घाटा वित्तपोषण: अवधारणा और भूमिका | Read this article in Hindi to learn about:- 1. घाटे का वित्त प्रबंध – अर्थ (Meaning of Deficit Financing) 2. घाटे का वित्त प्रबंध – अवधारणाएं (Concepts of Deficit Financing) 3. भूमिका (Role) 4. सुरक्षित सीमा (Safe Limit).

घाटे का वित्त प्रबंध – अर्थ (Meaning of Deficit Financing):

आधुनिक राज्यों में आर्थिक विकास का वित्त पोषण करने के लिए कोष जुटाने के विभिन्न स्रोत इस प्रकार हैं:

(i) कराधान,

(ii) जनता से उधारी,

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(iii) सरकारी बचतें,

(iv) सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का अधिशेष,

(v) घाटे का वित्त प्रबंध और

(vi) विदेशी सहायता ।

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कराधान और सार्वजनिक उधारी आदि से सरकार जब पर्याप्त संसाधन नहीं जुटा पाती है, तब अपने विकास संबंधी खर्चों की पूर्ति के लिए यह घाटे के वित्त प्रबंध का सहारा लेती है ।

सामान्यतया घाटे का वित्त प्रबंध उस सार्वजनिक खर्च को इंगित करता है जो चालू सार्वजनिक राजस्व से अधिक होता है । पश्चिमी देशों और अमरीका में ‘घाटे का वित्त प्रबंध’ शब्द का प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में किया जाता है जबकि भारत में संकीर्ण अर्थ में ।

पश्चिमी देशों और अमरीका में सरकारी खर्च के लिए धन सार्वजनिक उधारों से; अर्थात जनता व्यावसायिक बैंकों और केंद्रीय बैंक से जुटाया जाता है और इसको घाटे के वित्त प्रबंध में शामिल किया जाता है । दूसरी ओर भारत में खर्चे का वित्त पोषण जनता से उधार लेकर किया जाता है और व्यावसायिक बैंकों को घाटे के वित्त प्रबंध से बाहर रखा जाता हैं । इसको बाजार की उधारी कहते हैं ।

योजना आयोग के अनुसार भारत के घाटे के वित्त प्रबंध में निम्न चीजें आती हैं:

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(i) पिछली शेष संचित रोकड़ को सरकार द्वारा निकाला जाना,

(ii) केंद्रीय बैंक अर्थात भारतीय रिजर्व बैंक से ऋण; और

(iii) नई मुद्रा जारी करना ।

मिश्रा और पुरी कहते हैं- सरकार जब ऋण रिजर्व बैंक से लेती है तो यह बैंक को अपनी प्रतिभूतियों का हस्तांतरण मात्र करती है । इन प्रतिभूतियों के आधार पर बैंक सरकार की ओर से नए नोट जारी करती है तथा उनको परिचालन में लाती है और इसके फलस्वरूप मुद्रा पैदा होती है । संक्षेप में, भारतीय संदर्भ में घाटे के वित्त प्रबंध का कुछ परिणाम यह होता है कि बजट के घाटे की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा जारी नई मुद्रा से मुद्रा आपूर्ति बढ़ जाती है ।

घाटे का वित्त प्रबंध – अवधारणाएं (Concepts of Deficit Financing):

भारत सरकार घाटे की वित्त प्रबंध संबंधी निम्न पाँच अवधारणाओं को मान्यता देती है:

1. राजस्व घाटा:

जब सरकार का राजस्व व्यय उसकी राजस्व प्राप्तियों से अधिक हो जाता है तो उसे राजस्व घाटा कहते हैं । सरकार के राजस्व व्यय में उन मदों पर खर्च हुए वे संसाधन आते हैं जो परिसंपत्तियों का निर्माण नहीं करते; जैसे कि नागरिक प्रशासन, प्रतिरक्षा, कानून-व्यवस्था, न्याय, ब्याज भुगतान तथा अनुदानों इत्यादि पर हुए खर्चे । सरकार की राजस्व प्राप्तियों में कर-राजस्व तथा गैर-कर राजस्व आते हैं ।

2. बजट घाटा:

जब सरकार का कुल खर्च उसकी कुल प्राप्तियों से अधिक होता है तो इसे बजट घाटा कहते हैं । सरकार के बजट घाटे में राजस्व व्यय तथा पूँजीगत व्यय, दोनों शामिल होते हैं । इसी प्रकार सरकार की कुल प्राप्तियों में राजस्व प्राप्तियों तथा पूँजीगत प्राप्तियाँ दोनों आती हैं ।

3. वित्तीय घाटा:

1950 से सरकार ने घाटे की उपरोक्त दो अवधारणाओं को मान्यता दी है । 1986 में एक तीसरी अवधारणा को मान्यता मिली । इसे वित्तीय घाटा कहा गया । इसकी सिफारिश सुखमोय चक्रवर्ती कमेटी (1982-85) ने की थी ।

इस कमेटी का गठन भारत में मुद्रा प्रणाली की कार्यपद्धति की समीक्षा करने के लिए किया गया था । वित्तीय घाटा, बजट घाटे और सरकार की बाजार में उधारी तथा अन्य देयताओं के कुल जोड़ को बताता है । यह सरकार के द्वारा आंतरिक एवं बाह्य दोनों स्रोतों से उधार लेने की कुल आवश्यकताओं को मापता है ।

4. प्राथमिक घाटा:

यह उस वित्तीय घाटे को इंगित करता है जिसमें से सरकार द्वारा अदा किए गए ब्याज को घटा दिया जाता है । इसको ब्याज-रहित घाटा भी कहते हैं । इस धारणा को हाल ही में लागू किया गया था ।

5. मुद्रीकृत घाटा (Monetised Deficit):

बजट घाटे की पूर्ति दो प्रकार से की जा सकती है; अर्थात जनता से कर्ज लेकर अथवा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से कर्ज लेकर । जब इसकी पूर्ति या वित्त पोषण रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से किया जाता है तब इसे मुद्रीकृत घाटा कहते हैं । दूसरे शब्दों में, इससे सरकार पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के शुद्ध ऋण में बढ़ोतरी होती है ।

घाटे का वित्त प्रबंध – भूमिका (Role of Deficit Financing):

आधुनिक राज्यों ने घाटे के वित्त प्रबंध का सहारा तीन विभिन्न परिस्थितियों में लिया है:

1. मंदी:

यूरोप के विकसित देशों और अमरीका ने घाटे के वित्त प्रबंध का सहारा उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक की महामंदी के दौरान आम बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिए लिया था । पूँजीवादी देशों में बार-बार आने वाली मंदी से लड़ने और आम बेरोजगारी को समाप्त करने के लिए घाटे के वित्त प्रबंध का सुझाव जे.एम.कींस ने दिया था ।

उनका विचार था कि विकसित देश में बेरोजगारी का मुख्य कारण प्रभावी माँग (वस्तुओं की) का अभाव होना है और यह उपयोग की प्रवृत्ति पर निर्भर होता है । इस समस्या पर काबू पाने के लिए कींस के अनुसार सरकार को लोगों से ‘कुएँ खोदने और कुएँ भरने’ को कहना चाहिए ।

इससे लोगों की क्रय शक्ति बढ़ती है और परिणामस्वरूप चीजों की माँग में बढ़ोतरी होती है । आगे चलकर इससे रोजगार की स्थिति बेहतर होती है । फिर चीजों की माँग और बढ़ती है और इसलिए रोजगार बढ़ते है और यह चक्र चलता रहता है । कींस ने इसे ‘प्रवर्धक प्रभाव’ (Multiplier Effect) कहा था । इस उपाय से अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सकता है और उसे मंदी की दलदल से निकाला जा सकता है ।

2. आर्थिक विकास:

भारत जैसे विकासशील देशों न आर्थिक विकास हेतु धन जुटाने के लिए घाटे के वित्त प्रबंध का सहारा लिया है । उसका कारण यह है कि विकास प्रक्रिया को तेज करने के लिए सार्वजनिक निवेश का वित्तपोषण करने के पर्याप्त संसाधन उन देशों के पास नहीं हैं । घाटे के वित्त प्रबंध से आर्थिक विकास के लिए तेजी से पूंजी निर्माण में मदद मिलती है । यह अर्थव्यवस्था की रुकावटों और संरचनात्मक अनम्यताओं को तोड़ता है और इस प्रकार उत्पादकता में वृद्धि करता है ।

इसलिए अर्थव्यवस्था में निवेश, रोजगार और उत्पादन के लिए वित्त पोषण कर यह आर्थिक विकास में तेजी लाता है; परंतु अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव चीजों और सेवाओं की कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में प्रकट होता है । इसका कारण यह है कि घाटे का वित्त प्रबंध अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति को तो बढ़ा देता है परंतु चीजों और सेवाओं की आपूर्ति में तदनुसार वृद्धि नहीं होती है ।

घाटे के वित्त प्रबंध की प्रकृति के कारण लोगों के निवेश का प्रतिरूप बदल जाता है जिसके परिणामस्वरूप लोग मजबूरन बचत करने लगते हैं । इससे भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, आर्थिक असमानताएँ बढ़ती हैं, बैंकों द्वारा ज्यादा ऋण दिए जाने लगते हैं ।

3. युद्ध:

आधुनिक राज्यों ने घाटे के वित्त प्रबंध का सहारा युद्धों के लिया है । सरकार द्वारा करों और उधारियों से जुटाए गए संसाधन युद्ध की लागत को पूरा नहीं करते हैं । अत: अधिक नोट छापकर नई मुद्रा पैदा करने के अलावा सरकारों के पास और कोई रास्ता नहीं बचता है ।

इस युद्ध घाटे के वित्त प्रबंध से बाजार में भारी मात्रा में मुद्रा आ जाती हैं जिससे लोगों की आय मुद्रा में बढ़ जाती और चीजों की माँग भी । इसके फलस्वरूप चूँकि चीजों की आपूर्ति में तदनुसार बढ़ोतरी नहीं होती, अत: मुद्रास्फीति बढ़ जाती है ।

घाटे का वित्त प्रबंध – सुरक्षित सीमा (Safe Limit of Deficit Financing):

घाटे का वित्त प्रबंधन एक अपरिहार्य बुराई है । एक ओर तो यह आर्थिक विकास के लिए जरूरी है तो दूसरी ओर अपनी प्रकृति से ही यह मुद्रास्फीति बढ़ाने वाला है । अत: इसको सुरक्षित सीमा के भीतर रखना आवश्यक है ताकि इससे पूँजी निर्माण तो हो परंतु कीमतों में बहुत अधिक बढ़ोतरी न हो ।

घाटे के वित्त प्रबंध की सुरक्षित सीमा का निर्धारण करने वाले विभिन्न कारक (अथवा घाटे के वित्त को सुरक्षित सीमा में रखने के विभिन्न उपाय) निम्न हैं:

1. ऊँचे कराधान और ऋणों में बढ़ोत्तरी करके अतिरिक्त धन को जमा करने के कारगर प्रयास करने चाहिए ।

2. अर्थव्यवस्था में प्रविष्ठ किए जाने वाले धन की मात्रा अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर की सीमा के भीतर होनी चाहिए ।

3. नव सृजित मुद्रा का प्रयोग सिंचाई, औद्योगिक विकास आदि जैसे उत्पादक उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए ।

4. घाटे के वित्त प्रबंध के द्वारा प्रवाहित धन का प्रयोग उन परियोजनाओं को बढ़ावा देने के लिए किया जाना चाहिए जिनके परिणाम जल्दी प्राप्त होते हैं । इससे चीजों की आपूर्ति में वृद्धि शीघ्रता से हो सकेगी और महँगाई रुकेगी ।

5. अर्थव्यवस्था के गैर-मुद्रीकत क्षेत्र (विनिमय क्षेत्र) को मुद्रीकृत क्षेत्र में लाने के प्रयास करने चाहिए ।

6. राशनिंग के माध्यम से चीजों की कीमतों को कारगर ढंग से नियंत्रित और चीजों को वितरित करना चाहिए ।

7. पूँजीगत उपकरणों, औद्योगिक कच्चे मालों और खाद्यान्न के आयात को बढ़ावा देना चाहिए और ऐशो-आराम तथा इससे जुड़ी चीजों के आयात को हतोत्साहित करना चाहिए ।

8. लोगों में बलिदान की भावना होनी चाहिए । उनको उन नीतियों को लागू करने में सहयोग देना चाहिए जिनका उद्देश्य पूँजी निर्माण हेतु घाटे के वित्त प्रबंध के कीमतों पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करना है ।

9. सरकार को निजी क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक प्रोत्साहन देने चाहिए ।

10. बैंकों द्वारा साख निर्माण में वृद्धि को नियमित करने के लिए साख निर्माण नीतियों को घाटे के वित्त प्रबंध के साथ एकीकृत किया जाना चाहिए ।

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