लकड़ी के कान मशरूम कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate wood ear mushroom.
आरिकुलेरिया का प्राथमिक रिकार्ड लगभग 600 वर्ष ईसा पूर्व चीन में माना जाता है । उत्पादन की दृष्टि से आरिकुलेरिया खुंभी का विश्व में चौथा स्थान है । विश्व में इसका वार्षिक उत्पादन 420 हजार मीट्रिक टन है । यह खुंभी ब्लेक इयर खुंभी या काला कान खुंभी के नाम से जानी जाती है ।
यह अन्य प्रकार की खुंभीयों से भिन्न होती है । इसमें श्वेत बटन खुंभी की भांति गिल व तना नहीं पाये जाते । इसका आकार कान के समान होता है और खाने में गूदेदार एवं चिमडा होता है । आरिकुलेरिया की सभी प्रजातियां खाद्य योग्य हैं ।
यह गले का रोग, एनिमिया, बवासीर आदि रोगों के इलाज में दवाई के रूप में उपयोग में लायी जाती हैं । वर्तमान में इसकी खेती दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों, जहाँ की जलवायु गर्म एवं आर्द्र है जैसे चीन, ताइवान, दक्षिणी कोरिया, जापान, थाइलैण्ड, फिलीपीन्स आदि में की जाती है ।
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इन देशों में इसकी खेती एक प्रमुख धंधे के रूप में उभर कर आई है । इन देशों में इस खुंभी की खेती लकड़ी के लदते पर की जाती है । थाइलैण्ड इस खुंभी का सबसे बडा निर्यातक देश है जहाँ घरेलू जरूरत के अलावा इसके प्रतिशत शुष्क उत्पादन का निर्यात विशेषकर हांगकांग, जापान और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में किया जाता है ।
भारत में इस खुंभी को उत्तर पूर्वी पहाडी क्षेत्रों में जंगली से एकत्रित करके खाया जाता रहा है । कलकत्ता में यह सूखी खुंभी वर्ष भर उपलब्ध रहती है जिसका मूल्य 200 से 300 रू. प्रति किलो होता है । भारत में पहली बार मंडल एवं मेहता ने 1984 में इसकी सफल खेती की ।
माध्यम बनाना:
i. लट्ठा उत्पादन तकनीक:
जहाँ पर आसानी से काफी संख्या में वृक्ष उपलब्ध नहीं हो वहाँ प्राकृतिक लट्ठों पर आाश्कुलो३या का उत्पादन हो सकता है । चीड को छोड़कर वृक्ष की सभी प्रजातियों को उपयोग किया जा सकता है । यद्यपि फेगेसी अथवा ओक कुल के सदस्यों को अधिकतर पसंद किया जाता है ।
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प्राय: 6 से 10 वर्ष की आयु के वृक्ष उत्पादन के लिए उपयुक्त होते है । फिलीपीन्स में इपिल-इपिल अथवा ल्युसिना ग्लाउका की शाखायें तथा तने उत्पादन के लिए विशेष उपयुक्त माने जाते हैं. क्योंकि इस उपयोगी वृक्ष की वृद्धि तुरत होने से निरंतर उपलब्धता बनी रहती है ।
इसकी खेती के लिए लगभग एक मीटर लंबी व 3 से.मी मोटी शाखाओं को लिया जाता है । लट्ठों को पतझड़ में संग्रहित किया जाता है । इस समय पत्तियाँ सूखकर गिरने लगती है व लट्ठों में शर्करा एकत्रित हो जाती है । कटे हुए लट्ठों में कम से कम 50-80 प्रतिशत आर्द्रता होनी चाहिये अन्यथा निवेशित स्पान की वृद्धि रूक जायेगी ।
स्पान के निवेशन में पहले लट्ठों में विद्युत चलित बरमें की सहायता से 1×1 से.मी. के 1.5 से 2 से.मी. गहरे छिद्र करते हैं । छेदों के बीच की दूरी 10-14 से. मी. होनी चाहिये तथा कतारों के बीच दूरी 6 से.मी. होना चाहिये । दो कतारों के छेद एकांतर होने चाहिये । इन छिद्रों में स्पान को भर दिया जाता है । इन छिद्रों को छाल से ढककर पिघले मोम से सील कर दिया जाता है ।
इन लकड़ीनुमा व स्पानयुक्त शाखाओं को 2 माह तक ठंडी छायादार जगहों में क्रास के क्रम में व्यवस्थित करके अथवा ऊपर की दिशा में गलियारों में खडा करके प्लास्टिक के टुकड़ों से ढक देते हैं ।
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लट्ठों को ऊपर से नीचे करके महीने में एक बार उनका स्थान परिवर्तन किया जाता है जिससे कि कवकजाल समान रूप से वृद्धि कर सके । आवश्यकता होने पर इन्हें जल से भी सींचते हैं । लट्ठों में कवकजाल की वृद्धि के लिए अनुकूलतम तापक्रम 20-28 डिग्री से.ग्रे. होता है ।
ii. थैली उत्पादन तकनीक:
लकड़ी की कमी व अधिक समय लगने के कारण आरिकुलेरिया को उगाने की प्लास्टिक थैली की तकनीक का विकास 1970 के प्रारंभ में ताइवान में हुआ था । इस विधि में फलनकायों की उत्पत्ति के लिये लकड़ी का बुरादा, धान का पैरा, भूसा, मक्का की कडवी (सूखे तने), मक्का के भुट्टे आदि भी उपयोग में लाये जा सकते है ।
इस विधि में फफूँद रहित व बरसात के पानी से मुक्त धान या गेहूँ के भूसे को 16-18 घंटे तक पानी में भिगोने के बाद ढालू जमीन पर पानी निथारने के लिये रख देते है । इसके पश्चात् इस गीले भूसे में 4-5 प्रतिशत गेहूँ या चावल का चोकर (गीले भूसे के वजन के अनुसार) मिलाते है ।
अब दो-किलोग्राम भूसा पॉलीप्रीपेलिन की थैलियों में भरकर थैली का मुँह पतली रस्सी से बाँध देते है । भरे हुये थैली को भापकक्ष में स्थित भाप पात्र के द्वारा अथवा आटोक्लेव में रखकर रोगाणुरहित करके 2 प्रतिशत (गीले भूसे के वजन के अनुसार) स्पान से निवेशित करते हैं ।
स्पान बनाना:
मुख्यतः स्पान के दो प्रकार उपयोग में लाये जाते है:
(अ) दाना व
(आ) बुरादा स्पान
(अ) दाना स्पान:
दाना स्पान बनाने के लिए ज्वार या गेहूँ के दानों से मदर स्पान विधि द्वारा बनाते हैं ।
(आ) बुरादा स्पान:
इस स्पान को बनाने के लिए निम्नलिखित फार्मूला उपयोग में लाते हैं:
i. लकड़ी का बुरादा 65 प्रतिशत, गेहूँ की चोकर 15 प्रतिशत, पुरानी चाय पत्ती 20 प्रतिशत, पानी 65 प्रतिशत ।
ii. लकड़ी का बुरादा 65 प्रतिशत, सुकरोज 1 प्रतिशत, गेहूँ का चोकर 20 प्रतिशत, कैल्शियम कार्बोनेट 1 प्रतिशत, पानी 65 प्रतिशत ।
iii. लकड़ी का बुरादा 880 ग्राम, चावल की भूसी 320 ग्राम, सुकरोज 30 ग्राम, पौटेशियम नाइट्रेट 4 ग्राम, कैल्शियम कार्बोनेट 6 ग्राम और पानी 2 लीटर ।
सभी पदार्थों को छानकर पानी मिलाते हैं । इस क्रियाधार मिश्रण को खाली स्पान की बोतलों या पीली प्रोपीलिन की थैलियों में दो तिहाई तक मरते हैं । बोतल/थैली का मुँह पानी न सीखने वाली रूई का ढक्कन बनाकर बद कर देते हैं ।
इसे अनुपयोगी पेपर या टिन फॉयल से ढक देते हैं । अब इन थैलियों को 22 पौंड प्रति वर्ग इंच दाब पर ऑटोक्लेव में 2 घण्टे तक रखते हैं । ठंडा होने पर इसे 10-20 दिन पुराने कल्चर से निवेशित करके 24 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर 30 दिन रखते है ।
फसल उत्पादन:
i. लट्ठा उत्पादन विधि:
लगभग दो माह बाद लड़ते फसल के लिये तैयार हो जाते हैं । इनको फसल के लिये उपयुक्त गलियारे जैसे जंगल का खुला क्षेत्र, पौध-गृह अथवा छायादार जगह पर बेंच के सहारे सीधा खडा करके एक जगह रखते है । खुंभी के प्रारूप के अनुसार उपज के लिये अनुकूल तापक्रम की सीमा 15 से 25 डिग्री से.ग्रे. होती है । चयनित स्थल का तापक्रम एवं आर्द्रता दोनों ही अनुकूल होने चाहिये तथा लट्ठों पर समय-समय पर पानी का छिडकाव करना चाहिये ।
फसल के अनुरूप वातावरण प्रदान करने के 30 दिन बाद खुंभी की तुड़ाई कर सकते हैं । लट्ठों को नियमित रूप से सिंचित करने से मौसम के बदलने तक अथवा तापक्रम कम होने की दशा में भी फलनकायों का विकास होता रहता है ।
शीतकाल में फलनकाय का निर्माण बद हो जाता है इसलिए शीत से बचाने के लिए लद्दड़ों को ढक देना चाहिये । अगले बसंत में लट्ठों को जल से सिंचित करके उन्हें फिर से फसल के लिए तैयार कर लेते हैं ।
उष्णकटिबंध में जहाँ वातावरण लगभग स्थायी रहता है लट्ठों को निरंतर गीला रखकर निरतर खुंभी पैदा कर सकते हैं । कुछ समय के लिए विश्रामकाल देकर लड़ती को 1 से 2 माह तक सूखने के लिए छोड देते हैं । इसके बाद फिर फलनकाय उत्पन्न करने के लिए लट्ठों को पहले रातभर पानी में भिगोते हैं ।
एक शाखा, जो 12-16 से.मी. मोटी व 1 मीटर लंबी होती है, से लगभग 3-5किलो खुंभी 5-6 महिने में प्राप्त की जा सकती है । यदि लट्ठों को सही जगह रखा जाये तो इन लट्ठों से 10-12 साल तक उपज प्राप्त की जा सकती है ।
ii. थैली उत्पादक तकनीक:
थैली विधि में स्पान की बढकर के लिए 22-28 डिग्री. से.ग्रे. तापक्रम व 80-100 प्रतिशत आर्द्रता उत्पादन कक्ष में होना चाहिये । थैली में गेहूँ के भूसे पर आरिकुलेरिया खुंभी की बढ़वार 20-25 दिनों में पूरी हो जाती है इसके बाद इन थैली में पतली पतली पट्टियों काटकर इन्हें कमरे में लटका दिया जाता है या लकड़ी या बीस के बने बहुस्तरीय रेकों (टाँड) पर 5-7 से.मी. की दूरी पर रख देते हैं ।
दस से बारह दिनों के बाद थैली में छोटी-छोटी खुंभी कलिकायें दिखायी देने लगती है । जो कि 4-5 दिन बाद परिपक्व हो जाती हैं । कवकजाल के फैलाव के बाद से प्रतिदिन शैलों पर पानी का छिडकाव करना चाहिये तथा प्रतिदिन 2-3 घटे के लिए अच्छा प्रकाश व वायु संचार प्रदान करना चाहिये ।
इस समय उपयुक्त तापमान व आपेक्षित आर्द्रता बनाये रखनी चाहिये । इस खुंभी का उत्पादन प्रति किलो गेहूँ भूसे से 870 से 1350 ग्राम प्राप्त किया जा सकता है ।
तुड़ाई:
ये खुंभी जब छोटी होती है तब इनका आकार कपनुमा व किनारे मोटे होते है । यह आकार ही इस खुंभी को तोडने का उपयुक्त समय होता है । लकडी के गड़ते से उत्पन्न खुंभी लंबी रोमयुक्त, ज्यादा कडी, कम आर्कष्ण रंग वाली व थैली विधि की तुलना में अधिक समय तक उपज देने वाली होती हैं ।
थैली उत्पादन विधि में प्राकृतिक लट्ठों की अपेक्षा तुड़ाई-काल बहुत कम हो जाता हैं । इसमें प्रायः 3 से 4 बार खुंभीयों को चुना जाता है । फलनकाय धूप में अथवा कृत्रिम ताप प्रणाली से सरलतापूर्वक शुष्क हो जाते हैं । ताजी खुंभीयों की तुलना में शुष्क खुंभीयों का भार 88-90 प्रतिशत कम हो जाता है ।
प्रबंधन:
माध्यम के सही प्रकार से ऑटोक्लेविंग न करने के कारण चावल या गेहूँ के चोकर के द्वारा विभिन्न प्रकार की प्रत्याशी कवक का आक्रमण हो सकता है । अतः सही हाईजेनिक अवस्था जरूरी है ।
कार्बन डाई ऑक्साइड की अधिकता के कारण डंठल व छोटी टोपी वाले विकृत फलनकाय बनने लगते हैं । प्रकाश की अनुपस्थिति में विकृत व अविकसित फलनकाय बनते हैं ।