

(iv) निर्धनों के लिये आर्थिक विकल्पों को सुधारना,

(v) स्त्रियों की आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाना,

(vi) औद्योगिक स्राव को नियन्त्रित करने की नीतियां ।

अब, हम इन विकल्पों पर संक्षेप में विचार करेंगे:

1. साधनों का उचित मूल्यन (Proper Resource Pricing):

पर्यावरणीय समस्याओं को रोकने के लिये एक उचित साधन नीति की आवश्यकता है । अल्प विकसित देशों को ऐसी नीति के निर्धारण और कार्यान्वयन में पहल करनी चाहिये । नीति का उद्देश्य अति निर्धन लोगों की कठिनाइयों को कम करना होना चाहिये क्योंकि निर्धनता को ही पर्यावरणीय अधोगति का मुख्य कारण माना जाता है ।

उच्च आय वर्ग के लोगों से प्रकृति के संरक्षण के लिये लागत वसूल की जानी चाहिये, क्योंकि वह अति स्पष्ट लाभ प्राप्तकर्त्ता है ।

मूल्य नीति को गलत रियायतें समाप्त करने का लक्ष्य भी रखना चाहिये, परन्तु भारत जैसे देशों में राजनीतिक दाँव ऊँचे हैं जहां सत्ता-सम्पन्न लोगों को लाभप्रद सरकारी सहायता से हाथ धोना पड़ सकता है । एक उचित मूल्य नीति के निर्माण के लिये लागत-लाभ सिद्धान्त को आधार के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिये ।

2. लोगों की संलिप्तता (People’s Involvement):

पर्यावरणीय स्थितियों के सुधार के कार्यक्रम तभी प्रभावी होंगे जब लोग स्वेच्छा से सामुदायिक परियोजनाओं में भाग लें जोकि स्थानीय एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुकूल हैं । प्राथमिक स्तर से प्रयत्न अधिक लागत प्रभावी हो सकते हैं क्योंकि वे प्राय: स्थानीय लोगों को सम्मिलित करते हैं और स्थानीय लोगों को रोजगार उपलब्ध कराते हैं ।

3. स्पष्टतर सम्पत्ति अधिकार (Clearer Property Rights):

सम्पत्ति अधिकार, एक अन्य क्षेत्र है जहां अल्प विकसित देशों को दुर्लभ साधनों के संरक्षण के लिये ध्यान देने की आवश्यकता है । शहरी और ग्रामीण सम्पत्ति में स्थायी पट्टे का अभाव बड़े स्तर पर पर्यावरणीय उन्नति में निवेश को रोक सकता है ।

सम्पत्ति अधिकारों अथवा पट्टा अधिकारों को वैध रूप देने से निर्धन लोगों की जीवन स्थितियों में सुधार आ सकते हैं और कृषि निवेशों में वृद्धि हो सकती है । बहुत से प्रकरणों में भूमि सुधार आवश्यक हो सकते हैं । भूमि सुधारों की आवश्यकता सीमान्त भूमियों की उत्पादकता को सुधारने के लिये भी हो सकती है जिन्हें बहुत से भूमिहीन श्रमिकों द्वारा सक्रिय किया गया है ।

4. निर्धन लोगों के लिये आर्थिक विकल्पों को सुधारना (Improving Economic Alternatives for the Poor):

पर्यावरणीय विनाश को रोकने के लिये अल्प विकसित देशों को ऐसी नीतियों पर ध्यान देने का प्रयत्न करना चाहिये जो निर्धन लोगों के लिये रोजगार के वैकल्पिक अवसरों के सृजन में सहायता करें । वैकल्पिक रोजगार अवसरों का सृजन निर्धन लोगों को सीमान्त भूमि पर कृषि करने के लिये विवश नहीं करेगी ।

पुन: स्थापन कार्यक्रमों में ग्रामीण संरचना निर्माण, स्थानीय सेवाओं की रचना, ग्रामीण विकास को प्रोत्साहित करना, परिस्थितिकी संवेदी भूमि पर जनसंख्या दबावों को कम करना और ग्रामों से शहरों की ओर प्रवास को रोकना आदि सम्मिलित हैं । ऐसे कार्यक्रम गांवों के निर्धन लोगों की आर्थिक स्थिति सुधारने में तथा पर्यावरणीय उन्नति में सहायक हो सकते हैं ।

5. स्त्रियों की आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाना (Raising the Economic Status of Women):

ग्रामीण स्त्रियों की आर्थिक स्थितियों में सुधार लाना अल्प विकसित देशों की सरकारों का एक अन्य विकल्प है । ग्रामीण स्त्रियों के लिये प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था करना उनके मानसिक विकास को बढ़ाने के लिये आवश्यक है । शिक्षा, स्त्रियों के शिशु पोषण, स्वच्छता, सफाई एवं स्वस्थ वातावरण सम्बन्धी ज्ञान को बढ़ाती है ।

इसलिये, समुदाय आधारित पर्यावरणीय कार्यक्रमों को स्त्रियों से मिल कर कार्य करना चाहिये क्योंकि उनकी अपनी दैनिक गतिविधियां मुख्य रूप से साधन उपयोग का ढंग निर्धारित करती हैं । स्त्रियों की योग्यता, उनके परिवारों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जल एवं ईंधन के सतत प्रबन्ध पर निर्भर करती है ।

6. औद्योगिक उत्सर्जन नियन्त्रण (Industrial Emission Controls):

स्वस्थ एवं स्वच्छ वातावरण के लिये वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करने की आवश्यकता है जोकि औद्योगिक एवं वाहनों के उत्सर्जन से उत्पन्न होता है । औद्योगिक प्रदूषण को सीमित करने के लिये विकासशील देशों की सरकारें नीतियों का निर्माण कर सकती हैं ।

इनमें सम्मिलित हैं- उत्सर्जनों पर करारोपण, व्यापार योग्य उत्सर्जनों के आज्ञा पत्र, नियतांश और मानक आदि । साफ-सुथरी तकनीकों को अपनाने वाले उत्पादकों को प्रोत्साहन दिये जा सकते हैं ।

साख और वित्तीय सहायताओं को प्रदूषण रोधक तकनीकों की खरीद अथवा विकास तकनीकों के साथ जोड़ा जा सकता है । निर्धन देशों को प्रदूषण रहित तकनीकों के स्थानान्तरण में विकसित देश महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं ।

निष्कर्ष (Conclusion):

उपरोक्त परिचर्चा इस निष्कर्ष की ओर ले जाती है कि सतत विकास के लिये बेहतर पर्यावरण आवश्यक है । विकास की प्राचीन धारणा बनाम पर्यावरण ने एक नई मान्यता को जन्म दिया है जिसके अनुसार विकास के संरक्षण के लिये बेहतर पर्यावरण प्रबन्ध आवश्यक है ।

विकास के मार्गदर्शक नियम के रूप में सततता को दृढ़ करना आवश्यक है । पर्यावरणीय समस्याएं किसी देश अथवा विशेष क्षेत्र तक सीमित होती है । अब इन समस्याओं ने व्यापक रूप धारण कर लिया है । अत: संरक्षण, पर्यावरणीय साधनों की संभाल और उन्नति के लिये संयुक्त राष्ट्रों की देखरेख में सांझे एवं व्यापक प्रयत्नों की आवश्यकता है ।

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