बजट: अर्थ, कार्य और सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about:- 1. बजट का अर्थ (Meaning of Budget) 2. बजट का कार्य (Functions of Budget) 3. बजटिंग के प्रणालियाँ (Systems of Budgeting) 4. बजटिंग के सिद्धांत (Principles of Budgeting) 5. बजट का  महत्व (Significance of Budget).

Contents: 

  1. बजट का अर्थ (Meaning of Budget)
  2. बजट का कार्य (Functions of Budget)
  3. बजटिंग के प्रणालियाँ (Systems of Budgeting)
  4. बजटिंग के सिद्धांत (Principles of Budgeting)
  5. बजट का  महत्व (Significance of Budget)

1. बजट का अर्थ (Meaning of Budget):

लोक प्रशासन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है- वित्तीय प्रशासन । यह ‘बजट’ उपकरण के माध्यम से काम करता और संपूर्ण ‘बजटीय चक्र’ को घेरता है । इसका अर्थ है-बजट का निरूपण, बजट का अधिनियमन, बजट का क्रियान्वयन, लेखांकन और लेखा परीक्षण । सी.पी. भांभरी कै अनुसार- ”वर्तमान अर्थ में इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1773 मैं ओपनिंग दि बजट नामक व्यंग्य रचना में वालपोल की उस वर्ष की वित्तीय यौजना के विरुद्ध किया गया था ।”

बजट शब्द पुरानी अंग्रेजी क शब्द ‘बोगेट’ (Bougett) से निकला है जिसका अर्थ है बोरा या थैला । आगामी वित्त वर्ष के लिए सरकार के वित्तीय कार्यक्रम का संसद में प्रस्तुत करने के लिए ब्रिटिश वित्त मंत्री अपन कागजात का एक चमड़े के थैले से निकालते थे । इस जुड़ाव के चलते थैले का प्रयोग कागजात के लिए, विशेष रूप से वित्तीय प्रस्तावों वाले कागजात के लिए किया जाने लगा ।

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बजट की कुछ परिभाषाएँ निम्न हैं:

हैरॉल्ड आर. ब्रूस- ”बजट किसी संगठन की अनुमानित आय तथा प्रस्तावित व्यय का वित्तीय वक्तव्य है जो आगामी वर्ष के लिए पहले से तैयार किया जाता है ।”

विलने- ”बजट, अनुमानित आय तथा व्यय का विवरण, आय एवं व्यय का तुलनात्मक चित्र और इन सबके ऊपर यह राजस्व एकत्र करने तथा सार्वजनिक धन खर्च करने के लिए सक्षम प्राधिकारी को दिया हुआ प्राधिकार तथा निर्देश है ।”

रेने गेज- ”आधुनिक राज्य में बजट सार्वजनिक प्राप्तियों एवं खर्चों का पूर्वानुमान तथा एक अनुमान है और कुछ खर्चों को करने तथा प्राप्तियों को एकत्र करने का अधिकृतिकरण है ।”

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डिमॉक- ”बजट एक वित्तीय योजना है जो अतीत में वित्तीय अनुभव का स्तर प्रस्तुत करता है, वर्तमान की योजना बनाता और भविष्य के एक निश्चित काल के लिए इसे आगे बढ़ाता हैं ।”

मुनरो- ”बजट, आने वाले वित्तीय वर्ष के लिए अर्थ प्रबंधन की योजना है । उसमें एक ओर सभी आयों का और दूसरी ओर सभी खर्चों का मद के अनुसार अनुमान दिया होता है ।”

अत: बजट किसी वित्तीय वर्ष के संदर्भ में सरकार की अनुमानित प्राप्तियों (राजस्व या आय) और व्यय का विवरण है अर्थात् बजट विधायिका को प्रस्तुत और विधायिका द्वारा स्वीकृत सरकार का वित्तीय दस्तावेज है ।


2. बजट का कार्य (Functions of Budget):

निम्नलिखित बिंदु बजट के कार्यों और उद्देश्यों को सामने लाते हैं:

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1. यह विधायिका के प्रति कार्यपालिका की वित्तीय एवं न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करता है ।

2. प्रशासनिक पद सोपान तंत्र में यह वरिष्ठों के प्रति अधीनस्थों की जवाबदेही को सुनिश्चित करता है ।

3. यह सामाजिक और आर्थिक नीति का उपकरण है जिसका कार्य निर्धारण, वितरण और स्थिरीकरण है ।

4. यह सरकारी कार्यों और सेवाओं के कुशल कार्यान्वयन का रास्ता साफ करता है ।

5. यह सरकारी विभागों की विभिन्न गतिविधियों को एक योजना के अधीन लाकर उनको एकीकृत करता है और इस प्रकार प्रशासनिक प्रबंधन एवं समन्वय को आसान बनाता है ।


3. बजटिंग के प्रणालियाँ (Systems of Budgeting):

बजट निर्माणकारी जिन पद्धतियों का विकास इतिहास के लंबे दौर में हुआ है, उनके बारे में नीचे बताया जा रहा है:

1. मद क्रम बजट निर्माण (Line-Item Budgeting):

इसको परंपरागत या रुढ़िगत बजट निर्माण भी कहा जाता है । बजटिंग की इस प्रणाली का विकास 18वीं और 19वीं शताब्दी में हुआ । इसमें खर्चों के उद्देश्य को सामने लाए बिना उनकी मदों पर जोर दिया जाता है और बजट की कल्पना वित्तीय अर्थों में की जाती है ।

अर्थात, बजट को मद-क्रम वर्गीकरण के अर्थों में प्रस्तुत किया जाता है । उस प्रणाली के अंतर्गत विधायिका द्वारा मद विशेष पर स्वीकृत धनराशि का उपयोग इस मद पर ही किया जा सकता है । इस प्रकार की बजटिंग का उद्देश्य विधायिका द्वारा कार्यपालिका को स्वीकृत धन की बर्बादी, आय-व्यय तथा दुरूपयोग को रोकना है । बजटिंग की यह प्रणाली सार्वजनिक व्ययों पर अधिकतम नियंत्रण का मार्ग प्रस्तुत करती है ।

वास्तव में मद-क्रम (Line-Items) बजटिंग प्रणाली का एकमात्र उद्देश्य धन की जवाबदेही अर्थात खर्चों की वैधानिकता तथा नियमितता को सुनिश्चित करना रहा है । उस प्रणाली को ‘वर्धनशील बजटिंग’ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें धन का आबंटन विद्यमान आधार की पहचान करने के बाद वर्धनशील (Incremental) आधार पर किया जाता है ।

2. निष्पादन बजट निर्माण (Performance Budgeting):

इस प्रणाली का जन्म संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ और पहले उसे क्रियाशील (Functional) या कार्यकलाप (Activity) बजटिंग कहा जाता था । ‘निष्पादन बजट’ शब्द को पहले हूवर आयोग (1949) ने गढ़ा था । इसने संयुक्त राज्य अमरीका में निष्पादन बजट अपनाने की सिफारिश की थी जिससे कि बजट निर्माण के प्रति कुशल प्रबंधन का दृष्टिकोण बनाया जा सके । तदनुसार राष्ट्रपति ट्रूमैन द्वारा इसको 1950 में लागू किया गया ।

मद-क्रम बजटिंग के विपरीत निष्पादन बजटिंग खर्चे के बजाए खर्च के उद्देश्य पर जोर देती है । यह बजट को कार्यकलापों, कार्यक्रमों, क्रियाशीलताओं और परियोजनाओं के अर्थों में प्रस्तुत करती है ।

यह प्रत्येक कार्यक्रम और गतिविधि के वास्तविक (निष्पादन या उत्पादन) और वित्तीय (निवेश) पक्षों के बीच संबंध स्थापित करती है । अत: यह बजट के क्रियाशील वर्गीकरण को आवश्यक कर देती है । भारत में निष्पादन बजट की सिफारिश सर्वप्रथम संसदीय आकलन समिति ने 1950 में की थी ।

भारत में बजट बनाने की इस प्रणाली की उपयुक्तता और व्यवहार्यता का अध्ययन करने के लिए सरकार ने अमरीकी विशेषज्ञ फ्रेंक डब्ल्यू. क्राउस को आमंत्रित किया । अंततया निष्पादन बजटिंग को प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश पर 1958 में लागू किया गया ।

उस आयोग के अनुसार निष्पादन बजट प्रणाली के लाभ/उद्देश्य निम्न हैं:

(i) विधायिका संसद से जिन उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के लिए धन की माँग करती है, उनको यह अधिक स्पष्टता से सामने लाती है ।

(ii) यह कार्यक्रमों और उपलब्धियों को वित्तीय और वास्तविक अर्थों में सामने लाती है ।

(iii) संसद इस बजट को बेहतर ढंग से समझ सकती है और उसकी बेहतर समीक्षा कर सकती है ।

(iv) इससे बजट निरूपण में सुधार आता है ।

(v) इससे सरकार के सभी स्तरों पर निर्णय निर्माण प्रक्रिया आसान हो जाती है ।

(vi) यह वित्तीय कार्यकलापों के प्रबंध नियंत्रण के अतिरिक्त उपकरण उपलब्ध कराता है ।

(vii) यह निष्पादन लेखा-परीक्षा को अधिक उद्देश्यपूर्ण और कारगर बनाता है ।

1968 में निष्पादन बजट को भारत सरकार के चार मंत्रालयों में शुरू किया गया था । बाद में 1977-78 में इसका विस्तार 32 विकासात्मक विभागों में कर दिया गया ।

3. कार्यक्रम बजट निर्माण:

निष्पादन बजटिंग की तरह ही कार्यक्रम बजटिंग अथवा, नियोजन कार्यक्रम बजटिंग पद्धति (PPBS) की उत्पत्ति भी संयुक्त राज्य अमरीका में हुई । इसका सूत्रपात 1965 में राष्ट्रपति जॉनसन ने किया । परंतु 1971 में उसे छोड़ दिया गया । बजटिंग की इस प्रणाली में नियोजन कार्यक्रम निर्माण और बजटिंग के कार्यों को एक कर दिया जाता है ।

के.एल.हांडा के शब्दों में- ”कार्यक्रम बजटिंग या पीपीबीएस बजटिंग के नियोजक पक्ष पर बल देते हैं जिसका उद्देश्य अनेक उपलब्ध कार्यक्रमों में से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करना तथा बजट में धन का आबंटन करते समय आर्थिक अर्थों में सर्वश्रेष्ठ को चुनना है… यह मानता है कि बजट प्रतिद्वंदी दावों के बीच आंबटन करने की प्रक्रिया है जो नियोजन के प्रासंगिक उपायों का प्रयोग करके चलाई जाती है ।”

4. शून्य आधारित बजट निर्माण (ZBB):

इसका भी जन्म और विकास अमरीका में हुआ । इसका निर्माण निजी उद्योग के एक प्रबंधक पीटर ए. पियर ने 1969 में किया । अमरीका में इसको राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 1978 में लागू किया । निष्पादन बजटिंग की तरह जेडबीबी भी बजटिंग की एक तर्कसंगत पद्धति है । इसके अंतर्गत बजट में सम्मिलित किए जाने से पहले प्रत्येक कार्यक्रम/योजना की आलोचनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए और शून्य से प्रारंभ कर संपूर्णतया दोबारा सही सिद्ध करना चाहिए ।

अत: शून्य आधारित बजटिंग में बजटिंग के वर्धनशील दृष्टिकोण का (जो हालिया खर्च के आकलन से शुरू होता है) अनुसरण करने के स्थान पर सभी योजनाओं की शुरू से (अर्थात शून्य से) पुन:परीक्षा करना शामिल है ।

के.एल.हांडा के शब्दों में-शून्य आधारित बजट प्रणाली की मूल विशिष्टता यह है कि अपना बजट तैयार करते समय विभागों को किसी चीज को पहले मानकर नहीं चलना चाहिए और इसलिए उनको कोरे कागज से शुरूआत करनी चाहिए । आगामी वर्ष के बजट निर्माण की प्रक्रिया शून्य से शुरू होनी चाहिए न कि मौजूदा बजट को आधार या प्रारंभिक बिंदु के रूप में मानकर ।

शून्य आधारित बजटिंग की व्याख्या करते हुए, सी.वी. श्रीनिवासन कहते हैं कि यह- ”एक क्रियाशील, नियोजन और बजटीय प्रक्रिया है जो प्रत्येक प्रबंधक से अपने बजट की पूरी मांग को शुरुआत से (इसलिए शब्द शून्य आधारित आता है) सही सिद्ध करने की अपेक्षा करती है और यह सिद्ध करने के साक्ष्य का बोझ प्रबंधक पर डालती है कि उसको धन खर्च ही क्यों करना चाहिए और काम बेहतर ढंग से कैसे किया जा सकता है ।”

शून्य आधारित बजट पद्धति के लाभ इस प्रकार हैं:

(i) यह निचली वरीयता के कार्यक्रमों को हटाती या न्यूनतम कर देती है ।

(ii) यह कार्यक्रम की प्रभावशीलता को एकाएक बढ़ा देती है ।

(iii) इसमें अधिक प्रभावी कार्यक्रमों को अधिक धन मिलता है ।

(iv) इससे कर वृद्धि में कमी आती है ।

(v) यह लागत प्रभाविता (Cost Effectiveness) और लागत लाभ (Cost Benefits) के अर्थों में योजनाओं की आलोचनात्मक समीक्षा को आसान बनाती है ।

(vi) इससे वर्ष के दौरान बजट समायोजन शीघ्र होता है ।

(vii) यह पर्याप्त संसाधनों का सुसंगत आबंटन करता है ।

(viii) बजट की तैयारी में यह संबद्ध कार्मिकों की भागीदारी बढ़ाती है ।

भारत में शून्य आधारित बजटिंग को सबसे पहले 1983 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग में और तत्पश्चात 1986-87 के वित्त वर्ष के दौरान सभी मंत्रालयों में लागू किया गया था ।

5. सूर्यास्त विधायन (Sunset Legislation):

यह अवांछित, पुराने, बेकार और अनुपयोगी कार्यक्रमों को समाप्त करने के लिए नीति समीक्षा की औपचारिक प्रक्रिया है । के.एल.हांडा के शब्दों में- ”यह कार्यक्रम के वैधानिक प्राधिकार की समाप्ति की व्यवस्था करके सेवानिवृत्त हो जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की अवधारणा को साकार करता है । इसके लिए सरकारी कार्यक्रमों पर विधायी अधिनियमों में दी गयी समय सीमा तय कर दी जाती है और ऐसी व्यवस्था की जाती है कि जब तक एक विस्तृत पुनरावलोकन के बाद विधायिका द्वारा उनको मजबूती से दोबारा जीवित न किया जाए, वे अपने आप समाप्त हो जाते हैं ।”

सूर्यास्त विधान के लाभ इस प्रकार हैं:

(i) यह सरकारी खर्चों में मितव्ययता को सुनिश्चित करता है ।

(ii) यह सरकारी गतिविधियों के अनावश्यक फैलाव को रोकता है ।

(iii) यह नए कार्यक्रमों के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराता है ।

(iv) अविराम आधार पर सीमित धन के आबंटन का मार्ग प्रशस्त करके यह प्रशासनिक सुसंगतता को सुनिश्चित करता है ।

(v) चल रहे कार्यक्रमों के मूल्यांकन की मुख्य जिम्मेदारी विधायिका पर डालकर यह उनको समाप्त करने के मामले में कार्यपालिका के प्रतिरोध पर काबू पाने में सहायक होता है ।


4. बजटिंग के सिद्धांत (Principles of Budgeting):

तर्कसंगत बजटिंग के सिद्धांत निम्नलिखित हैं:

i. बजट संतुलित हो:

इसका अर्थ है कि अनुमानित व्यय अनुमानित आय से अधिक नहीं होना चाहिए । या यूँ कहा जाए कि ‘संतुलित बजट’ वह बजट है जिसमें अनुमानित व्यय अनुमानित आय से मेल खाते हैं । अगर अनुमानित आय अनुमानित व्यय से अधिक है इसे ‘बचत का बजट’ कहते हैं और यदि अनुमानित आय अनुमानित व्यय से कम है तो इसे ‘घाटे का बजट’ कहा जाता है ।

ii. रोकड़ बजटिंग:

इसका अर्थ है कि व्यय और आय का अनुमान तैयार करने का आधार यह हो कि वित्त वर्ष के दौरान वास्तव में कितना व्यय और कितनी आय होने की आशा है । ‘रोकड़ बजटिंग’ के विपरीत होती है- ‘राजस्व बजटिंग’ । इसके अंतर्गत बजट अनुमान मांग और देयता के आधार पर तैयार किए जाते हैं ।

अर्थात वित्तीय वर्ष के बजट में एक वित्तीय वर्ष के व्यय और आय को उसका ख्याल रखे बिना जोड़ा जाता है कि उस वित्तीय वर्ष में वास्तव में खर्चे प्राप्त होंगे या नहीं । संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन और भारत में ‘रोकड़ बजटिंग’ प्रचलित है जबकि फ्रांस और यूरोप के कुछ अन्य देशों में ‘राजस्व बजटिंग’ ।

राजस्व बजटिंग की अपेक्षा रोकड़ बजटिंग में सार्वजनिक खातों का समापन जल्दी करना आसान होता है । देरी होने से वित्तीय वर्ष के लिए उनका महत्व काफी कम हो जाता है ।

iii. सभी वित्तीय लेन-देन के लिए एक बजट:

इसका अर्थ है कि सरकार को अपने सारे राजस्व और व्यय (सभी विभागों के) एक ही बजट में शामिल करने चाहिए । ‘एक बजट’ के विपरीत है ‘बहु बजट’ जिसमें अलग-अलग विभागों के अलग-अलग बजट तैयार किए जाते हैं । ‘एक बजट’ प्रणाली सरकार की संपूर्ण वित्तीय स्थिति अर्थात संपूर्ण बचत या घाटे को प्रकट करती है ।

संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन में ‘एक बजट’ प्रणाली प्रचलित है जबकि फ्रांस, स्विट्‌जरलैंड और जर्मनी में ‘बहु बजट’ । भारत में दो बजट होते हैं- आम बजट और रेलवे बजट ।

iv. बजटिंग सरल होनी चाहिए शुद्ध नहीं:

इसका अर्थ है कि बजट में सरकार की प्राप्तियों और व्ययों के तमाम लेन-देन को पूर्णत: और अलग-अलग प्रदर्शित होना चाहिए, केवल वह स्थितियाँ नहीं जो इनके परिणामस्वरूप पैदा होती हैं । प्राप्तियों को व्यय से घटाने या इससे उल्टा करने और बजट को शुद्ध प्राप्तियों या खर्चों के लिए तैयार करने की पद्धति बजटिंग का स्वस्थ सिद्धांत नहीं । कारण यह है कि अधूरे लेखा चलते इसके वित्त पर विधायिका का नियंत्रण कम हो जाता है ।

v. अनुमान ठोस होने चाहिएं:

इसका अर्थ यह है कि अनुमानों को यथासंभव सटीक होना चाहिए । कारण यह है कि अनुमान अधिक होने से कराधान अधिक होता है और अनुमान कम होने से बजट का क्रियान्वयन अप्रभावी होता है । ‘ठोस बजटिंग’ का अर्थ यह भी है कि खर्चों की खास मदों को स्पष्ट होना चाहिए और कोई एक मुश्त अनुदान की माँग नहीं होनी चाहिए ।

vi. कालातीत का नियम:

बजट वार्षिक आधार पर होना चाहिए अर्थात विधायिका द्वारा कार्यपालिका को धन एक वित्तीय वर्ष के लिए दिया जाना चाहिए । अगर स्वीकृत धन वित्तीय वर्ष के अंत तक खर्च नहीं होता तब शेष धनराशि को समाप्त हो जाना चाहिए और इसे कोषागार को लौटा देना चाहिए ।

इस परिपाटी को ‘कालातीत का नियम’ (Rule of Lapse) कहते हैं । भारत और इंग्लैंड में वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च तक का होता है जबकि संयुक्त राज्य अमरीका में 1 जुलाई से 30 जून तक और फ्रांस में 1 जनवरी से 31 दिसंबर तक ।

कालातीत के नियम से विधायिका के वित्तीय नियंत्रण का रास्ता आसान हो जाता है क्योंकि आरक्षित कोष का निर्माण इसकी अनुमति के बिना नहीं किया जा सकता है । परंतु इस नियम के पालन से वित्तीय वर्ष के अंत की ओर खर्चों की भारी भीड़ लग जाती है । भारत में इसे आमतौर पर ‘मार्च की हड़बड़’ कहते हैं ।

vii. राजस्व और पूँजी भाग अलग-अलग हों:

इसका अर्थ है कि सरकार के चालू वित्तीय लेन देन पूँजीगत लेन-देन से अलग होने चाहिएँ और दोनों को बजट के अलग-अलग हिस्सों में राजस्व बजट और पूँजीगत बजट प्रदर्शित किया जाना चाहिए । इससे प्रचालन व्यय को निवेश व्यय से पृथक करना आवश्यक हो जाता है । वित्तीय मामले में राजस्व बजट को चालू राजस्व से और पूँजीगत बजट को बचतों तथा उधारियों से काट दिया जाता है ।

viii. अनुमानों के रूप लेखा के रूप के अनुरूप हों:

इसका अर्थ है कि बजट संबंधी अनुमानों के रूप लेखा के रूपों के अनुरूप होने चाहिए जिससे कि वित्तीय नियंत्रण को कारगर किया जा सके । उदाहरण के लिए, भारत में बजट संबंधी शीर्ष और लेखा शीर्ष अर्थात प्रमुख शीर्ष, गौण शीर्ष, उपशीर्ष और विवरण शीर्ष समान होते हैं ।


5. बजट का महत्व (Significance of Budget):

सरकारी प्रशासन के लिए वित्तीय प्रशासन के महत्व पर प्रचलित वक्तव्य निम्न हैं:

कौटिल्य- ”सारे काम वित्त पर निर्भर हैं । अत: सर्वाधिक ध्यान कोषागार पर देना चाहिए ।”

हूवर आयोग- ”वित्तीय प्रशासन ‘आधुनिक सरकार का मर्म’ है ।”

विलोबी- ”बजट ‘प्रशासन का अभिन्न और अनिवार्य औजार’ है ।”

डिमॉक- ”वित्तीय प्रशासन के सभी पक्षों में से बजट निर्माण सबसे ज्यादा नीति संबंधी प्रश्न उठाता है ।”

लॉयड जॉर्ज- ”सरकार वित्त है ।”

मॉरस्टेन मार्क्स- ”प्रशासन में वित्त वातावरण में ऑक्सीजन की तरह ही सर्वव्यापी है ।”


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